शुक्रवार, 31 अक्तूबर 2008
बाज आओ राज
31 अक्टूबर 2008
पुलिस की इजाज़त मिलने के बाद एमएनएस के मुखिया राज ठाकरे एक बार फिर मीडिया के सामने हाज़िर हुए। बीते दिनों सपनों के शहर मुंबई में जो कुछ भी हुआ वो चाहे पटना निवासी राहुल राज का एनकाउंटर हो या फिर लोकल ट्रेन में हुई धर्मदेव की ह्त्या, राज ठाकरे की राजनीति को ही इसका जिम्मेदार ठहराया गया। एक हद तक ये सही भी था। लोग उम्मीद कर रहे थे कि इन घटनाओं के बाद राज का लहजे में नर्मी आएगी लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ और एक बार फिर राज ठाकरे आग उगलते नजर आए। उन्होंने राजद के मुखिया और रेल मंत्री लालू प्रसाद यादल के साथ साथ दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित को कठघरे में खड़ा किया। उनका कहना था कि वो किसी पर्व या त्योहार के विरोधी नहीं हैं। वे सिर्फ इन त्योहारों के बहाने की जाने वाली राजनीति की खिलाफ़त करते हैं। ठाकरे ने कहा कुछ लोग बाहर से आकर महाराष्ट्र में चुनावी राजनीति कर रहे हैं और उनकी महाराष्ट्र सरकार और बीएमसी से गुजारिश है कि ऐसे लोगों को महाराष्ट्र में आने से रोके, जो यहां आकर चुनावी राजनीति कर रहे हैं और धार्मिक उत्सवों पर अपने सियासी दांव-पेंच खेल रहे हैं लेकिन मैं राज ठाकरे से पूछना चाहता हूं कि राहुल राज और धर्मदेव कौन सी राजनीति करने महाराष्ट्र आए थे या फिर जितने भी उत्तर भारतीय उनके समर्थकों की गुंडागर्दी का शिकार हो रहे हैं वो कौन सी राजनीति कर रहे हैं। दिन भर रिक्शा चलाते हुए पसीना बहाकर अपने परिवार के लिए दो वक्त की रोटी का जुगाड़ करने वाला एक साधारण उत्तर भारतीय भला क्या राजनीति करेगा। अपना घर बार छोड़, परिवार वालों की छोटी छोटी खुशियों को पूरा करने के लिए मुंबई आने वाले धर्मदेव जैसे शख्स भला किस ताकत का मुजाहिरा करते हैं जो राज को गुस्सा आ जाता है। मुंबई ने आज तक बाहर से आने वाले हर शख्स का स्वागत बांहे फैलाकर किया है। अपने सपनों में रंग भरने की कोशिश करने वालों को मुंबई ने कभी निराश नहीं किया। जो सक्षम है, वो भला अपना सब कुछ छोड़कर मुंबई क्यो जाएगा और अगर वहां जाने वाला कमज़ोर है तो भला वो मराठी अस्मिता को नुकसान कैसे पहुंचा सकता है। अगर वो ऐसा करने में सक्षम नहीं है तो फिर क्यों एमएनएस के लोग उनके साथ जानवरों जैसा सलूक करते हैं। उत्तर भारतीयों पर लगातार हो रहे हमले के बाद आज राज ठाकरे ने अपने कार्यकर्ताओं से शांति बनाए रखने की अपील की। उन्होंने कहा कि अगर इस आंदोलने के दौरान अगर किसी की मौत हुई है तो मैं दुख व्यक्त करता हूं। मैं पूछना चाहता हूं राज ठाकरे से कि क्या उनके दुख व्यक्त करने से उन परिवारों की खुशियां लौट आएंगी जिनके अपने उनकी राजनीति का शिकार हो गए हैं। क्या उनके दुख व्यक्त करने से धर्मदेव की बेवा की वीरान जिन्दगी में दोबारा खुशियों के फूल खिल सकेंगे। ऐसा कुछ नहीं होगा। मुझे समझ नहीं आता कि आखिर इंसानी जिंदगियों की कीमत पर ये खद्दरधारी अपना राजनीतिक स्वार्थ क्यों साधते हैं। भाषा और क्षेत्र के नाम पर लोगों की भावनाओं से खेलने के अलावा क्या राज को ऐसा कोई रास्ता नहीं सूझा जो उन्हें उनके चाचा बाला साहब ठाकरे से आगे ले जाकर खड़ा कर सके। नफरत की राजनीति के अलावा क्या उन्हें कोई ऐसा रास्ता नहीं मिला जो उनकी राजनीति की दुकान चला दे। इंसानी लाशों पर खड़े होकर सियासत का खेल खेल रहे ये नेता अगर अपनी हरकतों से बाज नहीं आए तो इसके परिणाम की भयावहता की कल्पना करना कोई मुश्किल काम नहीं है।
गुरुवार, 30 अक्तूबर 2008
आंसू मेरे दिल की ज़ुबान हैं
31 अक्टूबर 2008
आज यूं ही बैठे बैठे कुछ पुरानी यादें मन के दरवाजे पर दस्तक दे गईं। कुछ खट्टी, कुछ मीठीं यादें। दिल भर आया और साथ ही आंखें भी। आंख से टपका आंसू सामने रखी किताब को गीला कर गया तो मन हुआ इन आंसुओं पर कुछ, लिखा जाए। दरअसल आंसू अभिव्यक्ति का सबसे सहज माध्यम हैं। गम है तो आंसू बहते हैं, खुशी है तो आंसू साथ रहते हैं, हार पर तो रोना आता ही है, जीत पर भी आंखें गीली हो जाती हैं। अपनों की जुदाई में भी अंखियां बरसती हैं और मिलन में भी छलके बिना नहीं रह पातीं। जीवन के हर रंग में, हर मोड़ पर, किसी न किसी रूप में साथ निभाते हैं ये आंसू। कभी अतीत की किसी खिड़की से भूली बिसरी यादें झांकने लगती हैं तो आंखें बरबस ही बरस पड़ती हैं। यादें, अपनी यादें, अपनों की यादें, देर तक सालती रहती हैं मन को। मन भीगने लगता है यादों की रिझिम से और आंखें भीगने लगती हैं आंसुओं से। दिल सोचता है कि जो छूट गया वो अनमोल था, जो पाया वो व्यर्थ है, जो खो दिया वही शाश्वत था, जो मिला वो निरर्थक ही है। अतीत का तो आंसुओं से पुराना नाता है। हम कभी पुराने दुखों को याद करके रोते हैं तो कभी सुखों को। पुरानी यादें सिर्फ दर्द देती हैं और दर्द आंसू। सोचा था क्या और क्या हो गया। कभी अपनी ही कोई बात रुला जाती है तो कभी हालात रोने को विवश कर देते हैं। हम अपने जीवन के लिए क्या क्या मंसूबे बांधते हैं, कितने ख्वाब सहेजते हैं और हालात हमें वहां ला खड़ा करते है, जहां सांस लेना भी दुश्वार हो जाता है और दिल कराह उठता है।
सांस लेना भी दुश्वार हो जिस जगह
हम जिएं उस जगह पर तो कैसे जिएं
आंसुओं की भी कीमत हो ज्यादा जहां
पिएं भी आंसुओं को तो कैसे पिएं
ये तो हो गया आंसुओं का एक स्वरूप लेकिन मेरा मानना है कि रोने से नसीब नहीं बदलते। आंसू अगर हमारी निराशा और दुखों के द्योतक हैं तो पोंछ देना चाहिए ऐसे आंसुओं को। क्योंकि सिर्फ रोने से कुछ नहीं मिलता बल्कि कुछ खोता ही है, हमारा आत्मविश्वास, हमारा चैन और हमारा आत्म सम्मान। अगर हमें कुछ चाहिए तो आगे बढ़कर हमें, हमारी तकदीर खुद बदलनी होगी। ले लेंगे तो सारा संसार हमारा है, मांगेंगे तो एक ज़र्रा भी नहीं मिलेगा। जीवन में आंसू कितने ही रंगों में ढलते हैं। कभी किरदार बन जातें हैं तो कभी कहानी। कभी परिणाम बनकर सामने आते हैं तो कभी सीने में तूफान बनकर छुप जाते हैं ये आंसू। वक्त वक्त पर एक साथी बनकर आ जाएं आंसू तो ठीक है, सुख में दुख में हमारी अभिव्यक्ति का माध्यम बने, हमारा साथ निभायें तो ठीक है, आंसू हमारे दिल की जुबान जो हैं लेकिन आंसुओं को अपना तकदीर हरगिज न बनने दें। या तो आगे बढ़कर बदल दें ज़माने को या फिर हर हाल में खुश रहना सीखें। किसी ने खूब कहा है ...
