शनिवार, 31 जनवरी 2009

गुम होती कांव कांव

01 फरवरी 09

इंटरनेट पर एक खबर पढ़कर अंतर्मन के सूखे धरातल पर तमाम सवाल चहलकदमी करने लगे । खबर थी कि धरती पर कौओं का अस्तित्व खतरे में हैं। गिद्धों के बाद कौओं के जीवन पर मंडराते संकट ने बहुत कुछ सोचने के लिए मजबूर कर दिया। यूं तो पृकृति से खिलवाड़ और उसके साम्राज्य में मानव के दखल ने तमाम जीव जंतुओं को इतिहास के पन्नों में दर्ज कराने की पहल काफी पहले शुरू करा दी थी लेकिन अब जब बात कौओं तक भी जा पहुंची है तो वास्तव में लगता है कि मामला काफी गंभीर है। बाघों को बचाने के लिए प्रोजेक्ट टाइगर और गैंडों की रखवाली के लिए प्रोजेक्ट राइन्हो चल रहा है। गिद्धों के हक में भी हरियाणा में एक मुहिम चल रही है और भी तमाम ऐसे जानवर जो लुप्त होने की कगार पर हैं उनके लिए कुछ न कुछ किया जा रहा है लेकिन बेचारा कौआ अभी तक उसके हक में कहीं से कोई भी आवाज बुंलद नहीं हुई है। हो भी कैसे यदा कदा ही तो कौए का स्मरण होता है। पितृ पक्ष के दौरान पुरखों के श्राद्ध के वक्त या फिर अगर इस बेचारे प्राणी ने किसी के छत की मुंडर से कांव कांव की रट लगाकर किसी मेहमान के आने का संकेत दे दिया हो तो। वरना कौए को सदैव उपेक्षा की दृष्टि से ही देखा जाता है। विकास की अंधी दौड़ में आज हम कौओं की महत्ता को भले ही न समझ रहे हों लेकिन उनकी लगातार घटती संख्या को पर्यावरणविद् एक खतरनाक संकेत मान रहे हैं। कौआ जितना पर्यावरण के लिए उपयोगी है उतना ही उसका लोक व्यवहार में भी महत्व है। पहले कौआ अगर किसी को चोंच मार देता था तो उसे घोर अपशकुन माना जाता था लेकिन हालात बता रहे हैं कि अगर हम जल्द नहीं चेते तो कौए हमें ये सूचना देने के लिए भी शेष नहीं रहेंगे। पर्यावरणविदों की मानें तो कौओं की घटती संख्या के लिए बदलता पर्यावरण जिम्मेदार है। दरअसल जिस तरह से खाने पीने की चीजों में कीटनाशकों और जहरीली चीजों का उपयोग हो रहा है, उससे कौओं की प्रजनन क्षमता घटती जा रही है। दूसरा कारण जो कौओं के लिए परेशानी का सबब बनता जा रहा है वो है जंगलों की लगातार कटाई। कौआ एकांतप्रिय पक्षी है और सुनसान जगह ही अपना घोंसला बनाता है, जो वृक्षों की कटाई के चलते उसे मिल नहीं पा रहा है। जिससे उसके लिए आवास की समस्या उत्पन्न हो गई है। अपने आसपास गौर करें तो आपको काला कौआ मुश्किल से देखने को मिलेगा। हो सकता है गले पे सफेद धारी वाला कौआ आपको दिख जाए। दरअसल कौए की इस प्रजाति की प्रतिरोधक क्षमता काले कौए से कहीं बेहतर है, इसलिए इस प्रजाति के कौए अभी दिख रहे हैं लेकिन इसका ये मतलब नहीं लगाया जाना चाहिए कि बदलते पर्यावरण का उन पर असर नहीं हो रहा है। हालात यही रहे तो इस प्रजाति को भी लुप्त होने में देर नहीं लगेगी। लोग जिस तरह से कौओं के प्रति लापरवाही बरत रहे हैं उससे प्राण शर्मा की गजल की कुछ पंक्तियां याद आती हैं -

मुंडेरों पर बैठे कौओं, कौन सुनेगा तुम्हें यहां
दुनिया वाले तो मरते हैं कोयल की मृदुबानी पर


दुनिया वाले भले ही कौए की महत्ता को नजरअंदाज करें लेकिन ये उन्हीं के लिए परेशानी का कारण बनने वाला है। यही हाल रहा तो पृकृति के संतुलन में महती भूमिका निभाने वाले कौए जल्द ही किस्से कहानियों तक ही सीमित रह जायेंगे। आने वाली पीढ़ियां कौए को या तो संघर्ष की प्रेरणा देने वाली प्यासे कौए की कहानी या फिर कागा छत पर शोर मचाए गाने के लिए ही याद रखेंगी। साथ ही लोगों को कौए की कमी तब महसूस होगी जब पितृ पक्ष के मौके पर पुरखों की आत्मा की शांति के लिए की जाने वाली पूजा के दौरान प्रसाद खिलाने के लिए कौए ढूंढने से भी नहीं मिलेंगे।

मंगलवार, 27 जनवरी 2009

विचारों भरी रात

17 जून 2008
यूं तो कुछ लिखने का कोई वक्त नहीं होता। विचार कभी भी मन के दरवाजे पर दस्तक दे सकते हैं और शब्दों का मायावी संसार आपको मजबूर कर सकता है कि आप उस दस्तक को महसूस कर उन विचारों को कहीं सहेज लें। दिन के वक्त लोग बाग ज्यादातर व्यस्त रहते हैं जिसके चलते चंचल मन उस हद तक परवाज नहीं कर पाता जहां पहुंचकर कोई भी कलम उठाने के लिए मजबूर हो जाता है। कहते हैं अगर वक्त रात का हो और साथ तन्हाई का तो उंगलियां खुद बा खुद कलम थामने को मजबूर हो जाती हैं और जब इंसान लिखने के लिए बैठता है तो उसके दिल का दर्द शब्दों का रूप लेकर कागजों में समाने लगता है। बात मोहब्बत के आगाज की हो या फिर बेवफाई के सितम की, बात जिन्दगी की जंग की हो या फिर मौत के संग आंख मिचौली की, बात रिश्तों की तिजारत की हो या फिर उनकी इबादत की, दुनिया की हर शै को शब्दों में ढाल देने को जी चाहता है। इंसान अपने मन की जिन भावनाओं को लोगों के साथ बांट नहीं पाता उनको कागजों में उतारकर कहीं कैद कर देने के लिए रात से बेहतर भला कोई वक्त हो सकता है। दिमागी परतों पर करियर, पैसा, उम्र और समय का इम्प्रेशन बनता बिगड़ता है, उसकी रेखाओं को थोड़ा और गहरा कर, इंसान अपने उज्जवल भविष्य के सपनों में रंग भरने की कोशिश रात को ही करता है। रात जब सूरज दूर कहीं बादलों की ओट में गुम हो जाता है, जब आसमान में तारिकाएं एक दूसरे से बतियाती नजर आती हैं, झींगुर अपनी ध्वनि से अपने होने का एहसास कराते हैं, जुगनू चमककर ये दिखाते हैं कि वो भी इसी दुनिया का हिस्सा हैं, हवा का हल्का शोर, चांद की चांदनी में लिपटी धरती की काया उस पर किसी के न होने का एहसास, रात की काली चादर भयावह लगने की बजाए अपनी सी लगती है। कभी कभी तो दिल कहता है इस रात की सुबह ही न हो। मैं और मेरी तन्हाई एक दूसरे से बतियाते रहें और जीवन के किस्से को यूं ही कहीं उकेरकर लोगों से बांटते रहें।

