मंगलवार, 29 जुलाई 2008

दहशत में देश

30 जुलाई 2008



बैंगलुरु और और अहमदाबाद में हुए धमाकों की दहशत लोगों के ज़ेहन से अभी हटी भी नहीं थी कि गुजरात का एक और शहर आतंक के साए में डूबा नजर आया। गुजरात की व्यवसायिक राजधानी सूरत में एक के बाद एक 18 बम बरामद हुए। हालांकि बम निरोधक दस्ते ने सभी बमों को निष्क्रिय कर दिया लेकिन इस बात का अंदाजा लगाना कतई मुश्किल नहीं है कि अगर ये बम फट जाते तो हालात कैसे होते। पूरा का पूरा शहर मानों आतंक और दहशत की धुरी पर खड़ा था। इन बमों के विफल होते ही आतंकियों ने फिर से मेल करके जहां अपने मिशन सूरत को फेल होने की बात कबूली वहीं फिर से चेतावनी दे डाली कि वो गुजरात के दूसरे इलाकों में फिर धमाके करेंगे और सरकार में दम हो तो उन्हें रोक के दिखाए। गौर करने वाली बात ये है कि सूरत में जो 18बम मिले थे, उन सभी को स्थानीय नागरिकों ने तलाश किया था और उन्हें पुलिस के बम दस्ते से सिर्फ़ निष्क्रिय किया। मतलब साफ है कि पुख्ता सुरक्षा व्यवस्था का दम भरने वाली सुरक्षा एजेंसियां और पुलिस प्रशासन पंगु हो चुके हैं। एक के बाद एक हो रही आतंकी घटनाओं ने उन्हें अवसाद की स्थिति में ला खड़ा किया है। अब ऐसे में जनता को ये महसूस होने लगा है कि ऐसी भयानक त्रासदियों के बीच जीना ही उसकी नियति बन चुका है। इससे शर्मनाक औऱ क्या हो सकता है कि सूचना और संचार प्रौद्योगिकी की विश्वशक्ति,परमाणु शक्ति से लैस, भविष्य का सबसे युवा और ऊर्जावान देश अपनी जनता के जान माल की रक्षा करने में नाकाम साबित हो रहा है। आतंक, असुरक्षा और बेबसी उसकी पहचान बनता जा रहा है।



हर बार की तरह एक बार फिर इस बार हुए धमाकों का शिकार हुए लोगों के परिजनों के प्रति शोक संवेदानाओं का दौर जारी है, आर्थिक सहायता दी जा रही है, माननीयों के दौरे हो रहे हैं, केंद्र और राज्यों की सुरक्षा एजेंसियों के बीच बेहतर तालमेल की उम्मीदें और दावे किए जा रहे हैं लेकिन इन सबके बीच सत्तारूढ़ दल और विपक्ष के बीच आरोप प्रत्यारोप का दौर भी जारी है। जो ये दर्शाता है कि आतंकवाद के विरुद्ध एक निर्णायक लड़ाई लड़ने का किस कदर अभाव है। जबकि दोषारोपण और असहायता के मनोविज्ञान से बाहर निकले बिना आतंकवाद के विरुद्ध कोई कारगर और निर्णायक लड़ाई नहीं लड़ी जा सकती।



हिंसा की सीमा ख़त्म हो चुकी है। क्योंकि यह ना उम्र देखती है,ना मज़हब। अस्पतालों को निशाना बना कर यह संकेत भी दे दिया गया कि हिंसा जितना संभव हो उतनी निर्मम शक्ल में होगी। माना कि इतने बड़े देश में हर जगह, हर शख्स को सुरक्षा नहीं दी जा सकती लेकिन क्या अब तक हुए बम धमाकों के बाद हुई जांच पड़ताल और उसके लिए बनी जांच कमेटियों की रिपोर्टो, गिरफ्तार हुए लोगों से हुई पूछताथ और घटनास्थल से मिले सुरागों के बाद क्या कोई ऐसी व्यवस्था विकसित हो पाई है, जिससे दिनों दिन गहराते आतंक के इस काले साए से निपटने में मदद मिल सके। शायद नहीं, क्योंकि ऐसी घटनाओं पर लगाम न लग पाना इसका स्पष्ट सबूत है। मेरे हिसाब से अब वो समय बीत गया है जब हम सुरक्षा एजेंसियों और प्रशासनिक व्यवस्था के भरोसे रहकर जिंदगी को जीने की कोशिश करें। अब वक्त हे हर नागरिक को अपनी हिफाजत के लिए आतंकवादी मंसूबों से लड़ने के लिए उठ खड़े होने का। मानवता-विरोधी, सभ्यता-विरोधी बर्बर लोगों को मार भगाने का जज्बा जब इस देश में रहने वाले हर शख्स के दिल में होगा तभी अमन चैन बहाल होगा और दहशत भरी हवाओं में सांस लेती जिन्दगी को खुली और आजाद हवा नसीब हो सकेगी। लोगों में इस बात के लिए विश्वास जगाना होगा कि देश मजहब और धर्म से बड़ा होता है। जब वो सुरक्षित होगा तो हम सुरक्षित होंगे।

सभी फोटो साभार बीबीसी

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