07 अप्रैल 09
अब तो मैं भूलने लगा था तुम्हें
आज फिर आ गई हो जाने क्यों
रंग और नूर का जहां बनकर
एक खिलते गुलाब की मानिन्द
इक चटकती हुई कली की तरह
लम्हा लम्हा संवरती जाती हो
नक्श बनकर उभरती जाती हो
तुम चली जाओगी घड़ी भर में
इतने वक्फे में सबसे मिल लोगी
घर का हर फर्द मुतमइन होगा
कौन जाने कि मेरा क्या होगा
मुझसे दो एक बात करके अभी
बेसबब यूं ही मुस्कुरा दोगी
ये अदा जो तुम्हारी फितरत है
मैं फकत देखता रहूंगा तुम्हें
तुमको क्या फिक्र किसको क्या गम है
हां, तुम्हें इससे वास्ता क्यों हो
इक हंसी हमसफर के पहलू में
अपनी दुनिया में शाद जो रहती हो
मंगलवार, 7 अप्रैल 2009
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2 टिप्पणियां:
कहते हैं कि-
खुदा के वास्ते आँखों से पोंछ लो आँसू।
रहेगा कौन इस टपकते हुए मकानों में।।
सादर
श्यामल सुमन
09955373288
मुश्किलों से भागने की अपनी फितरत है नहीं।
कोशिशें गर दिल से हो तो जल उठेगी खुद शमां।।
www.manoramsuman.blogspot.com
shyamalsuman@gmail.com
काफी दर्द छुपा रखा है अनिल जी...हर शब्द से टपक रहा है...अच्छी कविता...बधाई
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