मंगलवार, 31 मार्च 2009

जब सांझ की बेला होती है...

31 मार्च 09
जब सांझ की बेला होती है
में इस पीपल के साए में
तालाब के तट पर आता हूं
हम दोनों जहां पे मिलते थे
दो पल के लिए दो क्षण के लिए
फिर मिल के बिछड़ जाते थे हम
इस बार मगर यूं बिछड़े हैं
जैसे न कभी मिल पाए हों
इस बार जो तट पर आया हूं
दो पल के मिलन की याद लिए
दो गीत बनाए जाता हूं
दो ख्वाब सजाए जाता हूं
जब सांझ की बेला होती है...

जब सर्द हवाएं चलती हैं
आंखों में मिलन के दो साए
हर वक्त मचलते रहते हैं
मजबूर हूं मैं मजबूर हो तुम
पर इतना तुम्हें मालूम तो हो
तुम आओ न आओ ए हमदम
मैं राह तुम्हारी तकता हूं
जब सांझ की बेला होती है...

जब गम का अंधेरा बढ़ता है
इक हूक जिगर में उठती है
में सोच से दामन भरता हूं
क्या मैं भी तुम्हारे ख्वाबों के
अफलाक पे मंडलाता हूंगा
गुमराह किसी बादल की तरह
जैसे कि मुझे तुम हर लम्हा
हर वक्त सताती रहती हो
हर वक्त मुझे याद आती हो
ऐ काश अगर फिर आ जाओ
उम्मीद का एक मुफलिस दीपक
हसरत से जलाया करता हूं
जब सांझ की बेला होती है...

तुम छोड़ के क्यूं उस पार गई
बेदर्द तुम्हे एहसास नहीं
ये कैसी मोहब्बत है कि मेरा
हर जख्मे जिगर रिसता ही रहे
ये कैसा ताल्लुकात है कि इधर
भूले से भी तुम अब आ ना सको
पर आज भी मुझको आशा है
इक रोज यकीनन आओगी
यह सोच के ही धीरे धीरे
मैं इस पीपल के साए में
तालाब के तट पर आता हूं
जब सांझ की बेला होती है...

तुम मिली और बिछड़ गई मिलकर....

31 मार्च 09
तुम मिली थी तो मैनें सोचा था,
मैं बहारों के गीत गाऊंगा
दिल शिकस्ता सही मगर फिर भी
आंसुओं की हंसी उड़ाउंगा...
तुम मिली थी तो मैनें सोचा था
मैं फिजाओं में रंग भर दूंगा
अपने चेहरे पर बिखरी फिक्रों को
मुस्कुराहट में दफ्न कर दूंगा...
तुम मिली थी तो मैनें सोचा था
जीवन गाएगा मुस्कुराएगा
अब ना गुजरेंगे काफिले गम के
हर घड़ी ऐश बन के आएगी
आज जब तुम बिछड़ गई हो तो फिर
मैनें सोचा है, में जमाने को
प्यार बाटूंगा, गीत गाऊंगा
तुम मिली और बिछड़ गई मिलकर
ये किसी को नहीं बताऊंगा....

सोमवार, 30 मार्च 2009

मैं भी जीवित हूं....

30 मार्च 09
मैं आया था तुम्हारे घर,
तुम तो कहती थी...
मेरे द्वार खुले हैं,
हर पल तुम्हारे लिए...
पर वहां एक ताला था,
मैं सीढ़ियों पर बैठा...
कर रहा था...तुम्हारा इंतजार,
एक घण्टा...दो घण्टा...विवश...
अंतत: मैनें खिड़की से झांका,
नजर आया...
एक सूखा गुलाब का फूल,
एक खुली किताब...
मोर पंख,
फिर एक हवा का झोंका आया
कुछ पन्ने फड़फड़ाए...
एक पन्ना उड़ चला,
कुछ पुराना सा,
पीला-पीला सा पन्ना...
मैनें सिर्फ अपना नाम पढ़ा,
मुस्कुराया...
ताले पर नजर डाली,
और गुनगुनाते लौट चला,
तुमसे मिला अच्छा लगा,
अब मैं भी जीवित हूं यह जाना...

रविवार, 29 मार्च 2009

वे जो करते हैं प्यार...


29 मार्च 09
प्यार पर सदियों से पहरा रहा है...हर रिश्ते का आधार होने के बावजूद जमाना इसका दुश्मन ही बना रहता है...इस रिश्ते में सिवाए दर्द के कुछ हाथ नहीं आता...मुश्किलें ही इस रिश्ते का साथी होती हैं...बावजूद इसके लोग प्यार करते हैं...प्यार बांटते हैं...

वे जो करते हैं प्यार
चिन दिए जाते हैं दीवारों में
सूली पर चढ़ाए जाते हैं
जहर पीते हैं
ढोते हैं अपने सलीब
आग में जलाए जाते हैं
फिर भी लोग करते हैं प्यार
देखते हैं सपने
बोते हैं फूलों के बीज
दुनिया को
और सुन्दर बनाने की कोशिश
करते हैं बार बार
वे जो करते हैं प्यार

शुक्रवार, 27 मार्च 2009

अलविदा-ए-दोस्त...

27 मार्च 09

अलविदा ए दोस्त जाने फिर कहां हो सामना
जा रहे हो तुम न जाने कौन बस्ती किस शहर
दरमियां बस एक पटरी चन्द डिब्बे हैं तो क्या
दूरियां हजारों मील की इनमें आईं आज उभर
पोंछ डालो आंख का पानी न देखो फिर से घूमकर
याद की खामोशियां होंगी हमारा हमसफर

गुरुवार, 26 मार्च 2009

जंग 80 और 40 की...


