
29 मई 2008
राजस्थान से उठी आग की आंच अब देश की राजधानी समेत दूसरे हिस्सों में भी साफ महसूस की जा सकती है। खुद को अनुसूचित जाति का दर्जा देने को लेकर गुर्जरों ने जो आंदोलन राजस्थान में छेड़ा था वो अब व्यापक रूप ले चुका है। गुर्जरों ने राजधानी दिल्ली और एनसीआर में बंद का आह्वान कर तमाम रास्तों पर जाम लगा रखा है, कई महत्वपूर्ण ट्रेनें रोक दी गई हैं और बुनियादी ज़रूरतों वाली चीजों की आपूर्ति ठप कर दी गई है। कह सकते हैं कि जनजाति में आरक्षण की सुलगती भट्टी की लपटें अब आम आदमी को झुलसाने लगी है। समस्या पेचीदिगियों से भरी है,सुलझाने का रास्ता बातचीत की गलियों से होकर ही गुजरता है लेकिन उसका भी अभाव दिख रहा है। एक मंच पर आकर आम राय बनाते हुए अमन और शांति की बहाली के प्रयास के बजाए अभी भी राजनीतिक दल इसकी टोपी उसके सर वाला खेल खेलती नजर आ रही हैं। जिस तरह चुनावी राजनीति के तहत गुर्जरों को आरक्षण की हवा में बहाया गया था,आज भी लगभग वही प्रक्रिया सरकार द्वारा अपनाई जा रही है। गुर्जरों की मांग के अनुरूप प्रधानमंत्री को भेजे पत्र द्वारा यही स्थापित किया जा रहा है कि उनकी मांगों पर अब केंद्र को निर्णय लेना है लेकिन सभी जानते हैं कि इसकी एक पूरी संवैधानिक प्रक्रिया है और इसके तहत राष्ट्रीय अनुसूचित जनजाति आयोग की सिफारिश सबसे जरूरी और पहला कदम है। हालांकि इस दिशा में भी राजस्थान सरकार की तरफ से कोई पहल अभी तक तो नहीं हुई है। गौर से देखें तो राजस्थान में आरक्षण को लेकर गुर्जरों में पनपे असंतोष की पृष्ठभूमि में अवसरों से वंचित होने का अहसास तो है ही,साथ ही जनजाति में न आने के कारण राजनीतिक ताकत का लगातार छीजते चले जाना भी है। पूरे प्रदेश में एकाध इलाके को छोड़ दें तो बाकी राज्यभर में शैक्षिक व आर्थिक रूप से गुर्जरों की कोई बेहतर स्थिति नहीं बनी है,जबकि उनके समकक्ष अन्य कई जातियों ने अनुसूचित जनजाति का दर्जा पाने के बाद शिक्षा व नौकरियों के क्षेत्र में उल्लेखनीय सफलताएं हासिल की हैं,जिससे उनका आर्थिक स्तर भी बढ़ा है शायद यही कारण है कि यह मामला इतना जटिल होकर सामने आया है। ये स्थिति अभी औऱ विकट हो सकती है क्योंकि अनुसूचित जनजाति आयोग के सूत्रों की मानें तो करीब 1000 जातियों ने अर्जी दी है कि उन्हें जनजाति का दर्जा दिया जाए। उधर गुर्जरों के हितों की लड़ाई लड़ने के लिए गुर्जर नेता किरोड़ी सिंह बैंसला ने दलीय राजनीति में कूदने का मन बना लिया है। वह गुर्जरों को गोलबंद कर राजनीतिक दल का गठन करने की तैयारी कर रहे हैं। सामाजिक हक की लड़ाई अब राजनीतिक गलियारों में पहुंच चुकी है और अब लोग इस लड़ाई के दौरान मारे गए लोगों की लाशों पर अपना राजनीतिक मुकाम बनाने की संभावनाएं भी तलाशने लगे हैं। कहना गलत न होगा कि अगर आरक्षण की व्यवस्था को समय रहते तर्कसंगत नहीं बनाया गया तो जिस अर्थव्यवस्था को दुनिया के बराबर ले जाने की कोशिशें हो रही हैं,वह उल्टी दिशा में बहने लगे तो कोई आश्चर्य नहीं होगा।
post by-
anil kumar verma