एक लम्हा ही मसर्रत का बहुत होता है
लोग जीने का सलीका कहां रखते हैं।
मंगलवार, 28 अक्तूबर 2008
नज़्में जो दिल को छू गईं
एक लम्हा
जिन्दगी नाम है कुछ लम्हों का
और उनमें भी वही एक लम्हा
जिसमें दो बोलती आंखें
चाय की प्याली से जब उठें
तो दिल में डूबें
डूब के दिल में कहें
आज तुम कुछ ना कहो
आज हम कुछ ना कहें
बस यूं ही बैठे रहें
हाथों में हाथ लिए
ग़म की सौगात लिए
गर्मी-ए-जज्बात लिए
कौन जाने कि इसी लम्हे में
दूर पर्वत पर कहीं बर्फ पिघलने ही लगे
आखिरी रात
चांद टूटा पिघल गए तारे
कतरा कतरा टपक रही है रात
पलकें आंखों पर झुकती आती हैं
अंखडियों में खटक रही है रात
आज छेड़ो न कोई अफसाना
आज की रात हमको सोने दो
खुलते जाते हैं सिमटे सुकड़े जाल
घुलते जाते हैं खून में बादल
अपने गुलनार पंख फैलाए
आ रहे हैं इसी तरफ जंगल
गुल करो शमा रख दो पैमाना
आज की रात हमको सोने दो
शाम से पहले मर चुका था शहर
कौन दरवाजा खटखटाता है
और ऊंची करो ये दीवारें
चोर आंगन में आता जाता है
कह दो आज है बंद मैखाना
आज की रात हमको सोने दो
जिस्म ही जिस्म कफन ही कफन
बात सुनते न सर झुकाते हैं
अम्न की खैर कोतवाल की खैर
मुर्दे कब्रों से निकले आते हैं
कोई अपना ना कोई बेगाना
आज की रात हमको सोने दो
कोई कहता था ठीक कहता था
सरकशी बन गई है सबकैशार
क़त्ल पर जिनको ऐतराज था
दफन होने पर क्यों नहीं तैयार
होशबंदी है आज सो जाना
आज की रात हमको सोने दो
सोमनाथ
बुतशिकन कोई कहीं से भी ना आने पाए
हमने कुछ बुत अभी सीने में सजा रखे हैं,
अपनी यादों में बसा रखे हैं।
दिल पे ये सोचकर पथराव करो दीवानों
कि जहां हमने सनम अपने छिपा रखे हैं,
वही गजनी के भी खुदा रखे हैं।
बुत जो टूटे तो किसी तरह बना लेंगे उन्हें
टुकड़े टुकड़े ही सही दामन में उठा लेंगे उन्हें
फिर से उजड़े हुए सीने में सजा लेंगे उन्हें
गर खुदा टूटेगा हम तो ना बना पायेंगे
उसके बिखरे हुए टुकड़े ना उठा पायेंगे।
तुम उठा लो तो उठा लो शायद
तुम बना लो तो बना लो शायद
तुम बनाओ तो खुदा जाने बनाओ कैसा
अपने जैसा ही बनाया तो कयामत होगी
प्यार होगा ना ज़माने में मोहब्बत होगी
दुश्मनी होगी अदावत होगी
हमसे उसकी ना इबादत होगी
वहशत-ए-बुतशिकनी देखकर हैरान हूं मैं
बुतपरस्ती मेरा सेवा है कि इंसान हूं मैं
एक ना एक बुत तो हर एक दिल में छुपा होता है
उसके सौ नामों में एक खुदा होता है।
नोट :
ये नज्में मैनें i tune store पर सुनी, अच्छी लगीं, किसकी हैं, नहीं जानता लेकिन आप लोगों की खिदमत में पेश कर रहा हूं।
जिन्दगी नाम है कुछ लम्हों का
और उनमें भी वही एक लम्हा
जिसमें दो बोलती आंखें
चाय की प्याली से जब उठें
तो दिल में डूबें
डूब के दिल में कहें
आज तुम कुछ ना कहो
आज हम कुछ ना कहें
बस यूं ही बैठे रहें
हाथों में हाथ लिए
ग़म की सौगात लिए
गर्मी-ए-जज्बात लिए
कौन जाने कि इसी लम्हे में
दूर पर्वत पर कहीं बर्फ पिघलने ही लगे
आखिरी रात
चांद टूटा पिघल गए तारे
कतरा कतरा टपक रही है रात
पलकें आंखों पर झुकती आती हैं
अंखडियों में खटक रही है रात
आज छेड़ो न कोई अफसाना
आज की रात हमको सोने दो
खुलते जाते हैं सिमटे सुकड़े जाल
घुलते जाते हैं खून में बादल
अपने गुलनार पंख फैलाए
आ रहे हैं इसी तरफ जंगल
गुल करो शमा रख दो पैमाना
आज की रात हमको सोने दो
शाम से पहले मर चुका था शहर
कौन दरवाजा खटखटाता है
और ऊंची करो ये दीवारें
चोर आंगन में आता जाता है
कह दो आज है बंद मैखाना
आज की रात हमको सोने दो
जिस्म ही जिस्म कफन ही कफन
बात सुनते न सर झुकाते हैं
अम्न की खैर कोतवाल की खैर
मुर्दे कब्रों से निकले आते हैं
कोई अपना ना कोई बेगाना
आज की रात हमको सोने दो
कोई कहता था ठीक कहता था
सरकशी बन गई है सबकैशार
क़त्ल पर जिनको ऐतराज था
दफन होने पर क्यों नहीं तैयार
होशबंदी है आज सो जाना
आज की रात हमको सोने दो
सोमनाथ
बुतशिकन कोई कहीं से भी ना आने पाए
हमने कुछ बुत अभी सीने में सजा रखे हैं,
अपनी यादों में बसा रखे हैं।
दिल पे ये सोचकर पथराव करो दीवानों
कि जहां हमने सनम अपने छिपा रखे हैं,
वही गजनी के भी खुदा रखे हैं।
बुत जो टूटे तो किसी तरह बना लेंगे उन्हें
टुकड़े टुकड़े ही सही दामन में उठा लेंगे उन्हें
फिर से उजड़े हुए सीने में सजा लेंगे उन्हें
गर खुदा टूटेगा हम तो ना बना पायेंगे
उसके बिखरे हुए टुकड़े ना उठा पायेंगे।
तुम उठा लो तो उठा लो शायद
तुम बना लो तो बना लो शायद
तुम बनाओ तो खुदा जाने बनाओ कैसा
अपने जैसा ही बनाया तो कयामत होगी
प्यार होगा ना ज़माने में मोहब्बत होगी
दुश्मनी होगी अदावत होगी
हमसे उसकी ना इबादत होगी
वहशत-ए-बुतशिकनी देखकर हैरान हूं मैं
बुतपरस्ती मेरा सेवा है कि इंसान हूं मैं
एक ना एक बुत तो हर एक दिल में छुपा होता है
उसके सौ नामों में एक खुदा होता है।
नोट :
ये नज्में मैनें i tune store पर सुनी, अच्छी लगीं, किसकी हैं, नहीं जानता लेकिन आप लोगों की खिदमत में पेश कर रहा हूं।
सोमवार, 27 अक्तूबर 2008
राहुल को क्यों मारा ?