26 मार्च 09
कांग्रेस के नेतृत्व में चल रही केन्द्र की यूपीए सरकार में पड़ी दरार ने अब खाई का रूप ले लिया है। बिहार में आरजेडी और एलजेपी के साथ सीटों का झगड़ा इस कदर बढ़ा कि यूपीए के भीतर ही एक नए मोर्चे ने जन्म ले लिया। बिहार में कांग्रेस के खिलाफ झण्डा बुलंद कर जब लालू ने एलजेपी के मुखिया रामबिलास पासवान को गले लगाया और कांग्रेस के लिए केवल तीन सीटें छोड़ने का ऐलान किया तो कांग्रेस ने पलटवार करते हुए बिहार की सभी सीटों पर चुनाव लड़ने की घोषणा कर इन महारथियों को तिलमिलाने के लिए मजबूर कर दिया। उन्होंने कांग्रेस को सबक सिखाने की ठान ली और एक ऐसे साथी की तलाश में लग गए जो इस काम में उनका साथ दे सके। उनकी तलाश समाजवादी पार्टी के मुखिया मुलायम सिंह यादव पर जाकर खत्म हुई। केन्द्र की सत्ता के लिए दशा और दिशा तय करने वाले उत्तर प्रदेश में कांग्रेस के साथ उनकी खटपट को लालू और पासवान ने हथियार के रूप में इस्तेमाल करने की ठान ली। उन्होंने केन्द्र में बाहर से कांग्रेस का सहयोग कर रहे मुलायम के साथ चुनावी समझौता कर यूपीए के भीतर ही एक नए मोर्चे का गठन कर डाला। बिहार में लालू और पासवान के लिए मुलायम चुनाव प्रचार करेंगे तो यूपी में लालू और पासवान मुलायम के महारथियों को सहयोग करेंगे। यूपी की 80 और बिहार की 40 सीटें यानि कुल मिलाकर 120 सीटें ही केन्द्र के सिंहासन के लिए राजा तय करेंगी। देखा जाए तो इन 120 सीटों पर कांग्रेस के पास खोने के लिए कुछ नहीं है इनमें से ज्यादातर सीटें ऐसी हैं जहां हाथ का साथ देने वाला कोई नहीं है। ऐसे में अगर पार्टी को मजबूती देने की कवायद मे लगे राहुल बाबा और सोनिया मैडम इन 120 सीटों में से कुछ पर भी कांग्रेसी झण्डा फहराने में कामयाब रहे तो लालू-पासवान और मुलायम जैसे क्षेत्रीय क्षत्रपों के लिए ये डूब मरने वाली बात होगी क्योंकि इन्ही सीटों को लेकर ये तीनों ही नेता कांग्रेस की औकात को लेकर काफी कुछ बोल चुके हैं। अब कांग्रेस के साथ रहकर भी उसके खिलाफ चुनाव लड़ने को तैयार लालू-पासवान और मुलायम की ये तिकड़ी चुनावी गलियारे में क्या गुल खिलाती है, ये देखने वाली बात होगी। वैसे लालू-पासवान और मुलायम द्वारा की गई मौके की इस यारी पर आप क्या कहेंगे...

बुधवार, 25 मार्च 2009

और प्यार क्या और प्यार कहां...


25 मार्च 09
यूं तो प्यार पर इतना कुछ लिखा जा चुका है कि कहने को शायद ही कुछ शेष बचा हो...लेकिन हर बार जब इस विषय पर कुछ लिखा जाता है तो वो नया ही लगता है...ढाई अक्षर के इस शब्द की महिमा ही ऐसी है...इसीलिए मैं आज फिर इस प्यार को परिभाषित करने बैठ गया हूं कि प्यार आखिर क्या है...

लरजते आंसुओं की कहानी है मुहब्बत
बरसती आंखों की जुबानी है मुहब्बत
पास रह के भी दूर रहती है बहुत
महकते फूलों की रातरानी है मुहब्बत


मुहब्बत एक रात है भीगी-भीगी, जिसमें एक उम्र सपनों में गुजर जाती है...मुहब्बत एक रतजगा है, जो आंखों में मीठी नींद बनकर बसा करती है...मुहब्बत हथेली पर रोपा हुआ वो बीज है...जो तमाम उम्र हथेलियों पर रजनीगंधा के फूल की तरह खिली रहती है, कभी शर्म बनकर चेहरे पर छा जाती हैं ये हथेलियां...तो कभी भरापूरा प्यार बनकर किसी के माथे को सहलाती हैं...मुहब्बत मुमताज का वो प्यारा प्रस्ताव भी था, जो उसके प्रियतम के लिए खता बन गया...मुहब्बत वो जुदाई भी है...जो सलीम-अनारकली के बीच एक फासला बनकर खड़ी हो गई...मुहब्बत जो हीर की आंखों में थी...मुहब्बत जो लैला की अदाओं में थी...मुहब्बत जो सोहनी के होठों पर थी, मुहब्बत जो शीरी की सदाओं में थी...यहीं है मुहब्बत का फलसफा...यही है मुहब्बत का तरन्नुम...उस जन्म से इस जन्म तक...उस पार से इस पार तक...शहर से गांव तक...जमीं से आसमां तक और प्यार क्या और प्यार कहां....

