सोमवार, 3 नवंबर 2008

कैफ़ी आज़मी की दो नज़्में

शोर यूं ही

शोर यूं ही परिन्दों ने न मचाया होगा
कोई जंगल की तरफ शहर से आया होगा
पेड़ काटने वालों को ये मालूम तो था
जिस्म जल जायेंगे जब सर पर ना साया होगा
वानिए जश्ने बहारा ने ये सोचा भी नहीं
किसने कांटों को लहू अपना पिलाया होगा
अपने जंगल से जो घबरा के उड़े थे प्यासे
हर शराब उनको समन्दर नज़र आया होगा
बिजली के तार पर बैठा हुआ तन्हा पंछी
सोचता है कि वो जंगल तो पराया होगा।

मेरा माजी मेरे कांधे पर
अब तवद्दुद की हो ये जीत के हार
मेरा माजी है अभी तक मेरे कांधे पे सवार
आज भी दौड़ के मैं गले जो मिल जाता हूं
जाग उठता है मेरे सीने में जंगल कोई
सींग माथे पर उभर आते हैं
पड़ता रहता है मेरे माजी का साया मुझ पर
दौर-ए-खूंखारी से गुजरा हूं छुपाऊं क्यूं कर
दांत सब खून में डूबे नजर आते हैं
जिससे मेरा ना कई बैर ना प्यार
उन पर करता हूं मैं वार, उनका करता हूं शिकार
और भरता हूं जहन्नुम अपना
पेट ही पेट मेरा जिस्म है, दिल है ना दिमाग
कितने अवतार बढ़े ले के हथेली पे चिराग
देखते रह गए धो पाए ना माजी के ये दाग
मल लिया माथे पर तहजीब का गाज़ा लेकिन
मरमरीयत का है जो दाग वो छूटा ही नहीं
गांव आबाद किए शहर बसाए हमने
रिश्ता जंगल से जो अपना है वो टूटा ही नहीं
जब किसी मोड़ पर पर खोलकर उड़ता है गुबार
और नजर आता है उसमें कोई मासूम शिकार
जाने हो जाता है क्यूं सर पे एक जुनूं सवार
किसी झाड़ी से उलझ के जो कभी टूटी थी
वहीं दुम फिर से निकल आती है, लहराती है
जिसका टांगों में दबाकर कभी भरता हूं जकन
उतना गिर जाता हूं, सदियों में हुआ जितना वलन
अब तवद्दुद की हो ये जीत के हार
मेरा माजी है अभी तक मेरे कांधे पे सवार
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