सोमवार, 5 जनवरी 2009

सर्दी की रात और वो मासूम


05 जनवरी 09
दिल्ली के साथ साथ पूरे उत्तर भारत में ठंड ने कहर बरपा रखा है। सुबह आंख खुले तो चारों तरफ धुंध और कोहरे की चादर छाई मिलती है और रात हो तो भी नजारा बदलने का नाम नहीं लेता। अलसाया सूरज दूर कहीं बादलों की ओट में चादर ताने सोता नजर आता है तो चांद और तारे भी आसमान की गोद में दुबके से मालूम होते हैं। हर कोई सलाह देता नजर आ रहा है कि ठंड से बचने के लिए पूरे शरीर को गरम कपड़ों से ढक कर रखें, बहुत ज़रूरी हो तभी घर से बाहर निकलें। कोहरे से बचें, ये करें वो करें लेकिन वो क्या करें खुला आसमान ही जिनकी छत है, धरती की गोद ही जिनका घर है और कपड़ों के नाम पर चंद चिथड़े जिनके शरीर को बामुश्किल ढांपते हैं। क्या ऐसे लोगों के लिए भी हमारे पास कोई सलाह है। जिनके लिए दो वक्त की रोटी जुटाना मुश्किल हैं वो अपने लिए गर्म कपड़े कहां से लाएं। राजू ऐसा ही एक मासूम था। जिससे मेरी मुलाकात शनिवार की रात उस वक्त हुई थी जब मैं ऑफिस से घर जा रहा था। ग्यारह बजे होंगे एनएच-24 से वसुंधरा के लिए जाने वाली सड़क पर मैनें मोटरसाइकल मोड़ी तो हेडलाइट की धुंधली रोशनी में एक मासूम को पेड़ के नीचे ठिठुरते पाया। घने कोहरे में जब हाथ को हाथ नहीं सूझ रहा था वो बच्चा एक फटी हुई बोरी पर पैरों को सिकोड़े ठंड का सामना करने की कोशिश कर रहा था। सर्दी में कांपते उस बच्चे के दांत बज रहे थे। मैनें मोटरसाइकल रोक दी। डिग्गी में रखी एक टोपी, दस्ताने और एक अतिरिक्त जैकेट निकालकर मैं उसके पास पहुंचा। मेरे कदमों की आहट से वो चौंका। मैनें उसके सर पर हाथ फेरा और हाथ में पकड़े कपड़े उसकी तरफ बढ़ा दिए। जैकेट बड़ी थी लेकिन फायदा ये हुआ कि उसका पूरा शरीर ढक गया। टोपी भी उसने लगा ली लेकिन दस्ताने उसके हाथ से काफी बड़े थे। पांच मिनट के बाद उसके दांतों की किटकिटाहट थम गई। उसके शरीर में गर्मी आ गई थी। मेरे पास बिस्किट और नमकीन का एक पैकेट पड़ा था। मैनें उसे दिया तो वो उस पर टूट पड़ा। उसकी भूख तो नहीं मिटी लेकिन फिर भी उसका चेहरा बता रहा था कि उसे राहत मिली है। कोहरा और घना हो चला था। उसे इस हालत में छोड़ना मुझे मुनासिब न लगा। मैनें उसे उठाकर मोटरसाइकल पर बिठाया और चल पड़ा। मेरे घर को जाने वाले रास्ते में एक पुलिस थाना पड़ता है। मैनें उसे वहां छोड़ दिया और पुलिसकर्मियों को ज़रूरी जानकारी देकर घर के लिए चल पड़ा। मेरी आंखों के सामने उस बच्चे का मासूम चेहरा रह रह कर कौंध रहा था। ठंड से कांपती उसकी काया दिलो दिमाग पर छाई हुई थी। लगातार बढ़ती शीत ने मेरा स्वेटर भिगो दिया था। हेलमेट से टपकती पानी की एक बूंद आंख पर गिरी तो मानों मैं सपने से बाहर आया। सिर को हल्का झटका देकर मैं घर की ओर चल पड़ा। दिमाग में सैकड़ों सवाल लिए...दिल पर एक बोझ लिए कि ऐसे ही न जाने कितने बच्चे इस भीषण सर्दी में कापने को, ठिठुरने को मजबूर होंगे। नए साल की सौगात के रूप में मिली इस सर्दी को भला वो कैसे झेल रहे होंगे। ना तो उनके पास गर्म कपड़े हैं, ना रजाई या कंबल, ना पेट भरने को रोटी है और ना ही रात गुजारने का कोई ठिकाना। राजू को एक रात के लिए तो आसरा मिल गया लेकिन बाकी की सर्द रातें वो या उसके जैसे बच्चे कैसे कांटेंगे। क्या इस नए साल में इन अनाथ बच्चों के लिए कुछ किया जा सकता है।

1 टिप्पणी:

Vinay ने कहा…

इसी वजह से रोज़ 10-20 लोग मर रहे हैं, सरकार या संस्थाएँ जो रोज़ लाखों रुपये चंदे में जमा कर रही हैं आख़ोर वह जाता कहाँ है...?


---यदि समय हो तो पधारें---
चाँद, बादल और शाम पर आपका स्वागत है|

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