शुक्रवार, 11 दिसंबर 2009

तेलंगाना को जानो...

12 दिसम्बर 09
पिछले कुछ दिनों से पृथक तेलंगाना राज्य को लेकर पूरे देश में जबरदस्त हलचल मची हुई है.आंध्र प्रदेश जल रहा है तो राजनीतिक हलके भी सुलग रहे हैं.कहीं हां ते कहीं ना का शोर कानों को परेशान कर रहा है.इसी परेशानी के बीच ये जानने की इच्छा जोर मारने लगी कि आखिर तेलंगाना है क्या और क्यों इसे लेकर इतना शोर शराबा मचाया जा रहा है.सवालों के जवाब तलाशने के लिए नेट पर बैठा तो बीबीसी हिन्दी में ये लेख मिला.सोचा ब्लागर भाईयों के साथ ये जानकारी शेयर की जाए.इसलिए पूरा लेख नीचे प्रकाशित कर रहा हूं.

तेलंगाना क्या है?

अभी जिस क्षेत्र को तेलंगाना कहा जाता है,उसमें आंध्र प्रदेश के 23 ज़िलों में से 10 ज़िले आते हैं.मूल रूप से ये निज़ाम की हैदराबाद रियासत का हिस्सा था.इस क्षेत्र से आंध्र प्रदेश की 294 में से 119 विधानसभा सीटें आती हैं.

तेलंगाना आंध्र का हिस्सा कब बना?

1948 में भारत ने निज़ाम की रियासत का अंत कर दिया और हैदराबाद राज्य का गठन किया गया.1956 में हैदराबाद का हिस्सा रहे तेलंगाना को नवगठित आंध्र प्रदेश में मिला दिया गया.निज़ाम के शासनाधीन रहे कुछ हिस्से कर्नाटक और महाराष्ट्र में मिला दिए गए.भाषा के आधार पर गठित होने वाला आंध्र प्रदेश पहला राज्य था.

तेलंगाना आंदोलन कब शुरू हुआ?

चालीस के दशक में कामरेड वासुपुन्यया कि अगुवाई में कम्‍युनिस्टों ने पृथक तेलंगाना की मुहिम की शुरूआत की थी.उस समय इस आंदोलन का उद्देश्य था भूमिहीनों कों भूपति बनाना.छह वर्षों तक यह आंदोलन चला लेकिन बाद में इसकी कमर टूट गई और इसकी कमान नक्सलवादियों के हाथ में आ गई.आज भी इस इलाक़े में नक्सलवादी सक्रिय हैं.1969 में तेलंगाना आंदोलन फिर शुरू हुआ था.दरअसल दोनों इलाक़ों में भारी असमानता है. आंध्र मद्रास प्रेसेडेंसी का हिस्सा था और वहाँ शिक्षा और विकास का स्तर काफ़ी ऊँचा था जबकि तेलंगाना इन मामलों में पिछड़ा है.तेलंगाना क्षेत्र के लोगों ने आंध्र में विलय का विरोध किया था. उन्हें डर था कि वो नौकरियों के मामले में पिछड़ जाएंगे.अब भी दोनों क्षेत्र में ये अंतर बना हुआ है. साथ ही सांस्कृतिक रूप से भी दोनों क्षेत्रों में अंतर है.तेलंगाना पर उत्तर भारत का ख़ासा असर है.

1969 में क्या हुआ था?

शुरुआत में तेलंगाना को लेकर छात्रों ने आंदोलन शुरू किया था लेकिन इसमें लोगों की भागीदारी ने इसे ऐतिहासिक बना दिया.इस आंदोलन के दौरान पुलिस फ़ायरिंग और लाठी चार्ज में साढे तीन सौ से अधिक छात्र मारे गए थे.उस्मानिया विश्वविद्यालय इस आंदोलन का केंद्र था.उस दौरान एम चेन्ना रेड्डी ने 'जय तेलंगाना' का नारा उछाला था लेकिन बाद में उन्होंने अपनी पार्टी तेलंगाना प्रजा राज्यम पार्टी का कांग्रेस में विलय कर दिया.इससे आंदोलन को भारी झटका लगा.इसके बाद इंदिरा गांधी ने उन्हें मुख्यमंत्री बना दिया था.1971 में नरसिंह राव को भी आंध्र प्रदेश का मुख्यमंत्री बनाया गया था क्योंकि वे तेलंगाना क्षेत्र के थे.

के चंद्रशेखर राव की क्या भूमिका है?
नब्बे के दशक में के चंद्रशेखर राव तेलुगु देशम पार्टी के हिस्सा हुआ करते थे.1999 के चुनावों के बाद चंद्रशेखर राव को उम्मीद थी कि उन्हें मंत्री बनाया जाएगा लेकिन उन्हें डिप्टी स्पीकर बनाया गया.वर्ष 2001 में उन्होंने पृथक तेलंगाना का मुद्दा उठाते हुए तेलुगु देशम पार्टी छोड़ दी और तेलंगाना राष्ट्र समिति का गठन कर दिया.2004 में वाई एस राजशेखर रेड्डी ने चंद्रशेखर राव से हाथ मिला लिया और पृथक तेलंगाना राज्य का वादा किया लेकिन बाद में उन्होंने इस पर ध्यान नहीं दिया. इसके बाद तेलंगाना राष्ट्र समिति के विधायकों ने इस्तीफ़ा दे दिया और चंद्रशेखर राव ने भी केंद्रीय मंत्रिमंडल से इस्तीफ़ा दे दिया था.

तेलंगाना राज्य का गठन कैसे होगा?

ये प्रक्रिया काफ़ी जटिल है.सबसे पहले राज्य विधानसभा इस आशय का प्रस्ताव पारित करेगी फिर राज्य के बंटवारे का एक विधेयक तैयार होगा और संसद के दोनों सदनों में ये पारित होगा.इसके बाद राष्ट्रपति ये राष्ट्रपति की मंजूरी के लिए जाएगा. इसके बाद संसाधनों के बंटवारे की कठिन प्रक्रिया शुरू होगी.

सोमवार, 29 जून 2009

तेरा आंचल जो ढल गया होता....

29 जून 2009
तेरा आंचल जो ढल गया होता
रुख हवा का बदल गया होता
देख लेता जो एक झलक तेरी
चांद का दम निकल गया होता
झील पर खुद ही आ गए वरना
तुमको लेने कमल गया होता
पी जो लेता शराब आंखों से
गिरते गिरते संभल गया होता
क्यों मांगते वो आईना मुझसे
मैं जो लेकर गज़ल गया होता
तेरा आंचल जो ....

बुधवार, 17 जून 2009

रख सको तो एक निशानी हूं मैं...

17 जून 09
अगर रख सको तो एक निशानी हूँ मैं
खो दो तो सिर्फ एक कहानी हूँ मैं
रोक पाए न जिसको ये सारी दुनिया
वोह एक बूँद आँख का पानी हूँ मैं...
सबको प्यार देने की आदत है हमें
अपनी अलग पहचान बनाने की आदत है हमे
कितना भी गहरा जख्म दे कोई
उतना ही ज्यादा मुस्कराने की आदत है हमें...
इस अजनबी दुनिया में अकेला ख्वाब हूँ मैं
सवालों से खफा, छोटा सा जवाब हूँ मैं
जो समझ न सके मुझे, उनके लिए "कौन"
जो समझ गए उनके लिए खुली किताब हूँ मैं
आँख से देखोगे तो खुश पाओगे
दिल से पूछोगे तो दर्द का सैलाब हूँ मैं...
"अगर रख सको तो एक निशानी
खो दो तो सिर्फ एक कहानी हूँ मै...

सोमवार, 25 मई 2009

चाहा जिसे मुक्त कर दो उसे...

25 मई 09

चाहा जिसे मुक्त कर दो उसे
प्यार को तोलने की तराजू यही
मोहब्बत का मारा चला आएगा
ना आए तो समझो तुम्हारा नहीं

शनिवार, 9 मई 2009

ताल्लुकात में कोई कमी नहीं रखते...