सोमवार, 26 जनवरी 2009

किसकी और कैसी दुनिया

26 जनवरी 2009
आज यूं ही बैठे बैठे मन में ख़्याल आया कि इस दुनिया के बारे में कुछ लिखा जाए। वो दुनिया जिसमें हम और आप बसते हैं। वो दुनिया, जिसमें हर पल होनी-अनहोनी के बीच जिन्दगी हांफती-डांफती रफ्तार पकड़ने की कोशिश करती नजर आती है। वो दुनिया, जिसमें तमाम रिश्ते-नाते पलते बढ़ते हैं औऱ दम तोड़ देते हैं। वो दुनिया, जहां जिन्दगी को जीने की जद्दोजहद करता इंसान पेट की खातिर कुछ भी कर गुजरने को तैयार दिखाई देता है। वो दुनिया, जहां खुद को बचाए रखने की मुहिम में इंसान दूसरों के खात्मे से परहेज नहीं करता है। वो दुनिया, जहां उसी को जीने का हक़ है जिसके पास ताकत है, रसूख है और पैसा है। वो दुनिया, जहां एक की तक़लीफ दूसरे का तमाशा होती है। वो दुनिया जहां आए दिन होने वाले बम धमाकों की गूंज अंतरआत्मा को झिंझोड़ देती है। जहां धर्म और मजहब की तलवारें मानवता का कत्ल कर इंसानियत को शर्मसार करती हैं। ये सब सोचते सोचते ख्याल आया कि दुनिया का ऐसा ही रूप तो नहीं है। इससे इतर भी कोई दुनिया है। वो दुनिया जहां प्यार और मोहब्बत के फूल खिलते हैं। जहां रिश्तों की मिठास मन के सूखे धरातल पर बारिश की बौछार की भांति गिरकर आत्मा को तृप्त कर जाती है। वो दुनिया जहां मां के आंचल तले मिलने वाली ममता की छांव हर दर्द का मरहम बन जाती है। जहां पिता का दुलार और प्यार से सर पर गिरा हाथ चट्टानों का सीना चाक कर देने की कूवत पैदा कर देता है। वो दुनिया जहां कलाई पर प्यार से बांधा गया एक धागा जीवन भर की सुरक्षा का वादा बन जाता है। वो दुनिया जहां ढाई अक्षर का एक शब्द लोगों के लिए इबादत बन जाता है। इसके अलावा और भी बहुत कुछ है जिससे दुनिया को शब्दों में बांध देमे को जी चाहता है लेकिन क्या करूं शब्द चंचल मन की गहराइयों में कहीं दूर दफन हो गए हैं। मेरा सवाल अभी भी अनुत्तरित है कि आखिर ये किसकी और कैसी दुनिया है....

दीन दुनिया से बेखबर ये एक अलग दुनिया है
ये ग़म की दुनिया है...ये खुशी की दुनिया है
ये भोले भाले और लाचार लोगों की दुनिया है
ये घर से बेघर हुए लोगों की दुनिया है
ये पल में रूठते और पल में मानते लोगों की दुनिया है
ये बच्चों की दुनिया है...ये बूढ़ों की दुनिया है
ये हालात के मारे लोगों की दुनिया है
ये अपनों से हारे लोगों की दुनिया है
कभी दिल झांकता है खुद ही अपने झरोखे में
तो खुद ही सोचता है कि आखिर ये कैसी दुनिया है....

शुक्रवार, 23 जनवरी 2009

अधूरे होमवर्क की सज़ा

24 जनवरी 09
उस मासूम का कुसूर बस इतना था कि उसने किन्ही कारणों से अपना होमवर्क पूरा नहीं किया था। उसके इस अपराध की सजा उसकी शिक्षिका ने जिस अंदाज में दी उससे हैवानियत भी शरमा गई। पहले शरीर पर बेहिसाब डंडों की बरसात और फिर भी जब मन को सुकून नहीं मिला तो बात लात घूंसों और चप्पलों पर आ गई। वो मासूम चीखता रहा, चिल्लाता रहा लेकिन उसकी टीचरजी का दिल नहीं पसीजा। उनके हाथ चलते रहे...तब तक जब तक उस मासूम की चीखें खामोशी में नहीं बदल गईं। जब तक वो बेहोश नहीं हो गया।












ये नजारा देखकर आपकी आंखें भर आई होंगी। दिल से बस एक ही सवाल निकल रहा होगा कि आखिर कौन है वो हैवान शिक्षिका जिसने इस मासूम के साथ जानवरों से भी बद्तर सलूक किया है। दरअसल ये मामला है छत्तीसगढ़ के कोरिया जिले का...जहां के मनेन्द्रगढ़ विकास खंड के राजकीय प्राथमिक स्कूल में ये घटना घटी है। आपने कई ऐसी घटनाओं के बारे में सुना होगा जब, किसी शिक्षक ने छात्र को पीटा होगा। कई बार बेतहाशा पिटाई का दर्द न बरदाश्त कर पाने के चलते ऐसे मासूमों की जान तक जा चुकी है। कोई बहरा हो गया तो कोई जिन्दगी भर के लिए अपाहिज। कई बार शिक्षक अपनी मर्यादा और शालीनता लांघ हैवान बनते नजर आए हैं। ऐसा ही कुछ हुआ था अहमदाबाद निवासी अरविन्द नाम के एक छात्र के साथ...जब अपने शिक्षक हंसमुखभाई गोकुलदास शाह की पिटाई से आहत होकर उसने खुदकुशी कर ली थी। मामला सुप्रीम कोर्ट पहुंचा था और चीफ जस्टिस के.जी.बालाकृष्णन और जस्टिस पी.सदाशिवम की बेंच ने ये फैसला सुनाया कि पढ़ाई के लिए बच्चे को पीटने का अधिकार किसी शिक्षक को नहीं है और क्लास में पढाई के लिए बच्चों से मारपीट किसी भी सूरत में बरदाश्त नहीं की जाएगी। बावजूद इस आदेश के कोरिया में एक बार फिर सुनील नाम का ये मासूम अपनी टीचरजी की हैवानियत का शिकार बन गया।






सुनील की पिटाई का नजारा देख स्कूल के दूसरे बच्चे इस कदर सहमे हैं कि स्कूल जाने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहे हैं...उनकी आंखों के सामने बुरी तरह से पिटता सुनील कौंध जाता है...उनके माता पिता भी अपने बच्चों को स्कूल भेजने से कतरा रहे हैं। आरोपी शिक्षिका भारती राही फिलहाल फरार है। जिलाधिकारी कमलप्रीत सिंह ने मामले की जांच कराकर आरोपी शिक्षिका के खिलाफ कड़ी कार्रवाई का भरोसा दिलाया है लेकिन ये भरोसा इन मासूमों के दिल से पिटाई का खौफ मिटा पाने में नाकाम साबित हो रहा है। साथ ही स्कूल में हुई मासूम की पिटाई और उससे पैदा हुई इस दहशत ने शासन की उन योजनाओं पर भी पानी फेरने का काम किया है, जिसके तहत वो बच्चों को स्कूल से जोड़ने का काम कर रहा है।






मैं अपने ब्लॉग पर आने वाले सभी लोगों से पूछना चाहता हूं कि क्या केवल कानून बना देने भर से ऐसी घटनाओं पर रोक लगाई जा सकती है। क्या कानून की धाराओं से ही ऐसे शिक्षकों को उनकी जिम्मेदारी का एहसास दिलाया जा सकता है।