आली रे आली नैनो आली

25 मार्च 09
मुंबई में नैनों के लांच के साथ ही रतन टाटा ने अगर दुनिया की सबसे सस्ती कार लांच करने का वादा पूरा किया तो इसी के साथ तमाम राजनीतिक उतार चढ़ावों के बीच भारतीयों के साथ चल रही आंख मिचौली का खेल भी खत्म हो गया। अब नैनो अपने लटकों झटकों के साथ भारत की सड़कों पर दौड़ने के लिए तैयार है। नैनों की लांचिंग के साथ ही ट्रैफिक जाम को लेकर भी चर्चाओं का दौर शुरू हो गया है लेकिन इससे नैनो के महत्व को कम नहीं किया जा सकता। एक आम आदमी जो मारुति800 खरीदने से पहले भी हजार बार घर की आर्थिक स्थिति के बारे में सोचने के लिए मजबूर हो जाता है और तमाम गुणा गणित के बाद खरीददारी का फैसला दोपहिए वाहन पर आकर खत्म हो जाता है, उसके लिए नैनो की खरीददारी और सवारी दोनों सम्मान की बात होगी। कम से कम नैनो का क्रेज तो इसी बात के संकेत दे रहा है। इसीलिए दैनिक भाष्कर में नैनो से संबंधित छपी कुछ महत्वपूर्ण जानकारियां ब्लॉग जगत के लोगों के साथ शेयर कर रहा हूं...उम्मीद है पसंद आएगा।

1 - नैनों की बुकिंग के लिए सबसे पहले बिना गाड़ी वाले को प्राथमिकता दी जाएगी।
2 - दो पहिया गाड़ी रखने वालों को भी मिलेगी वरीयता।
3 - बुकिंग स्टेट बैंक के जरिए होगी।
4 - एसबीआई के 1350 केन्द्रों पर होगी नैनो की बुकिंग।
5 - 1 अप्रैल से नैनो शो रूमों में नजर आएगी।
6 - 18 महीने की वारंटी भी रहेगी।
7 - 300 रूपए का बुकिंग फार्म लगेगा।
8 - 30 हजार केन्द्रों पर होगी नैनों की बुकिंग।
9 - ऑन लाइन भी होगी बुकिंग।
10 - तीन मॉडलों में मिलेगी नैनो।
11 - 23.6 किमी/लीटर का एवरेज रहेगा।
12 - पार्टनर बैंकों से 2999 में ही करा सकते हैं बुकिंग।
13 - 2999 रूपए का कार लोन भी मिलेगा।
14 - 9 अप्रैल से बुकिंग शुरू होगी और 25 अप्रैल तक चलेगी।
15 - कार की डिलवरी जुलाई से होगी।

नैनो के मॉडल और उनकी कीमतें (एक्स शोरूम)

वैरिएंट ---------------- पंतनगर ------ दिल्ली --------- मुंबई


स्टैंडर्ड (बीएस2) ------- 1,12,735 --- अनुपलब्ध ------ अनुपलब्ध


स्टैंडर्ड (बीएस3) ------- 1,20,960 --- 1,23,360 --- 1,34,250


सीएक्स (बीएस2) ----- 1,39,780 --- अनुपलब्ध ----- अनुपलब्ध


सीएक्स मैटेलिक2 ------ 1,42,780 --- अनुपलब्ध ---- अनुपलब्ध


सीएक्स सोलिड पेंट(बीएस3) - 1,45,725 -- 1,48,360 -- 1,60,320


सीएक्स मैटेलिक (बीएस3) -- 1,48,725 -- 1,51,360 --- 1,63,320


एलएक्स (बीएस3) ------- 1,70,335 --- 1,72,360 --- 1,85,375








मासिक किस्त 1,752 रु.
स्टेट बैंक नैनो के लिए सात साल की अवधि का ऋण देगा जिस पर 11.75 से 12% तक ब्याज होगा। एक लाख रुपए के लोन पर मासिक किश्त 1,752 रु. आएगी। पहले यह दर 14% तक रहने का अनुमान था। नैनों का डीजल मॉडल 2010 में आएगा।

सभी जानकारी और फोटो साभार दैनिक भाष्कर

मंगलवार, 24 मार्च 2009

हिसाब किताब

24 मार्च 09
एकाध महीने बाद मेरा ब्लाग साल भर का हो जाएगा...उम्मीद के हिसाब से लोगों का मेरी इस गली में आना जाना कम ही हुआ...अपनी तरफ से मैनें समाज की हर दुखती रग को छूने की कोशिश की है...थोड़ा उदास हूं कि लोगों का भरपूर प्यार नहीं मिला...समझ नहीं पा रहा हूं क्यों...लेकिन मन में एक आशा है कि आगे व्लॉगिंग की दुनिया से जुड़े लोगों का आशीर्वाद मिलेगा...लेखन की इस कला के दौरान मैनें पाया है कि लोग राजनीति से जुड़े लेखों की और रुख कम ही करते हैं...ना जाने क्या वजह है...आज ही मैनें राजनीतिक दलों के घोषणा पत्र से जुड़ा एक सवाल ब्लॉग पर छोड़ा कि क्या चुनावी घोषणा पत्र मतदाता के मन को, उसके वोट को प्रभावित करते हैं लेकिन इस सवाल पर एक भी जवाब नहीं आया...थोड़ा विचलित हुआ तो शरीर का साथ छोड़ मन इधर उधर गर्दिश करने लगा...ऊल जुलूल बातें सोचने लगा...पाप पुण्य का हिसाब करने लगा...इसी चक्कर में एक कविता की कुछ लाइनें याद आ गईं...नहीं जानता किसने लिखी हैं...लेकिन अच्छी लगी इसलिए यहां लिख रहा हूं...लाइनें पाप पर आधारित हैं...पाप कह रहा है..

