मंगलवार, 31 मार्च 2009

जब सांझ की बेला होती है...

31 मार्च 09
जब सांझ की बेला होती है
में इस पीपल के साए में
तालाब के तट पर आता हूं
हम दोनों जहां पे मिलते थे
दो पल के लिए दो क्षण के लिए
फिर मिल के बिछड़ जाते थे हम
इस बार मगर यूं बिछड़े हैं
जैसे न कभी मिल पाए हों
इस बार जो तट पर आया हूं
दो पल के मिलन की याद लिए
दो गीत बनाए जाता हूं
दो ख्वाब सजाए जाता हूं
जब सांझ की बेला होती है...

जब सर्द हवाएं चलती हैं
आंखों में मिलन के दो साए
हर वक्त मचलते रहते हैं
मजबूर हूं मैं मजबूर हो तुम
पर इतना तुम्हें मालूम तो हो
तुम आओ न आओ ए हमदम
मैं राह तुम्हारी तकता हूं
जब सांझ की बेला होती है...

जब गम का अंधेरा बढ़ता है
इक हूक जिगर में उठती है
में सोच से दामन भरता हूं
क्या मैं भी तुम्हारे ख्वाबों के
अफलाक पे मंडलाता हूंगा
गुमराह किसी बादल की तरह
जैसे कि मुझे तुम हर लम्हा
हर वक्त सताती रहती हो
हर वक्त मुझे याद आती हो
ऐ काश अगर फिर आ जाओ
उम्मीद का एक मुफलिस दीपक
हसरत से जलाया करता हूं
जब सांझ की बेला होती है...

तुम छोड़ के क्यूं उस पार गई
बेदर्द तुम्हे एहसास नहीं
ये कैसी मोहब्बत है कि मेरा
हर जख्मे जिगर रिसता ही रहे
ये कैसा ताल्लुकात है कि इधर
भूले से भी तुम अब आ ना सको
पर आज भी मुझको आशा है
इक रोज यकीनन आओगी
यह सोच के ही धीरे धीरे
मैं इस पीपल के साए में
तालाब के तट पर आता हूं
जब सांझ की बेला होती है...

5 टिप्‍पणियां:

राजीव थेपड़ा ( भूतनाथ ) ने कहा…

इतने ग़मज़दा.....!!चलो ऐसा भी कोई वक्त सही....किसी की याद में ही सही.....थोडा वक्त तो तब भी कट जाता है.....!!

बेनामी ने कहा…

दिल को छू लेने वाली कविता...बहुत दर्द है...दर्द को शब्दों के माध्यम से उकेर कर रख दिया गया है...बढ़िया रचना बधाई।

बेनामी ने कहा…

अच्छी कविता...भावनाओं की सुन्दर शब्दों के जरिए सुन्दर अभिव्यक्ति...बधाई स्वीकार करें।

mehek ने कहा…

bahut sunder rachana,bhav sampuen

संगीता पुरी ने कहा…

सुंदर लिखा है ... बधाई।

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