28 अक्टूबर 2008
सोमवार की सुबह मुंबई में पुलिस ने बिहार के एक युवक को गोलियों से उड़ा दिया। वजह थी राहुल राज नाम के इस युवक द्वारा बेस्ट की एक बस को हाईजैक करना और एमएनएस के मुखिया राज ठाकरे को अपशब्द कहते हुए उन्हें जान से मारने की धमकी देना। पटना निवासी ये युवक बेरोजगार था और पिता के कहने पर मुंबई रोजगार की तलाश में गया था। मन में परिवार के सपनों को पूरा करने का अरमान था, पिता की ख्वाहिशों को परवान चढ़ाने का जुनून था लेकिन ऐसा कुछ भी न हो सका। मुंबई में उत्तर भारतीयो पर हो रहे अत्याचार ने राहुल को उद्वेलित कर दिया। मन की पीड़ा बरदाश्त नहीं हुई और ना चाहते हुए भी राहुल से गलती हो गई। दिल का गुबार जब फूटा तो राहुल के हाथ में पिस्तौल आ गई। उसका इरादा किसी को नुकसान पहुंचाने का नहीं था और ना ही वो कानून अपने हाथ में लेना चाहता था। बावजूद इसके राहुल से गलती हो गई लेकिन उसे इस गलती के लिए उकसाने वाला कौन था। ये जानना बेहद ज़रूरी है। क्योंकि कानून की नजर में ऐसा करने वाला भी बराबर को दोषी है और ऐसा करने वाला कोई और नहीं बल्कि एमएनएस के मुखिया राज ठाकरे हैं। अगर उन्होंने क्षेत्र और भाषा के नाम पर लोगों के दिलों में दरार न डाली होती तो आज राहुल अपने परिजनों के बीच होता। इस घटना के बाद महाराष्ट्र के गृहमंत्री आर.आर.पाटील ने पुलिस की कार्रवाई को सही ठहराते हुए कहा है कि राज्य में अगर कोई इस तरह से गोलीबारी करेगा तो पुलिस उसे उसी की शैली में जवाब देगी लेकिन मैं पूछना चाहता हूं पाटील साहब से कि जब राज ठाकरे के गुंडे मुंबई में उत्तर भारतीयों के साथ मारपीट करते हैं, उनकी दुकानें तोड़ते हैं तो पुलिस क्या करती रहती है। क्यों उन्हें उनकी शैली में जवाब नहीं दिया जाता है। मैं पूछना चाहता हूं पाटिल साहब से कि जब राज ठाकरे खुले आम महाराष्ट्र में कानून को चुनौती देते हैं तो सरकार क्या करती है। क्यों केवल कड़ी कार्रवाई का दम भरा जाता है। बेस्ट बस कांड के बाद महाराष्ट्र सरकार ने राज ठाकरे को फिर जेड श्रेणी की सुरक्षा उपलब्ध कराने का फैसला किया है। मुंबई में 19 अक्टूबर को एमएनएस कार्यकर्ताओं के हुड़दंग के बाद राज्य सरकार ने राज की सुरक्षा घटाकर वाय श्रेणी की कर दी थी। मैं पूछना चाहता हूं पाटील साहब से कि राज ठाकरे को तो वो जेड श्रेणी की सुरक्षा दे रहे हैं लेकिन उन हजारों बेकसूरों की सुरक्षा का क्या, जो अपने ही देश में पराएपन की पीड़ा झेल रहे हैं। भारतीय लोकतांत्रिक व्यवस्था को चुनौती देकर एक शख्स हीरो बन रहा है और हमारे नीति नियंता बैठे बैठे तमाशा देख रहे हैं। महाराष्ट्र के विकास के नाम पर अपनी राजनीति चमकाने वाले इस शख्स का हमारे कानून के पास कोई इलाज है या नहीं। ये कहते हैं कि महाराष्ट्र में नौकरियों पर स्थानीय लोगों का हक़ है। चलिए मान लिया लेकिन इस हक को हासिल करने के जो रास्ते हैं उन पर चलिए और कम से कम वो रास्ता हिंसा का तो नहीं ही है। आपने प्रतिभा है काबिलियत है तो देश के किसी भी कोने में जाकर आप नौकरी हासिल कर सकते हैं। ऐसा नहीं है कि मराठी भाई बंधु केवल महाराष्ट्र में रहते हैं वो भी देश के दूसरे कोनों में बसे हैं लेकिन उन जगहों पर तो ऐसा कुछ भी नहीं है। फिर क्यों महाराष्ट्र को एक ऐसा राह पर धकेलने की कोशिश हो रही है जहां उसका विना। तय है। मुंबई केवल मराठियों ने नहीं बसाई है। उसे देश के हर कोने से आए हर धर्म हर मजहब के एक एक व्यक्ति ने बनाय़ा है और उनके बिना मुंबई के अस्तित्ल की कल्पना करना ही बेकार है। ये राज ठाकरे की विद्रूप मानसिकता का ही नतीजा है कि आज बिहार हिंसा की आग में जल रहा है। मैं अपने ब्लॉग के माध्यम से महाराष्ट्र सरकार से ये पूछना चाहता हूं कि राज ठाकरे पर लगाम लगाने के लिए वो क्या कदम उठा रही है क्योंकि उनकी सुरक्षा के नाम पर राहुल जैसे नौजवानों की कुर्बानी नहीं दी जा सकती है। दूसरा सवाल मुंबई पुलिस से है मेरा कि आखिर उन्होंने राहुल को जिन्दा पकड़ने की कोशिश क्यों नहीं की। राहुल की गोलियां खत्म होने के बाद उसे घेरकर गिरफ्तार किया जा सकता था और उसकी हरकत का कानूनन जो भी दण्ड होता उसे दिया जाता लेकिन एक आतंकवादी की तरह उसे घेरकर गोलियों से छलनी कर देना कहां का न्याय है।
अनदेखे अनजानों लेकिन अपनों को दीपावली की बधाई
यूं तो ब्लॉग के बहुत सारे फायदे हैं लेकिन आज इसका सबसे बड़ा फायदा मुझे साक्षात दिखा और वो ये कि एक ही जगह बैठे बैठे मैं दुनिया के किसी भी कोने में बैठे किसी भी व्यक्ति को दीपावली की बधाई दे सकता हूं। जो मुझे जानते हैं उन्हें भी औरक जो नहीं जानते उन्हें भी। दरअसल व्लॉग की इस दुनिया में आकर बुहत से लोगों से एक रिश्ता बना। प्यार का रिश्ता। अनदेखे, अनजाने लेकिन अपने बल्कि अपनों से भी बढ़कर अपने, ऐसे लोगों को जानने, उन्हें समझने का मौका मिला। उनके विचारों को जानने और अपने विचारों से उन्हें अवगत कराने का मौका मिला। ब्लॉग के ज़रिए बने इस रिश्ते को परिभाषित करना नामुमकिन है। मेरे ब्लॉग पर आकर टिप्पणी करने वाले और आकर बिना टिप्पणी किए लौट जाने वाले मेरे सभी प्रियजनों को दीपावली की हार्दिक शुभकामनाएं। मैं जिनसे मिला उन्हें भी औऱ जिनसे नहीं मिला उन्हें भी रोशनी के इस त्योहार पर हार्दिक बधाइयां। दीपों का ये पर्व आपके जीवन में खुशियां लाए, तरक्की के नए रास्ते खुलें और जीवनपथ पर आप सभी सफलता पूर्वक आगे बढ़े यही मेरी चाहत है और ईश्वर से यही मेरी दुआ।