अगर कहीं मैं ना जन्म लेता
बनी धरा ये मसान होती
ना मंदिरों में मृदंग बजते
ना मस्जिदों में अजान होती


आप लोगों को क्या लगता है कि राजनीति से जुड़े लेखों को वो प्यार मिलता है जो किसी दूसरे विषय पर लिखे लेखों को मिलता है...मेरे हिसाब से तो नहीं...बाकी तो रब ही जाने...अभी के लिए इतना ही बाकी फिर कभी...इजाजत दीजिए।

घोषणाओं की घुट्टी चुनावी घोषणा पत्र



24 मार्च 09
चुनावी जंग जीतने के लिए राजनीतिक दल उम्मीदवारों के चयन के साथ जिस विषय पर सबसे ज्यादा माथापच्ची करती हैं वो होता है घोषणा पत्र...किन मुद्दों के साथ जनता के बीच जाना है...उसे किस तरह के वादों की घुट्टी पिलानी है...उसे किन सपनों के झुनझुने थमाने हैं और कैसे अपने पक्ष में वोट डालने के लिए प्रेरित करना है...इसी का ताना बाना होता है राजनीतिक दलों का चुनावी घोषणा पत्र...कांग्रेस ने आज इस कवायद को पूरा कर लिया है...दूसरे दल भी आने वाले दिनों में घोषणा पत्र की खुराक लेकर जनता का ध्यान खींचने की कोशिश करेंगे...लेकिन इन सबके बीच अहम सवाल ये कि क्या भारतीय मतदाता पर घोषणा पत्र में दर्ज चुनावी वायदों का कुछ फर्क पड़ता है...क्या वो इन वायदों को ध्यान में रखकर वोट डालता है...क्या उसके वोट को चुनावी घोषणा पत्र के वायदे प्रभावित करते हैं...मुझे तो ऐसा नहीं लगता...क्योंकि पार्टियाम भले ही दावा करें कि उन्होंने अपने घोषणा पत्र में किए गए सभी वादों को पूरा किया लेकिन ऐसा होता नहीं है...उनमें दर्ज ज्यादातर वादे कोरी लफ्फाजी होते हैं...क्योंकि अगर उतने वादे पूरे हो जाएं तो फिर भारतीय राजनीति की तस्वीर आज ऐसी नहीं होती...सरकारें पूर्ण बहुमत के साथ सत्ता में आतीं और मतदाता कन्फ्यूज नहीं होता...मैं अपने ब्लॉग पर आने वाले पाठकों से जानना चाहूंगा कि घोषणा पत्र को लेकर उनकी क्या राय है...कृपया जरूर बताएं...

रविवार, 22 मार्च 2009

प्यार को प्यार ही रहने दो...


22 मार्च 09
प्यार आखिर क्या है..पूजा है..आस्था है..विश्वास है..एक तपस्या है या फिर जुनून..प्यार मन में छुपी एक कोमल भावना है या फिर आराधना..कुछ भी हो..प्यार तो प्यार है..वक्त बदला..दौर बदला..रहने सहने खाने पीने का तौर बदला..पर प्यार नहीं बदला ना बदलेगा..हां प्यार की भावाभिव्यक्ति के तरीके जरूर बदल गए हैं..आज का प्यार बोल्ड है..कुछ भी हो प्यार है जरूर इंसान की जरूरत बनकर..प्यार कोई फर्ज नहीं..कोई कर्ज नहीं..कोई वादा भी नहीं जो निबाहते ही जाओ..प्यार तो मन के किसी कोमल हिस्से में छिपी वो निर्मल झरझर नदी हैं..जो बहती ही रहती है..सदियों से प्यार अनगिनत रूप लेकर आता रहा है..कभी राधा बनकर तो कभी मीरा बनकर..पूजा और तपस्या के रूप में..प्यार कभी एक वादा बना ताजमहल के रूप में तो अनारकली के लिए खता बन गया और सीता के लिए सजा..जो अग्नि परीक्षा के बाद भी कम नहीं हुई..आजकल प्यार एक फैशन बन गया है..जो नित नए परिधान में नई सजधज के साथ चहकता है, महकता है और फिर बदल जाता है..एक मौसम की तरह..प्यार कोई मौसम नहीं एक आराधना है..एक सपना है..पर सपना भी कैसा..प्यार वो सपना तो हो, जो रुपहली रातों के सतरंगी रथ पर सवार होकर पलकों की गलियों में उतर जाए..पर वो सपना नहीं जो हकीकत बनते ही जहरीला हो जाए..बेमानी हो जाए..बदरंग हो जाएम..जैसा कि अक्सर होता है..सपने अक्सर हकीकत बनते ही अपना महत्व खो देते हैं..फिर चाहे वो प्यार भरे ही सपने क्यों ना हों...मनचाहा खो जाए..अनचाहा मिल जाए तो दिल कराहता है..पर मनचाहा मिल जाए तो भी कुछ दिनों बाद वो अनचाहा बन जाता है..संतोष कहां है प्यार में..प्यार कोई मंजिल तो नहीं जो पा ली जाए..प्यार तो एक यात्रा है..जो निरन्तर चलती रहती है..सतत अनवरत किसी साधना की तरह...प्यार एक रूप अनेक..प्यार कितने रंग बदलता है..रंग बिरंगे रिश्तों में ढलता है..पुरुष नारी का प्यार..मां बेटे का प्यार..पति-पत्नी का प्यार..प्रेमी-प्रेमिका, मित्र..ना जाने कितने नाम हैं,इन रिश्तों के..पर प्यार किसी रिश्ते का मोहताज नहीं..बल्कि रिश्ते ही प्यार के मोहताज हैं..जिन रिश्तों में प्यार आधारशिला नहीं बनता..वो रिश्ते टूट जाते हैं..जबकि प्यार बिना किसी रिश्ते के भी जिंदा रहता है...रिश्तों में प्यार हो तो अच्छा है..और प्यार को रिश्ते का नाम मिल जाए तो सोने पे सुहागा..पर सबसे अच्छा है कि प्यार कोकोई नाम ना दिया जाए..ना ये पूछा जाए कि प्यार आखिर क्या है..क्यों ना प्यार को प्यार ही रहने दिया जाए...

