मंगलवार, 3 जून 2008

ये कैसा फ़रमान

03 जून 2008
आज हिन्दी दैनिक अमर उजाला के संपादकीय पेज पर एक लेख पढ़ा। जानकारी मिली कि पशुओं के उत्पीड़न को लेकर देश के एनीमल वेलफेयर बोर्ड की बॉलीवुड के निर्माताओं पर त्योरियां चढी हुई हैं। बोर्ड ने अपने ताजा दिशा निर्देशों में शेर, बाघ, तेंदुए औऱ बन्दर को लेकर दृश्यों के फिल्मांकन पर रोक लगा दी है। साथ ही इस निर्देश में दूसरे अन्य जानवरों के साथ शूटिंग के लिए भी एक महीने पहले अनुमति लेने की ताकीद की गई है। जिस तरह से दुनिया भर में लुप्त होते पशुओं को बचाने के लिए, उनके संरक्षण के लिए विभिन्न संस्थाओं ने अपने अपने स्तर से मुहिम छेड़ रखी है वो काबिले तारीफ है। निश्चित ही इस तरह के किसी भी प्रयास का स्वागत होना चाहिए लेकिन बोर्ड के इस दिशा निर्देश से उसकी मंशा पर सवाल खड़े होते नजर आ रहे हैं। सबसे पहले तो ये कि क्या पशुओं के फिल्मांकन करने मात्र से उनका उत्पीड़न हो जाता है। दूसरा ये कि बालीवुड ने अपनी फिल्मों के ज़रिए पशुओं को लेकर समाज को जो सकारात्मक संदेश देने की कोशिश अब तक की है क्या बोर्ड ने उन पर गौर करके इन निर्देशों को जारी किया है। जिस तरह से हाथी मेरा साथी, मै तेरा दुश्मन, तेरी मेहरबानियां, महाराजा और नागिन जैसी फिल्मों ने पशुओं को लेकर समाज को जो संदेश पहुंचाने की कोशिश की है क्या बोर्ड ने इन दिशा निर्देशों को जारी करते समय उन्हें ध्यान में रखा था क्योंकि इन फिल्मों के कारुणिक दृश्य आज भी आंखों में नमी ला देते हैं और बहुत कुछ सोचने के लिए मजबूर करते हैं। किस तरह से इंसान का लालच पशुओं के अस्तित्व के लिए खतरा बन सकता है, उसे दर्शाने के लिए बॉलीवुड से बेहतर माध्यम कोई हो सकता है भला। अगर बोर्ड ने इन बातों को ध्यान में रखकर नए दिशआ निर्देश जारी किए हैं तो उसकी इस पहल का स्वागत है। हालांकि इसकी गुंजाइश मुझे न के बराबर लगती है। दरअसल बीते कुछ दिनों में जिस तरह से सरकारी महकमे बॉलीवुड के खिलाफ मोर्चा खोले नजर आए उससे तो मुझे कम से कम यही लगा कि इस तरह की सारी कवायद महज लोकप्रियता पाने की ललक है इसके सिवा कुछ भी नहीं। बीते दिनों केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री ने जिस तरह से बॉलीवुड के कुछ लोकप्रिय अभिनेताओं के खिलाफ धूम्रपान के विज्ञापनों को लेकर टीका टिप्पणी की उससे
तो यही संदेश गया। ये कुछ बोलेंगे फिर वो कुछ बोलेंगे फिर जब मीडिया उसे मसालेदार बनाकर जनता के सामने परोसता है तो सुर्खियां तो बनती ही हैं। बात करें एनीमल वेलफेयर बोर्ड की तो मुझे लगता है उसका ध्यान पशुओं की संरक्षा और सुरक्षा पर कम खुद की पब्लीसिटी पर ज्यादा है। वरना बीते कुछ महीनों में जिस तरह से रिहाइशी इलाकों में जंगली पशुओं की आमद औऱ उसके बाद उनके शिकार की घटनाएं बढीं हैं वो इन पर रोक लगाने के लिए कुछ सार्थक कदम उठाता न कि इस तरह के बेमतलब और अतार्किक फरमान जारी कर अपना वक्त बरबाद करता। मीडिया में हर दूसरे दिन खबर आती है कि संरक्षित पशुओं की खालों की तस्करी करने वाले गिरोह का भंडाफोड़, दुर्लभ किस्म के कछुओं की तस्करी करने वाला गिरोह पुलिस की गिरफ्त में और भी न जाने क्या क्या, लेकिन बोर्ड इस तरह से अवैध शिकार पर रोक लगाने के लिए किसी तरह की पहल करने के बजाए बेकार के फरमान जारी करने मे व्यस्त है। संसारचन्द जैसे न जाने कितने पशु तस्कर लगातार संरक्षित पशुओं के शिकार और तस्करी मे लिप्त हैं लेकिन उन पर किसी तरह की नकेल नहीं कस पा रही है। एक औऱ बात जो उस सम्पादकीय में कही गई वो भी मुझे ठीक लगी कि इस तरह के फरमान हमारे देश में अभिव्यक्ति की आजादी पर हमला हैं। कल को बाल अधिकारों के लिए लड़ाई लड़ रही सरकारी औऱ गैर सरकारी संस्थाएं फिल्मों मे बच्चों के काम करने को उनका शोषण करार देने की मांग करेंगी तो अनोखा बंधन, नन्हें जैसलमेर, तारे ज़मीन पर, भूतनाथ, हम हैं राही प्यार के जैसी ह्रदयस्पर्शी फिल्में कहां से देखने को मिलेंगी। समाज में फैली तमाम भ्रातियों औऱ बुराइयों को आईना दिखाने में बालीवुड की अहम भूमिका है। अगर उसके योगदान को नकारकर हम उसके कुछ नकारात्मक पहलुओं को लेकर हो हल्ला मचायें ये कहां तक उचित है। एनीमल वेल फेयर बोर्ड को मेरी सलाह है कि वो अपनी ऊर्जा व्यर्थ के कामों की बजाए कुछ सार्थक करने में खर्च करे। इस मामले में मैं अपने तमाम ब्लागिए यार दोस्त और दूसरे भाई बंधुओं की राय जानने का इच्छुक हूं। कृपया इश लेख पर टिप्पणी कर अपने सुझावों से ज़रूर अवगत कराएं। धन्यवाद।

post by-
anil kumar verma

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