03 अप्रैल 09
मैं तुझे चाहता नहीं लेकिन
फिर भी, जब तू पास नहीं होती
खुद को कितना उदास पाता हूं
गुम से अपने होशो-हवास पाता हूं
जाने क्या धुन समाई रहती है
इक खामोशी सी छाई रहती है
दिल से भी गुफ्तगू नहीं होती
मैं तुझे चाहता नहीं लेकिन...
फिर भी रात के खाली समय में
तेरी औकात सोचता हूं मैं
तेरी हर बात सोचता हूं मैं
कौन से फूल तुझको भाते हैं
रंग क्या क्या पसन्द आते हैं
खो सा जाता हूं तेरी जन्नत में
मैं तुझे चाहता नहीं लेकिन...
फिर भी, एहसास से निजात नहीं
सोचता हूं तो रंज होता है
दिल को जैसे कोई डुबोता है
जिसको इतना सराहता हूं मैं
जिसको इस दर्जा चाहता हूं में
इसमें तेरी सी कोई बात नहीं
मैं तुझे चाहता नहीं लेकिन...
शुक्रवार, 3 अप्रैल 2009
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9 टिप्पणियां:
सुन्दर रचना...बधाई..
भइया, लक्षण ठीकन हीं लग रहे हैं...ऐसा तो तभी होता है जब मर्ज दिल से जुड़ा हो...बहरहाल बढ़िया रचना..बधाई
मैं तुझे चाहता नहीं लेकिन
फिर भी, जब तू पास नहीं होती
खुद को कितना उदास पाता हूं
गुम से अपने होशो-हवास पाता हूं
बढ़िया रचना...दिल को छू गई...
गुड है भइया...लगे रहिए...
तेरी हर बात सोचता हूं मैं
कौन से फूल तुझको भाते हैं
रंग क्या क्या पसन्द आते हैं
खो सा जाता हूं तेरी जन्नत में
itna sab kuchh jantey hain aap aur kahtey chahta nahin..ajab virodhabhaas hai!
मैं तुझे चाहता नहीं लेकिन...
क्या बात है भाई .बात चाहे जो भी है लेकिन रचना अच्छी बनी है .
बहुत खूब ...
बहुत खूब ...
जाने क्या धुन समाई रहती है
इक खामोशी सी छाई रहती है
दिल से भी गुफ्तगू नहीं होती
मैं तुझे चाहता नहीं लेकिन...
bahut hi sunder bhav hai rachana ke,bahut badhai.
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