शुक्रवार, 24 अक्तूबर 2008
कब बिकेंगे दिए
24 अक्ट्बूर 2008
कल शाम बाज़ार से गुजरते समय नजर सड़क किनारे बने घास फूस के एक छप्पर पर जा टिकी। जिसकी दीवारों में कच्ची मिट्टी की गंध बसी थी। इसी तरह के कुछ और छप्पर पूरे माहौल को एक छोटी सी बस्ती का रूप दे रहे थे। शाम का धुंधलका अपने पंख पसारने लगा था। वातावरण में हल्की सी ठंड घुल गई थी। उन छप्परों में से एक के सामने जाकर मैं ठिठक गया। दरअसल ये कुम्हारों की बस्ती थी। दीपावली नजदीक है इसलिए यहां थोड़ी चहल पहल थी। किसी छप्पर के आगे मिट्टी के लोंदे बन रहे थे तो कहीं आंवे में बर्तन पक रहे थे। कहीं चाक अपनी पूरी रफ्तार से घूम रहा था तो कहीं सांचे में ढले कच्चे बर्तन सांझ के सूरज की लालिमा को अपने भीतर समाहित कर रहे थे। कुछ बच्चे मैले कुचैले कपड़ों में पकड़म पकड़ाई खेल रहे थे। इन्हीं में से किसी एक छप्पर के भीतर से मसाले की सोंधी खुश्बू आ रही थी। शायद किसी कुम्हार का कोई बर्तन कुछ अच्छे दामों में बिक गया था, जिसकी खुशी कुछ अच्छा खाकर मनाने की तैयारी हो रही थी। बहरहाल तेजी से घूमते एक चाक के पास जाकर मैं ठिठक गया। कुम्हार के हाथ चाक पर रखे मिट्टी के लोंदे को आकार दे रहे थे। दिए का आकार। पास में बने हुए कई कच्चे दीपक रखे थे। कुम्हार के हाथ अपना काम कर रहे थे लेकिन दिमाग किन्ही ख्यालों में गुम लग रहा था। मैं वहीं बैठ गया। यूं ही...बेमकसद...कुम्हार के साथ बातचीत का सिलसिला शुरू करने के लिए मैनें उसके चेहरे की तरफ देखा लेकिन कोई हलचल न देख मैं सकपका गया। उसके चेहरे पर अब भी वीरानी छाई हुई थी। वो खुद से ही सवाल करता दिखाई पड़ रहा था। मैं ये जानने के लिए और उत्सुक हो गया कि आखिर ऐसा क्या हुआ है या हो रहा है जो उसे अंदर ही अंदर खाए जा रहा है। मैनें उसे धीमे से आवाज़ दी। उसने मेरी तरफ पलटकर तो देखा लेकिन बोला कुछ नहीं। मैनें उससे दियों के भाव पूछे तो उसकी नजरें मेरे चेहरे पर आकर ठहर गईं। उसने मुझे बड़े गौर से देखा। मानों मेरा चेहरा पढ़ने की कोशिश कर रहा हो। पहली बार मैनें उसके चेहरे पर हल्की सी और कमजोर मुस्कुराहट देखी। आशा भरी निगाहों से मेरे चेहरे पर टकटकी लगाए वो बोला बाबूजी कितने चाहिए। मैं सकपका गया। फिर भी खुद को संभालते हुए बोला पहले रेट तो बता दो भाई। वो जल्दी से बोला बाबूजी रेट की चिन्ता मत कीजिए थोड़ा कम दे देना, अब बताइए कितने दे दूं। दिए बेचने की उसकी व्यग्रता भांपते हुए मैनें उसका दिल रखने के लिए दो दर्जन दियों के आर्डर दे दिए। कुम्हार अब थोड़ा सहज दिख रहा था। लिहाजा मैनें बात आगे बढ़ाने का उपक्रम किया। बात व्यवसाय से शुरू हुई। बाजार के हालचाल के बाद घर परिवार की बातें भी हुईं। उससे बात करने के बाद मेरे सवालों के जवाब कुछ हद तक मिल चुके थे और मेरी समझ में ये आ चुका था कि आखिर कुम्हार की परेशानी क्या थी। बदलते वक्त के साथ हमारी तहजीब और संस्कृति पर आधुनिकता का मुलम्मा चढ़ गया है। जिस मिट्टी की सोंधी खुश्बू के बीच हम पल बढ़ कर बड़े हुए हैं उसी मिट्टी से हमारा मोह कम होता जा रहा है। मिट्टी के बर्तनों की जगह या तो चमकदार स्टील ने ले ली है या फिर फाइबर के बर्तनों ने। एक समय था जब घरों में रोशनी के लिए लोग मिट्टी के दिए लाते थे। दीपावली पर तो लोग सैकड़ों की संख्या में दिए खरीद कर लाते थे और ये ऐसा वक्त होता था जब कुम्हार सबसे ज्यादा व्यस्त होते थे लेकिन आज लोगों को मिट्टी के दियों की बजाए बिजली की झालरें और मोमबत्तियां लुभाने लगी हैं। कह सकते हैं कि जगमग बिजली की रोशनी में दीयों की टिमटिमाहट के लिए अब जगह नहीं बची है। दीपावली शब्द ही जिस दीप से बना है, उसका अस्तित्व आज ख़तरे में है। जैसे-जैसे ज़माने का चलन बदल रहा है, मिट्टी के दीए की कहानी ख़त्म होती जा रही है। पुश्तों से यही काम करने वाले कुम्हार आज दीपावाली के पहले उदास और मायूस हैं। लोगों के पास महंगाई का तर्क हैं कि तेल औऱ घी के दाम आसमान छूने लगे हैं, ऐसे में दिए कौन खरीदे लेकिन सच्चाई यही है कि मशीनों के आगे कुम्हार के हाथ हार मानने लगे हैं। यही वो वजह है जो कुम्हार के चाक की रफ्तार कमजोर पड़ गई है। यही वो कारण है जो कुम्हार के चेहरे पर पीड़ा बनकर उभरने लगा है। ऐसे में जब परिवार का पेट पालना मुश्किल हो रहा हो तो आने वाली पीढ़ियों का भविष्य संवारने के ख्वाब वो भला कैसे देखे। यही वो वजह है जिसने कुम्हार को परेशान कर रखा है। फिर दीपावली आई है, लोग खुश हैं, खरीददारी कर रहे हैं लेकिन दिए नहीं बिक रहे हैं। कभी दूसरों के घरों को रोशन करने का सामान बनाने वालों के घर ही आज अंधेरे में डूबे हैं। क्या फिर कोई ऐसा दौर आएगा जब मिट्टी के बनाए दिए बिकेंगे और कुम्हार के घर में भी खुशहाली आएगी ?
