बुधवार, 21 मई 2008

सपनों की हकीकत

21मई 2008
विदेशों में नौकरी दिलाने के नाम पर कबूतरबाजों ने गाजियाबाद में छह लोगों को छह लाख अस्सी हजार रुपए का चूना लागाया और फरार हो गए। एक हिन्दी अखबार में छपी ये खबर कोई नयी नहीं है। इस तरह के सैकड़ों मामले पहले भी प्रकाश में आए हैं। पूरे देश में इस तरह के तमाम नेटवर्क काम कर रहे हैं जो लोगों का दूसरे मुल्कों के प्रति बढ़ते रुझान और बढ़ती बेरोजगारी
का फायदा उठाकर लोगों को ठग रहे हैं। ये तो वो लोग हैं जो विदेश पहुंचने से पहले ही ठगी का शिकार हो गए लेकिन तमाम ऐसे लोग भी हैं जिन्हें असलियत का पता उस वक्त चला जब उन्होंने अपने वतन से हजारों किलोमीटर दूर अनजाने मुल्क में कदम रखा। भारत के तमाम राज्यों से बड़ी तादात में लोग नौकरी या रोजगार के नाम पर दूसरे मुल्को का रुख कर रहे हैं। ये लोग विदेश जाने के लिए ट्रेवेल एजेंटों का सहारा लेते हैं लेकिन इनमें से ज्यादातर एजेंट फर्जी होते हैं। दरअसल विदेशी मुल्कों का रुख करने के पीछे कुछ तो लोगों की बुनियादी ज़रूरतें हैं और कुछ आकर्षण। ऐसे लोगों में ग्रामीण परिवेश में रहने वालों की संख्या ज्यादा होती है। ये लोग जीवन में कुछ बेहतरीन हासिल करने के लिए मन में ठाठें मार रही ख्वाहिशों को हकीकत का जामा पहनाने के लिए पराए मुल्क का रुख करते हैं। हालांकि इनके दिलों में आसमान साध लेने की ललक नहीं होती ये लोग अपने परिवार के लिए दो वक्त की रोटी का जुगाड़ करने के लिए ही अपनों से दूर जाते हैं। इनसे इनका घर बार छूटता है, अपनों का प्यार छूटता है, गांव की वो गलियां छूटती हैं जिनमें उनका बचपन बीता है, छूट जाते हैं वो त्योहार जिनकी रूमानियत उनके रोम रोम में बसी है, छूट जाती है वो हवा जिसकी खुश्बू उनकी सांसों को महकाती है साथ ही छूट जाती है वो मिट्टी जिसकी गोद में खेलकर वो बड़े हुए हैं लेकिन क्या करें इन सब पर उनकी जरूरतों की मार भारी पड़ती है। बच्चों को पढ़ाना है, मां बाप का इलाज कराना है, बरसात में टपकती कच्ची छत को पक्का करवाना है, साहूकार का कर्ज चुकाना है ऐसी तमाम उलझनें सुलझाने के लिए लोग विदेशों का रुख करते हैं। ऐशो-आराम उनका मकसद नही होता, मकसद होता है परिवार का सुकून। हालांकि सभी को ये हासिल हो ऐसा ज़रूरी भी नहीं। कबूतरबाजों के चक्कर में अपना सब कुछ गिरवी रखकर पराए मुल्क पहुंचे भोले भाले लोगों को कागजी कार्रवाई के जाल में उलझकर तमाम मुसीबतों का भी समाना करना पड़ता है। परेशानी कभी फर्जी पासपोर्ट और वीजे के रूप में सामने आती है तो कभी कोई और रुप धरकर। सब सहते हैं परिवार की खातिर। बहरीन, कुवैत, ओमान, कतर, सउदी अरब और संयुक्त अरब अमीरात जैसे तमाम देशों में भारतीय पुरुष और महिलाएं अपना पसीना बहा रहे हैं। इनको यहां मिला रोजगार शारीरिक शोषण और दूसरे अमानवीय जुल्मों