शनिवार, 21 मार्च 2009

बहुत याद आई शहनाई...


21 मार्च 09
शहनाई के सुर हमेशा से मुझे अपनी ओर खींचते रहे हैं...शायद यही वजह है कि दुनिया भर में इस वाद्य यंत्र को उसकी असली पहचान दिलाने वाले उस्ताद का जन्म दिन भी मुझे याद था...काफी सोचा उस्ताद जी को किस रूप में याद करूं...फिर लगा ब्लॉग पर कुछ लिखा जाए...बस बैठ गया...लेकिन उस्ताद जी की शख्सियत ऐसी थी कि उसे शब्दों में बांधना आसान नहीं...सो शब्दों की माला बार बार बिखर जा रही थी...कभी उनकी गंगा जमुनी तहजीब के वाहक रूप पर कुछ लिखने की कोशिश की तो कभी उनकी फनकारी को वाक्यों में गूंथने में लगा रहा...लेकिन सफलता नहीं मिली...अब जो कुछ भी आगे आप पढ़ेंगे वो यूं समझिए उंगलियां की बोर्ड पर चलती रहीं और बस लेख तैयार हो गया...जीवन सांसों से चलता है और सांसों की इसी माला को उस्ताद जी शहनाई में फूंककर सुरों की महफिल सजाते थे...बिहार के डुमरांव में राजघराने के नौबतखाने में शहनाई बजाने वाले परिवार में जन्‍मे उस्ताद जी का ये खानदानी पेशा था...लेकिन नियति उनकी कला को बिहार में नहीं यूपी में परवान चढ़ते देखना चाहती थी...बस फिर क्या था मामा के साथ उस्ताद जी बनारस की धरती पर आ जमे...उसके बाद तो बाबा विश्वनाथ के आशीर्वाद से उस्ताद जी के शहनाई ने ऐसे सुर छेड़े की दुनिया उनकी कायल हो गई...मंदिरों, राजे-जरवाड़ों के मुख्य द्वारों और शादी-ब्याह के अवसर पर बजने वाले लोकवाद्य शहनाई को... बिस्मिल्लाह ख़ॉं ने अपने मामू उस्ताद मरहूम अलीबख़्श के निर्देश पर शास्त्रीय संगीत का वाद्य बनाने में जो अथक परिश्रम किया उसकी दूसरी मिसाल नहीं मिलती...संगीत-सुर और नमाज़ इन तीन बातों के अलावा बिस्मिल्लाह ख़ॉं के लिए सारे इनाम-इक़राम,सम्मान बेमानी थे...ये वही बिस्मिल्‍लाह है जिन्‍हें अमेरिका की एक संस्‍था 'रॉकफेलर फाउंडेशन' अमेरिका में बसाने के लिए हमेशा प्रयास करती रही...संस्‍‍था ने बिस्मिल्‍लाह को उनके कलाकार साथियों के साथ अमेरिका में बसाना चाहा इस वादे के साथ कि वे उन्‍हें अमेरिका में बनारस जेसा उनके मन-माफिक वातावरण उपलब्‍ध कराएँगे...इस पर बिस्मिल्‍लाह ने कहा था कि अमेरिका में बनारस तो बना लोगे पर वहाँ मेरी गंगा कहाँ से बहाओगे...उस्ताद बिस्मिल्लाह ख़ॉं के जाने से एक पूरे संगीतमय युग का पटाक्षेप हो गया...मानो संगीत के सात "सुरों' में एक सुर कम हो गया। दुनिया अपनी फितरत में मशगूल है, उसे तो ये भी याद नहीं कि आज शहनाई के उसी शहंशाह का जन्मदिन है...लेकिन काशी के घाटों पर, वहां की फिजाओं में, हवाओं में आज भी उस्ताद बिसमिल्ला खां की शहनाई के सुरों की गूंज सुनाई देती है...उन के फन पर लिखने की ना मेरी कूवत है ना हैसियत...मैं तो इस छोटे से लेख के जरिए बस उस्ताद जी को श्रद्धांजलि देना चाहता हूं और उन्हें भुला देने वालों को याद दिलाना चाहता हूं कि आज उनका जन्म दिन है...

2 टिप्‍पणियां:

संगीता पुरी ने कहा…

उस्ताद जी के जन्‍मदिन की याद दिलाते हुए पोस्‍ट लिखने के लिए बहुत बहुत धन्‍यवाद।

Aadarsh Rathore ने कहा…

कम ही लोग हैं जो कला और कलाकार की कद्र करते हैं। प्रसन्नता हुई

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