सोमवार, 13 अक्तूबर 2008
बीमार हुए महानायक
13 अक्टूबर 2008
शनिवार का दिन ज़रा खास था। हर उस हिन्दुस्तानी के लिए जिसे कला से और कलाकारों से लगाव है। दरअसल इस दिन एक कलाकार का जन्म दिन था। बल्कि यूं कहें कि कलाकार नहीं बल्कि कला के एक संस्थान का जन्म दिन था। जी हां, शनिवार को अमिताभ बच्चन छियासठ साल के हो रहे थे और अमित जी खुद में अभिनय के किसी संस्थान से कम नहीं। अमिताभ बच्चन, एक ऐसा कलाकार जहां आकर तुलनाएं समाप्त हो जाती है। एक ऐसा शख्स जिसके बारे में कहने के लिए शब्दकोष में शब्द खत्म हो जाते हैं और नए शब्द गढ़ने पड़ते हैं। ऐसी शख्सियत का जन्म दिन हो और हलचल ना हो ऐसा कैसे हो सकता है। बिग बी को उनके जन्म दिन की बधाई देने के लिए उनके प्रशंसक प्रतीक्षा के आगे प्रतीक्षारत थे। उनकी एक झलक के लिए लोगों का हुजूम उमड़ पड़ा था। लोग अमिताभ की उस मुस्कुराती छवि को देखना चाहते थे जो पिछले चालीस सालों से उनके दिल पर राज कर रही है लेकिन लोगों की उम्मीदें पूरी नहीं हुई। अमिताभ बच्चन के छियासठवें जन्म दिन पर उनका छब्बीस साल पुराना दुश्मन एक बार फिर उनके सामने आ खड़ा हुआ। जी हां उनका वो दर्द एक बार फिर उनकी जिन्दगी के आडे़ आता महसूस हुआ जो उन्हें फिल्म 1983 में कुली फिल्म के दौरान लगी चोट के कारण उभरा था। नीले रंग के गाउन में जब अमिताभ स्ट्रेचर पर घर से बाहर अस्पताल के लिए निकले तो वक्त मानों थम गया। लोग सांस लेना भूल गए। पलकें थी कि झपकने का नाम नहीं ले रही थीं। एक एक पल लोगों के लिए भारी साबित हो रहा था। उनकी आंखों के सामने उनका चहेता अस्पताल जा रहा था। बस फिर क्या था, अमिताभ की बीमारी की खबर जंगल में आग की तरह फैली। मीडिया में चल रही दूसरी खबरों पर विराम लग गया। कैमरों का रुख नानावती अस्पताल की ओर मुड़ गया। दुनिया भर में फैले अमिताभ के चाहने वाले सर्वशक्तिमान से उनकी सलामती की दुआ करने लगे। जिसे जैसे बन पड़ा, मन्दिर में मस्जिद में गुरुद्वारे में, चर्च में हर जगह प्रार्थनाएं होने लगीं। पूरी फिल्म इंडस्ट्री मानों ठहर गई। सदी का महानायक बीमार जो हो गया था। पहले नानावती अस्पताल में कुछ टेस्ट और जांच, उसके बाद लीलावती अस्पताल रेफर, प्रशंसकों की सांसें काबू में नहीं आ रही थीं। उनके कान तो अमिताभ बच्चन के खतरे से बाहर होने की खबर सुनने के लिए तरस रहे थे। जब तक ये थहर नहीं आई लोग अस्पताल के बाहर डटे रहे। बाद में लीलावती अस्पताल की ओर से जारी मेडिकल बुलेटिन में जब अमित जी की बेहतर हालत के बारे में बताया गया तो लोगों की जान में जान आई। इस दौरान राष्ट्रपति से लेकर प्रधानमंत्री तक अमिताभ की सेहत को लेकर फिक्रमंद दिखाई दिए। ये अमिताभ के व्यक्तित्व और उनकी शख्सियत का ही कमाल है कि लोग आज भी उन्हें इतना पसंद करते हैं। अमिताभ बच्चन के बारे में इतना लिखा गया है और इतना कुछ सुना गया है कि ऐसा लगता है वो हम में से एक हैं। मगर सच तो ये है कि अमिताभ हमारे जैसे होकर भी हम सबसे अलग हैं।
वरिष्ठ फिल्मकार कोमल नाहटा लिखते हैं कि बच्चन जैसी किस्मत भगवान कम ही लोगों को देते हैं.अस्थमा के मरीज़, एक जानलेवा दुर्घटना (कुली के सेटी पर), एक गंभीर बीमारी (माइसथिनिया ग्रेविस) फिर एक और गंभीर बीमारी (कोलाइटिस) फिर भी अमिताभ बच्चन रुकने का नाम नहीं ले रहे। लोग तो यही दुआ करेंगे कि वो कभी न रुके क्योंकि बहुत कम नायक हैं जिनके नाम पर दर्शक सिनेमाघरों में आते हैं। लोग अमिताभ बच्चन की फ़िल्में उन्हें देखने के लिए जाते थे, इसलिए कई बार उनकी कमज़ोर फ़िल्में भी औसत धंधा कर लेती थी।
अमिताभ बच्चन की जो फिल्म नहीं चल पाई उनमें भी अमिताभ के काम को सराहा गया। बड़े पर्दे से लेकर छोटे पर्दे तक अमिताभ ने अपनी द्रढ़ इच्छाशक्ति के बूते सफलता के नए कीर्तिमान गढ़े। जब जब मुसीबतों और परेशानियों ने उनकी जिन्दगी का रुख किया अमिताभ और मज़बूत बनकर उभरे हैं। वो चाहे उनकी राजनीतिक पारी की विफलता हो या फिर एबीसीएल कंपनी की नाकामयाबी, बाराबंकी का ज़मीन विवाद हो या फिर राज ठाकरे के साथ चल रहा शीत युद्ध, हर चुनौती का इस शख्स ने डटकर मुकाबला किया और उन पर फतह हासिल की। यहां बीबीसी हिन्दी डॉट कॉम की संपादक सलमा जैदी जी द्वारा लिए गए अमित जी के साक्षात्कार के कुछ अंश आपको पढ़वाना चाहूंगा।
प्रश्न - आपकी उम्र के साठ साल पूरे होने पर कई आयोजन हुए थे और ऐसा लगने लगा था कि आप अपने जीवन का सर्वोत्तम काम कर चुके हैं. लेकिन वह उम्र जब लोग रिटायर होने की सोचते हैं आपके लिए एक नई ऊर्जा ले कर आई और आप फिर से पूरे जोशोख़रोश से काम में जुट गए।
उत्तर - मैंने तय किया है जब तक शरीर साथ देगा काम करता रहूँगा. मैं अभी थका नहीं हूँ।
प्रश्न - लेकिन देखा जाए तो साठ से पैंसठ साल का यह अरसा काफ़ी अहम रहा है। चाहे वह ब्लैक हो या एकलव्य, चीनी कम या निशब्द, सब इसी अवधि की देन हैं।
उत्तर - इसमें कोई विशेष बात नहीं है. मुझे फ़िल्मों के प्रस्ताव मिले और मैंने स्वीकार कर लिए. लोग ऐसा क्यों समझते हैं कि इसके लिए शक्ति की ज़रूरत होती है. जब तक शरीर देख सकता है, सुन सकता है और सह सकता है तब तक काम जारी रहना चाहिए और वही मैं कर रहा हूँ।
प्रश्न - कहते हैं शारीरिक शक्ति भी तभी संभव है जब मानसिक ताक़त हो. क्या वह आपको पिता से विरासत में मिली है?
