शुक्रवार, 5 सितंबर 2008

कौन समझेगा इनका दर्द

05 सितम्बर 2008



इस तस्वीर को ज़रा गौर से देखिएगा। ये तस्वीर है उस बेबस और लाचार पत्नी की है जिसके पति ने बुधवार को खुदकुशी कर ली। अब आप कारण भी जानना चाहेंगे। दरअसल कालिका संतरा नाम की इस महिला के दो बेटे टाटा के सिंगूर स्थित उसी प्लांट में काम करते हैं जहां दुनिया की सबसे सस्ती कार बनाने का काम चल रहा था लेकिन इस परियोजना के विरोध में छेड़े गए आंदोलन के चलते जिस पर संकट के बादल मंडराने लगे। इस आंदोलन के बाद इस प्लांट में काम काज ठप हो गया और टाटा समूह के चैयरमैन रतन टाटा ने सिंगूर से इस प्लांट को कहीं औऱ स्थानांतरित करने का फैसला कर लिया। उनके इस फैसले के बाद कालिका के दोनों बेटों के बेरोजगार होने का खतरा पैदा हो गया और खतरे की इस आहट ने कालिका के पति सुशेन को वो कदम उठाने के लिए मजबूर कर दिया जो उसकी पत्नी ने सपने में भी नहीं सोचा था। सुशेन ने कीटनाशक पीकर अपनी जीवनलीला समाप्त कर ली। कालिका के बेटे की मानें तो उसके पिता किसी पर बोझ नहीं बनना चाहते थे और दोनों भाइयों की बेरोजोगारी के डर ने ही उनके पिता की जान ले ली। हालांकि सभी जानते हैं फिर भी बता दूं कि सिंगूर भूमि अधिग्रहण के ख़िलाफ़ तृणमूल कांग्रेस की प्रमुख ममता बनर्ज़ी 25 दिनों के अनशन पर बैठी थीं और प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के आश्वासन के बाद ही उन्होंने अनशन समाप्त किया था। ममता बनर्जी परियोजना के लिए उपजाऊ ज़मीन के अधिग्रहण का विरोध कर रही थीं। इस कारखाने के लिए साढ़े तीन हज़ार से भी अधिक किसानों की ज़मीन ली जा रही है और विरोध करने वालों का कहना है कि किसानों के विस्थापन की क़ीमत पर कारखाना नहीं लगने दिया जाएगा। इनका ये भी कहना है कि वे नहीं चाहते कि टाटा सिंगूर से जाएं। उनका कहना है कि जिस ज़मीन पर कारखाना बना है उसके लिए ज़मीन ज़बरदस्ती अधिग्रहीत की गई है। ये ज़मीन उनके मालिकों को वापस कर दी जाए। टाटा और तृणमूल कांग्रेस के बीच चल रहे इस अघोषित युद्ध ने ही जॉमाला गाँव के किसान सुशेन संतारा की जान ले ली। टाटा अपनी परियोजना लेकर कहीं और चले जायेंगे, जिसके बाद तृणमूल कांग्रेस इसे अपने संघर्ष की जीत बताकर चुनावी मौसम में वोटों की फसल काटेगा। नुकसान न टाटा को है और न ही तृणमूल कांग्रेस को। नुकसान तो है उन लोगों का जो इस प्लांट में मजदूरी करते हैं। जिनके घर का चूल्हा इस परियोजना के चलते ही जल रहा था। अगर इन्हें काम से निकाल दिया गया तो इनके भूखों मरने की नौबत आ जाएगी और अगर इन्हे निकाला नहीं भी गया तो किसी औऱ राज्य में परियोजना के लगने पर वहां जाकर काम करना भी इनके लिए आसान नहीं होगा। मेरा मानना है कि इस समस्या के समाधान को लेकर जो भी कदम उठाया जाए वो इस परियोजना से जुड़े हर शख्स के हित को ध्यान में रखकर उठाया जाए। वरना रहीं ऐसा न हो कि बेरोजगारी का डर दूसरे मजदूरों को भी सुशेन संतारा की राह चलने के लिए मजबूर कर दे।

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