शनिवार, 21 मार्च 2009

बहुत याद आई शहनाई...


21 मार्च 09
शहनाई के सुर हमेशा से मुझे अपनी ओर खींचते रहे हैं...शायद यही वजह है कि दुनिया भर में इस वाद्य यंत्र को उसकी असली पहचान दिलाने वाले उस्ताद का जन्म दिन भी मुझे याद था...काफी सोचा उस्ताद जी को किस रूप में याद करूं...फिर लगा ब्लॉग पर कुछ लिखा जाए...बस बैठ गया...लेकिन उस्ताद जी की शख्सियत ऐसी थी कि उसे शब्दों में बांधना आसान नहीं...सो शब्दों की माला बार बार बिखर जा रही थी...कभी उनकी गंगा जमुनी तहजीब के वाहक रूप पर कुछ लिखने की कोशिश की तो कभी उनकी फनकारी को वाक्यों में गूंथने में लगा रहा...लेकिन सफलता नहीं मिली...अब जो कुछ भी आगे आप पढ़ेंगे वो यूं समझिए उंगलियां की बोर्ड पर चलती रहीं और बस लेख तैयार हो गया...जीवन सांसों से चलता है और सांसों की इसी माला को उस्ताद जी शहनाई में फूंककर सुरों की महफिल सजाते थे...बिहार के डुमरांव में राजघराने के नौबतखाने में शहनाई बजाने वाले परिवार में जन्‍मे उस्ताद जी का ये खानदानी पेशा था...लेकिन नियति उनकी कला को बिहार में नहीं यूपी में परवान चढ़ते देखना चाहती थी...बस फिर क्या था मामा के साथ उस्ताद जी बनारस की धरती पर आ जमे...उसके बाद तो बाबा विश्वनाथ के आशीर्वाद से उस्ताद जी के शहनाई ने ऐसे सुर छेड़े की दुनिया उनकी कायल हो गई...मंदिरों, राजे-जरवाड़ों के मुख्य द्वारों और शादी-ब्याह के अवसर पर बजने वाले लोकवाद्य शहनाई को... बिस्मिल्लाह ख़ॉं ने अपने मामू उस्ताद मरहूम अलीबख़्श के निर्देश पर शास्त्रीय संगीत का वाद्य बनाने में जो अथक परिश्रम किया उसकी दूसरी मिसाल नहीं मिलती...संगीत-सुर और नमाज़ इन तीन बातों के अलावा बिस्मिल्लाह ख़ॉं के लिए सारे इनाम-इक़राम,सम्मान बेमानी थे...ये वही बिस्मिल्‍लाह है जिन्‍हें अमेरिका की एक संस्‍था 'रॉकफेलर फाउंडेशन' अमेरिका में बसाने के लिए हमेशा प्रयास करती रही...संस्‍‍था ने बिस्मिल्‍लाह को उनके कलाकार साथियों के साथ अमेरिका में बसाना चाहा इस वादे के साथ कि वे उन्‍हें अमेरिका में बनारस जेसा उनके मन-माफिक वातावरण उपलब्‍ध कराएँगे...इस पर बिस्मिल्‍लाह ने कहा था कि अमेरिका में बनारस तो बना लोगे पर वहाँ मेरी गंगा कहाँ से बहाओगे...उस्ताद बिस्मिल्लाह ख़ॉं के जाने से एक पूरे संगीतमय युग का पटाक्षेप हो गया...मानो संगीत के सात "सुरों' में एक सुर कम हो गया। दुनिया अपनी फितरत में मशगूल है, उसे तो ये भी याद नहीं कि आज शहनाई के उसी शहंशाह का जन्मदिन है...लेकिन काशी के घाटों पर, वहां की फिजाओं में, हवाओं में आज भी उस्ताद बिसमिल्ला खां की शहनाई के सुरों की गूंज सुनाई देती है...उन के फन पर लिखने की ना मेरी कूवत है ना हैसियत...मैं तो इस छोटे से लेख के जरिए बस उस्ताद जी को श्रद्धांजलि देना चाहता हूं और उन्हें भुला देने वालों को याद दिलाना चाहता हूं कि आज उनका जन्म दिन है...

हवस की आग में झुलसते रिश्ते...