गुरुवार, 22 जनवरी 2009

कुर्बानी का अपमान

22 जनवरी 09



99 साल के इस बुजुर्ग को राजस्थान के केकड़ी जिले में देवकी बल्लभ द्विवेदी के नाम से जाना जाता है। आजादी के लिए लड़ी गई जंग में उनकी भागीदारी के चलते उन्हें स्वतंत्रता संग्राम सेनानी का खिताब भी हासिल है। उनकी इस भागीदारी को खुद राज्य सरकार ने रजत पदक और ताम्र पत्र देकर सलाम किया है। इनके पास आज सब कुछ है। दो बेटे और उनका हंसता खेलता परिवार बावजूद इसके एक चीज ऐसी है जिसने इन्हें व्यथित कर रखा है और उसी कमी को पूरा करने के लिए आराम करने की उम्र में भी उन्होंने जंग छेड़ रखी है।









जंग उस चीज के लिए है, जो उनके हक में आती है और वो चीज है, केन्द्र सरकार की तरफ से आजादी के सिपाहियों को मिलने वाली पेंशन। आप ये जानकर हैरान रह जायेंगे कि इसी पेंशन को हासिल करने के लिए ये बुजुर्गवार पिछले तीस साल से लड़ाई लड़ रहे हैं। ये लड़ाई पैसों के लिए नहीं है क्योंकि ईश्वर ने द्विवेदी जी को इस नेमत से बख्श रखा है। इनकी तमन्ना है कि अगर उन्हें उनके ही हक की रकम मिल जाए तो वे उसे गरीबों को दान कर सकें। द्विवेदी जी ने कानून के दायरे में रहकर शालीनता के साथ अपने इस हक की मांग की। अब इसे व्यवस्था की खोट कहें या फिर कुर्सी की खुमारी, तीस साल का वक्त बीत गया लेकिन इन्हें इनका हक नहीं मिला। हक दिलाने का भरोसा मिला, चिठ्ठियां मिलीं, चिठ्ठियों के जवाब मिले लेकिन नहीं मिला तो पेंशन रूपी आत्मसम्मान।










बात बनती ना देख आजादी के इस सिपाही का धैर्य जवाब दे गया। उन्होंने घोषणा कर दी कि वे आने वाली 26 जनवरी को तिरंगे के नीचे बैठकर आमरण अनशन शुरू करेंगे। जैसा कि हमेशा होता है, ये खबर फैलते ही सत्ता के गलियारों में खलबली मच गई। एक स्वतंत्रता सेनानी अगर आमरण अनशन करेगा तो सरकार की छवि खराब होगी, जनता क्या सोचेगी, सरकार की बेइज्जती होगी, अब सत्ता की मलाई खाने वालों को गालियां खाना भला कैसे शोभा देता। सो केकड़ी के विधायक रघु शर्मा हरकत में आए और उन्होंने प्रशासनिक अधिकारियों को इस सेनानी की चौखट चूमने के लिए रवाना कर दिया। अधिकारी भी ये जा वो जा...पहुंच गए अपनी नाक बचाने की जद्दोजहद करने। अनशन का फैसला टालने के लिए अनुनय विनय की, हाथ जोड़े, साथ ही एक बार फिर भरोसा दिलाया इन्हें, इनका हक दिलाने का।










(केकड़ी के एसडीएम गजेन्द्र सिंह देवकी बल्लभ द्विवेदी को मनाने पहुंचे)

इस बुजुर्ग को भी अच्छा नहीं लगा कि कोई उनके दरवाजे पर आकर बेइज्जत हो लिहाजा उन्होंने अपना इरादा टाल दिया लेकिन इस चेतावनी के साथ कि अगर उनका भरोसा इस बार टूटा तो परिणाम अच्छा नहीं होगा। अब इस बुजुर्ग को मिला सरकारी भरोसा कार्रवाई की शकल लेता है या फिर वक्त कि बिसात पर हर बार की तरह झूठ का एक मुलम्मा बनकर चिपक जाता है ये देखने वाली बात होगी। ये मामला यहां मैनें इसलिए उठाया है क्योंकि द्विवेदी जी जैसे न जाने कितने आजादी के सिपाही आज भी अपने हक और आत्मसम्मान को हासिल करने के लिए एड़ियां रगड़ रहे हैं। जिनकी कुर्बानी की बदौलत हम आज आजादी की हवा अपने फेफड़ों में भर रहे हैं वो आज भी दर दर की ठोकरें खाने को मजबूर हैं। अगर वो इस हाल में नहीं हैं तो उनके परिवार वाले उनकी कुर्बानी का सिला भुगत रहे हैं। ऐसे सिपाहियों की जवानी अगर अंग्रेजों से लोहा लेने में बीत गई तो बुढ़ापा अपनों से ही अपना हक हासिल करने की जंग में खत्म हुआ जा रहा है। ऐसे में क्या हम अपनी आजादी और अपने गणतंत्र पर गर्व कर सकते हैं।

मंगलवार, 20 जनवरी 2009

ये क्या हो रहा है राजनाथ ?

20 जनवरी 09
आज पूरा देश ओबामा की जय करने में लगा हुआ है। मीडिया में भी ओबामा की हीं गूंज है। हर खबर आज उसके आगे बौनी है। हो सकता है ब्लॉग की दुनिया में भी आज ओबामा ही छाए रहें। ऐसे में किसी और मुद्दे पर लिखने से मैं भी पहले हिचक रहा था लेकिन फिर हिम्मत जुटा ही ली। खबर राजनीतिक हलके से हैं। केंद्र में है बीजेपी के कद्दावर नेता और उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री कल्याण सिंह। जिन्होंने एक बार फिर बीजेपी को कठघरे में खड़ा करते हुए उससे किनारा कर लिया। अगर आपको याद हो तो 1999 में भी कल्याण ने कुछ इसी अंदाज में बीजेपी को बॉय बॉय किया था। हालांकि बाजपेयी जी के हस्तक्षेप के बाद कल्याण की पार्टी में वापसी हो गई थी। उस वक्त पार्टी छोड़ने वाले कल्याण ने जिस आक्रामक लहजे में बीजेपी पर आरोपों की झड़ी लगाई थी उस अंदाज में तो कभी विपक्षी भी नहीं दिखे। कल्याण सिंह के मुताबिक पार्टी में उन्हें वो सम्मान नहीं मिल रहा था जिसके वो हकदार थे। उनके मुताबिक उन पर कुछ ऐसे आरोप लगे जो सरासर बेबुनियाद हैं। बहरहाल मैं उन आरोपों की गहराई में नहीं जाना चाहता। ये विषय इसलिए उठाया क्योंकि आने वाले वक्त में बीजेपी को लोकसभा चुनाव की जंग लड़नी है। ऐसे में कल्याण का जाना...क्या ये मान लिया जाए कि पार्टी को कल्याण सिंह पर भरोसा नहीं रहा...उसे लगता है कि वो उन्हें ढो रही थी...क्योंकि उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव में पार्टी को आशानुरूप सफलता नहीं मिली थी...पार्टी को ऐसा लगने लगा था कि उत्तर प्रदेश में कल्याण का सूरज अस्त हो चला है...उनका इस्तीफा जिस सहजता से स्वीकार कर लिया गया उससे तो कम से कम ऐसा ही लगा कि आलाकमान भी उन्हें पार्टी में देखने का इच्छुक नहीं है...ये तो हुई एक घटना...अब बात एक दूसरे नेता की...एक ऐसे नेता की जिसका पार्टी में एक रुतबा था...एक हैसियत थी लेकिन उसने भी इसी शिकवे के साथ पार्टी का साथ छोड़ दिया कि उसे बीजेपी परिवार में वो मान सम्मान हासिल नहीं हो रहा था जिसके वो हकदार थे...जी हां मैं भैरों सिंह शेखावत की बात कर रहा हूं...उन्होंने लोकसभा चुनाव लड़ने की इच्छा क्या जताई पूरी बीजेपी उन पर चढ़ बैठी...पार्टी अध्यक्ष राजनाथ का बयान आपको याद होगा...(जो गंगा स्नान कर चुके हों उन्हें कुंए में डुबकी लगाने की ख्वाहिश नहीं रखनी चाहिए)...कल्याण ने भले ही अभी शालीनता की चादर ओढ़ रखी हो लेकिन अपमान की इस आग में जलते शेखावत ने राजस्थान में कूटनीतिक तरीके से बगावत का झंडा बुलंद कर दिया है। आज बीकानेर में जिस तरह से उन्होंने वसुंधरा के शासनकाल में हुए भ्रष्टाचार के मामलों को उठाते हुए गहलोत सरकार से जांच की मांग की...उनके तेवर बीजेपी के लिए किसी लिहाज से शुभ नहीं हैं...इसी बीच कल्याण ने पार्टी छोड़कर शेखावत की ही बात को आगे बढ़ाया है...जाहिर है पार्टी विद डिफरेंस के भीतर कुछ ठीक नहीं चल रहा है। लोकसभा चुनाव से पहले बीजेपी ने अगर इस नुकसान की तरफ ध्यान नहीं दिया तो कहीं ऐसा ना हो कि लोकसभा चुनाव जीतकर पीएम इन वेटिंग आडवाणी को तख्तो ताज से संवारने का उसका सपना सपना ही रह जाए। कल्याण और शेखावत की हाय बी अपना रंग जरूर दिखाएगी।