उत्तर - नहीं, मैं यह तो नहीं कहूँगा कि उनकी जो मानसिक शक्ति थी मैं उसका मुक़ाबला कर सकता हूँ. लेकिन हाँ, कोशिश पूरी करता हूँ. जो काम मिलता है उसे पूरी ईमानदारी और जोश से निभाने का प्रयास करता हूँ और ईश्वर का आभारी हूँ कि उसने यह सब करने की शक्ति मुझे प्रदान की है।
साक्षात्कार के इस सारांश से महानायक की शख्सियत, उनकी विनम्रता, सरलता और साफ़गोई का अंदाजा लगाना मुश्किल नहीं है। काम की उनकी जिजीविषा, काम को करने की उनकी लगन और काम के प्रति उनका समर्पण निश्चित ही लोगों के लिए एक मिसाल है। अन्त में सिर्फ यही कहना चाहूंगा कि ईश्वर सदी के इस महानायक को ग़म की हर परछांई से दूर रखे और उन्हें इतनी ताकत दे कि वो हर चुनौती का डटकर मुकाबला कर सकें और अपनी कला से दुनिया को रोशन करते रहें हमेशा हमेशा।
शनिवार, 11 अक्तूबर 2008
कलयुग में भी अग्निपरीक्षा
11 अक्टूबर 2008
राजस्थान के सिरोही जिले से बीते दिनों एक दिल दहला देने वाली घटना सामने आई। यहां पंचायत ने एक महिला की अग्निपरीक्षा करवाई। गांव में हो रही मौतों के लिए इस महिला को जिम्मेदार बताते हुए पहले उसे डायन करार दिया गया और फिर उसके हाथ खौलते हुए तेल में डालकर उसे चांदी के सिक्के निकालने को कहा गया। कहा गया कि अगर उसके हाथ नहीं जले तो वो निर्दोष मान ली जाएगी। महिला ने पहले सिक्के निकाल भी लिए लेकिन इस कुकृत्य को कराने वाली पंचायत के लोगों को ये बात गले नहीं उतरी और उन्होंने जबरदस्ती उस महिला के हाथ कई बार दोबारा खौलते तेल में झोंक दिए। इतना ही नहीं उसके सिर को भी गरम सरियों से दागा गया। एक ऐसी संस्था जिसे गांव के छोटे मोटे झगड़े निपटाने का हक दिया गया हो उसका इस तरह से हैवानियत पर उतर आना कोई नई बात नहीं थी लेकिन जिस देश में कानून से बड़ा कुछ नहीं, वहां उसी कानून को ठेंगे पर रखकर खेला गया हैवानियत का ये खेल कई सवाल खड़े करता है। पंचायतों के इस तालिबानी रवैए को लेकर खड़े हो रहे सवालों के जवाब अभी मिले भी नहीं कि राजस्थान से ही एक और कड़वी हकीकत निकलकर सामने आ गई। जयपुर से कोई 450 किलोमीटर दूर बड़ी सादरी क़स्बे में हिंगलाज माता के मंदिर में बागरिया समाज के लोगों ने महिलाओं के सतीत्व की परीक्षा के लिए एक दिल दहला देने वाला आयोजन कर डाला। परंपराओं की आड़ में चौदह बागरिया महिलाओं को गर्म तेल से भरे कड़ाह में पक रहे पकवान को हाथ डुबो कर निकालने और अपने पवित्र होने का प्रमाण देने के लिए मजबूर किया गया। चश्मदीदों के मुताबिक़ हर महिला ने बारी बारी से खौलते गर्म तेल से भरे मर्तबान मे हाथ डाला और पकवान निकाला. मगर किसी भी महिला का हाथ गर्म तेल से नही जला। इसका ये नतीजा निकाला गया कि इनमें किसी भी महिला के विवाहत्तोर संबध नहीं है। सतीत्व के इम्तिहान मे विफल होने पर महिला को दंडित किया जाता है। इस क़स्बे मे बागरिया जाति के सैकड़ों परिवार रहते हैं और हर साल विजयादशमी की पूर्व संध्या पर इसका आयोजन किया जाता है। महिलाओं के साथ हुए ये दो कृत्य बताने के लिए काफी हैं कि देश में महिलाओं की सुरक्षा और संरक्षा के लिए बनाए गए कानूनों की क्या हालत है। कहीं पंचायतों का तुगलकी फरमान के ज़रिए तो कहीं परंपराओं की दुहाई देकर आज भी महिलाओं के मान सम्मान पर चोट की जा रही है और महिलाओं की आवाज़ बुलंद करने वाली संस्थाओं की मुखिया वातानुकूलित कमरों में बैठकर ऐसी ही घटनाओं पर चर्चा करती रहती हैं। बहुत होगा तो घटनास्थल का दौरा कर लिया जाएगा और एक रिपोर्ट तैयार कर दी जाएगी। थोड़ी बहुत चिल्ला चिल्ली मचाई जाएगी और फिर सन्नाटा फैल जाएगा। क्या इतने भर से हम देश की इस आधी आबादी के मान सम्मान की रक्षा कर पायेंगे। दरअसल औरत के प्रति हमें अपने वर्षों पुराने दृष्टिकोण में तब्दीली करने की ज़रूरत है और यह तब्दीली बिना शिक्षा के फैलाव के संभव नहीं है। शिक्षा को मदरसों और शिशु मंदिरों से आज़ाद करा के सरकार को अपने हाथ में लेना होगा। जब तक ऐसा नहीं होगा औरत यूं ही संसार में अपमानित होती रहेंगी, शोषण का पात्र बनती रहेंगी, कभी पैदा होने से पूर्व तालाब में बहाई जाती रहेंगी तो कभी पैदा होने के बाद पति की अर्थी पर जलाई जाती रहेगी.। इमराना की तरह सताई जाती रहेगी, मुल्लाओं के फ़तवों और पंडितों के आदेशों के चलते रोती चिल्लाती रहेंगी। स्त्री के प्रति नाइन्साफ़ी की इस आंधी के विरोध में स्वयं स्त्री को भी इंदिरा गाँधी, सरोजनी नायडू, इस्मत चुग़ताई, ज़ीनत महल आदि बनकर खड़ा होना होगा। मजाज़ लखनवी ने स्त्री की दुर्दशा को देखते हुए लिखा था,
तेरे माथे पे यह आँचल बहुत ही ख़ूब है लेकिन
तू इस आँचल से इक परचम बना लेती तो अच्छा था
तो महिलाओं को भी इस तरह के अन्याय के खिलाफ उठ खड़े होना होगा तभी उनके खिलाफ समाज में फैली बुराइयों का अन्त हो सकेगा।
मंगलवार, 7 अक्तूबर 2008
संत का कमाल
07 अक्टूबर 2008
संतों को आपने प्रवचन देते और ज्ञान बांटते तो काफी देखा और सुना होगा लेकिन क्या किसी ऐसे संत से आपका साबका हुआ है जिसने लोक कल्याण के लिए अपना जीवन झोंक दिया हो और बदले में किसी से कुछ भी न लिया हो। जिसे न नाम की इच्छा हो और न शोहरत की। जो अपने काम का बखान नहीं चाहता। जो नेता या सांसद भी नहीं बनना चाहता लेकिन बावजूद इसके आज दुनिया उसके काम की तारीफ करते नहीं थक रही है। वो आज पूरी दुनिया के लिए एक मिसाल बनकर उभरा है। जिसे दुनिया की सबसे मशहूर पत्रिका टाइम्स ने सराहते हुए पर्यावरण की सुरक्षा के लिए प्रयासरत विश्व की तीस शख्सियतों में शुमार किया है। संत सींचेवाल ने अपनी जीवटता के बल पर प्रदूषण के चलते अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रही पंजाब की काली बेई नदी को संकट से उबार लिया। इस नदी में चार शहरों और चालीस गांवों का गंदा पानी गिरता था। ऐसे में जब इस नदी को साफ करने की सारी सरकारी कोशिशें विफल हो चुकी थीं