09 मई 05
ताल्लुकात में कोई कमी नहीं रखते
वो सबसे मिलते हैं पर दोस्ती नहीं रखते
हमें भुलाकर अगर शादमां वो रहते हैं
तो हम भी दिल में कोई बेकली नहीं रखते
ज़मीं की ख़ाक उन्हें ख़ाक में मिला देगी
अभी तो फर्श पर वो पांव भी नहीं रखते
हमारे टूटे हुए घर में शम्मा जलती रहे
फटे लिबास में शर्मिन्दगी नहीं रखते
गनाहो जुर्म की हर रस्म हो रही है अदा
मगर शबाब की हम रोशनी नहीं रखते
यहां तो कद्र नहीं सीधे सादे लोगों की
अजीब शख्स हो तुम दुश्मनी नहीं रखते
संभल के रहते हैं शहर-ए-वफा में हम
किसी के साथ कभी दोस्ती नहीं रखते

मंगलवार, 5 मई 2009

उससे जुदा हो गया मैं....

05 मई 09
मैं ये सोचकर उसके दर से उठा था
कि वो रोक लेगी मना लेगी मुझको
हवाओं में लहराता आता था आंचल
कि दामन पकड़कर बिठा लेगी मुझको
कदम ऐसे अंदाज में उठ रहे थे
कि आवाज देकर बुला लेगी मुझको
मगर उसने रोका ना उसने बुलाया
न दामन ही पकड़ा न मुझको बिठाया
न आवाज ही दी न वापस बुलाया
में आहिस्ता आहिस्ता बढ़ता ही आया
यहां तक कि उससे जुदा हो गया मैं...

शनिवार, 25 अप्रैल 2009

दिल को किसी सूरत बहलाना नहीं आता...

25 अप्रैल 09
निगाहों में कभी माज़ी का अफसाना नहीं आता
मगर दिल को किसी सूरत भी बहलाना नहीं आता
हुई मुद्दत बहार आए,सूनी पड़ी है दिल की महफिल भी
हमारी ओर कोई दिल की दीवाना नहीं आता
न बह जाए कहीं दिल से,तुम्हारी याद की रंगत
इसी डर से हमें तो अश्क बरसाना नहीं आता
कोई सूरत तो बतला दो,जरा दिल को बहलाने की
तुम्हारे बिन हमें तो दिल को बहलाना नहीं आता
हर एक आहट पे दिल मेरा,यही कहता है तू आई
यह धोखा है मुझे दिल को समझाना नहीं आता
जमाने में ये दिल की महफिल ऐसी महफिल है
जहां अपने तो आ सकते हैं बेगाना नहीं आता

शुक्रवार, 24 अप्रैल 2009

आज तुम मुझसे दूर हो जाओगी....

24 अप्रैल 09
आज तुम मुझसे दूर हो जाओगी
अपनी दुनिया नयी बसाओगी
अब किसी अजनबी की बाहों में
अपनी रानाइयां लुटाओगी

मैनें माना कि दूर जाओगी
अपनी दुनिया नयी बसाओगी
फिर भी मैं पूछता यह हूं तुमसे
नक्शे माज़ी मिटा भी पाओगी

जब दिल से मुझे भुलाओगी
दर हकीकत फरेब खाओगी
दिन कटेगा मेरे तसव्वुर में
अपने ख्वाबों में मुझकों पाओगी

अपने आरामदेह शाबिस्तां में
नींद आंखों में जब बसाओगी
जाने क्या आएगा नजर तुमको
सिसकियां लेके जाग जाओगी

आधी रातों में जाग जाने की
वजह क्या है समझ ना पाओगी
और फिर बेबसी के आलम में
मेरी तस्वीर तुम उठाओगी

एहदे माज़ी की यादगारों में
बंद कमरे में जब जलाओगी
दर्द की लहर रूप पे छाएगी
अश्क आंखों से तुम बहाओगी

आज तुम मुझसे दूर हो जाओगी
अपनी दुनिया नयी बसाओगी
अब किसी अजनबी की बाहों में
अपनी रानाइयां लुटाओगी

गुरुवार, 23 अप्रैल 2009

मैं तेरी सौगात लिए...

23 अप्रैल 09
दीप जलाए अश्कों के और आहों के नग्मात लिए
कौन आया है ज़ेहन में मेरे,यादों की बारात लिए
काली घटा को देख के,आई याद तुम्हारी जुल्फों की
सावन ऋतु आई है लेकिन अश्कों की बरसात लिए
अपनी अपनी बात सुनाई,सबने तुम्हारी महफिल में
बैठे रहे हम ही तन्हा,दिल में अपनी बात लिए
जुल्फों के साए ने,तुम्हारे चेहरे को यूं घेरा है
जैसे सवेरा हो पहलू में, अपने काली रात लिए
लोगों ने चुन चुन के उठा ली,खुशियों की हर एक घड़ी
लेकिन हमने शौक से खुद ही,दर्द भरे लम्हात लिए
गीली गीली आंखें क्यों हैं,लब पर है क्यों आह
घूम रहा हूं गली गली में तेरी सौगात लिए...

बुधवार, 22 अप्रैल 2009

वो जो न था आदर्श तुम्हारा...


22 अप्रैल 09
तन्हा बैठा सोच रहा हूं
वो जो न था आदर्श तुम्हारा
आज वही एक आम सा लड़का
शीशों वाले उस कमरे में
पास तुम्हारे बैठा होगा
लंबी और घनी ज़ुल्फों में
जूही की कलियां अटकाए
और गुलाबी से होठों पर
एक सच्ची मुस्कान सजाए
अपनी जीत पे नाजां नाजां
तुम उससे बातें करती होगी
भूल के दुनिया के हर ग़म को
बात-बात पे हंसती होगी
तुम जो कभी बेहद ज़िद्दी थी
ज़िद उससे भी करती होगी
बात बात पे रुठने वाली
उससे भी तो रूठती होगी
और वही एक आम सा लड़का
अक्सर तुम्हें मनाता होगा
उलझे उलझे बाल तुम्हारे
प्यार से वो सुलझाता होगा
पाकर ख्वाबों की ताबीर
क्या क्या वो इतराता होगा
उसके सपने सच्चे निकले
वो जो न था आदर्श तुम्हारा
उसने प्यार की मंजिल पा ली
जिससे तुमको प्यार नहीं था
और मैं जीवन की राहों में
भटक रहा हूं तन्हा तन्हा
तन्हा बैठा सोच रहा हूं
वो जो न था आदर्श तुम्हारा

शनिवार, 18 अप्रैल 2009

सच बता गांव से आने वाले...

18 अप्रैल 09
सच बता गांव से आने वाले
तेरी लोगों से मुलाकात तो होगी
खेत खलिहान कहीं बात तो होगी
सच बता गांव से आने वाले

तुमसे मिलती है,कहीं वो मेरी हरजाई भी
जिसने आवारा बनाया मुझे सौदाई भी
घर से बेघर किया, दी मुझे रुसवाई भी
सच बता गांव से आने वाले

उसने क्यों छोड़ दिया मुझको मोहब्बत करके
क्या वो मजबूर थी,बेबस थी,ये हिम्मत करके
क्यों ना हमराह चली आई बगावत करके
सच बता गांव से आने वाले

जब कोई बांका जवां गीत सुनाता होगा
जब कोई जादू भरी तानें उड़ाता होगा
क्या मेरा प्यार उसे याद ना आता होगा
सच बता गांव से आने वाले

क्या मेरे बाद वो मगमूम रहा करती है
क्या मेरे हिज्र में दिन रात जला करती है
क्या वो सखियों से जमाने का गिला करती है
सच बता गांव से आने वाले

क्या वो तनहाई में रोती रही सावन सावन
बावरी होके फिरी गांव के आंगन आंगन
क्या कभी रट है मेरे नाम की साजन साजन
सच बता गांव से आने वाले

याद करती है मुझे जागते ख्वाबों में कभी
मेरे खत पढ़ती है रख रख के किताबों में कभी
ढूंढा करती है सरे राह सराबों में कभी
सच बता गांव से आने वाले

अब किसी और से वो प्यार जताती तो नहीं
अब किसी और को वो गीत सुनाती तो नहीं
अब किसी और के कूचे में वो जाती तो नहीं
सच बता गांव से आने वाले

तेरी लोगों से मुलाकात तो हागी
खेत खलिहान कहीं बात तो होगी
सच बता गांव से आने वाले

शुक्रवार, 17 अप्रैल 2009

बस तुम्हें चाहा करूं...