21 मार्च 09
मुंबई के मीरा रोड निवासी उस शख्स पर चढ़ा था अमीर बनने का नशा...उसकी पत्नी को भी थी पैसों की हवस...दोनों जा पहुंचे एक तांत्रिक की शरण में...तांत्रिक ने बताया उन्हें जल्द अमीर बनने का तरीका...लेकिन उस तरीके की बलि चढ़ गई दो मासूम बच्चियों की जिन्दगी...इन बच्चियों ने दौलत के पुजारी उसी पति पत्नी के आंगन में जन्म लिया था...तांत्रिक के मुताबिक अगर वो शख्स किसी नाबालिग लड़की के साथ शारीरिक संबंध बनाएगा तो लक्ष्मी उस पर जल्द मेहरबान होंगी...लालच का भूत उस शख्स पर ऐसा चढ़ा कि उसने अपनी ही बेटी के साथ बलात्कार कर डाला...एक दिन नहीं...एक महीने नहीं...एक साल भी नहीं बल्कि पूरे नौ साल तक वो अपनी मासूम बच्ची के साथ दुष्कर्म करता रहा...यही नहीं उस तांत्रिक ने खुद भी उस मासूम के साथ जबरदस्ती शारीरिक संबंध बनाए...इस कृत्य के घिनौनेपन का अंदाजा आप इसी बात से लगा सकते हैं कि ये सब उस महिला की सहमति से होता रहा जिसने उस बच्ची को अपनी कोख से जना था...अपने ही घर की बगिया में...अपने ही माली के हाथों वो फूल कुचला जाता रहा...मसला जाता रहा...पूरे नौ साल तक...लेकिन अभी और बुरा होना बाकी था...दौलत और हवस में अंधे उस शख्स ने अपनी दूसरी बेटी के साथ भी वही सब दोहराने की कोशिश की...लेकिन इस बार पहली बेटी का सब्र जवाब दे गया...उसने अपनी बहन की जिन्दगी बचाने के लिए विद्रोह कर दिया...अपनी मां की धमकियों को नजरअंदाज कर उसने अपने ननिहाल के लोगों के सामने पूरा सच बयां कर दिया...रिश्तों को शर्मसार करती इस घटना का जब खुलासा हुआ तो लोगों ने दातों तले उंगली दबा ली...आज वो तांत्रिक और वो आरोपी माता पिता (हालांकि उन्हें ये दर्जा देने का मन नहीं कर रहा ) जेल की हवा खा रहे हैं...लेकिन इस घटना के बाद एक बार फिर बहस छिड़ गई कि बेटियां अगर अपने ही घर में सुरक्षित नहीं हैं तो फिर कहां हैं...अगर घर की हवाओं मे ही हवस का जहर घुला हो तो फिर वो भरोसा किस पर करें...खून के रिश्ते ही अगर अपनी गर्मी खो दें ततो फिर बाकी रिश्तों पर यकीन कैसे कायम होगा...जिन हाथों को प्यार से सिर पर हाथ फेरना चाहिए...दुनिया की उंच नीच समझाने की कोशिश करनी चाहिए...सुरक्षा और संरक्षा का एहसास दिलाना चाहिए वही हाथ बेशर्मी पर उतर आएं तो फिर सहारा कहां मिलेगा...जिन आंखों में ममता और अपनेपन का नजारा होना चाहिए वहां हवस की लाली होगी तो फिर भरोसे के लिए बेटियां किसका मुंह देखेंगी...और सबसे बड़ा सवाल कि अगर वो मां ही दुश्मन हो जाए जिसके आंचल तले खुशियों का संसार पलता है...तो फिर बेटियां कहां जाएं...कह सकते हैं कि इस तरह के मामले केवल एक अपराध नहीं बल्कि एक बीमारी हैं...जो रिश्तों की पवित्रता और उनके एहसास को पल पल मौत दे रहे हैं...क्या सात साल की सजा देकर इसे हमेशा के लिए खत्म किया जा सकता है...( भारतीय कानून में बलात्कार का दोषी पाए जाने पर सात साल की सजा का प्रावधान है )...मीडिया में इस खबर के सुर्खियां बनने के बाद मैं तीन दिनों तक इस पर कुछ लिखने के लिए सोचता रहा लेकिन ना शब्द सूझ रहे थे और ना ही हिम्मत हो रही थी...अभ भी यही सोच रहा हूं कि क्या इस तरह की घटनाओं को घटने से रोका जा सकता है...क्या कोई ऐसा रास्ता है जो रिश्तों को कलंकित होने से बचा सकता है...कृपया इस ब्लॉग पर आने वाले अपनी राय जरूर बताएं।

गुरुवार, 19 मार्च 2009

छिड़ी लड़इया यूपी में...


