शनिवार, 24 मई 2008

समाज का नासूर




24मई 2008
आज जो कुछ लिखने जा रहा हूं उस विषय पर काफी कुछ लिखा जा चुका है। मुझसे पहले न जाने कितने लोग इस समस्या को लेकर लोगों को जागरुक करने का काम कर चुके हैं लेकिन न हालात बदले हैं और न बदलते दिख रहे हैं। फिर भी मैं तो अपने अंदर उठ रहे द्वंद्व को शब्दों का रुप दूंगा ही। विषय है जातिवाद के साथ आरक्षण और संदर्भ में है राजस्थान। साल भर पहले गुर्जरों ने खुद को अनुसूचित जाति में शामिल करने को लेकर जो आंदोलन छेड़ा था वो एक बार फिर जोर पकड़ चुका है। दो दिनों में 39 मौतें हो चुकी हैं। राज्य के 15 जिले इस आंदोलन की चपेट में हैं। तोड़फोड़, आगजनी और हिंसा के बीच सेना के जवान स्थिति को काबू में करने की कोशिश कर रहे हैं। सरकार ने बातचीत के लिए गुर्जर नेताओं को न्योता भेजा है लेकिन क्या इस समस्या को अब वातानुकूलित कमरों में बैठकर हल किया जा सकता है। तमाम घरों के चिराग बुझ गए,मांओ की गोद सूनी हो गई,जाने कितने ही परिवारों की उम्मीदें इस हिंसा की भीड़ में खो गईं। आखिर किसकी वजह से। ये सवाल जब मन में उठता है तो भारतीय राजनीति का ऐसा विद्रूप चेहरा आंखों के सामने उभरता है कि बस पूछिए मत। जाति, धर्म मजहब और वर्णों में हमारे समाज को बांटने वालों ने भी नहीं सोचा होगा कि हालात इस कदर बेकाबू हो जायेंगे। सत्ता के लालच में चूर हमारे माननीय नित नए राजनीतिक समीकरण तलाशते हैं, नई गोटियां बिठाते हैं, ये सोचने में अपनी जिन्दगी का तमाम वक्त जाया करते हैं कि धर्मों और जातियों में बंटे समाज को अब और किन खाचों में बांटा जाए। उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती दलितों के पत्तों के साथ राजनीतिक बाजी खेलते खेलते थक गईं तो दलित-ब्राह्मण गठजोड़ कर अपना हाथी सत्ता के सिंहासन तक पहुंचाया, सपा मुखिया मुलायम सिंह यादव एम-वाई समीकरण साधते हैं तो चौधरी अजित सिंह किसानों और जाटों को एक छत के नीचे लाने की कसरत करते हैं, किस किस के बारे में लिखूं सभी एक ही कश्ती के सवार हैं। ऐसा ही कुछ राजस्थान की मुख्यमंज्ञी वसुंधरा राजे ने किया। साढ़े तीन साल पहले राजस्थान के मतदाताओं ने मुख्यमंत्री के रूप में वसुंधरा राजे का राजतिलक किया तो उन्होंने उम्मीद की थी कि वे राज्य को एक परिवार की तरह चलाएँगी लेकिन हालात कुछ और ही गवाही देते हैं। इस परिवार में कभी जाति के नाम पर विखंडन हुआ तो कभी सियासत में आवाम को क्षेत्र के नाम पर विभाजित किया गया। अब आरक्षण के नाम पर दो समुदायों में संघर्ष के हालात बन गए हैं। स्थिति बेकाबू हुई तो सरकार ने कहा गूजरों से आरक्षण का कोई वायदा नहीं किया गया था। जबकि गूजर नेता कहते हैं, वसुंधरा राजे मुख्यमंत्री बनने से पहले जब परिवर्तन यात्रा पर गईं थी तो उन्होंने कहा था कि मैं आपकी समधन हूँ और अगर मैं सरकार में आई तो आपको अनुसूचित जनजाति का दर्जा दूंगी। नतीजा आज सामने है, उन्मादी नारे, हिंसक भीड़ और राजमार्गों पर बहता लहू धीरे धीऱे राजस्थान की नियति बनता जा रहा है। एक वर्ग दूसरे वर्ग के खून का प्यासा हो रहा है। क्यों, शायद इसीलिए कि-

जातिवाद ने, प्रांतवाद ने, भाषा ने बांटा है।
वर्ण-भेद के विषधर ने मानव मन को काटा है।


धर्मों और जातियों में बंटे समाज को उसके उत्थान के नाम पर हमारे राजनेताओं ने आरक्षण का जो झुनझुना थमाया वो ऐसा बजा कि उसकी गूंज से देश अब तक दहल रहा है। शिक्षा और नौकरी में आरक्षण के ज़रिए बेहतर सुविधाओं के सपने दिखाकर समाज की तस्वीर बदलने की कोशिश की कीमत आज हम और आप ही चुका रहे हैं और ऐसा करने वाले अपनी इसी कोशिश का राजनीतिक लाभ उठाकर अपनी सेफद खादी को और सफेद कर रहे हैं। इन लोगों ने राष्ट्रीय एकता और अखंडता के सामने कट्टरता, संकीर्णता और स्वार्थवृत्ति का ऐसा जाल बुन दिया है जिससे बचकर निकलना असंभव सा लगने लगा है। हमारे सामने यही चुनौती है कि हम क्षुद्र मानसिकता की गलियों से निकलकर व्यापक द्रष्टिकोण अपनाएं,संयम और सहनशीलता के साथ सदभावना का परिचय दें, आगाह करें सभी राजनीतिक दलों, धार्मिक समूहों और वर्गो को कि सामाजिक स्तर पर विचार न करके मनुष्य के तौर पर मनुष्य के अनिवार्य अधिकारों की प्रभुता को स्वीकार करें और एक उच्च नैतिक आदर्श पेश कर कवि नीरज के शब्दों में एक ऐसे हिन्दुस्तान का निर्माण करें-

अब तो मजहब कोई ऐसा चलाया जाए
जिसमें इंसान को इंसान बनाया जाए
मेरे दु:ख दर्द का तुझ पर हो असर कुछ ऐसा
मैं रहूं भूखा तो तुझसे भी न खाया जाए।


post by-
anil kumar verma

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