रविवार, 18 जनवरी 2009

लालू जी गौर फ़रमाइए

18 जनवरी 09
डग्गामार गाड़ियां तो आपने बहुत सी देखी होंगी लेकिन क्या कभी डग्गामार रेल से आपका वास्ता पड़ा है। अगर नहीं पड़ा तो चलिए मेरे साथ मध्य प्रदेश के सरहदी जिले श्योपुर की ओर। मेरा दावा है कि आप इस डग्गामार रेल क देखकर दांतो तले उंगली दबा लेंगे।












ये नजारा देखकर आपकी आंखें ज़रूर फैल गई होंगी...फैलें भी क्यों ना...सुहाने सफर का वादा करने वाली भारतीय रेल का ऐसा सफर कम ही देखने को मिलता है...लेकिन जनाब ये कोई एक दो दिन की बात नहीं बल्कि आजादी के बाद से ही चला आ रहा सिलसिला है। एक ऐसा सिलसिला जिससे जुड़ी है हजारों परिवारों की जिन्दगी की डोर जो कभी भी टूट सकती है लेकिन बावजूद इसके ये सिलसिला थमता नजर नहीं आता या यूं कहें कि लोग नहीं चाहते कि थमे।










श्योपुर से ग्वालियर के बीच इस ट्रेन को रियासती काल में सिंधिया शासकों ने अपनी सुविधा के लिए चलाया था। जिसे आजादी के बाद आम जनता को सौप दिया गया। तब से लेकर अब तक देश में बहुत कुछ बदला। यात्रा मार्ग बढ़े, स्टेशन बढ़े, यात्री बढ़े लेकिन इस ट्रेन में बोगियां नहीं बढ़ी। नतीजा आपके सामने है। क्या बोगी के भीतर और क्या बाहर...लोग जान पर खेलकर सफऱ कर रहे हैं।














श्योपुर और मुरैना जिलों के एक बड़े हिस्से के लोगों के लिए ये ट्रेन यातायात का मुख्य साधन है। लोगों के पास कोई दूसरा विकल्प नहीं है और जिन्दगी के कई काम निपटाने के लिए सफर भी जरूरी है। फिर चाहे वो जान पर खेलकर ही क्यों ना हो।












इस रेल मार्ग के आमान परिवर्तन की मांग पिछले कई वर्षों से ठन्डे बस्ते में पड़ी है। इस मांग पर ध्यान क्यों नहीं दिया जा रहा है, ये बताने वाला कोई नहीं है। अधिकारी इस ट्रेन के बारे में बात तक नहीं करना चाहते। इस सफर के दौरान हादसे भी हुए हैं लेकिन बावजूद इसके ये सूरत बदलती नहीं दिख रही है।







मुझे पता है कि आपको टेलीविजन पर आने वाला वो फेवीकोल का विज्ञापन याद आ गया होगा। जिसमें एक ट्रक पर क्षमता से ज्यादा लोग सवार रहते हैं लेकिन गिरते नहीं है और तभी बैकग्राउंड से आवाज आती है कि फेवीकोल का जोड़ है टूटेगा नहीं। लेकिन वो बात विज्ञापन की थी, कल्पना की थी लेकिन ऊपर दिख रहा नजारा हकीकत है। एक ऐसी हकीकत जिससे हमारी भारतीय रेल के अधिकारी और मंत्री मुंह मोड़ते आ रहे हैं। भारतीय रेल को घाटे से उबारकर फायदे का सौदा बनाने वाले माननीय लालू यादव को भी शायद मौत का ये सफ़र दिखाई नहीं दे रहा है या फिर वो देखना नहीं चाह रहे हैं। अगर देखना चाहते तो शायद अब तक इस ट्रेन में कुछ बोगियां जुड़ गई होतीं। भारतीय रेल के इस सफर पर आप क्या कहेंगे जनाब...जागिए कुछ तो कहिए।

शुक्रवार, 16 जनवरी 2009

भगवान बचाए पुरुषों से



16 जनवरी 09
तस्वीर में छपी इन दोनों आदिवासी महिलाओं को ज़रा गौर से देखिए। छत्तीसगढ़ के जशपुर जिले की रहने वाली अकली बाई और बिलासो नाम की इन दोनों महिलाओं को पुरुषों से डर लगता है...आज से या एक दो महीने पहले से नहीं नहीं बल्कि किशोरावस्था से ही...डर भी ऐसा वैसा नहीं, इस कदर कि इन्होंने ताउम्र के लिए पुरुषों के साथ से ही तौबा कर ली। दरअसल इन दोनों महिलाओं के साथ तीस साल पहले एक आदमी ने शराब के नशे में दुर्व्यवहार किया और इनके साथ गाली गलौज की। उस घटना ने इनके दिलो दिमाग पर पुऱुषों का ऐसा खौफ तारी किया कि उन्हें पुरुष समाज से ही नफरत हो गई। उसी वक्त इन दोनों महिलाओं ने फैसला किया कि वो जिन्दगी में कभी शादी नहीं करेंगी। अकेलापन इन्हें डराए नहीं इसलिए इन दोनों ने एक दूजे का साथ निभाने का फैसला किया। इस फैसले के खिलाफ सामाजिक नियम इनकी राह का रोडा़ बने। इन पर शादी करके घर संसार बनाने का दबाव पड़ा तो इन्होंने शादी भी की लेकिन किसी पुरूष से नहीं बल्कि एक आम के पेड़ से। तीस साल पहले हुई इस शादी का खर्च भी इन्होंने खुद उठाया था और पूरा जशपुरनगर इस शादी का गवाह बना था। आम के पेड़ से शादी इसलिए की क्योंकि आदिवासी प्रकृति प्रेमी होते हैं और प्रकृति को देवताओं की तरह पूजते हैं। बस इसी देवता को इन दोनों सहेलियों ने अपना जीवन साथी बना लिया लेकिन किसी पुरष को अपनाने से इंकार कर दिया। तीस साल के इस दोस्ती के सफर में इनका घर छूटा, परिवार छूटा लेकिन इनका साथ नहीं छूटा। साथ ही नहीं छूटा आम के पेड़ के साथ इनका साते फेरों का बंधन। इस पेड़ की परिक्रमा कर ही ये सहेलियां अपने दिन की शुरूआत करती हैं। अब इन सहेलियों की उम्र ढलने लगी है। हाथ-पैर जवाब देने लगे हैं लेकिन वे एक-दूसरे को छोड़ने के लिए तैयार नहीं हैं। अब तो गांव वाले भी इनकी दोस्ती के कायल हो गए हैं। आपको ये भी बता दूं कि इन दोनों महिलाओं की दोस्ती कहां हुई थी। दरअसल अकली बाई एख राजमिस्त्री थीं जिनके साथ बहुत से मजदूर काम करते थे। इन्हीं मजदूरों में से एक थीं बिलासो बाई। काम के दौरान ही इन दोनों की मुलाकात हुई और मुलाकात दोस्ती में बदल गई। अकली और बिलासो अपनी इस जिन्दगी से खुश हैं। उन्हें गर्व है कि उन्होंने अपनी दोस्ती का ये रिश्ता पूरी शिद्दत के साथ निभाया। इनकी दोस्ती को न दुनिया के रस्मोरिवाज तोड़ सके और ना ही विपरीत हालात। दुनिया चाहे तो इनकी दोस्ती से सबक ले सकती है। नकी दोस्ती पर आप क्या कहेंगे।

