मंगलवार, 23 सितंबर 2008

उड़ीसा में भी बिहार की कहानी...


23 सितम्बर 2008
बिहार के बाद उड़ीसा, कहानी जुदा नहीं है, हालात ठीक वैसे ही हैं, बस विकरालता थोड़ी कम है, वरना सब कुछ वैसा ही है। चारों तरफ ठाठें मारता जल, सब कुछ निगल लेने को आतुर, सब कुछ मिटा देने को तत्पर, जिंदगियों को मौत के अंधेरों में गुम करता जीवनदायी जल एकाएक खलनायक की भूमिका में आ गया है। बिहार में इसने कोसी की शक्ल ली तो उड़ीसा में महानदी और उसकी सहायक नदियों का चोला पहनकर आ गया। नदियों के तट पर बसे लोगों की तो हर साल शामत आती है लेकिन इस बार तो शहरों में बसे खुद को सुरक्षित महसूस करने वालों को भी पसीने आ गए। गांवों में तबाही मचाने वाला बाढ़ का पानी लपलपाता हुआ उनके घरों में भी घुस गया। सालों की मेहनत से बनाए गए तमाम आशियाने लहरों की भेंट चढ़ गए। गाढ़े पसीने की कमाई नदियां अपने साथ बहा ले गईं। बेटियों की शादी के लिए जमा दहेज बह गया तो बच्चों की फीस के लिए रखे रुपए भी पानी में मिल गए। बेजुबान मवेशी खामोशी के साथ नदियों की अठखेलियों का शिकार हो गए। लोगों के सिर से छत छिन चुकी है, खाने को लाले पड़े हैं, बच्चे भूख से बिलबिला रहे हैं, बुजुर्गों की सहनशीलता भी जवाब दे रही है। मां की छाती से चिपके बच्चे दूध के लिए जब उसका चेहरा ताकते हैं तो उसका दिल चाक चाक हो जाता है। क्या करें, कहां जाएं, किससे करें मदद की गुहार। अब तो उसी परमपिता का सहारा है जिसने इस दुनिया को बनाया है। वहीं पार करेगा नैया क्योंकि इस जल प्रलय से पार पाना धऱती के रहनुमाओं के बस की बात तो रही नहीं। हर साल बाढ़ आती है और अपने साथ लाती है तबाही लेकिन फिर भी इस तबाही से निपटने में नाकाम रहती हैं सरकारें। एक बार फिर नाकाम हैं। सवाल ये है कि आखिर क्यों पूरे साल में कोई एसी कारगर नीति क्यों नहीं बन पाती जिससे कहर बरपाती इन चंचल लहरों पर लगाम लगाई जा सके। करोड़ों अरबों रुपए खर्च करने के बावजूद आखिर क्यों हो जाते हैं हम हर साल बाढ़ का शिकार ।
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