19 मार्च 09
लोकसभा चुनाव का बिगुल बज चुका है...इसके साथ ही शुरू हो गया है...सियासत की बिसात पर मोहरे सजाने का खेल...समीकरणों की गणित के हिसाब से खिलाड़ियों को मैदान में उतारने की कवायद में जुटे राजनीतिक दल नफा नुकसान तौल रहे हैं...देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश में भी सियासी हलचल चरम पर है...केन्द्र के सिंहासन का रास्ता इसी राज्य की गलियों से होकर गुजरता है...इसीलिए जिसने इन गलियों में रहने वालों का दिल और वोट जीत लिया...मान लिया जाता है कि उसने सत्ता हासिल करने का आधे से ज्यादा सफर तय कर लिया...इसीलिए राजनीतिक दलों की निगाहें इस प्रदेश की हलचल पर जा टिकी हैं...मतदाताओं को रिझाने के लिए दावों और वादों के पिटारे खोल दिए गए हैं...मेरी खादी उससे उजली की तर्ज पर खुद को बेहतर साबित करने की होड़ सी लग गई है...बात करें यूपी के घमासान की तो मुकाबला सपा और बसपा के बीच ही नजर आता है...कांग्रेस और भाजपा को तो तीसरे नंबर की लड़ाई लड़नी है...यूपी में सफलता हासिल करने के लिए छटपटा रही कांग्रेस एक ऐसे सहयोगी की तलाश में थी जो उसे इस चुनावी वैतरणी में पार लगा सके...सपा के रूप में उसकी ये तलाश पूरी होती नजर आ रही थी लेकिन अहम की लड़ाई ने इसकी संभावनाएं खत्म कर दीं...बाबरी विध्वंस के दौरान केन्द्र की तत्कालीन कांग्रेस सरकार की निष्क्रिय भूमिका ने अल्पसंख्यकों के बीच उसके आधार का ऐसा बंटाधार किया कि वो आज तक इस वर्ग का दिल जीतने में नाकाम ही रही है...प्रदेश स्तर पर कांग्रेस के पास संगठन और असरदार नेताओं का अभाव है...ये दोनों बातें केन्द्र की सत्ता पर दोबारा काबिज होने की उसकी राह का सबसे बड़ा रोड़ा हैं...हां राहुल गांधी के नाम पर उसे युवाओं का समर्थन मिल सकता है...जिससे आम चुनाव की लड़ाई में उसकी हालत थोड़ी बेहतर हो सकती है...लेकिन बावजूद इसके वो कई बड़ा उलटफेर करती नहीं दिखाई दे रही है...बात करें बीजेपी की तो उसकी हालत भी कांग्रेस से कुछ जुदा नहीं है...पीएम इन वेटिंग लालकृष्ण आडवाणी के राजनीतिक व्यक्तित्व का यूपी में कोई खास आकर्षण नहीं है...1999 में हुए संसदीय चुनाव के दौरान उसके करिश्माई व्यक्तित्व के धनी अटल बिहारी वाजपेयी जैसी शख्सियत थी..जिसका आज अभाव है...हालांकि रालोद के साथ गठबंधन बीजेपी को पश्चिमी उत्तर प्रदेश में कुछ राहत दिला सकता है...साथ ही बीजेपी अगर आंतरिक सुरक्षा के मुद्दे को हिन्दुत्व की चासनी देने में कामयाब हुई तो हो सकता है उसे चुनावी जंग में कुछ लाभ हासिल हो जाए...वरना तो उसे कुछ खास हासिल होता नहीं दिखता...बात करें बसपा की तो भदोही उपचुनाव में मिली हार से अगर उसके कार्यकर्ता नहीं उबरे तो फिर उसका नुकसान तय है...साथ ही उसे सवर्ण समुदाय के मतदाताओं पर भी नजर रखनी होगी...उसे इस वर्ग को कांग्रेस और भाजपा के पाले में जाने से रोकना होगा...क्योंकि अगर ऐसा हुआ तो बसपा को नुकसान उठाना पड़ सकता है...एंटी इन्कमबैंसी का असर भी बसपा की राह का रोड़ा बन सकता है...लेकिन अगर मायावती के पीएम बनने की बात चुनावी हवा में तब्दील हो गई तो केंद्र की ओर हाथी तेजी से बढ़ सकता है...साथ ही बसपा को अपने दलित-सवर्ण सामाजिक समीकरण का भी फायदा मिल सकता है...मायावती अगर अल्पसंख्यक मतों का विभाजन करने में कामयाब हुईं तो केंद्र की ओर उनकी दौड़ आसान ही होगी...कुल मिलाकर हाथी इस चुनाव में काफी सशक्त नजर आता है...रह गई मुलायम सिंह यादव की सपा...मुलायम को अल्पसंख्यक और पिछड़ों के अपने जनाधार को संभाल कर रखना होगा...अगर इसमें बिखराव आया तो साइकिल की हवा निकल सकती है...मुलायम के लिए दूसरा खतरा है माया का सर्वजनवाद...विधानसभा चुनाव के बाद अगर ये फार्मूला आम चुनाव में भी क्लिक कर गया तो मुलायम के लिए मुश्किल खड़ी हो सकती है...अमर सिंह का विवादास्पद आचरण और उनकी अनर्गल बयानबाजीपर लगाम नहीं कसी गई तो सपा के नेताओं और संगठन में बिखराव हो सकता है...आजम खान की नाराजगी इसकी मिसाल है...हां, कल्याण सिंह का साथ पश्चिमी उत्तर प्रदेश में मुलायम को कुछ सीटों का फायदा करा सकता है...इसके अलावा अगर मुख्य विपक्षी दल होने के नाते बसपा शासन से नाराज लोगों का ध्रुवीकरण उसकी तरफ हुआ तो मुलायम को मुस्कुराने का मौका मिल सकता है...कुल मिलाकर यूपी में सिंहासन का फाइनल हर बार की तरह इस बार भी जोरदार होगा...आप तो बस तेल देखिए और तेल की धार...

बुधवार, 18 मार्च 2009

वरुण तूने ये क्या किया ?


