शनिवार, 31 जनवरी 2009

गुम होती कांव कांव

01 फरवरी 09

इंटरनेट पर एक खबर पढ़कर अंतर्मन के सूखे धरातल पर तमाम सवाल चहलकदमी करने लगे । खबर थी कि धरती पर कौओं का अस्तित्व खतरे में हैं। गिद्धों के बाद कौओं के जीवन पर मंडराते संकट ने बहुत कुछ सोचने के लिए मजबूर कर दिया। यूं तो पृकृति से खिलवाड़ और उसके साम्राज्य में मानव के दखल ने तमाम जीव जंतुओं को इतिहास के पन्नों में दर्ज कराने की पहल काफी पहले शुरू करा दी थी लेकिन अब जब बात कौओं तक भी जा पहुंची है तो वास्तव में लगता है कि मामला काफी गंभीर है। बाघों को बचाने के लिए प्रोजेक्ट टाइगर और गैंडों की रखवाली के लिए प्रोजेक्ट राइन्हो चल रहा है। गिद्धों के हक में भी हरियाणा में एक मुहिम चल रही है और भी तमाम ऐसे जानवर जो लुप्त होने की कगार पर हैं उनके लिए कुछ न कुछ किया जा रहा है लेकिन बेचारा कौआ अभी तक उसके हक में कहीं से कोई भी आवाज बुंलद नहीं हुई है। हो भी कैसे यदा कदा ही तो कौए का स्मरण होता है। पितृ पक्ष के दौरान पुरखों के श्राद्ध के वक्त या फिर अगर इस बेचारे प्राणी ने किसी के छत की मुंडर से कांव कांव की रट लगाकर किसी मेहमान के आने का संकेत दे दिया हो तो। वरना कौए को सदैव उपेक्षा की दृष्टि से ही देखा जाता है। विकास की अंधी दौड़ में आज हम कौओं की महत्ता को भले ही न समझ रहे हों लेकिन उनकी लगातार घटती संख्या को पर्यावरणविद् एक खतरनाक संकेत मान रहे हैं। कौआ जितना पर्यावरण के लिए उपयोगी है उतना ही उसका लोक व्यवहार में भी महत्व है। पहले कौआ अगर किसी को चोंच मार देता था तो उसे घोर अपशकुन माना जाता था लेकिन हालात बता रहे हैं कि अगर हम जल्द नहीं चेते तो कौए हमें ये सूचना देने के लिए भी शेष नहीं रहेंगे। पर्यावरणविदों की मानें तो कौओं की घटती संख्या के लिए बदलता पर्यावरण जिम्मेदार है। दरअसल जिस तरह से खाने पीने की चीजों में कीटनाशकों और जहरीली चीजों का उपयोग हो रहा है, उससे कौओं की प्रजनन क्षमता घटती जा रही है। दूसरा कारण जो कौओं के लिए परेशानी का सबब बनता जा रहा है वो है जंगलों की लगातार कटाई। कौआ एकांतप्रिय पक्षी है और सुनसान जगह ही अपना घोंसला बनाता है, जो वृक्षों की कटाई के चलते उसे मिल नहीं पा रहा है। जिससे उसके लिए आवास की समस्या उत्पन्न हो गई है। अपने आसपास गौर करें तो आपको काला कौआ मुश्किल से देखने को मिलेगा। हो सकता है गले पे सफेद धारी वाला कौआ आपको दिख जाए। दरअसल कौए की इस प्रजाति की प्रतिरोधक क्षमता काले कौए से कहीं बेहतर है, इसलिए इस प्रजाति के कौए अभी दिख रहे हैं लेकिन इसका ये मतलब नहीं लगाया जाना चाहिए कि बदलते पर्यावरण का उन पर असर नहीं हो रहा है। हालात यही रहे तो इस प्रजाति को भी लुप्त होने में देर नहीं लगेगी। लोग जिस तरह से कौओं के प्रति लापरवाही बरत रहे हैं उससे प्राण शर्मा की गजल की कुछ पंक्तियां याद आती हैं -

मुंडेरों पर बैठे कौओं, कौन सुनेगा तुम्हें यहां
दुनिया वाले तो मरते हैं कोयल की मृदुबानी पर


दुनिया वाले भले ही कौए की महत्ता को नजरअंदाज करें लेकिन ये उन्हीं के लिए परेशानी का कारण बनने वाला है। यही हाल रहा तो पृकृति के संतुलन में महती भूमिका निभाने वाले कौए जल्द ही किस्से कहानियों तक ही सीमित रह जायेंगे। आने वाली पीढ़ियां कौए को या तो संघर्ष की प्रेरणा देने वाली प्यासे कौए की कहानी या फिर कागा छत पर शोर मचाए गाने के लिए ही याद रखेंगी। साथ ही लोगों को कौए की कमी तब महसूस होगी जब पितृ पक्ष के मौके पर पुरखों की आत्मा की शांति के लिए की जाने वाली पूजा के दौरान प्रसाद खिलाने के लिए कौए ढूंढने से भी नहीं मिलेंगे।

1 टिप्पणी:

शून्य ने कहा…

कौवे का ज़िक्र और महिमा फिर लोक गीतों तक सिमट कर रह जाएगी... लेकिन लोक गीतों भी कहां रहे अब...., गांव में लोग बैठते थे त्यौहार, उत्सव में इकट्ठा। अब सब खत्म हो रहा है धीरे-धीरे..

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