शनिवार, 7 जून 2008

महंगाई की राजनीति

07 जून 2008


उबली जन-मन भावना, महंगाई की आंच,

कीमत इतनी नुकीली, रस्ते पर ज्यों कांच।

रस्ते पर ज्यों कांच, बालकों को बहलाओ,

बटुआ लहूलुहान, न शॉपिंग करने जाओ।

चक्र सुदर्शन कहे— 'चाय है कैसी बबली?'

'गैस बचाने के चक्कर में आधी उबली।'

अशोक चक्रधर साहब की ये रचना देश में लगातार बढती महंगाई का सटीक चित्रण करती है। दो दिन बीते हैं, अभी केंद्र सरकार ने पेट्रोल, डीजल और रसोई गैस की कीमतों में इजाफा किया है। कहते हैं मजबूरी है, अंतर्राष्ट्रीय बाजार में तेल की कीमतें लगातार बढ़ रही हैं और देश में उन कंपनियों को भारी घाटा उठाना पड़ रहा है, जो इनकी सप्लाई करती हैं। सरकार के इस फैसले की जनता के बीच मिली जुली प्रतिक्रिया हुई। कुछ ने उसकी मजबूरी को समझते हुए इस फैसले को जायज बताया तो कुछ ने खुद को ठगा हुआ महसूस किया। उधर तमाम दूसरे राजनीतिक दल औऱ मीडिया तो जैसे तड़े बैठे थे कि सरकार बस पेट्रोलियम उत्पादों की कीमतों में वृद्धि का फैसला भर करे, उसके बाद के तमाशे की जिम्मेदारी तो उनकी है। विपक्षी दलों ने महंगाई को लेकर जंग तो पहले ही छेड़ रखी थी, पेट्रोलियम पदार्थों की कीमतों में हुए इजाफे ने तो उन्हें मन मागी मुराद दे दी। पहले मीडिया के सामने बयानों के ज़रिए भड़ास निकाली कि केंद्र सरकार जन विरोधी है, उसने जनता की जेब पर डाका डाला है, चेतावनियों का भी दौर चला, लोग सड़कों पर भी उतरे, पुतले भी फूंके गए, नारे भी लगाए गए और जनता से अपील की गई कि वो सरकार को उसके किए की सजा चुनाव में उसे हराकर दे। सरकार के सहयोगी वाम दलों ने भी सरकार के इस फैसले पर त्यौरियां तरेरने में कोताही नहीं बरती। सहयोगियों का भी मिजाज बिगड़ते देख यूपीए के सबसे बड़े दल कांग्रेस ने अपनी राज्य सरकारों से कहा कि वे अपने अपने राज्यों में पेट्रोलियम उत्पादों पर सेल्स टैक्स में कमी करके जनता पर पड़ेने वाले बोझ को कम करें। दिल्ली, पश्चिम बंगाल, केरल, आंध्र प्रदेश औऱ तमिलनाडु ने तत्काल कटौती को घोषणा की लेकिन कुछ राज्यों ने बिक्री कर घटाने से साफ इंकार कर दिया। कुल मिलाकर महंगाई की भट्टी पर अपने अपने फायदें की रोटियां सेंकने मे कोई भी राजनीतिक दल पीछे नहीं रहना चाहता था। समाज का चौथा स्तंभ भी महंगाई के चलते जनता को मिले दर्द की पराकाष्ठा को व्यक्त करने के लिए मरा जा रहा था। तेल में आग, किचन में आग, बटुए में आग, मार डाला, जेब पर डाका जैसे स्लोगनों को बड़े बड़े हर्फों में बैक ड्राप पर उकेरकर मानो जनता को ये एहसास दिलाने की कोशिश की जा रही थी कि भइया महंगाई बढ़ गई है, गैस महंगी हो गई है, पेट्रोल औऱ डीजल भी महंगा हो गया है, एंकर चिल्ला चिल्ला कर जनता से एक ही सवाल पूछ रही थी कि गैस महंगी होने से किचन कैसे मैनेज करेंगे, पेट्रोल औऱ डीजल महंगा होने से गाड़ी कैसे मैनेज करेंगे, महीने के बजट पर इसका क्या असर पड़ेगा। जनता बेचारी हक्की बक्की होकर महंगाई को लेकर चलने वाले इस तमाशे को देख रही थी। गुर्जरों के बंद का दंश अभी झेल ही रही थी कि अपने हितैषियों द्वारा आहूत बंद ने उसकी मुश्किलें और बढ़ा दीं। महंगाई और बंद के दो पाटों में बेचारी जनता पिस रही थी और हमारे नेता इस समस्या से निपटने के बजाए राजनीतिक जोड़तोड़ में लगे हुए हैं। मीडिया भी स्वस्थ बहस के बजाए डंडा लेकर सरकार के पीछे पड़ गई और इस फैसले के चलते आने वाले लोकसभा चुनाव के दौरान सरकार को हने वाले नफे नुकसान की गणित समझाने लगी। जिस तरह से महंगाई को लेकर हल्ला मच रहा था और सरकार को कोसा जा रहा था, मैं ये सोचने के लिए मजबूर हो गया कि क्या अगर भाजपा या फिर कोई और दल सत्ता में होता तो तेल की कीमतें न बढतीं। क्या तब अंतर्राष्ट्रीय बाजार में तेल की बढ़ती कीमतें नजरअंदाज कर दी जातीं, क्या तब कोई ऐसा रास्ता तलाश लिया जाता जिससे आम जनता को बढ़ती मंहगाई के इस दौर में पेट्रोलियम पदार्थों की कीमतों में होने वाली वृद्धि के असर से बचाया सकता, अगर हां तो क्या विपक्ष में बैठी भाजपा को इस समस्या के समाधान के लिए सत्ता पर काबिज होना ज़रूरी है, क्या वो विपक्ष में बैठकर सरकार को इस संबंध में सकारात्मक राय नहीं दे सकती, क्या जनता के दर्द को हथियार बनाकर उसके ज़रिए राजनीति करना उचित है। सरकार के सहयोगी की भूंमिका निभा रहे उन वामदलों को देखकर मुझे और ज्यादा कोफ्त होती है जो सहयोगी के बजाए दुश्मन की भूमिका कुछ ज्यादा अच्छी तरह से निभा रहे हैं। सरकार के हर फैसले को विरोध उनकी आदत बन चुका है। किसी मसले पर आम राय बनाकर उसका हल निकालने के बजाए सड़क पर उतरकर उछलकूद करना उन्हें ज्यादा अच्छा लगता है। जाहिर है ये लोग सत्ता की मलाई भी खाना चाहते हैं और जनता के हमदर्द बने रहने का ढोंग भी करना चाहते हैं। दुनिया के विकसित देशों जी-8 के ऊर्जा मंत्रियों की बैठक जापान में हो रही है, जिसमें तेल की बढ़ती क़ीमतों के दुनिया की अर्थव्यवस्था पर पड़ने वाले गंभीर असर पर विचार किया जाना है। ईश्वर से दुआ है कि इस बैठक में कुछ सार्थक निकले जिससे महंगाई के बोझ तले कराह रही जनता को कुछ राहत मिले वरना तो फिर भगवान ही मालिक है इस देश का और इस देश की व्यवस्था का।

post by-
anil kumar verma

कोई टिप्पणी नहीं:

http://