गुरुवार, 15 जनवरी 2009

नाफ़रमानी मत करना



15 जनवरी 09
लड़कियां मुंह पर स्कार्फ नहीं बांधेंगी और ना ही मोबाइल लेकर चल सकेंगी। ये आदेश सरकारी नहीं है ना ही किसी धार्मिक संस्थान की तरफ से ऐसा कुछ कहा गया है। तो फिर किसने जारी किया है ये फरमान। दरअसल ये अनोखा फरमान आया है मध्य प्रदेश के खरगोन जिले की एक संस्था की ओर से। संस्था का नाम है श्री बीसा नीमा समाज। इस संस्था ने अपने समाज के लोगों के हित के नाम पर ये फरमान जारी किया है। फरमान में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि इस समाज की लड़कियां सार्वजनिक स्थानों जैसे कॉलेज, स्कूल, बाजार, साइबर कैफै, रेस्टोरेंट आदि जगहों पर स्कार्फ लगाकर नहीं जा सकेंगी। यहां तक कि बाइक आदि पर भी वो स्कार्फ बांधकर नहीं चल सकेंगी। इसके अलावा इस फरमान में अभिभावकों को भी ताकीद की गई है कि वे अपनी बेटियों के मोबाइल उपयोग पर प्रतिबंध लगा दें। ऐसा न करना समाज से बगावत समझा जाएगा। सवाल उठता है ये फरमान आखिर क्यों...जवाब है...लव मैरिज...दरअसल इस समाज की कुछ लड़कियों ने पिछले कुछ दिनों में प्रेम विवाह किए हैं। ये लड़कियां अपने प्रेमियों से मिलती रहीं...उनके साथ इसी शहर में टहलती रहीं लेकिन घर वालों को भनक तक नहीं हुई...जिसकी एक बडड़ी वजह स्कार्फ को बताया जा रहा है। संस्था की मानें तो घर की बेटी स्कार्फ से चेहरा ढककर सामने से निकल जाती है और पहचान में नहीं आती। मोबाइल के बढ़ते दुरुपयोग को आधार बनाया गया है प्रतिबंध का...इससे पहले अप्रैल 2007 में भोपाल में सिंधी पंचायत ने बिरादरी की युवतियों पर मोबाइल टेलीफ़ोन का इस्तेमाल करने, दो पहिया वाहन चलाने और स्कार्फ़ से चेहरे को ढंकने पर पाबंदी लगाई थी। पंचायत का यह फ़ैसला सिंधी समाज की दो लड़कियों के घर से भागकर अपने प्रेमियों से शादी करने के बाद आया था। सिंधी पंचायत के इस फ़रमान के विरोध में उस वक्त कई आवाजें उठी थीं और इस तरह के फरमान को 'औरतों की आज़ादी पर प्रहार' बताया गया था। अब बीसा नीमा समाज का ये फरमान क्या रंग दिखाएगा ये देखने वाली बात होगी। मेरा सवाल ये है कि क्या इस तरह के फरमान जारी कर प्रेम विवाह या फिर यौन उत्पीड़न जैसी बुराइयों से निजात पाई जा सकती है। आपकी राय में क्या इस तरह के फरमान उचित हैं?

बुधवार, 14 जनवरी 2009

पिता के लिए खुदकुशी



14 जनवरी 09

आपके मुताबिक एक बेटा इस कलियुग में अपने पिता के लिए क्या कर सकता है। शायद आप कहें कि उसे दुनिया की सारी खुशियां दे सकता है....अपने कामों से समाज में उसका मान सम्मान बढ़ा सकता है...लेकिन क्या कोई बेटा अपनी जिन्दगी खत्म कर अपने पिता को नई जिन्दगी दे सकता है। आज के दौर में जब रिश्ते निजी स्वार्थ के तराजू पर तौले जा रहे हैं तो ऐसे में इस तरह की बात आपको बेमानी लग सकती है लेकिन जनाब ये कलयुग है और इस दौर में कुछ भी हो सकता है। इस दौर में भी श्रवण कुमार पैदा हो सकते हैं। इस बात का जीता जागता सबूत है सतना का रहने वाला संतोष...जिसने अपने पिता को जिन्दगी देने के लिए खुदकुशी कर ली। आप सोच रहे होंगे भला किसी बेटे का ये कदम उसके पिता को जिन्दगी कैसे दे सकता है। दरअसल ये कहानी है अभावों और गरीबी के बीच जिन्दगी की जद्दोजहद करते एक साधारण परिवार की। एक ऐसा परिवार जिसके सपने परवान चढ़ने से पहले ही दम तोड़ देते हैं। संतोष के सपने और उम्मीदें भी अभावों की इसी भठ्ठी में झुलस कर दम तोड़ रही थीं। इस पर पिता की बीमारी और भारी गुजर रही थी। वो मौत की दहलीज पर खड़े थे। उनकी दोनों किडनियां खराब हो चुकी थीं। दर्द बरदाश्त की हद से बाहर जा चुका था। ग़रीबी इलाज की राह में रोड़ा बनी हुई थी। संतोष अपने पिता को तिल तिल कर मरते देख रहा था। दिन बीतने के साथ उसकी बेचैनी बढ़ती जा रही थी। पिता का दर्द उससे बरदाश्त नहीं हो रहा था। हारकर संतोष ने लिया एक फैसला...एक ऐसा फैसला जिसकी किसी ने कल्पना भी नहीं की थी। संतोष ने आत्महत्या कर ली और अपने पीछे छोड़ गया एक विनती...विनती अपनी दोनों किडनियां अपने पिता को देने की...संतोष ने अपने पिता को जीवन तो दे दिया लेकिन उसके इस फैसले ने एक मां को हमेशा के लिए दुखों के सागर में डुबो दिया। संतोष अपने घर का इकलौता चिराग था। उसके चले जाने से उसके घऱ में हमेशा के लिए अंधेरा छा गया है...ऐसा अंधेरा जो शायद कभी न मिट सके। देखने में ये एक आम घटना है लेकिन क्या आपके मन को झकझोरती नहीं। क्या आपके दिल में इस घटना से हूक सी नहीं उठती। लखपतियों और करोड़पतियों की दुनिया से इतर क्या एक आम आदमी की ये पीड़ादायी दुनिया कसमसाहट नहीं पैदा करती।