18 मार्च 09
भारतीय राजनीति के पर्दे पर यदाकदा नुमायां होने वाले वरुण गांधी आजकल हॉट आइटम बने हुए हैं। चारों तरफ उन्हीं की चर्चा है। अखबारों में संपादकीय लिखे जा रहे हैं तो टेलीविजन की दुनिया में भी उन्हें लेकर बहस का दौर चल रहा है। चुनावी माहौल की गर्मी के बीच अपने संसदीय क्षेत्र में एक सभा के दौरान जाति विशेष पर की गई टिप्पणी ने वरुण को सुर्खियों में ला खड़ा किया है। नेता कम मेनका गांधी के बेटे के रूप में ज्यादा पहचाने जाने वाले वरुण ने रातों रात अपनी पहचान बदल डाली। मंदिर मुद्दा फुस्स होने के बाद आतंकवाद और मंहगाई जैसे बासी मुद्दों के साथ चुनावी मैदान में कसमसा रही बीजेपी की दशा शायद वरुण गांधी से देखी नहीं गई इसीलिए उन्होंने हिन्दुत्व के मुद्दे को नए तेवर के साथ नई धार देने की कोशिश कर डाली। उनकी कोशिश की सफलता का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि शिवसेना प्रमुख बाला साहेब ठाकरे ने वरुण गांधी को असली हिन्दू करार देते हुए उनकी बातों से सहमति जता डाली। पीलीभीत में वरुण ने जो कुछ भी कहा उसका यहां जिक्र करना ज़रूरी नहीं लगता लेकिन उन बातों ने वरुण को विहिप के फायर ब्रांड नेता प्रवीण भाई तोगड़िया और गुजरात में बीजेपी के खेवनहार नरेन्द्र मोदी को भी पीछे छोड़ दिया। ये अलग बात है कि हिंदुत्व को नई धार देने की वरुण की ये कोशिश खुद उनके और बीजेपी के गले की फांस बन गई। वरुण गांधी ने जो कुछ पीलीभीत में कहा वो अमर्यादित तो था ही साथ ही भावनाओं को भड़काने वाला भी था लेकिन अहम बात ये है कि क्या ये सब कुछ वरुण की स्वाभाविक प्रतिक्रिया थी या फिर इसके पीछे बीजेपी की कोई सोची समझी रणनीति थी। क्या चुनावी सभाओं में बीजेपी नेताओं को कुछ बी बक देने की आजादी हैं। क्या पार्टी हाईकमान की ओर से अपने उम्मीदवारों को किसी तरह के निर्देश नहीं दिए गए हैं। उन्हें क्या, कितना और कैसे बोलना है, क्या इसकी तमीज उन्हें सिखानी पड़ेगी और अगर ऐसा है तो फिर ऐसे नेताओं को पार्टी ने टिकट क्यों दिया। सामाजिक सद्भावना और समरसता बनाए रखने की जिम्मेदारी निभाने की कसमें खाने वाले नेता क्या इतने गैर जिम्मेदाराना बयान दे सकते हैं। ये मामला सिर्फ वरुण को कठघरे में खड़ा नहीं करता बल्कि पूरी बीजेपी की जवाबदेही तय करता है। चुनाव आयोग तो वरुण के खिलाफ अपने अधिकारों के तहत ही एक्शन ले सकता है लेकिन क्या सिर्फ वहीं काफी होगा वरुण को उनकी गलती का एहसास दिलाने के लिए। ऐसा लगता तो नहीं क्योंकि अभी तक तो वरुण छाती ठोककर इस पूरे मामले को राजनीतिक साजिश करार देते आ रहे हैं। बीजेपी के रवैए से भी ऐसा नहीं लगता कि उसे वरुण के किए पर कोई अफसोस है। यूं तो भारतीय लोकतंत्र में हर किसी को अपनी बात कहने का हक है लेकिन उसके भी अपने तरीके और सीमाएं हैं और वरुण ने निश्चय ही उन सीमाओं को भी लांघ गए हैं। वरुण के भाषण से एक बात तो शीशे की तरह साफ हो गई कि हमारी रहनुमाई का दम भरने वाले किसी भी राजनीतिक दल के पास कोई ऐसा मुद्दा नहीं बचा जो देश और समाज का विकास कर सके। जाति और धर्म के ज़रिए ही ये पार्टियां सत्ता के गलियारे नापने की फिराक में रहती हैं। या यूं कहें कि इसी ताने बाने के बीच वो अपना राजनीतिक अस्तित्व खड़ा करने की कूवत रखते हैं। ये बात पहले भी कई बार साबित हो चुकी है और वरुण गांधी के मामले ने इसे और पुख्ता कर दिया है। ये हमारे लोकतंत्र के लिए शुभ नहीं है।

मंगलवार, 17 मार्च 2009

चलो रे फिर चुनाव आया है...



17 मार्च 09
लोकसभा चुनाव का बिगुल बजने के साथ ही राजनीतिक दलों की कसरत शुरू हो चुकी है। भारतीय राजनीति की बात करें तो बीते कुछ सालों में वो काफी बदलाव देख चुकी है। मतदाताओं ने मुद्दों से भटकते राष्ट्रीय दलों को उनकी औकात दिखाई है तो क्षेत्रीय दल को मजबूती दी है। पूर्ण बहुमत से दूर बने रहने के दर्द ने काग्रेस और बीजेपी जैसे राष्ट्रीय दलों को क्षेत्रीय दलों का मुंह ताकने के लिए मजबूर कर दिया। बीजेपी ने एनडीए का गठन किया तो कांग्रेस ने यूपीए का चोला पहन सत्ता सुख भोगा। अब तक इन राष्ट्रीय दलों का सहयोग कर रहे छोटे छोटे दलों में भी कुर्सी की छटपटाहट देखने को मिल रही है। नतीजतन गठबंधनों में दरार पड़ने लगी है। पुराने दोस्त छूट रहे हैं, नए दोस्त तलाशने की कवायद चल रही है। बेपेंदे के लोटे की तरह नेता कभी इस दल तो कभी उस दल की सवारी कर रहे हैं। इधर उधर से धकियाए नेता तीसरे मोर्चे की पगड़ी पहन फिर से चुनावी जंग में दहाड़ मार रहे हैं। गठबंधन की नाव में सवार दलों के बीच सीटों के तालमेल को लेकर सिर फुटौवल चल रही है तो प्रधानमंत्री की कुर्सी के लिए भी मारामारी है। लालकृष्ण आडवाणी तो सालों से पीएम इन वेटिंग की तख्ती लटकाए घूम रहे हैं। उधर राहुल राहुल के शोर के बीच कांग्रेस ने मनमोहन सिंह पर ही भरोसा बनाए रखा है। लालू जी और रामविलास पासवान के ख्वाबों में भी पीएम की कुर्सी तांडव कर रही है। इन सबके बीच खुद को दलितों की मसीहा के रूप में प्रचारित प्रसारित कर राजनीतिक गलियारों में रसूख कायम करने वाली बहन मायावती भी दिल्ली का तख्त हथियाने के लिए पूरा जोर लगा रही हैं। इस सारी कवायद में पिस रही है बेचारी जनता। आर्थिक मंदी और मंहगाई की मार से बेहाल जनता पर चुनावों के भारी भरकम खर्च की भी मार पड़ने वाली है। 2004 में अगर लोकसभा चुनाव पर 1300 करोड़ रुपये खर्च हुए थे तो इस दफा यह आंकड़ा 1800 करोड़ रुपये का आंकड़ा पार करने वाला है। यह पैसा आम आदमी की जेब से ही निकलेगा। ऊपर से एक टिकाऊ सरकार चुनने का बोझ भी उसी के कंधों पर है। अब ये देखने वाली बात होगी कि आम आदमी अपनी जेब और कंधों पर पड़ने वाली इन जिम्मेदारियों को सफलता पूर्वक कैसे निभाता है।
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