17 अप्रैल 09
मैं तुम्हें हां बस तुम्हें चाहा करूं
तू मिली तो जिन्दगी का
पा लिया हर पल खुशी का
शुक्रिया कैसे करूं, बस तुम्हें चाहा करूं
मेरी चाहत को नया अंजाम तुमने ही दिया
जिन्दगी को जिन्दगी का नाम तुमने ही दिया
में तेरे बारे में बस सोचा करूं
हौसला तुमने दिया है
जीना अब सिखला दिया है
शुक्रिया कैसे करूं,बस तुम्हें चाहा करूं
खुशनसीबी है ये मेरी, मैनें तुमको पा लिया
दिल को ये भी नाज है कि,तुमने भी अपना लिया
रात दिन दिल में तुम्हें देखा करूं
तुमने ही मंजिल दिखाई, प्यार की दुनिया सजाई
शुक्रिया कैसे करूं, बस तुम्हें चाहा करूं
मैं तुम्हें हां बस तुम्हें चाहा करूं
शुक्रिया कैसे करूं, बस तुम्हें चाहा करूं.....

बुधवार, 15 अप्रैल 2009

समय हो गया लो चला जा रहा हूं...

15 अप्रैल 09
समय का पहरुआ बड़ा ही सजग है
किसी को भी रुकने ना देगा यहां पर
सभी हैं मुसाफिर उमर की डगर के
किसी को न मिलती है मंजिल यहां पर
लिए जा रहा हूं ये आंसू नयन में
सुनहरे सपन सब दिए जा रहा हूं
समय हो गया लो चला जा रहा हूं...

न सोचो कि पूरी न हो पाई बातें
यहां बात पूरी न होगी कभी भी
भले जिन्दगी भर रहूं देखता मैं
मगर प्यास पूरी न होगी कभी भी
लिए जा रहा हूं प्रबल प्यास अपनी
तुम्हें रस कलश में दिए जा रहा हूं
समय हो गया लो चला जा रहा हूं...

इतना ही कम क्या कि हम साथ में थे
नहीं तो यहां साथ मिलता न मांगे
सभी को है जाना सभी जायेंगे पर
कोई भी यहां, हाथ मिलता न मांगे
लिए जा रहा हूं, खिज़ा साथ अपने
महकता चमन ये दिए जा रहा हूं
समय हो गया लो चला जा रहा हूं...

मंगलवार, 14 अप्रैल 2009

प्रेम ये है प्रेम...

14 अप्रैल 09
आग से जले ना, जल से बुझे ना
हवा से उड़े ना, तूफां से डरे ना
दिल और जां में जमीं आसमां में
नाम है जिसका सारे जहां में
प्रेम ये है प्रेम
प्रेम है पूजा, प्रेम है शक्ति
प्रेम है ज्योति, नई अनुभूति
प्रेम ही सुर है, प्रेम ही भाषा
प्रेम जीवन की है परिभाषा
प्रेम ये है प्रेम
प्रेम है राधा प्रेम है कृष्णा
प्रेम मिलन की अनबुझ तृष्णा
प्रेम लगन है, प्रेम तपस्या
प्रेम बिना है, दुनिया में क्या
प्रेम ये है प्रेम
प्रेम ये है प्रेम....

गुरुवार, 9 अप्रैल 2009

उससे जुदा हो गया मैं...

09 अप्रैल 09
मैं ये सोचकर उसके दर से उठा था
कि वो रोक लेगी, मना लेगी मुझको
हवाओं में लहराता आता था आंचल
कि दामन पकड़कर बिठा लेगी मुझको
कदम ऐसे अंदाज में उठ रहे थे
कि आवाज़ देकर बुला लेगी मुझको
मगर उसने रोका, न उसने बुलाया
न दामन ही पकड़ा, न मुझको बिठाया
न आवाज़ ही दी, न वापस बुलाया
मैं आहिस्ता-आहिस्ता बढ़ता ही आया
यहां तक कि उससे जुदा हो गया मैं...

मंगलवार, 7 अप्रैल 2009

अब तो मैं भूलने लगा था तुम्हें...

07 अप्रैल 09
अब तो मैं भूलने लगा था तुम्हें
आज फिर आ गई हो जाने क्यों
रंग और नूर का जहां बनकर
एक खिलते गुलाब की मानिन्द
इक चटकती हुई कली की तरह
लम्हा लम्हा संवरती जाती हो
नक्श बनकर उभरती जाती हो
तुम चली जाओगी घड़ी भर में
इतने वक्फे में सबसे मिल लोगी
घर का हर फर्द मुतमइन होगा
कौन जाने कि मेरा क्या होगा
मुझसे दो एक बात करके अभी
बेसबब यूं ही मुस्कुरा दोगी
ये अदा जो तुम्हारी फितरत है
मैं फकत देखता रहूंगा तुम्हें
तुमको क्या फिक्र किसको क्या गम है
हां, तुम्हें इससे वास्ता क्यों हो
इक हंसी हमसफर के पहलू में
अपनी दुनिया में शाद जो रहती हो

शुक्रवार, 3 अप्रैल 2009

मैं तुझे चाहता नहीं लेकिन...

03 अप्रैल 09
मैं तुझे चाहता नहीं लेकिन
फिर भी, जब तू पास नहीं होती
खुद को कितना उदास पाता हूं
गुम से अपने होशो-हवास पाता हूं
जाने क्या धुन समाई रहती है
इक खामोशी सी छाई रहती है
दिल से भी गुफ्तगू नहीं होती
मैं तुझे चाहता नहीं लेकिन...
फिर भी रात के खाली समय में
तेरी औकात सोचता हूं मैं
तेरी हर बात सोचता हूं मैं
कौन से फूल तुझको भाते हैं
रंग क्या क्या पसन्द आते हैं
खो सा जाता हूं तेरी जन्नत में
मैं तुझे चाहता नहीं लेकिन...
फिर भी, एहसास से निजात नहीं
सोचता हूं तो रंज होता है
दिल को जैसे कोई डुबोता है
जिसको इतना सराहता हूं मैं
जिसको इस दर्जा चाहता हूं में
इसमें तेरी सी कोई बात नहीं
मैं तुझे चाहता नहीं लेकिन...

गुरुवार, 2 अप्रैल 2009

मत कराओ प्रतीक्षा...

02 अप्रैल 09
न जाने कब तक
लिखता रहूंगा यूं ही
बेचैन निगाहों से
एक टक!
कुछ तलाशता हुआ शायद
नजर आ जाए कभी छवि तुम्हारी
भटकने से पहले संभाल ले जाएं
मुझे बाहें तुम्हारी
कहते हैं फल मीठा होता है
प्रतीक्षा का बेहद
बाढ़ सी आई है गमों की
मेरी जिन्दगी में शायद
बस!
अब और मत तड़पाओ
मत कराओ प्रतीक्षा
सीमा की हद तक
लुटा जा रहा है सब कुछ
छिना जा रहा है सब कुछ
बस प्रतीक्षा में तुम्हारी
पता नहीं कब समाप्त होगी
ये घड़ी प्रतीक्षा की
मुझे तो लगता है
बस यूं ही लिखते लिखते
डूब जाऊंगा इसी में शायद
तुम्हारी ही प्रतीक्षा में
न जाने कब तक

मंगलवार, 31 मार्च 2009

जब सांझ की बेला होती है...

31 मार्च 09
जब सांझ की बेला होती है
में इस पीपल के साए में
तालाब के तट पर आता हूं
हम दोनों जहां पे मिलते थे
दो पल के लिए दो क्षण के लिए
फिर मिल के बिछड़ जाते थे हम
इस बार मगर यूं बिछड़े हैं
जैसे न कभी मिल पाए हों
इस बार जो तट पर आया हूं
दो पल के मिलन की याद लिए
दो गीत बनाए जाता हूं
दो ख्वाब सजाए जाता हूं
जब सांझ की बेला होती है...

