15 अप्रैल 09
समय का पहरुआ बड़ा ही सजग है
किसी को भी रुकने ना देगा यहां पर
सभी हैं मुसाफिर उमर की डगर के
किसी को न मिलती है मंजिल यहां पर
लिए जा रहा हूं ये आंसू नयन में
सुनहरे सपन सब दिए जा रहा हूं
समय हो गया लो चला जा रहा हूं...
न सोचो कि पूरी न हो पाई बातें
यहां बात पूरी न होगी कभी भी
भले जिन्दगी भर रहूं देखता मैं
मगर प्यास पूरी न होगी कभी भी
लिए जा रहा हूं प्रबल प्यास अपनी
तुम्हें रस कलश में दिए जा रहा हूं
समय हो गया लो चला जा रहा हूं...
इतना ही कम क्या कि हम साथ में थे
नहीं तो यहां साथ मिलता न मांगे
सभी को है जाना सभी जायेंगे पर
कोई भी यहां, हाथ मिलता न मांगे
लिए जा रहा हूं, खिज़ा साथ अपने
महकता चमन ये दिए जा रहा हूं
समय हो गया लो चला जा रहा हूं...
बुधवार, 15 अप्रैल 2009
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4 टिप्पणियां:
लिए जा रहा हूं ये आंसू नयन में
सुनहरे सपन सब दिए जा रहा हूं...काफी भावपूर्ण रचना..मन विचलित हो गया...लेकिन जीवन का सच यही है...और अच्छे ढंग से बयां किया गया है...बधाई।
लिए जा रहा हूं प्रबल प्यास अपनी
तुम्हें रस कलश में दिए जा रहा हूं...इन लाइनों ने दिल को छू लिया...बढिया रचना...बधाई।
सुन्दर ! यदि जाते समय हम सब यह कह सकें तो क्या बात है।
घुघूती बासूती
समय के पहरूवे की पहचान अच्छी।
समय को समय संग जिए जा रहा हूँ।।
सादर
श्यामल सुमन
09955373288
मुश्किलों से भागने की अपनी फितरत है नहीं।
कोशिशें गर दिल से हो तो जल उठेगी खुद शमां।।
www.manoramsuman.blogspot.com
shyamalsuman@gmail.com
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