02 अप्रैल 09
न जाने कब तक
लिखता रहूंगा यूं ही
बेचैन निगाहों से
एक टक!
कुछ तलाशता हुआ शायद
नजर आ जाए कभी छवि तुम्हारी
भटकने से पहले संभाल ले जाएं
मुझे बाहें तुम्हारी
कहते हैं फल मीठा होता है
प्रतीक्षा का बेहद
बाढ़ सी आई है गमों की
मेरी जिन्दगी में शायद
बस!
अब और मत तड़पाओ
मत कराओ प्रतीक्षा
सीमा की हद तक
लुटा जा रहा है सब कुछ
छिना जा रहा है सब कुछ
बस प्रतीक्षा में तुम्हारी
पता नहीं कब समाप्त होगी
ये घड़ी प्रतीक्षा की
मुझे तो लगता है
बस यूं ही लिखते लिखते
डूब जाऊंगा इसी में शायद
तुम्हारी ही प्रतीक्षा में
न जाने कब तक
गुरुवार, 2 अप्रैल 2009
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4 टिप्पणियां:
मन की पीड़ा रचना में साफ झलकती है।सुन्दर रचना लिखी है।बधाई।
ईश्वर करे आपकी प्रतीक्षा जल्द खत्म हो जाए...बाकी, भावपूर्ण अभिव्यक्ति के लिए बधाई।
मत कराओ प्रतीक्षा ... वाह !!
भावपूर्ण रचना!!
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