जब सर्द हवाएं चलती हैं
आंखों में मिलन के दो साए
हर वक्त मचलते रहते हैं
मजबूर हूं मैं मजबूर हो तुम
पर इतना तुम्हें मालूम तो हो
तुम आओ न आओ ए हमदम
मैं राह तुम्हारी तकता हूं
जब सांझ की बेला होती है...

जब गम का अंधेरा बढ़ता है
इक हूक जिगर में उठती है
में सोच से दामन भरता हूं
क्या मैं भी तुम्हारे ख्वाबों के
अफलाक पे मंडलाता हूंगा
गुमराह किसी बादल की तरह
जैसे कि मुझे तुम हर लम्हा
हर वक्त सताती रहती हो
हर वक्त मुझे याद आती हो
ऐ काश अगर फिर आ जाओ
उम्मीद का एक मुफलिस दीपक
हसरत से जलाया करता हूं
जब सांझ की बेला होती है...

तुम छोड़ के क्यूं उस पार गई
बेदर्द तुम्हे एहसास नहीं
ये कैसी मोहब्बत है कि मेरा
हर जख्मे जिगर रिसता ही रहे
ये कैसा ताल्लुकात है कि इधर
भूले से भी तुम अब आ ना सको
पर आज भी मुझको आशा है
इक रोज यकीनन आओगी
यह सोच के ही धीरे धीरे
मैं इस पीपल के साए में
तालाब के तट पर आता हूं
जब सांझ की बेला होती है...

तुम मिली और बिछड़ गई मिलकर....

31 मार्च 09
तुम मिली थी तो मैनें सोचा था,
मैं बहारों के गीत गाऊंगा
दिल शिकस्ता सही मगर फिर भी
आंसुओं की हंसी उड़ाउंगा...
तुम मिली थी तो मैनें सोचा था
मैं फिजाओं में रंग भर दूंगा
अपने चेहरे पर बिखरी फिक्रों को
मुस्कुराहट में दफ्न कर दूंगा...
तुम मिली थी तो मैनें सोचा था
जीवन गाएगा मुस्कुराएगा
अब ना गुजरेंगे काफिले गम के
हर घड़ी ऐश बन के आएगी
आज जब तुम बिछड़ गई हो तो फिर
मैनें सोचा है, में जमाने को
प्यार बाटूंगा, गीत गाऊंगा
तुम मिली और बिछड़ गई मिलकर
ये किसी को नहीं बताऊंगा....

सोमवार, 30 मार्च 2009

मैं भी जीवित हूं....

30 मार्च 09
मैं आया था तुम्हारे घर,
तुम तो कहती थी...
मेरे द्वार खुले हैं,
हर पल तुम्हारे लिए...
पर वहां एक ताला था,
मैं सीढ़ियों पर बैठा...
कर रहा था...तुम्हारा इंतजार,
एक घण्टा...दो घण्टा...विवश...
अंतत: मैनें खिड़की से झांका,
नजर आया...
एक सूखा गुलाब का फूल,
एक खुली किताब...
मोर पंख,
फिर एक हवा का झोंका आया
कुछ पन्ने फड़फड़ाए...
एक पन्ना उड़ चला,
कुछ पुराना सा,
पीला-पीला सा पन्ना...
मैनें सिर्फ अपना नाम पढ़ा,
मुस्कुराया...
ताले पर नजर डाली,
और गुनगुनाते लौट चला,
तुमसे मिला अच्छा लगा,
अब मैं भी जीवित हूं यह जाना...

रविवार, 29 मार्च 2009

वे जो करते हैं प्यार...


29 मार्च 09
प्यार पर सदियों से पहरा रहा है...हर रिश्ते का आधार होने के बावजूद जमाना इसका दुश्मन ही बना रहता है...इस रिश्ते में सिवाए दर्द के कुछ हाथ नहीं आता...मुश्किलें ही इस रिश्ते का साथी होती हैं...बावजूद इसके लोग प्यार करते हैं...प्यार बांटते हैं...

वे जो करते हैं प्यार
चिन दिए जाते हैं दीवारों में
सूली पर चढ़ाए जाते हैं
जहर पीते हैं
ढोते हैं अपने सलीब
आग में जलाए जाते हैं
फिर भी लोग करते हैं प्यार
देखते हैं सपने
बोते हैं फूलों के बीज
दुनिया को
और सुन्दर बनाने की कोशिश
करते हैं बार बार
वे जो करते हैं प्यार

शुक्रवार, 27 मार्च 2009

अलविदा-ए-दोस्त...

27 मार्च 09

अलविदा ए दोस्त जाने फिर कहां हो सामना
जा रहे हो तुम न जाने कौन बस्ती किस शहर
दरमियां बस एक पटरी चन्द डिब्बे हैं तो क्या
दूरियां हजारों मील की इनमें आईं आज उभर
पोंछ डालो आंख का पानी न देखो फिर से घूमकर
याद की खामोशियां होंगी हमारा हमसफर

गुरुवार, 26 मार्च 2009

जंग 80 और 40 की...


26 मार्च 09
कांग्रेस के नेतृत्व में चल रही केन्द्र की यूपीए सरकार में पड़ी दरार ने अब खाई का रूप ले लिया है। बिहार में आरजेडी और एलजेपी के साथ सीटों का झगड़ा इस कदर बढ़ा कि यूपीए के भीतर ही एक नए मोर्चे ने जन्म ले लिया। बिहार में कांग्रेस के खिलाफ झण्डा बुलंद कर जब लालू ने एलजेपी के मुखिया रामबिलास पासवान को गले लगाया और कांग्रेस के लिए केवल तीन सीटें छोड़ने का ऐलान किया तो कांग्रेस ने पलटवार करते हुए बिहार की सभी सीटों पर चुनाव लड़ने की घोषणा कर इन महारथियों को तिलमिलाने के लिए मजबूर कर दिया। उन्होंने कांग्रेस को सबक सिखाने की ठान ली और एक ऐसे साथी की तलाश में लग गए जो इस काम में उनका साथ दे सके। उनकी तलाश समाजवादी पार्टी के मुखिया मुलायम सिंह यादव पर जाकर खत्म हुई। केन्द्र की सत्ता के लिए दशा और दिशा तय करने वाले उत्तर प्रदेश में कांग्रेस के साथ उनकी खटपट को लालू और पासवान ने हथियार के रूप में इस्तेमाल करने की ठान ली। उन्होंने केन्द्र में बाहर से कांग्रेस का सहयोग कर रहे मुलायम के साथ चुनावी समझौता कर यूपीए के भीतर ही एक नए मोर्चे का गठन कर डाला। बिहार में लालू और पासवान के लिए मुलायम चुनाव प्रचार करेंगे तो यूपी में लालू और पासवान मुलायम के महारथियों को सहयोग करेंगे। यूपी की 80 और बिहार की 40 सीटें यानि कुल मिलाकर 120 सीटें ही केन्द्र के सिंहासन के लिए राजा तय करेंगी। देखा जाए तो इन 120 सीटों पर कांग्रेस के पास खोने के लिए कुछ नहीं है इनमें से ज्यादातर सीटें ऐसी हैं जहां हाथ का साथ देने वाला कोई नहीं है। ऐसे में अगर पार्टी को मजबूती देने की कवायद मे लगे राहुल बाबा और सोनिया मैडम इन 120 सीटों में से कुछ पर भी कांग्रेसी झण्डा फहराने में कामयाब रहे तो लालू-पासवान और मुलायम जैसे क्षेत्रीय क्षत्रपों के लिए ये डूब मरने वाली बात होगी क्योंकि इन्ही सीटों को लेकर ये तीनों ही नेता कांग्रेस की औकात को लेकर काफी कुछ बोल चुके हैं। अब कांग्रेस के साथ रहकर भी उसके खिलाफ चुनाव लड़ने को तैयार लालू-पासवान और मुलायम की ये तिकड़ी चुनावी गलियारे में क्या गुल खिलाती है, ये देखने वाली बात होगी। वैसे लालू-पासवान और मुलायम द्वारा की गई मौके की इस यारी पर आप क्या कहेंगे...

बुधवार, 25 मार्च 2009

और प्यार क्या और प्यार कहां...