का पर्याय बन जाता है लेकिन क्या करें अपने परिवार के लिए सब सहते हैं। आंकड़े बताते हैं कि 2006 में इन देशों से भारत भेजी गई कुल रकम 235 करोड़ रुपए थी। यही वजह रहती है कि सब सहकर भी लोग चुप रहते हैं। कभी कभी तो बीमार होने पर समय पर कंपनियां इन्हें उचित इलाज तक नहीं देती जिसके अभाव में इनकी मौत तक हो जाती है। इतना ही नहीं इसकी सूचना तक संबंधित परिवार तक नहीं पहुंचाई जाती है। अपने आखिरी समय में अपने परिजनों से मिलने की ललक दिल में लिए इस तरह के तमाम लोग इस दुनिया से विदा ले लेते हैं। महीनों बाद घर वालों को सूचना मिलती है कि उनके घर का चिराग हमेशा के लिए बुझ गया। किसी को समय से पता भी चल गया तो सरकारी दफ्तरों और दूतावास के चक्कर लगाते लगाते उनकी एडियां घिस जाती है लेकिन लाश क्लेम नहीं हो पाती। ऐसे तमाम उदहाऱण देखने को मिले हैं जब पराए मुल्क में नौकरी के लिए गए लोगों की मौत के बाद उनका शरीर अंतिम दर्शनों के लिए उनके परिजनों को नसीब नहीं हुआ। हालांकि खाड़ी देशों में अब ऐसे लोगों के लिए सुधारात्मक उपाय अपनाने की पहल की जा रही हैं। इनसके तहत भारतीयें के लिए काम करने के हालात सुधारने की पहल की जा रही है। इसके पीछे बड़ी वजह है भारत का नई आर्थिक शक्ति के रूप में उभरना लेकिन फिलहाल इसमें काफी वक्त लग सकता है। फिलहाल तो गरीबी और बेरोजगारी भारतीयों को विदेशों का रुख करने के लिए मजबूर कर रही है और ये लोग कभी कबूतरबाजों का शिकार बन रहे हैं तो कभी पराए मुल्क पहुंचकर शारीरिक शोषण झेल रहे हैं। भारत से ही शुरू हई शोषण की कहानी जब तक इन लोगों की समझ में आती है तब तक इनकी जिन्दगी दूसरों की दया की मोहताज हो चुकी होती है। ये सिलसिला शायद चलता रहे क्योंकि इस देश से न तो गरीबी मिटने वाली है औऱ नही बेरोजगारी। सच्चाई कड़वी है लेकिन यही है।

post by-
anil kumar verma

1 टिप्पणी:

lekhni-rohtas ने कहा…

सपनों की हक़ीक़त में जिस तरह आपने दरअसल सपनों के एवज़ में जो क़ीमत चुकानी पड़ती है... उसका चित्रण किया है, वो निस्संदेह उद्वेलित करने वाली है। नई आर्थिक शक्ति के रूप में उभरते भारत की जिस विडम्बना की आपने चर्चा की उसका निराकरण बेहद ज़रूरी है... ये दीगर बात है कि इस समस्या को समझना जितना आसान है उतना इसका हल नहीं। ऐसा नहीं कि भोले-भाले गांव वालों को इन परिस्थितियों की जानकारी नहीं होती, पास-पड़ोस में ऐसी घटनाएं देखने के बावज़ूद वे भी वही क़दम उठाते हैं या कहें उठाने को मजबूर हैं। दूसरी तरफ अपने फायदे के लिए घर के घर तबाह कर देने वाले ऐजेंटों से ईमानदारी की उम्मीद नहीं... देश में बेरोजगारी की कड़वी सच्चाई आप बयां कर ही चुके हैं... ऐसे में हल क्या हो? समस्या का उठाना ही तो पर्याप्त नहीं होता...

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