गुरुवार, 22 मई 2008

दंगे और हिन्दुस्तान

23मई 2008
गुरूवार को देश में कांग्रेस के नेतृत्व वाली संप्रग सरकार ने अपने चार साल पूरे कर लिए। खट्टे मीठे अनुभवों के बीच जहां गठबंधन को एक टीम के रूप में तो प्रधानमंत्री डॉ.मनमोहन सिंह को एक कुशल अर्थशास्त्री के रूप में और सोनियां गांधी को एक जननेता के रूप में पेश किया गया। इन चार सालों में सरकार ने रोज़गार गारंटी योजना, सूचना का अधिकार, किसानों के लिए 60 हज़ार करोड़ रुपए के कर्ज़ की माफ़ी की घोषणाएँ कर जनता के बीच छाप छोड़ने की कोशिश की तो सच्चर आयोग का गठन कर और अन्य पिछड़ा वर्ग के लिए उच्च शिक्षण संस्थाओं में आरक्षण की कवायद छेड़कर उन्हें ये विश्वास दिलाने में मदद की कि वास्तव में कांग्रेस का हाथ आम आदमी के साथ है। हालांकि परमाणु करार जैसे तमाम मुद्दों पर सरकार के सहयोगी वामदलों और विपक्ष के साथ उनका तालमेल गड़बड़ाता नजर आया और संप्रग सरकार को आलोचनाओं का सामना करना पड़ा लेकिन इसी बीच सरकार ने एक और अहम फैसला लेकर सत्ता के गलियारों में चर्चा का माहौल बना दिया है। सरकार ने साल 2002 में गुजरात में हुए दंगों के दौरान पीड़ित हुए परिवार के लोगों के लिए 3.32 अरब रुपए के मुआवजे की घोषणा की है। वित्तमंत्री पी. चिदंबरम ने पत्रकारों से बातचीत में कहा कि गुजरात दंगे में जिन 1,169 लोगों की जानें गई हैं उनके परिवारों को प्रति परिवार तीन लाख पचास हजार रुपये की दर से मुआवजा दिया जाएगा। इस तरह मुआवजे के तौर पर कुल 40.19 करोड़ रुपये की राशि का वितरण किया जाएगा। उल्लेखनीय है कि गोधरा रेलवे स्टेशन के निकट साबरमती एक्सप्रेस में एक हिंसक भीड़ द्वारा 59 हिंदुओं को जलाकर मार देने के बाद गुजरात में साम्प्रदायिक दंगे भड़क उठे थे। इन दंगों में एक हजार से अधिक लोग मारे गए थे। छह साल के बाद सरकार के इस कदम ने राजनीतिक विश्लेषकों को अपना दिमाग चलाने के लिए मजबूर कर दिया है। आने वाले समय में मध्य प्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़, और नई दिल्ली समेत देश के तमाम राज्यों में चुनाव तो होने ही हैं साथ ही लोकसभा चुनावों की आहट भी सुनाई दे रही है। ऐसे में पहली नजर में यूपीए सरकार द्वारा गुजरात दंगा पीड़ितों के लिए की गई राह्त पैकेज की घोषणा महज चुनावी द्रष्टिकोण से उठाय़ा गया कदम ही लगता है। हालांकि ये कहना अभी जल्दबाजी होगी कि इस फैसले के चलते उसे बड़ा राजनीतिक लाभ मिलने जा रहा है क्योंकि गुजरात विधानसभा चुनाव में मोदी सरकार की खिलाफत में बजाया गया इसी दंगे का बिगुल कोई गुल नहीं खिला सका था। मोदी मंत्र फिर चला था और कमल निखरकर खिला था। बहरहाल ये तो हो गया राजनीतिक द्रष्टिकोण, बात करें गुजरात दंगे में मारे गए उन परिवारों की तो इस घोषणा के बाद देर से ही सही उनके ज़ख्मों पर मरहम ज़रूर लगेगा। बात गुजरात दंगे की चली है तो मैं यहा ये सवाल भी उठाना चाहूंगा कि आखिर हम धर्म और मजहब के नाम पर आपस में उलझकर राजनीतिक दलों को ये मौका कब तक देते रहेंगे कि वो हमारी और हमारे प्रियजनों की लाशों पर अपने फायदे की रोटियां सेंक सकें। सांप्रदायिक तनाव की स्थिति आज भी देश में सर्वाधिक चिंतनीय है। देश में संप्रदाय के नाम पर लोगों को आपस में खूब लड़ाया जाता है। राजनैतिक दल एवं राजनेता स्वयं जातिवाद या सांप्रदायवाद के प्रतीक बन गए हैं। आज हर वर्ष देश के कुछ भागों में सांप्रदायिक दंगे का भड़क जाना और सैकड़ों बेगुनाहों का खून बह जाना, सामान्य बात हो गई है। आखिर हम कबीर दास जी की इन पंक्तियों को अपने जीवन में कब उतारेंगे कि-

काशी-काबा एक है,एकै राम-रहीम।
मैदा एक पकवान बहु,बैठ कबीरा जीम॥


आप सोच रहे होंगे राजनीति की बात करते करते ये अचानक मेरा लहजा उपदेशात्मक क्यों और कैसे हो गया। दरअसल राजनीतिक नजरिए से बात को इसलिए शुरू किया क्योंकि दंगों की बात लिखते, सुनते और कहते हुए भी डर लगता है। बहाना मिला तो कह रहा हूं क्योंकि देश में हालात अभी भी बहुंत अच्छे नहीं है। इंसानियत के दुश्मन अपना नापाक मंसूबों की कामयाबी के लिए मौके ढूंढ रहे हैं और हमारी सोच उन्हें अवसर भी दे रही है। हालात ऐसे हैं कि अब तो मौत को भी इन दंगाइयों से डर लगने लगा होगा। यहां किसी कवि की ये कविता कहना चाहूंगा -

शहर में दंगा और दंगे के बाद कर्फ्यू
स्थिति तनावपूर्ण लेकिन नियंत्रण में
कुछ कुछ ऐसा ही था समाचारों में
सुबह के सात बज गए थे
अखबार वाला भी आया नहीं
तभी किसी के पदचापों का स्वर
और फिर खटखट की आवाज
सोचा चलो अखबार तो आया
लेकिन दरवाजों पर उभरी आकृति ने
मुझको चौंकाया
वह नारी थी
सांस उसकी इतनी तेज कि
जैसे उसे किसी ने दूर तक भगाया हो
मैं सोच ही रहा था कि कौन है ये
पहले ही वह बोल उठी मैं
मैं हूं मौत, हां मौत
मैं चीखा मौत
भाग जाओ यहां से
अब तक तूने कितने ही
निर्दोषों का खून पिया है
अब मुझे लेने आई है
पर वह क्षमा याचना स्वर में बोली
तुम बचा लो
मुझे डर लग रहा है
डर, हा-हा-हा मैं हंसा और बोला
क्या मौत को भी डर लगता है
किससे
जवाब था हां,
दंगाइयों और कर्फ्यू से....
ये लिखने का मेरा मकसद यही है कि अब भी वक्त है हमें सचेतना होगा और अपने अतीत से सीखकर वर्तमान को संभालना होगा। तभी एक विकसित और खुशहाल हिन्दुस्तान बने सकेगा।

post by
anil kumar verma

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