25 मार्च 09
यूं तो प्यार पर इतना कुछ लिखा जा चुका है कि कहने को शायद ही कुछ शेष बचा हो...लेकिन हर बार जब इस विषय पर कुछ लिखा जाता है तो वो नया ही लगता है...ढाई अक्षर के इस शब्द की महिमा ही ऐसी है...इसीलिए मैं आज फिर इस प्यार को परिभाषित करने बैठ गया हूं कि प्यार आखिर क्या है...

लरजते आंसुओं की कहानी है मुहब्बत
बरसती आंखों की जुबानी है मुहब्बत
पास रह के भी दूर रहती है बहुत
महकते फूलों की रातरानी है मुहब्बत


मुहब्बत एक रात है भीगी-भीगी, जिसमें एक उम्र सपनों में गुजर जाती है...मुहब्बत एक रतजगा है, जो आंखों में मीठी नींद बनकर बसा करती है...मुहब्बत हथेली पर रोपा हुआ वो बीज है...जो तमाम उम्र हथेलियों पर रजनीगंधा के फूल की तरह खिली रहती है, कभी शर्म बनकर चेहरे पर छा जाती हैं ये हथेलियां...तो कभी भरापूरा प्यार बनकर किसी के माथे को सहलाती हैं...मुहब्बत मुमताज का वो प्यारा प्रस्ताव भी था, जो उसके प्रियतम के लिए खता बन गया...मुहब्बत वो जुदाई भी है...जो सलीम-अनारकली के बीच एक फासला बनकर खड़ी हो गई...मुहब्बत जो हीर की आंखों में थी...मुहब्बत जो लैला की अदाओं में थी...मुहब्बत जो सोहनी के होठों पर थी, मुहब्बत जो शीरी की सदाओं में थी...यहीं है मुहब्बत का फलसफा...यही है मुहब्बत का तरन्नुम...उस जन्म से इस जन्म तक...उस पार से इस पार तक...शहर से गांव तक...जमीं से आसमां तक और प्यार क्या और प्यार कहां....

आली रे आली नैनो आली

25 मार्च 09
मुंबई में नैनों के लांच के साथ ही रतन टाटा ने अगर दुनिया की सबसे सस्ती कार लांच करने का वादा पूरा किया तो इसी के साथ तमाम राजनीतिक उतार चढ़ावों के बीच भारतीयों के साथ चल रही आंख मिचौली का खेल भी खत्म हो गया। अब नैनो अपने लटकों झटकों के साथ भारत की सड़कों पर दौड़ने के लिए तैयार है। नैनों की लांचिंग के साथ ही ट्रैफिक जाम को लेकर भी चर्चाओं का दौर शुरू हो गया है लेकिन इससे नैनो के महत्व को कम नहीं किया जा सकता। एक आम आदमी जो मारुति800 खरीदने से पहले भी हजार बार घर की आर्थिक स्थिति के बारे में सोचने के लिए मजबूर हो जाता है और तमाम गुणा गणित के बाद खरीददारी का फैसला दोपहिए वाहन पर आकर खत्म हो जाता है, उसके लिए नैनो की खरीददारी और सवारी दोनों सम्मान की बात होगी। कम से कम नैनो का क्रेज तो इसी बात के संकेत दे रहा है। इसीलिए दैनिक भाष्कर में नैनो से संबंधित छपी कुछ महत्वपूर्ण जानकारियां ब्लॉग जगत के लोगों के साथ शेयर कर रहा हूं...उम्मीद है पसंद आएगा।

1 - नैनों की बुकिंग के लिए सबसे पहले बिना गाड़ी वाले को प्राथमिकता दी जाएगी।
2 - दो पहिया गाड़ी रखने वालों को भी मिलेगी वरीयता।
3 - बुकिंग स्टेट बैंक के जरिए होगी।
4 - एसबीआई के 1350 केन्द्रों पर होगी नैनो की बुकिंग।
5 - 1 अप्रैल से नैनो शो रूमों में नजर आएगी।
6 - 18 महीने की वारंटी भी रहेगी।
7 - 300 रूपए का बुकिंग फार्म लगेगा।
8 - 30 हजार केन्द्रों पर होगी नैनों की बुकिंग।
9 - ऑन लाइन भी होगी बुकिंग।
10 - तीन मॉडलों में मिलेगी नैनो।
11 - 23.6 किमी/लीटर का एवरेज रहेगा।
12 - पार्टनर बैंकों से 2999 में ही करा सकते हैं बुकिंग।
13 - 2999 रूपए का कार लोन भी मिलेगा।
14 - 9 अप्रैल से बुकिंग शुरू होगी और 25 अप्रैल तक चलेगी।
15 - कार की डिलवरी जुलाई से होगी।

नैनो के मॉडल और उनकी कीमतें (एक्स शोरूम)

वैरिएंट ---------------- पंतनगर ------ दिल्ली --------- मुंबई


स्टैंडर्ड (बीएस2) ------- 1,12,735 --- अनुपलब्ध ------ अनुपलब्ध


स्टैंडर्ड (बीएस3) ------- 1,20,960 --- 1,23,360 --- 1,34,250


सीएक्स (बीएस2) ----- 1,39,780 --- अनुपलब्ध ----- अनुपलब्ध


सीएक्स मैटेलिक2 ------ 1,42,780 --- अनुपलब्ध ---- अनुपलब्ध


सीएक्स सोलिड पेंट(बीएस3) - 1,45,725 -- 1,48,360 -- 1,60,320


सीएक्स मैटेलिक (बीएस3) -- 1,48,725 -- 1,51,360 --- 1,63,320


एलएक्स (बीएस3) ------- 1,70,335 --- 1,72,360 --- 1,85,375








मासिक किस्त 1,752 रु.
स्टेट बैंक नैनो के लिए सात साल की अवधि का ऋण देगा जिस पर 11.75 से 12% तक ब्याज होगा। एक लाख रुपए के लोन पर मासिक किश्त 1,752 रु. आएगी। पहले यह दर 14% तक रहने का अनुमान था। नैनों का डीजल मॉडल 2010 में आएगा।

सभी जानकारी और फोटो साभार दैनिक भाष्कर

मंगलवार, 24 मार्च 2009

हिसाब किताब

24 मार्च 09
एकाध महीने बाद मेरा ब्लाग साल भर का हो जाएगा...उम्मीद के हिसाब से लोगों का मेरी इस गली में आना जाना कम ही हुआ...अपनी तरफ से मैनें समाज की हर दुखती रग को छूने की कोशिश की है...थोड़ा उदास हूं कि लोगों का भरपूर प्यार नहीं मिला...समझ नहीं पा रहा हूं क्यों...लेकिन मन में एक आशा है कि आगे व्लॉगिंग की दुनिया से जुड़े लोगों का आशीर्वाद मिलेगा...लेखन की इस कला के दौरान मैनें पाया है कि लोग राजनीति से जुड़े लेखों की और रुख कम ही करते हैं...ना जाने क्या वजह है...आज ही मैनें राजनीतिक दलों के घोषणा पत्र से जुड़ा एक सवाल ब्लॉग पर छोड़ा कि क्या चुनावी घोषणा पत्र मतदाता के मन को, उसके वोट को प्रभावित करते हैं लेकिन इस सवाल पर एक भी जवाब नहीं आया...थोड़ा विचलित हुआ तो शरीर का साथ छोड़ मन इधर उधर गर्दिश करने लगा...ऊल जुलूल बातें सोचने लगा...पाप पुण्य का हिसाब करने लगा...इसी चक्कर में एक कविता की कुछ लाइनें याद आ गईं...नहीं जानता किसने लिखी हैं...लेकिन अच्छी लगी इसलिए यहां लिख रहा हूं...लाइनें पाप पर आधारित हैं...पाप कह रहा है..

