19 मई 2008
सूखे और दरारों से भरे खेत, आसमान में टकटकी लगाए बूढी और कमजोर आंखें, शरीर के नाम पर हड्डियों का ढांचा लिए भूख से बिलबिलाते बच्चे, सूनी मांग लिए विधवाओं की एक बड़ी संख्या, सूखे तालाब और नदियां, सन्नाटे को भी शर्मसार कर देने वाली वीरानी समेटे गांव और उन गांवों के घरों में पड़े ताले, किसी उपन्यासकार के लिए कहानी की एक अच्छी पृष्ठभूमि साबित हो सकते हैं और हुए भी हैं। कहानियां लिखी जा रही हैं, लेख लिखे जा रहे हैं, ब्लाग्स पर विचारों को शब्दों की चाशनी में ढाला जा रहा है। फिल्में बन भी चुकी हैं और हो सकता है किसी फिल्मकार का दिल एक बार फिर इन हालातों को सिने जगत की सिल्वर स्क्रीन पर दिखाने के लिए मचल जाए लेकिन जरा उन दिलों से पूछिए जो वास्तव में इस तस्वीर का एक हिस्सा हैं। जी हां, ऊपर जिन दृश्यों को मैनें शब्दों का मुलम्मा पहनाया वो वास्तव में बुंदेलखण्ड की तस्वीर का एक जीता जागता उदाहरण भर हैं। उदाहरण इसलिए कह रहा हूं क्योंकि हकीकत इससे कहीं ज्यादा भयावह है। अपने अतीत की चादर में एक गौरवशाली इतिहास समेटे उत्तर प्रदेश का ये इलाका पिछले पांच सालों से सूखा, भूख और बेकारी के साथ साथ कर्ज के मकड़जाल की उस दास्तान से रूबरू हो रहा है जिसने इसकी समृद्धशाली तस्वीर को बदरंग कर दिया है। अन्नदाता के नाम से मशहूर किसानों से इंद्र देवता क्या रूठे गरीबी ने इनके घरों में स्थाई ठिकाना बना लिया। खेत बंजर हो गए तो बात कर्जे तक जा पहुंची। गांव के साहूकार ने गहनों और ज़मीनों को गिरवी रखकर कर्ज दिया तो बैकों ने क्रेडिट कार्ड का झुनझुना थमाया लेकिन हालात न बदलने थे न बदले। सूखे ने साथ नहीं छोड़ा, कर्जे पर ब्याज बढ़ गया तो कर्ज चुकाने के लिए फिर कर्ज लिया। फिर तो जैसे सिलसिला सा चल पड़ा और सिलसिले की भेंट चढ़ने लगी अन्नदाताओ की जिंदगी। सूखे और कर्ज से परेशान किसान एक एक कर आत्महत्या करने लगे। भूख, बेकारी और तंगहाली ने इन किसानों के घरों में डेरा डाल दिया था। ये तीनों तो घर से निकले नहीं लिहाजा घर के दूसरे मर्दों ने कामकाज की तलाश में गांव छोड़ना शुरू कर दिया। इसका अंदाजा आपको तब होगा जब आप महोबा रेलवे स्टेशन पर पहुंचेगे और आपको पता चलेगा कि पिछले कुछ महीनों में वहां से डेढ़ लाख टिकट बिके, जिनमें से ज्यादातर दिल्ली के थे। कुछ ऐसा ही हाल झांसी और उरई का है। लगभग डेढ़ लाख किसान हर महीने इस इलाके से पलायन कर रहे हैं। कर्ज के मकड़जाल और भूख की तपिश से होने वाली मौतों को पहले तो स्थानीय प्रशासन अपनी गरदन नपने के डर से दबाए रहा लेकिन जब इन इलाकों में काम करने वाली स्वयंसेवी संस्थाओं ने हो हल्ला मचाया तो बात दूर तक फैली। वातानुकूलित कमरों में बैठकर ऐसे लोगों की सरपरस्ती का दम भरने वाले खद्दरधारियों के कानों पर भी सिलवटें दिखीं और वो हरकत में आ गए। फिर शुरू हुआ एक दूसरे को कोसने का सिलसिला। राज्य सरकार ने केंद्र को कोसा और केंद्र ने हालातों के लिए राज्य को जिम्मेदार ठहराया। इतने से तसल्ली नहीं हुई तो ताबड़तोड़ दौरे शुरू हो गए। प्रदेश में नई पारी खेलने को तैयार बैठी कांग्रेस को भी अवसर मुफीद लगा तो युवराज राहुल गांधी भी बुंदेलखण्ड का दर्द जानने के लिए मचल उठे। जब राहुल बांदा से 20 किलोमीटर दूर बसे पंडुई गांव पहुंचे तो वहां के लोगों में अपना दर्द बयां करने की होड़ सी लग गई। थरथराती काया के मुंह से जब बोल फूटे तो आँखों से आंसुओं की अविरल धारा बह निकली। इसी गांव से सटी एक दलित बस्ती में रहने वाली बच्ची प्रभा से जब कुरेद कर पूछा गया तो उसने कहा कि रोज रोज खाने को नहीं मिलता। अम्मा चूल्हे की राख गरम पानी में घोलकर कपड़े से छान देती है। आज पूरा दिन वही पीकर गुजारा है। हालात इतने भयावह थे कि राहुल खुद भावुक हो गए। हर दिल से एक ही आवाज आ रही थी कि साहब हमका बचाए लियो नाहीं त हम भूखय मर जाबै। राहुल सभी को राहत का भरोसा दिलाकर गए और केंद्र सरकार ने इस बार के बजट में किसानों को राहत देते हुए सोलह हजार करोड़ के कर्ज माफ कर दिए। बावजूद इसके भी हालात नहीं सुधरे हैं। बुंदेलखण्ड को लेकर यूं तो राजनीति पहले भी होती रही है लेकिन राहुल के दौरे के बाद इसमें कुछ ज्यादा ही तेजी आ गई। मुख्यमंत्री मायावती को लगा कि राहुल तो बाजी मार ले जायेंगे लिहाजा उन्होंने बुंदेलखण्ड को अलग राज्य बनाने की मांग करते हुए केंद्र से अस्सी हजार करोड़ के पैकेज की मांग कर डाली। दूसरे राजनीतिक दल भी अपने स्तर से बुंदेलखण्ड के नाम पर कुछ न कुछ खिचड़ी पका रहे हैं लेकिन सवाल यही है कि ये सारी कवायद महज राजनीतिक शोशा भर है। बुंदेलखण्ड में आज भी कर्ज वसूली के नाम पर खेत बंधक बनाए जा रहे हैं। सिकरी व्यास गांव में तो पूरे गांव की जमीन गिरवी पड़ी है। सौ-सौ बीघे खेतों के काश्तकार शहरों में जाकर चौकीदारी कर रहे हैं। क्या करें खेतों की कोख बंजर हो चुकी है। भूख, भुखमरी, खुदकुशी और पलायन यही बुंदेलखण्ड की नियति बन चुकी है और हमारे देश की राजनीति और नेता इसी नियति पर अपने चूल्हे की रोटी सेंक रहे हैं और संकते रहेंगे भले ही हमारा अन्नदाता भूख से बिलबिला कर दम तोड़ दे।
post by-
anil kumar verma
सोमवार, 19 मई 2008
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