शुक्रवार, 24 अक्तूबर 2008

कब बिकेंगे दिए



24 अक्ट्बूर 2008
कल शाम बाज़ार से गुजरते समय नजर सड़क किनारे बने घास फूस के एक छप्पर पर जा टिकी। जिसकी दीवारों में कच्ची मिट्टी की गंध बसी थी। इसी तरह के कुछ और छप्पर पूरे माहौल को एक छोटी सी बस्ती का रूप दे रहे थे। शाम का धुंधलका अपने पंख पसारने लगा था। वातावरण में हल्की सी ठंड घुल गई थी। उन छप्परों में से एक के सामने जाकर मैं ठिठक गया। दरअसल ये कुम्हारों की बस्ती थी। दीपावली नजदीक है इसलिए यहां थोड़ी चहल पहल थी। किसी छप्पर के आगे मिट्टी के लोंदे बन रहे थे तो कहीं आंवे में बर्तन पक रहे थे। कहीं चाक अपनी पूरी रफ्तार से घूम रहा था तो कहीं सांचे में ढले कच्चे बर्तन सांझ के सूरज की लालिमा को अपने भीतर समाहित कर रहे थे। कुछ बच्चे मैले कुचैले कपड़ों में पकड़म पकड़ाई खेल रहे थे। इन्हीं में से किसी एक छप्पर के भीतर से मसाले की सोंधी खुश्बू आ रही थी। शायद किसी कुम्हार का कोई बर्तन कुछ अच्छे दामों में बिक गया था, जिसकी खुशी कुछ अच्छा खाकर मनाने की तैयारी हो रही थी। बहरहाल तेजी से घूमते एक चाक के पास जाकर मैं ठिठक गया। कुम्हार के हाथ चाक पर रखे मिट्टी के लोंदे को आकार दे रहे थे। दिए का आकार। पास में बने हुए कई कच्चे दीपक रखे थे। कुम्हार के हाथ अपना काम कर रहे थे लेकिन दिमाग किन्ही ख्यालों में गुम लग रहा था। मैं वहीं बैठ गया। यूं ही...बेमकसद...कुम्हार के साथ बातचीत का सिलसिला शुरू करने के लिए मैनें उसके चेहरे की तरफ देखा लेकिन कोई हलचल न देख मैं सकपका गया। उसके चेहरे पर अब भी वीरानी छाई हुई थी। वो खुद से ही सवाल करता दिखाई पड़ रहा था। मैं ये जानने के लिए और उत्सुक हो गया कि आखिर ऐसा क्या हुआ है या हो रहा है जो उसे अंदर ही अंदर खाए जा रहा है। मैनें उसे धीमे से आवाज़ दी। उसने मेरी तरफ पलटकर तो देखा लेकिन बोला कुछ नहीं। मैनें उससे दियों के भाव पूछे तो उसकी नजरें मेरे चेहरे पर आकर ठहर गईं। उसने मुझे बड़े गौर से देखा। मानों मेरा चेहरा पढ़ने की कोशिश कर रहा हो। पहली बार मैनें उसके चेहरे पर हल्की सी और कमजोर मुस्कुराहट देखी। आशा भरी निगाहों से मेरे चेहरे पर टकटकी लगाए वो बोला बाबूजी कितने चाहिए। मैं सकपका गया। फिर भी खुद को संभालते हुए बोला पहले रेट तो बता दो भाई। वो जल्दी से बोला बाबूजी रेट की चिन्ता मत कीजिए थोड़ा कम दे देना, अब बताइए कितने दे दूं। दिए बेचने की उसकी व्यग्रता भांपते हुए मैनें उसका दिल रखने के लिए दो दर्जन दियों के आर्डर दे दिए। कुम्हार अब थोड़ा सहज दिख रहा था। लिहाजा मैनें बात आगे बढ़ाने का उपक्रम किया। बात व्यवसाय से शुरू हुई। बाजार के हालचाल के बाद घर परिवार की बातें भी हुईं। उससे बात करने के बाद मेरे सवालों के जवाब कुछ हद तक मिल चुके थे और मेरी समझ में ये आ चुका था कि आखिर कुम्हार की परेशानी क्या थी। बदलते वक्त के साथ हमारी तहजीब और संस्कृति पर आधुनिकता का मुलम्मा चढ़ गया है। जिस मिट्टी की सोंधी खुश्बू के बीच हम पल बढ़ कर बड़े हुए हैं उसी मिट्टी से हमारा मोह कम होता जा रहा है। मिट्टी के बर्तनों की जगह या तो चमकदार स्टील ने ले ली है या फिर फाइबर के बर्तनों ने। एक समय था जब घरों में रोशनी के लिए लोग मिट्टी के दिए लाते थे। दीपावली पर तो लोग सैकड़ों की संख्या में दिए खरीद कर लाते थे और ये ऐसा वक्त होता था जब कुम्हार सबसे ज्यादा व्यस्त होते थे लेकिन आज लोगों को मिट्टी के दियों की बजाए बिजली की झालरें और मोमबत्तियां लुभाने लगी हैं। कह सकते हैं कि जगमग बिजली की रोशनी में दीयों की टिमटिमाहट के लिए अब जगह नहीं बची है। दीपावली शब्द ही जिस दीप से बना है, उसका अस्तित्व आज ख़तरे में है। जैसे-जैसे ज़माने का चलन बदल रहा है, मिट्टी के दीए की कहानी ख़त्म होती जा रही है। पुश्तों से यही काम करने वाले कुम्हार आज दीपावाली के पहले उदास और मायूस हैं। लोगों के पास महंगाई का तर्क हैं कि तेल औऱ घी के दाम आसमान छूने लगे हैं, ऐसे में दिए कौन खरीदे लेकिन सच्चाई यही है कि मशीनों के आगे कुम्हार के हाथ हार मानने लगे हैं। यही वो वजह है जो कुम्हार के चाक की रफ्तार कमजोर पड़ गई है। यही वो कारण है जो कुम्हार के चेहरे पर पीड़ा बनकर उभरने लगा है। ऐसे में जब परिवार का पेट पालना मुश्किल हो रहा हो तो आने वाली पीढ़ियों का भविष्य संवारने के ख्वाब वो भला कैसे देखे। यही वो वजह है जिसने कुम्हार को परेशान कर रखा है। फिर दीपावली आई है, लोग खुश हैं, खरीददारी कर रहे हैं लेकिन दिए नहीं बिक रहे हैं। कभी दूसरों के घरों को रोशन करने का सामान बनाने वालों के घर ही आज अंधेरे में डूबे हैं। क्या फिर कोई ऐसा दौर आएगा जब मिट्टी के बनाए दिए बिकेंगे और कुम्हार के घर में भी खुशहाली आएगी ?

2 टिप्‍पणियां:

L.Goswami ने कहा…

ek sundar aur satik lekh ..vaisvikaran ek taraf wardan hai to dusari taraf abhishap bhi..khair kiya kya ja sakta hai.

manvinder bhimber ने कहा…

bahut sunder vivran prstut kiya hai......
yahi sach hai

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