अगर कहीं मैं ना जन्म लेता
बनी धरा ये मसान होती
ना मंदिरों में मृदंग बजते
ना मस्जिदों में अजान होती


आप लोगों को क्या लगता है कि राजनीति से जुड़े लेखों को वो प्यार मिलता है जो किसी दूसरे विषय पर लिखे लेखों को मिलता है...मेरे हिसाब से तो नहीं...बाकी तो रब ही जाने...अभी के लिए इतना ही बाकी फिर कभी...इजाजत दीजिए।

घोषणाओं की घुट्टी चुनावी घोषणा पत्र



24 मार्च 09
चुनावी जंग जीतने के लिए राजनीतिक दल उम्मीदवारों के चयन के साथ जिस विषय पर सबसे ज्यादा माथापच्ची करती हैं वो होता है घोषणा पत्र...किन मुद्दों के साथ जनता के बीच जाना है...उसे किस तरह के वादों की घुट्टी पिलानी है...उसे किन सपनों के झुनझुने थमाने हैं और कैसे अपने पक्ष में वोट डालने के लिए प्रेरित करना है...इसी का ताना बाना होता है राजनीतिक दलों का चुनावी घोषणा पत्र...कांग्रेस ने आज इस कवायद को पूरा कर लिया है...दूसरे दल भी आने वाले दिनों में घोषणा पत्र की खुराक लेकर जनता का ध्यान खींचने की कोशिश करेंगे...लेकिन इन सबके बीच अहम सवाल ये कि क्या भारतीय मतदाता पर घोषणा पत्र में दर्ज चुनावी वायदों का कुछ फर्क पड़ता है...क्या वो इन वायदों को ध्यान में रखकर वोट डालता है...क्या उसके वोट को चुनावी घोषणा पत्र के वायदे प्रभावित करते हैं...मुझे तो ऐसा नहीं लगता...क्योंकि पार्टियाम भले ही दावा करें कि उन्होंने अपने घोषणा पत्र में किए गए सभी वादों को पूरा किया लेकिन ऐसा होता नहीं है...उनमें दर्ज ज्यादातर वादे कोरी लफ्फाजी होते हैं...क्योंकि अगर उतने वादे पूरे हो जाएं तो फिर भारतीय राजनीति की तस्वीर आज ऐसी नहीं होती...सरकारें पूर्ण बहुमत के साथ सत्ता में आतीं और मतदाता कन्फ्यूज नहीं होता...मैं अपने ब्लॉग पर आने वाले पाठकों से जानना चाहूंगा कि घोषणा पत्र को लेकर उनकी क्या राय है...कृपया जरूर बताएं...

रविवार, 22 मार्च 2009

प्यार को प्यार ही रहने दो...


22 मार्च 09
प्यार आखिर क्या है..पूजा है..आस्था है..विश्वास है..एक तपस्या है या फिर जुनून..प्यार मन में छुपी एक कोमल भावना है या फिर आराधना..कुछ भी हो..प्यार तो प्यार है..वक्त बदला..दौर बदला..रहने सहने खाने पीने का तौर बदला..पर प्यार नहीं बदला ना बदलेगा..हां प्यार की भावाभिव्यक्ति के तरीके जरूर बदल गए हैं..आज का प्यार बोल्ड है..कुछ भी हो प्यार है जरूर इंसान की जरूरत बनकर..प्यार कोई फर्ज नहीं..कोई कर्ज नहीं..कोई वादा भी नहीं जो निबाहते ही जाओ..प्यार तो मन के किसी कोमल हिस्से में छिपी वो निर्मल झरझर नदी हैं..जो बहती ही रहती है..सदियों से प्यार अनगिनत रूप लेकर आता रहा है..कभी राधा बनकर तो कभी मीरा बनकर..पूजा और तपस्या के रूप में..प्यार कभी एक वादा बना ताजमहल के रूप में तो अनारकली के लिए खता बन गया और सीता के लिए सजा..जो अग्नि परीक्षा के बाद भी कम नहीं हुई..आजकल प्यार एक फैशन बन गया है..जो नित नए परिधान में नई सजधज के साथ चहकता है, महकता है और फिर बदल जाता है..एक मौसम की तरह..प्यार कोई मौसम नहीं एक आराधना है..एक सपना है..पर सपना भी कैसा..प्यार वो सपना तो हो, जो रुपहली रातों के सतरंगी रथ पर सवार होकर पलकों की गलियों में उतर जाए..पर वो सपना नहीं जो हकीकत बनते ही जहरीला हो जाए..बेमानी हो जाए..बदरंग हो जाएम..जैसा कि अक्सर होता है..सपने अक्सर हकीकत बनते ही अपना महत्व खो देते हैं..फिर चाहे वो प्यार भरे ही सपने क्यों ना हों...मनचाहा खो जाए..अनचाहा मिल जाए तो दिल कराहता है..पर मनचाहा मिल जाए तो भी कुछ दिनों बाद वो अनचाहा बन जाता है..संतोष कहां है प्यार में..प्यार कोई मंजिल तो नहीं जो पा ली जाए..प्यार तो एक यात्रा है..जो निरन्तर चलती रहती है..सतत अनवरत किसी साधना की तरह...प्यार एक रूप अनेक..प्यार कितने रंग बदलता है..रंग बिरंगे रिश्तों में ढलता है..पुरुष नारी का प्यार..मां बेटे का प्यार..पति-पत्नी का प्यार..प्रेमी-प्रेमिका, मित्र..ना जाने कितने नाम हैं,इन रिश्तों के..पर प्यार किसी रिश्ते का मोहताज नहीं..बल्कि रिश्ते ही प्यार के मोहताज हैं..जिन रिश्तों में प्यार आधारशिला नहीं बनता..वो रिश्ते टूट जाते हैं..जबकि प्यार बिना किसी रिश्ते के भी जिंदा रहता है...रिश्तों में प्यार हो तो अच्छा है..और प्यार को रिश्ते का नाम मिल जाए तो सोने पे सुहागा..पर सबसे अच्छा है कि प्यार कोकोई नाम ना दिया जाए..ना ये पूछा जाए कि प्यार आखिर क्या है..क्यों ना प्यार को प्यार ही रहने दिया जाए...

शनिवार, 21 मार्च 2009

बहुत याद आई शहनाई...


21 मार्च 09
शहनाई के सुर हमेशा से मुझे अपनी ओर खींचते रहे हैं...शायद यही वजह है कि दुनिया भर में इस वाद्य यंत्र को उसकी असली पहचान दिलाने वाले उस्ताद का जन्म दिन भी मुझे याद था...काफी सोचा उस्ताद जी को किस रूप में याद करूं...फिर लगा ब्लॉग पर कुछ लिखा जाए...बस बैठ गया...लेकिन उस्ताद जी की शख्सियत ऐसी थी कि उसे शब्दों में बांधना आसान नहीं...सो शब्दों की माला बार बार बिखर जा रही थी...कभी उनकी गंगा जमुनी तहजीब के वाहक रूप पर कुछ लिखने की कोशिश की तो कभी उनकी फनकारी को वाक्यों में गूंथने में लगा रहा...लेकिन सफलता नहीं मिली...अब जो कुछ भी आगे आप पढ़ेंगे वो यूं समझिए उंगलियां की बोर्ड पर चलती रहीं और बस लेख तैयार हो गया...जीवन सांसों से चलता है और सांसों की इसी माला को उस्ताद जी शहनाई में फूंककर सुरों की महफिल सजाते थे...बिहार के डुमरांव में राजघराने के नौबतखाने में शहनाई बजाने वाले परिवार में जन्‍मे उस्ताद जी का ये खानदानी पेशा था...लेकिन नियति उनकी कला को बिहार में नहीं यूपी में परवान चढ़ते देखना चाहती थी...बस फिर क्या था मामा के साथ उस्ताद जी बनारस की धरती पर आ जमे...उसके बाद तो बाबा विश्वनाथ के आशीर्वाद से उस्ताद जी के शहनाई ने ऐसे सुर छेड़े की दुनिया उनकी कायल हो गई...मंदिरों, राजे-जरवाड़ों के मुख्य द्वारों और शादी-ब्याह के अवसर पर बजने वाले लोकवाद्य शहनाई को... बिस्मिल्लाह ख़ॉं ने अपने मामू उस्ताद मरहूम अलीबख़्श के निर्देश पर शास्त्रीय संगीत का वाद्य बनाने में जो अथक परिश्रम किया उसकी दूसरी मिसाल नहीं मिलती...संगीत-सुर और नमाज़ इन तीन बातों के अलावा बिस्मिल्लाह ख़ॉं के लिए सारे इनाम-इक़राम,सम्मान बेमानी थे...ये वही बिस्मिल्‍लाह है जिन्‍हें अमेरिका की एक संस्‍था 'रॉकफेलर फाउंडेशन' अमेरिका में बसाने के लिए हमेशा प्रयास करती रही...संस्‍‍था ने बिस्मिल्‍लाह को उनके कलाकार साथियों के साथ अमेरिका में बसाना चाहा इस वादे के साथ कि वे उन्‍हें अमेरिका में बनारस जेसा उनके मन-माफिक वातावरण उपलब्‍ध कराएँगे...इस पर बिस्मिल्‍लाह ने कहा था कि अमेरिका में बनारस तो बना लोगे पर वहाँ मेरी गंगा कहाँ से बहाओगे...उस्ताद बिस्मिल्लाह ख़ॉं के जाने से एक पूरे संगीतमय युग का पटाक्षेप हो गया...मानो संगीत के सात "सुरों' में एक सुर कम हो गया। दुनिया अपनी फितरत में मशगूल है, उसे तो ये भी याद नहीं कि आज शहनाई के उसी शहंशाह का जन्मदिन है...लेकिन काशी के घाटों पर, वहां की फिजाओं में, हवाओं में आज भी उस्ताद बिसमिल्ला खां की शहनाई के सुरों की गूंज सुनाई देती है...उन के फन पर लिखने की ना मेरी कूवत है ना हैसियत...मैं तो इस छोटे से लेख के जरिए बस उस्ताद जी को श्रद्धांजलि देना चाहता हूं और उन्हें भुला देने वालों को याद दिलाना चाहता हूं कि आज उनका जन्म दिन है...