तब संत सींचेवाल ने सात साल पहले इसका बीड़ा उठाया और आज उनकी कोशिश रंग ला चुकी है। बेई नदी का लगभग 160 किलोमीटर लंबा क्षेत्र साफ सुथरा और हरा भरा हो चुका है। नदियों को जीवनदायिनी संबोधन देने वाले प्रख्यात साहित्यकार काका कालेलकर ने अपने लेखन में देश की नदियों को लोकमाता के रूप में रेखांकित कर भारतवर्ष की पौराणिक संस्कृति को उजागर किया है। इतिहास गवाह है कि हजारों साल पहले यहां आवासीय व्यवस्था का श्रीगणेश नदियों के किनारे से ही हुआ लेकिन भारतीय मूल्यों और परंपराओं की वाहक ये नदियां खतरे में हैं। ऐसा एक दो दिन में नहीं हुआ है। इसके लिए जहां सतत विकास जिम्मेदार है वहीं बड़ा श्रेय हमारी और आपकी लारपरवाही को भी जाता है। देश की कई छोटी-छोटी नदियां सूख गई हैं या सूखने की कगार पर हैं। बड़ी-बड़ी नदियों में पानी का प्रवाह धीमा होता जा रहा है। पवित्रतता और निश्छलता की प्रतीक हमारी नदियां अब मैली और दूषित हो चली हैं। इन्हें बचाने की जिम्मेदारी हमारी आपकी सबकी है लेकिन ऐसा हो नहीं पा रहा है। प्रयास चल रहे हैं लेकिन उनमें ईमानदारी का सर्वथा अभाव है। इसी बीच नदियों को बचाने की मुहिम में संत सींचेवाला ने चमत्कार कर दिखाया। उन्होंने इस दिशा में ऐसा कारनामा कर दिखाया है जो सरकारी और गैर सरकारी संस्थाओं के साथ साथ हमारे, आपके, हम सबके लिए एक सबक हो सकता है। उपर बताया जा चुकी है कि संत सींचेवाला ने पंजाब की बेई नदी के लिए क्या किया है। ये वही नदी है, जिसमें गुरुदेव श्री नानक जी ने चौदह वर्ष तक स्नान किया था और जिसके किनारे श्री गुरुनानक देव जी को आध्यात्म बोध प्राप्त हुआ था। आपको ये बताने के लिए कि संत सींचेवाला ने बेई नदी को किस तरह से जीवनदान दिया है, मैं hindi.indiawaterportal.org में लिखे एक लेख के कुछ अंश पढवाना चाहूंगा। पंजाब के होशियारपुर जिले की मुकेरियां तहसील के ग्राम घनोआ के पास से ब्यास नदी से निकल कर काली बेई दुबारा 'हरि के छम्ब' में जाकर ब्यास में ही मिल जाती है। मुकेरियां तहसील में जहां से काली बेई निकलती है। वो लगभग 350 एकड़ का दलदली क्षेत्र था। अपने 160 किलोमीटर लंबे रास्ते में काली बेई होशियारपुर, जालंधार व कपूरथला जिलों को पार करती है। लेकिन इधर काली बेई में इतनी मिट्टी जमा हो गई थी कि उसने नदी के प्रवाह को अवरूध्द कर दिया था। नदी में किनारे के कस्बों-नगरों और सैकड़ों गांवों का गंदा पानी गिरता था। नदी में और किनारों पर गंदगी के ढेर भी थे। जल कुंभी ने पानी को ढक लिया था। कई जगह पर तो किनारे के लोगों ने नदी के पाट पर कब्जा कर खेती शुरू कर दी थी। 'पंच आब' यानि पांच नदियों वाले प्रदेश में काली बेई खत्म हो गई थी। बुध्दिजीवी चर्चाओं में व्यस्त थे। जालंधर में 15 जुलाई 2000 को हुई एक बैठक में लोगों ने काली बेई की दुर्दशा पर चिंता जताई। इस बैठक में उपस्थित सड़क वाले बाबा के नाम से क्षेत्र में मशहूर संत बलबीर सींचेवाल ने नदी को वापिस लाने का बीड़ा उठाया। अगले दिन बाबाजी अपनी शिष्य मंडली के साथ नदी साफ करने उतर गए। उन्होंने नदी की सतह पर पड़ी जल कुंभी की परत को अपने हाथों से साफ करना शुरू किया तो फिर उनके शिष्य भी जुटे। सुल्तानपुर लोधी में काली बेई के किनारे जब टेंट डालकर ये जीवट कर्मी जुटे तो वहां के कुछ राजनैतिक दल के लोगों ने एतराज किया, बल भी दिखाया पर ये डिगे नहीं, बल्कि शांति और लगन से काम में जुटे रहे। पहले आदमी उतरने का रास्ता बनाया गया, फिर वहां से ट्रक भी उतरे और जेसीबी मशीन भी। नदी को ठीक करने बाबा जहां भी गए, वहां नई तरह की दिक्कतें थी। नदी का रास्ता भी ढूंढना था। कई जगह लोग खेती कर रहे थे, कईयों ने तो मुकदमे भी किए लेकिन संत सींचेवाले का हौसला नहीं डिगा। सिक्खों की कार सेवा वाली पध्दति ही यहां चली। हजारों आदमियों ने साथ में काम किया। नदी साफ होती गई। बाबा स्वयं लगातार काम में लगे रहे। उनके बदन पर फफोले पड़ गए। पर कभी उनकी महानता के वे आड़े नहीं आए। इस समय सुल्तानपुर लोधी व अन्य घाटों पर सफाई का कार्य बहुत व्यवस्थित है। रोज रात को बाबा के सींचेवाल स्थित डेरे से बस चलती है और नदी किनारे ग्रामवासी गांव के बाहर खड़े हो जाते हैं। बस लोगों को इकट्ठा करके घाटों पर छोड़ देती है और लोग रात को सफाई करके सुबह पांच बजे तक वापस भी लौट जाते हैं। सब काम सेवा भावना से होता है। कोई दबाव नहीं, कोई शिकायत नहीं। अपनी जिम्मेदारी और अपनेपन के एहसास के साथ। निकट के ग्रामवासी इस पूरी प्रक्रिया से इतने जुड़ गए हैं कि यह सब अब उनके जीवन का एक हिस्सा बन गया है। बाबा ने यहीं बस नहीं किया उन्होंने नदी का रास्ता निकालकर उस पर घाटों का निर्माण किया। नदी के किनारे नीम-पीपल जैसे बड़े पेड़ लगाए। हरसिंगार, रात की रानी व दूसरे खूशबू वाले पौधो भी लगाए। जामुन जैसे फलदार वृक्ष भी लगाए। जिससे सुंदरता के साथ नदी किनारे फल व छाया का इंतजाम भी हो गया। साथ ही नदी के किनारे भी मजबूत बने रहने का इंतजाम कर दिया। नदी को साफ करने बल्कि सही मायने में कहें तो उसे दोबारा जीवित करने का काम इस छोटे से गांव में किसी निश्चित रूप से आती रकम के साथ नहीं शुरू हुआ था। बाबा जी के सहयोगी बताते हैं कि इसमें जनता का सहयोग रहा। विदेशों में रहने वाले सिखों ने भारी मदद दी। इंग्लैण्ड में बसे शमीन्द्र सिंह धालीवाल ने मदद में एक जे.सी.बी. मशीन दे दी, जो मिट्टी उठाने के काम आई। निर्मल कुटिया में बाबा का अपना वर्कशाप है, जिसमें खराद मशीने हैं। वहां काम करने वाले कोई प्रशिक्षण प्राप्त इंजीनियर नहीं बल्कि बाबा के पास श्रध्दा भाव से जुड़े करीब 25 युवा सेवादारों की टुकड़ी है। ये युवा आसपास के गांवों के हैं। वर्षों से सेवा भाव से वे बाबा से जुड़े हैं। एक ने जो जाना वह औरों को बताया। फिर ऐसे ही प्लम्बरों, बिजली के फिटर और खराद वालों की टुकड़ियां बनती गईं। आज बेई नदी अपने अस्तित्तव को लेकर आश्वस्त है और इसका पूरा श्रेय संत सींचेवाल को जाता है। कुदरती स्रोतों में गंदगी डालना कानूनन जुर्म है लेकिन देश भर में इस कानून से खेलने वालों की कोई कमी नहीं है। आज भी देश की तमाम नदियां हमारे इस ढीढपने का दंश झेल रही हैं। इन्हें साफ करने के लिए करोड़ो-अरबों का प्रोजेक्ट चलाया जा रहा है लेकिन फिर भी नदियां मैली हैं। क्या हम संत सींचेवाला से कुछ सबक ले सकते हैं।