मंगलवार, 13 जनवरी 2009

जरा आहिस्ता चल

13 जनवरी 09

दर्द की बारिश सही मद्धम

ज़रा आहिस्ता चल

दिल की मिट्टी है अभी तक नम

जरा आहिस्ता चल

तेरे मिलने

और तेरे बिछड़ जाने के बीच

फासला रुसवाई का है कम

जरा आहिस्ता चल

सोमवार, 12 जनवरी 2009

भारतीय टेनिस की नई उम्मीद



12 जनवरी 09
लिएंडर पेस और महेश भूपति की ढलती उम्र के सथ लॉन टेनिस में भारत की उम्मीदों का सूरज भी ढलता दिखाई दे रहा था। इस खेल में भारत की झोली में जो कुछ भी अब तक आया उसका सेहरा बांधने के लिए चंद नाम ही जुबान पर आते हैं। इस खेल में भारत के हिस्से ज्यादा कुछ नहीं है। जो है उसी पर हमें गर्व करना होगा। पुरुष खिलाड़ियों को छोड़ महिला खिलाड़ियों की भी बात करें तो सिलसिला सानिया मिर्जा से आगे बढ़ता नहीं दिखता। मेरे प्रिय खेलों में से एक है लॉन टेनिस, हालांकि मुझे इस खेल के तकनीकी शब्द समझ नहीं आते लेकिन फिर भी कोर्ट पर जब खिलाड़ी जेट की रफ्तार से बॉल पर प्रहार करते हैं तो शरीर उत्तेजना से भर जाता है। लिहाजा इस खेल में भारत की हिस्सेदारी देख मुझे काफी निराशा होती है। निराशा के इस अंधकार में उम्मीद की किरण बनकर उभरा है एक नया सितारा, सोमदेव देववर्मन। एक ताजा हवा के झोंके की तरह सोमदेव दुनिया के साथ साथ मेरे ज़ेहन पर भी छा गए। एक ऐसा नाम, जिससे मैं समझता हूं भारत में ज्यादातर लोग अंजान थे अचानक धूमकेतु की तरह चमका है। चेन्नई ओपन एटीपी टेनिस टूर्नामेंट में जिस खेल का सोमदेव ने नजारा करवाया उससे हिन्दुस्तान के लॉन टेनिस खेल प्रेमियों को काफी राहत मिली होगी। दुनिया के पूर्व नंबर एक और दो बार के चैंपियन खिलाड़ी कार्लोस मोया और दुनिया के 25वें नंबर के खिलाड़ी इवो कार्लोविच को हराकर सोमदेव ने ये दिखा दिया है कि इस खेल में भारत की कहानी अभी खत्म नहीं हुई है बल्कि पिक्चर अभी बाकी है। सोमदेव को ये पहचान यूं ही हासिल नहीं हुई बल्कि इस सफर के पीछे है उनकी कड़ी मेहनत और कुछ कर दिखाने की लगन और जज्बा। अमेरिका की वर्जीनिया यूनिवर्सिटी में पढ़ाई करने वाले सोमदेव ने इसी देश में टेनिस का ककहरा भी सीखा। अमेरिका की राष्ट्रीय कॉलेज चेंपियनशिप में 2007 और 08 के चैंपियन सोमदेव ने अपने प्रदर्शन के दम पर भारतीय टेनिस का झंडा बुलंद रखने के संकेत दे दिए हैं। हालांकि विश्व टेनिस जगत में उनके नाम की चर्चा तभी होने लगी थी जब उन्होंने एनसीएए चैंपियनशिप में 2006-07 में ही अपने से बेहतर रैंकिंग वाले 33 खिलाड़ियों को धूल चटाई थी। जाइंट किलर का तमगा हासिल करने वाले इस खिलाड़ी की लांग वॉली, ताकतवर सर्विस और बेसलाइन पर मजबूत खेल ने कार्लोस मोया जैसे दिग्गज खिलाड़ी की हवा निकाल दी और वो ये कहने के लिए मजबूर हो गए कि सोमदेव चढ़ता सूरज हैं जिस पर भारत नाज कर सकता है। पहले दुनिया के 202वें नंबर और अब 154 वें नंबर के खिलाड़ी सोमदेव पहले भी शीर्ष 100 में शामिल कई खिलाडि़यों के खिलाफ अपनी प्रतिभा का लोहा मनवा चुके है। चेन्नई के रहने वाले सोमदेव ने 2007 में न्यूयार्क में कैनेडी फंडिंग इंविटेशनल में रोबर्ट केंड्रिक [99] और जस्टिन गिमेलस्टोब को हराया। वह फाइनल में दुनिया के 69वें नंबर के मिशेल रसेल से हार गए लेकिन अगले साल उन्होंने सैम कैरी [44] और डुडी सेला [76] जैसे चोटी के खिलाडि़यों को हराकर खिताब अपने नाम किया। अपने छोटे से पेशेवर कैरियर में आईटीएफ सर्किट में पांच एकल और छह युगल खिताब जीतने वाले सोमदेव शीर्ष सौ में शामिल बाबी रेनाल्ड्स [90], जेवियर मैलिसी फिलिपो वोलांडारी [93] जैसे खिलाडि़यों को भी धूल चटा चुके हैं। 13 फरवरी 1985 को गुवाहाटी में जन्मे सोमदेव केवल 23 साल की उम्र में दुनिया के नामी खिलाड़ियों को अपने खेल का मुरीद बना चुके हैं। हम उम्मीद कर सकते हैं कि आने वाले दिनों में ये खिलाड़ी अपनी कामयाबी की चकाचौंध में भारतीय टेनिस को एक नया आयाम देगा।

बुधवार, 7 जनवरी 2009

कितना पाक है पाकिस्तान

08 जनवरी 09

जहां फौज की कठपुतली है हुकूमत

जहां नहीं पनप पाती जम्हूरियत

जहां हालात दिनों दिन हो रहे हैं बदतर

जहां फिरकापरस्तों का है बोलबाला

जहां परेशान है आवाम


कुछ ऐसी ही तस्वीर है हमारे पड़ोसी मुल्क पाकिस्तान की। पाकिस्तान में ना तो राजशाही रही...ना ही लोकशाही....जहां सदर हमेशा फौज के दबाव में रहता है। कबीलाई तहजीब पाकिस्तान में हावी होती रही...जुल्फिकार अली भुट्टो की फांसी...जिया उल हक का हादसा...और अभी हाल में हुआ बेनजीर भुट्टो का कत्ल साबित करता है कि पाकिस्तानी हुकूमत शरपसंदों के इशारों की मोहताज है। कमजोर हुकूमत की वजह से ही पाकिस्तान की फौज ने हुकूमत की असल ताकत अपने हाथ में ले ली और उसके पीछे से वहां की खुफिया संस्था आईएसआई अपना खेल खेलने लगी। आईएसआई ने खुद को महफूज रखने के लिए हिन्दुस्तान का हौव्वा अपनी आवाम के साथ साथ पूरी दुनिया के सामने खड़ा कर दिया। दरअसल फौज की अहमियत के लिए ज़रूरी है कि जंग का माहौल बना रहे और पाकिस्तानी फौज ने तीन तीन जंगों के अलावा करगिल भारत पर थोपकर अपने इरादों को अमली जामा पहनाए रखा। पाकिस्तानी फौज के इन्ही इरादों को पूरा कराने में आतंकी प्यादे अहम रोल निभाने लगे। हमारे हिन्दुस्तान पर हो रहे आतंकी हमले और हर हमले की जांच में फौजी तामील का सामने आना इस बात को साबित भी करता है। दरअसल पाकिस्तान की इन गैरवाजिब हरकतों की वजह तलाश करें और उसकी तह में जाएं तो साफ मालूम होता है कि नफरत की बुनियाद पर खड़ी पाकिस्तान की इमारत अभी तक अमन की खिड़कियों को नहीं खोल पाई है। शायद इसीलिए पाकिस्तान को बनाने वाले कायदे आज़म जिन्ना भी इसको बनाकर पछताए थे। मरते वक्त जिन्ना ने अपने आखिरी बयान में इस बात को कबूल भी किया था। पाकिस्तान की तामीर से ही यहां सत्ता की लूट का खेल खेला जाने लगा। देश की कमान किसी एक के हाथ में नहीं रही...कई पॉवर सेंटर हमेशा पैदा हाते रहे...लिहाजा जम्हूरियत बेमौत मारी गई। सत्ता की इसी खींचतान ने पाकिस्तान को अस्थिर कर दिया। नतीजतन यहां जुर्म की जहनियत वालों के लिए माकूल माहौल तैयार हो गया। पाकिस्तानी हुक्मरानों ने जो खेल खुद को महफूज रखने के लिए शुरू किया था आज उसका खामियाजा वहां की आवाम को भुगतना पड़ रहा है। आज पाकिस्तान के अंदर और बाहर दोनों तरफ बदअमनी का माहौल बन चुका है।

