गुरुवार, 30 अक्तूबर 2008
आंसू मेरे दिल की ज़ुबान हैं
31 अक्टूबर 2008
आज यूं ही बैठे बैठे कुछ पुरानी यादें मन के दरवाजे पर दस्तक दे गईं। कुछ खट्टी, कुछ मीठीं यादें। दिल भर आया और साथ ही आंखें भी। आंख से टपका आंसू सामने रखी किताब को गीला कर गया तो मन हुआ इन आंसुओं पर कुछ, लिखा जाए। दरअसल आंसू अभिव्यक्ति का सबसे सहज माध्यम हैं। गम है तो आंसू बहते हैं, खुशी है तो आंसू साथ रहते हैं, हार पर तो रोना आता ही है, जीत पर भी आंखें गीली हो जाती हैं। अपनों की जुदाई में भी अंखियां बरसती हैं और मिलन में भी छलके बिना नहीं रह पातीं। जीवन के हर रंग में, हर मोड़ पर, किसी न किसी रूप में साथ निभाते हैं ये आंसू। कभी अतीत की किसी खिड़की से भूली बिसरी यादें झांकने लगती हैं तो आंखें बरबस ही बरस पड़ती हैं। यादें, अपनी यादें, अपनों की यादें, देर तक सालती रहती हैं मन को। मन भीगने लगता है यादों की रिझिम से और आंखें भीगने लगती हैं आंसुओं से। दिल सोचता है कि जो छूट गया वो अनमोल था, जो पाया वो व्यर्थ है, जो खो दिया वही शाश्वत था, जो मिला वो निरर्थक ही है। अतीत का तो आंसुओं से पुराना नाता है। हम कभी पुराने दुखों को याद करके रोते हैं तो कभी सुखों को। पुरानी यादें सिर्फ दर्द देती हैं और दर्द आंसू। सोचा था क्या और क्या हो गया। कभी अपनी ही कोई बात रुला जाती है तो कभी हालात रोने को विवश कर देते हैं। हम अपने जीवन के लिए क्या क्या मंसूबे बांधते हैं, कितने ख्वाब सहेजते हैं और हालात हमें वहां ला खड़ा करते है, जहां सांस लेना भी दुश्वार हो जाता है और दिल कराह उठता है।
सांस लेना भी दुश्वार हो जिस जगह
हम जिएं उस जगह पर तो कैसे जिएं
आंसुओं की भी कीमत हो ज्यादा जहां
पिएं भी आंसुओं को तो कैसे पिएं
ये तो हो गया आंसुओं का एक स्वरूप लेकिन मेरा मानना है कि रोने से नसीब नहीं बदलते। आंसू अगर हमारी निराशा और दुखों के द्योतक हैं तो पोंछ देना चाहिए ऐसे आंसुओं को। क्योंकि सिर्फ रोने से कुछ नहीं मिलता बल्कि कुछ खोता ही है, हमारा आत्मविश्वास, हमारा चैन और हमारा आत्म सम्मान। अगर हमें कुछ चाहिए तो आगे बढ़कर हमें, हमारी तकदीर खुद बदलनी होगी। ले लेंगे तो सारा संसार हमारा है, मांगेंगे तो एक ज़र्रा भी नहीं मिलेगा। जीवन में आंसू कितने ही रंगों में ढलते हैं। कभी किरदार बन जातें हैं तो कभी कहानी। कभी परिणाम बनकर सामने आते हैं तो कभी सीने में तूफान बनकर छुप जाते हैं ये आंसू। वक्त वक्त पर एक साथी बनकर आ जाएं आंसू तो ठीक है, सुख में दुख में हमारी अभिव्यक्ति का माध्यम बने, हमारा साथ निभायें तो ठीक है, आंसू हमारे दिल की जुबान जो हैं लेकिन आंसुओं को अपना तकदीर हरगिज न बनने दें। या तो आगे बढ़कर बदल दें ज़माने को या फिर हर हाल में खुश रहना सीखें। किसी ने खूब कहा है ...
एक लम्हा ही मसर्रत का बहुत होता है
लोग जीने का सलीका कहां रखते हैं।
सदस्यता लें
टिप्पणियाँ भेजें (Atom)
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें