09 मई 05
ताल्लुकात में कोई कमी नहीं रखते
वो सबसे मिलते हैं पर दोस्ती नहीं रखते
हमें भुलाकर अगर शादमां वो रहते हैं
तो हम भी दिल में कोई बेकली नहीं रखते
ज़मीं की ख़ाक उन्हें ख़ाक में मिला देगी
अभी तो फर्श पर वो पांव भी नहीं रखते
हमारे टूटे हुए घर में शम्मा जलती रहे
फटे लिबास में शर्मिन्दगी नहीं रखते
गनाहो जुर्म की हर रस्म हो रही है अदा
मगर शबाब की हम रोशनी नहीं रखते
यहां तो कद्र नहीं सीधे सादे लोगों की
अजीब शख्स हो तुम दुश्मनी नहीं रखते
संभल के रहते हैं शहर-ए-वफा में हम
किसी के साथ कभी दोस्ती नहीं रखते
शनिवार, 9 मई 2009
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2 टिप्पणियां:
ज़मीं की ख़ाक उन्हें ख़ाक में मिला देगी
अभी तो फर्श पर वो पांव भी नहीं रखते...
क्या बात है...बहुत बढ़िया...
कुछ तो राज़ है इन कविताओं के पीछे...
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