हवस की आग में झुलसते रिश्ते...


21 मार्च 09
मुंबई के मीरा रोड निवासी उस शख्स पर चढ़ा था अमीर बनने का नशा...उसकी पत्नी को भी थी पैसों की हवस...दोनों जा पहुंचे एक तांत्रिक की शरण में...तांत्रिक ने बताया उन्हें जल्द अमीर बनने का तरीका...लेकिन उस तरीके की बलि चढ़ गई दो मासूम बच्चियों की जिन्दगी...इन बच्चियों ने दौलत के पुजारी उसी पति पत्नी के आंगन में जन्म लिया था...तांत्रिक के मुताबिक अगर वो शख्स किसी नाबालिग लड़की के साथ शारीरिक संबंध बनाएगा तो लक्ष्मी उस पर जल्द मेहरबान होंगी...लालच का भूत उस शख्स पर ऐसा चढ़ा कि उसने अपनी ही बेटी के साथ बलात्कार कर डाला...एक दिन नहीं...एक महीने नहीं...एक साल भी नहीं बल्कि पूरे नौ साल तक वो अपनी मासूम बच्ची के साथ दुष्कर्म करता रहा...यही नहीं उस तांत्रिक ने खुद भी उस मासूम के साथ जबरदस्ती शारीरिक संबंध बनाए...इस कृत्य के घिनौनेपन का अंदाजा आप इसी बात से लगा सकते हैं कि ये सब उस महिला की सहमति से होता रहा जिसने उस बच्ची को अपनी कोख से जना था...अपने ही घर की बगिया में...अपने ही माली के हाथों वो फूल कुचला जाता रहा...मसला जाता रहा...पूरे नौ साल तक...लेकिन अभी और बुरा होना बाकी था...दौलत और हवस में अंधे उस शख्स ने अपनी दूसरी बेटी के साथ भी वही सब दोहराने की कोशिश की...लेकिन इस बार पहली बेटी का सब्र जवाब दे गया...उसने अपनी बहन की जिन्दगी बचाने के लिए विद्रोह कर दिया...अपनी मां की धमकियों को नजरअंदाज कर उसने अपने ननिहाल के लोगों के सामने पूरा सच बयां कर दिया...रिश्तों को शर्मसार करती इस घटना का जब खुलासा हुआ तो लोगों ने दातों तले उंगली दबा ली...आज वो तांत्रिक और वो आरोपी माता पिता (हालांकि उन्हें ये दर्जा देने का मन नहीं कर रहा ) जेल की हवा खा रहे हैं...लेकिन इस घटना के बाद एक बार फिर बहस छिड़ गई कि बेटियां अगर अपने ही घर में सुरक्षित नहीं हैं तो फिर कहां हैं...अगर घर की हवाओं मे ही हवस का जहर घुला हो तो फिर वो भरोसा किस पर करें...खून के रिश्ते ही अगर अपनी गर्मी खो दें ततो फिर बाकी रिश्तों पर यकीन कैसे कायम होगा...जिन हाथों को प्यार से सिर पर हाथ फेरना चाहिए...दुनिया की उंच नीच समझाने की कोशिश करनी चाहिए...सुरक्षा और संरक्षा का एहसास दिलाना चाहिए वही हाथ बेशर्मी पर उतर आएं तो फिर सहारा कहां मिलेगा...जिन आंखों में ममता और अपनेपन का नजारा होना चाहिए वहां हवस की लाली होगी तो फिर भरोसे के लिए बेटियां किसका मुंह देखेंगी...और सबसे बड़ा सवाल कि अगर वो मां ही दुश्मन हो जाए जिसके आंचल तले खुशियों का संसार पलता है...तो फिर बेटियां कहां जाएं...कह सकते हैं कि इस तरह के मामले केवल एक अपराध नहीं बल्कि एक बीमारी हैं...जो रिश्तों की पवित्रता और उनके एहसास को पल पल मौत दे रहे हैं...क्या सात साल की सजा देकर इसे हमेशा के लिए खत्म किया जा सकता है...( भारतीय कानून में बलात्कार का दोषी पाए जाने पर सात साल की सजा का प्रावधान है )...मीडिया में इस खबर के सुर्खियां बनने के बाद मैं तीन दिनों तक इस पर कुछ लिखने के लिए सोचता रहा लेकिन ना शब्द सूझ रहे थे और ना ही हिम्मत हो रही थी...अभ भी यही सोच रहा हूं कि क्या इस तरह की घटनाओं को घटने से रोका जा सकता है...क्या कोई ऐसा रास्ता है जो रिश्तों को कलंकित होने से बचा सकता है...कृपया इस ब्लॉग पर आने वाले अपनी राय जरूर बताएं।

गुरुवार, 19 मार्च 2009

छिड़ी लड़इया यूपी में...