दूसरों को दे रहे थे जो खुदा का वास्ता
अख्तियार करने लगे हैं वो सितम का रास्ता


26 नवंबर को हुए मुंबई पर आतंकी हमले की बात करें तो इसके सारे सुबूत साफ इशारा कर रहे हैं कि आतंक के जिन आकाओं के इशारे पर मौत का ये खेल खेला गया उन्हें पाकिस्तान की शह हासिल है। वे उसी की धरती पर रहकर अपने नापाक मंसूबों को अंजाम दे रहे हैं। हिन्दुस्तान ने अंतर्राष्ट्रीय पटल पर इस बात के सुबूत रखकर इसे साबित भी कर दिया। भारत जंग नहीं चाहता। अमन और शांति चाहता है लेकिन ताली एक हाथ से नहीं बजती। अगर हमारा पड़ोसी आतंक की इस पौध को पनपने से रोकने के बजाए उसे सींचने का काम करेगा तो अपनी सुरक्षा का हक सबको है। सुबूत दिए जाने के बावजूद आतंकियों के खिलाफ कार्रवाई के बजाए लगातार उल्टे सीधे बयान देकर वो अपनी छीछालेदर खुद कर रहा है। मेरी तो अपील है सरकार से कि बहुत दे लिए सुबूत और बहुत रख लिया धैर्य अब सब्र के इस पैमाने को छलका ही देना चाहिए क्योंकि लातों के भूत बातों से नहीं मानते।

मंगलवार, 6 जनवरी 2009

जिन्दा है छुआछूत



06 जनवरी 09

मध्यप्रदेश के छतरपुर जिले का सुनवाहा गांव आजकल सुर्खियों में है। वजह है यहां के तीस दलित परिवारों द्वारा प्रशासन से धर्म परिवर्तन की इजाजत मांगना। इस मामले में चौंकाने वाली बात ये है कि ऐसा ये लोग अपनी मर्जी से नहीं कर रहे हैं बल्कि इसके पीछे है सालों से किया जा रहा उनका उत्पीड़न। उत्पीड़न करने वाले हैं सुनवाहा गांव का ही दबंग लोधी समाज। लोधी समाज इन दलित परिवारों को अछूत मानता है। उसके मुताबिक ये लोग मंदिर में जाकर पूजा नहीं कर सकते। उनके सामने सिर उंचा करके चल नहीं सकते। आप ये जानकर हैरान रह जायेंगे कि इस समुदाय के एक युवक को लोधी समाज के दबंग लोगों ने सिर्फ इसलिए जानवरों की तरह पीट दिया क्योंकि वो अपनी शादी में घोड़ी पर बैठकर उनके घर के आगे से निकल गया था। पीड़ित पक्ष ने पुलिस प्रशासन से गुहार लगाई। युवक फिर घोड़ी चढ़ा और कड़ी सुरक्षा व्यवस्था के बीच शादी के लिए रवाना हुआ। शादी तो हो गई लेकिन इस समुदाय ने लोधी समाज के लोगों की जिन्दगी भर की दुश्मनी मोल ले ली। नतीजा अब लोधी समाज ने इन दलित परिवारों को जान से मारने की धमकी दे डाली है। सुनवाहा गांव का पूरा दलित समुदाय अब जान बचाने के लिए गांव छोड़ चुका है। यही नहीं इन लोगों ने जिले की बक्शवाहा तहसील के सामने पिछले एक सप्ताह से इसलिए डेरा डाल रखा है कि प्रशासन से उन्हें अपना धर्म बदलने की इजाजत मिल जाए। प्रशासन ने बीते एक हफ्ते में इन डरे सहमें लोगों को ना तो सुरक्षा का कोई भरोसा दिलाया है और ना ही समाज में बराबरी से जीने का हक दिलाने का कोई वादा किया है। छुआछूत के बारे में गाँधी जी ने कहा था, "अस्पृश्यता हिन्दू धर्म का अंग नहीं है, बल्कि उसमें घुसी हुई सड़न है, वहम है, पाप है, और उसको दूर करना एक - एक हिन्दू का धर्म है, उसका परम कर्तव्य है लेकिन बापू के ये विचार इस देश में प्रासंगिक नहीं लगते। छुआछूत से निपटने के लिए हमारे देश में कानून भी बने हैं लेकिन इन कानूनों का पालन कराने की जिन पर जिम्मेदारी है वही लोग पीड़ितों की ओर से आंखें मूंदे बैठे हैं। सुनवाहा गांव के दबंग कभी भी कुछ भी कर गुजरने की हुंकार भर रहे हैं और हमारा कानून भी कुछ हो जाने का शायद इंतजार कर रहा है। मैं इस मामले को लेकर बहुत ज्यादा गहराई में नहीं जाना चाहता क्योंकि हम और आप सभी जानते हैं कि छुआछूत की भावना भी आज अपराध है आदि आदि। समझना और सोचना ये है कि देश में जहां कहीं भी ये भावना पल बढ़ रही है उस पर विराम कैसे लगाया जा सकता है।