रविवार, 5 अक्तूबर 2008
दूर होती गौरैया
05 अक्टूबर 2008
खिड़की पै जो गौरैया चहचहाती है
जीवन के गान अपने वह सुनाती है।
जाने कहाँ-कहाँ दिन में जा-जा कर
प्राणों की लहर पंखों में भर लाती है।
त्रिलोचन जी की इस कविता के मुताबिक नन्हीं गौरैया भीषणतम जीवन संघर्षों में भी गुनगुनाते हुए गतिमान रहने की सीख देती है लेकिन इसी गौरैया का खुद का जीवन अब संकट में है। काम वासना के बाज़ार में इस नन्हीं चिड़िया की उंची बोली लग रही है। जिससे अब ये बेज़ुबान और निरीह पक्षी शिकारियों का शिकार हो रही है। मैनें पूर्व केंद्रीय मंत्री मेनका गांधी के एक लेख में पढ़ा कि -
गिद्ध की तरह गौरैया भी अब लुप्त होने की कगार पर है। इसका एक कारण कीटनाशक हो सकता है और दूसरा उनका शहरी पक्षी होना, जिन्हें अब संवेदनशील शहर के नागिरिकों द्वारा भोजन नहीं दिया जाता है लेकिन एक कारण यह भी है कि अब गौरैयों को पकड़कर कामोत्तेजक के रूप में बेचा जाता है। जी हां गौरैया अब मुंबई के मशहूर लेकिन अवैध क्राफर्ड बाजार में बिकने वाले पशु पक्षियों में शामिल हो गई है। ये बाजार पशु पक्षियों के अवैध कारोबार का सबसे बड़ा केंद्र है। मेनका जी के लेख के मुताबिक इस बाजार में हर दिन औसतन करीब 50000 पक्षी आते हैं और प्लांट एंड ऐनीमल वेलफेयर सोसायटी के स्वयंसेवकों ने पिछले सप्ताह बाज़ार के एक रूटीन दौरे के दौरान गौरैया के व्यापार को देखा और पाया कि हज़ारों की संख्या में उन्हें बेचा और खरीदा जा रहा है। पशु कल्याण समूहों के मुताबिक इस पक्षी की मांग में हाल ही में काफी वृद्धि हुई है। इसका कारण है उन नीम हकीमों का वो दावा, जिसके मुताबिक इसके मांस से उन्होने एक ऐसी दवा तैयार की है जो कामोत्तेजक का काम करती है। जबकि हकीकत में ऐसा कुछ भी नहीं है। इसके सेवन से कुछ मात्रा में कैल्शियम और प्रोटीन मिलता है जिसे आप पौष्टिक भोजन के ज़रिए कहीं ज्यादा मात्रा में पा सकते हैं।
इस लेख ने अंतर्मन को झकझोर दिया। आंखों के सामने घर के आंगन में फुदकती, दाना चुगती वो मासूम गौरैया घूम गई जिसे देखकर बरबस ही चेहरे पर मुस्कान आ जाती है। कभी पानी में इठला इठला कर नहाती गौरैया, कभी अपनी छोटी सी चोंच से अपने पंखों को खुजलाती गौरैया तो कभी अपने बच्चों के मुंह में दाना डालती गौरैया, ऐसी ही न जाने कितनी छवियां जो बचपन से देखता आ रहा था मानस पटल पर तैर गईं। हालांकि ये छवियां अब गुजरे ज़माने की बात हो चली हैं। अब ना तो गौरैया दिखती है और ना ही उसके घोंसले। क्या हम इस गौरैया को अकेले नहीं छोड़ सकते। क्या हम इसे बचाने के लिए कुछ नहीं कर सकते। आखिर कब तक हम निरीह और बेजुबान प्राणियों को अपने निजी स्वार्थों की बलि चढ़ाते रहेंगे।
गुरुवार, 2 अक्तूबर 2008
जापान की मोहिनी
03 अक्टूबर 2008
हिन्दुस्तान यानि विभिन्न धर्मों , संस्कृतियों और कलाओं का संगम। एक ऐसा देश जो हमेशा से दूसरे देश के लोगों के लिए आकर्षण का केन्द्र रहा है। इस देश ने लोगों को काफी कुछ दिया है और ये काफी कुछ हासिल करने वालों में से ही एक हैं जापान की हिरोमा मारूहाशी। पारंपरिक नृत्य की शौकीन हिरोमा को ऐसे नृत्य पसंद थे, जो भावों को ज्यादा अभिव्यक्त करते हों। उन्होंने समकालीन जापानी नृत्यों से शुरुआत की लेकिन उनकी तड़प उन्हें शास्त्रीय नृत्यों की ओर ले गई। नृत्य में भावों की तलाश उन्हें भारत खींच लाई। बारह साल पहले उन्होंने नृत्य सीखने के लिए केरल के विख्यात कलामंडलम में दाखिला लिया था। 1930 में स्थापित कलामंडलम देश ही नहीं, दुनिया भर में कला के प्रमुख केंद्र के रूप में जाना जाता है। वो दिन था और आज का दिन है हिरोमी जापान की अकेली मोहिनीअट्टम नर्तकी बन चुकी है। यह नृत्य उनमें इतना रच-बस गया है कि उनका नाम ही मोहिनी हो गया है। हिरोमी 40 साल की हैं। हिरोमी 1989 से 1992 के दौरान इंडोनेशियाई बाली डांस कंपनी की कलाकार थीं। फिर 1992 से 95 तक वह जापान की बुटो मॉडर्न डांस कंपनी-बिवाकी में शामिल हो गई। उन्होंने 1994 से भरतनाट्यम सीखना शुरू किया। साथ ही साथ वह योग और जापानी मार्शल आर्ट केंपो भी सीखती रहीं। 1996 में वह भारत आई और कलामंडलम लीलम्मा से मोहिनीअंट्टम और मार्गी सथी से नंगियारकुत्थू सीखने लगीं। कलामंडलम से उन्होंने मोहिनीअंट्टम की विधिवत शिक्षा ली। सीखने की लालसा यहीं कम नहीं हुई और वह तिरुवनंतपुरम के सीवीएन कलारी संगम से कलारीप्पयाटू [केरल की पारंपरिक मार्शल आर्ट- युद्ध कला] सीखने लगीं। कुडीयट्टम व कत्थकली भी उन्होंने सीख रखा है। उसके बाद भी उनका भारत आना-जाना लगातार बना रहा। अब वह टोक्यो में एक कल्चरल सेंटर के सौजन्य से मोहिनीअंट्टम सिखा रही हैं। अब तक वह चालीस जापानी छात्राओं को यह दक्षिण भारतीय नृत्य सिखा चुकी हैं। हिरोमी भारत व जापान में मोहिनीअंट्टम के कई प्रदर्शन कर चुकी हैं। भारतीय नृत्य के बारे में उनका विशद ज्ञान अब उन्हें नई चीजों की तरफ खींच रहा है। वह चित्ररेखा नाम से एक ऐसी नृत्य नाटिका पर काम कर रही हैं जिसमें मोहिनीअंट्टम के अलावा भरतनाट्यम, कलारीप्पयाटू और योग भी शामिल होगा। खास बात यह है कि जापान में भारतीयता की बढ़ती धूम में ही नृत्यों के प्रति यह रुचि भी शामिल है। कई जापानी भरतनाट्यम, ओडिसी, कत्थक के अलावा पारंपरिक भारतीय वाद्यों को सीखने में भी रुचि दिखा रहे हैं।
साभार जागरण
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