सोमवार, 5 जनवरी 2009

सर्दी की रात और वो मासूम


05 जनवरी 09
दिल्ली के साथ साथ पूरे उत्तर भारत में ठंड ने कहर बरपा रखा है। सुबह आंख खुले तो चारों तरफ धुंध और कोहरे की चादर छाई मिलती है और रात हो तो भी नजारा बदलने का नाम नहीं लेता। अलसाया सूरज दूर कहीं बादलों की ओट में चादर ताने सोता नजर आता है तो चांद और तारे भी आसमान की गोद में दुबके से मालूम होते हैं। हर कोई सलाह देता नजर आ रहा है कि ठंड से बचने के लिए पूरे शरीर को गरम कपड़ों से ढक कर रखें, बहुत ज़रूरी हो तभी घर से बाहर निकलें। कोहरे से बचें, ये करें वो करें लेकिन वो क्या करें खुला आसमान ही जिनकी छत है, धरती की गोद ही जिनका घर है और कपड़ों के नाम पर चंद चिथड़े जिनके शरीर को बामुश्किल ढांपते हैं। क्या ऐसे लोगों के लिए भी हमारे पास कोई सलाह है। जिनके लिए दो वक्त की रोटी जुटाना मुश्किल हैं वो अपने लिए गर्म कपड़े कहां से लाएं। राजू ऐसा ही एक मासूम था। जिससे मेरी मुलाकात शनिवार की रात उस वक्त हुई थी जब मैं ऑफिस से घर जा रहा था। ग्यारह बजे होंगे एनएच-24 से वसुंधरा के लिए जाने वाली सड़क पर मैनें मोटरसाइकल मोड़ी तो हेडलाइट की धुंधली रोशनी में एक मासूम को पेड़ के नीचे ठिठुरते पाया। घने कोहरे में जब हाथ को हाथ नहीं सूझ रहा था वो बच्चा एक फटी हुई बोरी पर पैरों को सिकोड़े ठंड का सामना करने की कोशिश कर रहा था। सर्दी में कांपते उस बच्चे के दांत बज रहे थे। मैनें मोटरसाइकल रोक दी। डिग्गी में रखी एक टोपी, दस्ताने और एक अतिरिक्त जैकेट निकालकर मैं उसके पास पहुंचा। मेरे कदमों की आहट से वो चौंका। मैनें उसके सर पर हाथ फेरा और हाथ में पकड़े कपड़े उसकी तरफ बढ़ा दिए। जैकेट बड़ी थी लेकिन फायदा ये हुआ कि उसका पूरा शरीर ढक गया। टोपी भी उसने लगा ली लेकिन दस्ताने उसके हाथ से काफी बड़े थे। पांच मिनट के बाद उसके दांतों की किटकिटाहट थम गई। उसके शरीर में गर्मी आ गई थी। मेरे पास बिस्किट और नमकीन का एक पैकेट पड़ा था। मैनें उसे दिया तो वो उस पर टूट पड़ा। उसकी भूख तो नहीं मिटी लेकिन फिर भी उसका चेहरा बता रहा था कि उसे राहत मिली है। कोहरा और घना हो चला था। उसे इस हालत में छोड़ना मुझे मुनासिब न लगा। मैनें उसे उठाकर मोटरसाइकल पर बिठाया और चल पड़ा। मेरे घर को जाने वाले रास्ते में एक पुलिस थाना पड़ता है। मैनें उसे वहां छोड़ दिया और पुलिसकर्मियों को ज़रूरी जानकारी देकर घर के लिए चल पड़ा। मेरी आंखों के सामने उस बच्चे का मासूम चेहरा रह रह कर कौंध रहा था। ठंड से कांपती उसकी काया दिलो दिमाग पर छाई हुई थी। लगातार बढ़ती शीत ने मेरा स्वेटर भिगो दिया था। हेलमेट से टपकती पानी की एक बूंद आंख पर गिरी तो मानों मैं सपने से बाहर आया। सिर को हल्का झटका देकर मैं घर की ओर चल पड़ा। दिमाग में सैकड़ों सवाल लिए...दिल पर एक बोझ लिए कि ऐसे ही न जाने कितने बच्चे इस भीषण सर्दी में कापने को, ठिठुरने को मजबूर होंगे। नए साल की सौगात के रूप में मिली इस सर्दी को भला वो कैसे झेल रहे होंगे। ना तो उनके पास गर्म कपड़े हैं, ना रजाई या कंबल, ना पेट भरने को रोटी है और ना ही रात गुजारने का कोई ठिकाना। राजू को एक रात के लिए तो आसरा मिल गया लेकिन बाकी की सर्द रातें वो या उसके जैसे बच्चे कैसे कांटेंगे। क्या इस नए साल में इन अनाथ बच्चों के लिए कुछ किया जा सकता है।

शुक्रवार, 2 जनवरी 2009

आओ ज्ञान बढ़ाएं



आर्थिक मामलों में मेरा ज्ञान बहुत कमजोर है। इस क्षेत्र से जुड़ी तमाम टर्मिनोलॉजी मेरी समझ से बाहर होती हैं। आज अखबारों में खबर पढ़ी कि आरबीआई ने सीआरआर और रेपो दर में कटौती कर दी। अब मुझे समझ नहीं आया कि ये सीआरआर और रेपो दर क्या बला है। दैनिक भाष्कर के नेट संस्करण पर इस बला से पाला पड़ा तो सोचा क्यों ना अपने ब्लॉग पर इस बला को डाल दिया जाए। हो सकता है हमारे कुछ और भाई बंधु इस बला से परिचित ना हों।

रेपो रेट :

बैंकों को अपने दैनिक कामकाज के लिए प्राय: ऐसी बड़ी रकम की जरूरत होती है जिनकी मियाद एक दिन से ज्यादा नहीं होती। इसके लिए बैंक जो विकल्प अपनाते हैं, उनमें सबसे सामान्य है केंद्रीय बैंक (भारत में रिजर्व बैंक) से रात भर के लिए (ओवरनाइट) कर्ज लेना। इस कर्ज पर रिजर्व बैंक को उन्हें जो ब्याज देना पड़ता है, उसे ही रेपो दर कहते हैं।

रेपो रेट कम होने से बैंकों के लिए रिजर्व बैंक से कर्ज लेना सस्ता हो जाएगा और इसलिए बैंक ब्याज दरों में कमी करेंगे, ताकि ज्यादा से ज्यादा रकम कर्ज के तौर पर दी जा सके। रेपो दर में बढ़ोतरी का सीधा मतलब यह होता है कि बैंकों के लिए रिजर्व बैंक से रात भर के लिए कर्ज लेना महंगा हो जाएगा। साफ है कि बैंक दूसरों को कर्ज देने के लिए जो ब्याज दर तय करते हैं, वह भी उन्हें बढ़ाना होगा।

रिवर्स रेपो दर:
नाम के ही मुताबिक रिवर्स रेपो दर ऊपर बताए गए रेपो दर से उलटा होता है। बैंकों के पास दिन भर के कामकाज के बाद बहुत बार एक बड़ी रकम शेष बच जाती है। बैंक वह रकम अपने पास रखने के बजाय रिजर्व बैंक में रख सकते हैं, जिस पर उन्हें रिजर्व बैंक से ब्याज भी मिलता है। जिस दर पर यह ब्याज मिलता है, उसे रिवर्स रेपो दर कहते हैं।

अगर रिजर्व बैंक को लगता है कि बाजार में बहुत ज्यादा नकदी है, तो वह रिवर्स रेपो दर में बढ़ोतरी कर देता है, जिससे बैंक ज्यादा ब्याज कमाने के लिए अपना धन रिजर्व बैंक के पास रखने को प्रोत्साहित होते हैं और इस तरह उनके पास बाजार में छोड़ने के लिए कम धन बचता है।

कैश रिजर्व रेशियो (सीआरआर):

सभी बैंकों के लिए जरूरी होता है कि वह अपने कुल कैश रिजर्व का एक निश्चित हिस्सा रिजर्व बैंक के पास जमा रखें। इसे नकद आरक्षी अनुपात कहते हैं। ऐसा इसलिए होता है कि अगर किसी भी मौके पर एक साथ बहुत बड़ी संख्या में जमाकर्ता अपना पैसा निकालने आ जाएं तो बैंक डिफॉल्ट न कर सके। आरबीआई जब ब्याज दरों में बदलाव किए बिना जब बाजार से तरलता कम करना चाहता है, तो वह सीआरआर बढ़ा देता है।

उदाहरण के लिए: मंगलवार को मौद्रिक नीति की सालाना समीक्षा के बाद सीआरआर 8.25 फीसदी हो गया है, यानी बैंकों को अब अपने 100 रुपए के कैश रिजर्व पर 8.25 रुपए का रिजर्व रखना होगा। इससे बैंकों के पास बाजार में कर्ज देने के लिए कम रकम बचेगी, लेकिन रेपो और रिवर्स रेपो दरों में कोई बदलाव नहीं किए जाने से कॉस्ट ऑफ फंड पर कोई असर नहीं पड़ेगा। रेपो और रिवर्स रेपो दरें रिजर्व बैंक के हाथ में नकदी की सप्लाई को तुरंत प्रभावित करने वाले हथियार माने जाते हैं, जबकि सीआरआर से नकदी की सप्लाई पर तुलनात्मक तौर पर ज्यादा समय में असर पड़ता है।

साभार दैनिक भाष्कर
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