19 मार्च 09
लोकसभा चुनाव का बिगुल बज चुका है...इसके साथ ही शुरू हो गया है...सियासत की बिसात पर मोहरे सजाने का खेल...समीकरणों की गणित के हिसाब से खिलाड़ियों को मैदान में उतारने की कवायद में जुटे राजनीतिक दल नफा नुकसान तौल रहे हैं...देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश में भी सियासी हलचल चरम पर है...केन्द्र के सिंहासन का रास्ता इसी राज्य की गलियों से होकर गुजरता है...इसीलिए जिसने इन गलियों में रहने वालों का दिल और वोट जीत लिया...मान लिया जाता है कि उसने सत्ता हासिल करने का आधे से ज्यादा सफर तय कर लिया...इसीलिए राजनीतिक दलों की निगाहें इस प्रदेश की हलचल पर जा टिकी हैं...मतदाताओं को रिझाने के लिए दावों और वादों के पिटारे खोल दिए गए हैं...मेरी खादी उससे उजली की तर्ज पर खुद को बेहतर साबित करने की होड़ सी लग गई है...बात करें यूपी के घमासान की तो मुकाबला सपा और बसपा के बीच ही नजर आता है...कांग्रेस और भाजपा को तो तीसरे नंबर की लड़ाई लड़नी है...यूपी में सफलता हासिल करने के लिए छटपटा रही कांग्रेस एक ऐसे सहयोगी की तलाश में थी जो उसे इस चुनावी वैतरणी में पार लगा सके...सपा के रूप में उसकी ये तलाश पूरी होती नजर आ रही थी लेकिन अहम की लड़ाई ने इसकी संभावनाएं खत्म कर दीं...बाबरी विध्वंस के दौरान केन्द्र की तत्कालीन कांग्रेस सरकार की निष्क्रिय भूमिका ने अल्पसंख्यकों के बीच उसके आधार का ऐसा बंटाधार किया कि वो आज तक इस वर्ग का दिल जीतने में नाकाम ही रही है...प्रदेश स्तर पर कांग्रेस के पास संगठन और असरदार नेताओं का अभाव है...ये दोनों बातें केन्द्र की सत्ता पर दोबारा काबिज होने की उसकी राह का सबसे बड़ा रोड़ा हैं...हां राहुल गांधी के नाम पर उसे युवाओं का समर्थन मिल सकता है...जिससे आम चुनाव की लड़ाई में उसकी हालत थोड़ी बेहतर हो सकती है...लेकिन बावजूद इसके वो कई बड़ा उलटफेर करती नहीं दिखाई दे रही है...बात करें बीजेपी की तो उसकी हालत भी कांग्रेस से कुछ जुदा नहीं है...पीएम इन वेटिंग लालकृष्ण आडवाणी के राजनीतिक व्यक्तित्व का यूपी में कोई खास आकर्षण नहीं है...1999 में हुए संसदीय चुनाव के दौरान उसके करिश्माई व्यक्तित्व के धनी अटल बिहारी वाजपेयी जैसी शख्सियत थी..जिसका आज अभाव है...हालांकि रालोद के साथ गठबंधन बीजेपी को पश्चिमी उत्तर प्रदेश में कुछ राहत दिला सकता है...साथ ही बीजेपी अगर आंतरिक सुरक्षा के मुद्दे को हिन्दुत्व की चासनी देने में कामयाब हुई तो हो सकता है उसे चुनावी जंग में कुछ लाभ हासिल हो जाए...वरना तो उसे कुछ खास हासिल होता नहीं दिखता...बात करें बसपा की तो भदोही उपचुनाव में मिली हार से अगर उसके कार्यकर्ता नहीं उबरे तो फिर उसका नुकसान तय है...साथ ही उसे सवर्ण समुदाय के मतदाताओं पर भी नजर रखनी होगी...उसे इस वर्ग को कांग्रेस और भाजपा के पाले में जाने से रोकना होगा...क्योंकि अगर ऐसा हुआ तो बसपा को नुकसान उठाना पड़ सकता है...एंटी इन्कमबैंसी का असर भी बसपा की राह का रोड़ा बन सकता है...लेकिन अगर मायावती के पीएम बनने की बात चुनावी हवा में तब्दील हो गई तो केंद्र की ओर हाथी तेजी से बढ़ सकता है...साथ ही बसपा को अपने दलित-सवर्ण सामाजिक समीकरण का भी फायदा मिल सकता है...मायावती अगर अल्पसंख्यक मतों का विभाजन करने में कामयाब हुईं तो केंद्र की ओर उनकी दौड़ आसान ही होगी...कुल मिलाकर हाथी इस चुनाव में काफी सशक्त नजर आता है...रह गई मुलायम सिंह यादव की सपा...मुलायम को अल्पसंख्यक और पिछड़ों के अपने जनाधार को संभाल कर रखना होगा...अगर इसमें बिखराव आया तो साइकिल की हवा निकल सकती है...मुलायम के लिए दूसरा खतरा है माया का सर्वजनवाद...विधानसभा चुनाव के बाद अगर ये फार्मूला आम चुनाव में भी क्लिक कर गया तो मुलायम के लिए मुश्किल खड़ी हो सकती है...अमर सिंह का विवादास्पद आचरण और उनकी अनर्गल बयानबाजीपर लगाम नहीं कसी गई तो सपा के नेताओं और संगठन में बिखराव हो सकता है...आजम खान की नाराजगी इसकी मिसाल है...हां, कल्याण सिंह का साथ पश्चिमी उत्तर प्रदेश में मुलायम को कुछ सीटों का फायदा करा सकता है...इसके अलावा अगर मुख्य विपक्षी दल होने के नाते बसपा शासन से नाराज लोगों का ध्रुवीकरण उसकी तरफ हुआ तो मुलायम को मुस्कुराने का मौका मिल सकता है...कुल मिलाकर यूपी में सिंहासन का फाइनल हर बार की तरह इस बार भी जोरदार होगा...आप तो बस तेल देखिए और तेल की धार...

बुधवार, 18 मार्च 2009

वरुण तूने ये क्या किया ?


18 मार्च 09
भारतीय राजनीति के पर्दे पर यदाकदा नुमायां होने वाले वरुण गांधी आजकल हॉट आइटम बने हुए हैं। चारों तरफ उन्हीं की चर्चा है। अखबारों में संपादकीय लिखे जा रहे हैं तो टेलीविजन की दुनिया में भी उन्हें लेकर बहस का दौर चल रहा है। चुनावी माहौल की गर्मी के बीच अपने संसदीय क्षेत्र में एक सभा के दौरान जाति विशेष पर की गई टिप्पणी ने वरुण को सुर्खियों में ला खड़ा किया है। नेता कम मेनका गांधी के बेटे के रूप में ज्यादा पहचाने जाने वाले वरुण ने रातों रात अपनी पहचान बदल डाली। मंदिर मुद्दा फुस्स होने के बाद आतंकवाद और मंहगाई जैसे बासी मुद्दों के साथ चुनावी मैदान में कसमसा रही बीजेपी की दशा शायद वरुण गांधी से देखी नहीं गई इसीलिए उन्होंने हिन्दुत्व के मुद्दे को नए तेवर के साथ नई धार देने की कोशिश कर डाली। उनकी कोशिश की सफलता का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि शिवसेना प्रमुख बाला साहेब ठाकरे ने वरुण गांधी को असली हिन्दू करार देते हुए उनकी बातों से सहमति जता डाली। पीलीभीत में वरुण ने जो कुछ भी कहा उसका यहां जिक्र करना ज़रूरी नहीं लगता लेकिन उन बातों ने वरुण को विहिप के फायर ब्रांड नेता प्रवीण भाई तोगड़िया और गुजरात में बीजेपी के खेवनहार नरेन्द्र मोदी को भी पीछे छोड़ दिया। ये अलग बात है कि हिंदुत्व को नई धार देने की वरुण की ये कोशिश खुद उनके और बीजेपी के गले की फांस बन गई। वरुण गांधी ने जो कुछ पीलीभीत में कहा वो अमर्यादित तो था ही साथ ही भावनाओं को भड़काने वाला भी था लेकिन अहम बात ये है कि क्या ये सब कुछ वरुण की स्वाभाविक प्रतिक्रिया थी या फिर इसके पीछे बीजेपी की कोई सोची समझी रणनीति थी। क्या चुनावी सभाओं में बीजेपी नेताओं को कुछ बी बक देने की आजादी हैं। क्या पार्टी हाईकमान की ओर से अपने उम्मीदवारों को किसी तरह के निर्देश नहीं दिए गए हैं। उन्हें क्या, कितना और कैसे बोलना है, क्या इसकी तमीज उन्हें सिखानी पड़ेगी और अगर ऐसा है तो फिर ऐसे नेताओं को पार्टी ने टिकट क्यों दिया। सामाजिक सद्भावना और समरसता बनाए रखने की जिम्मेदारी निभाने की कसमें खाने वाले नेता क्या इतने गैर जिम्मेदाराना बयान दे सकते हैं। ये मामला सिर्फ वरुण को कठघरे में खड़ा नहीं करता बल्कि पूरी बीजेपी की जवाबदेही तय करता है। चुनाव आयोग तो वरुण के खिलाफ अपने अधिकारों के तहत ही एक्शन ले सकता है लेकिन क्या सिर्फ वहीं काफी होगा वरुण को उनकी गलती का एहसास दिलाने के लिए। ऐसा लगता तो नहीं क्योंकि अभी तक तो वरुण छाती ठोककर इस पूरे मामले को राजनीतिक साजिश करार देते आ रहे हैं। बीजेपी के रवैए से भी ऐसा नहीं लगता कि उसे वरुण के किए पर कोई अफसोस है। यूं तो भारतीय लोकतंत्र में हर किसी को अपनी बात कहने का हक है लेकिन उसके भी अपने तरीके और सीमाएं हैं और वरुण ने निश्चय ही उन सीमाओं को भी लांघ गए हैं। वरुण के भाषण से एक बात तो शीशे की तरह साफ हो गई कि हमारी रहनुमाई का दम भरने वाले किसी भी राजनीतिक दल के पास कोई ऐसा मुद्दा नहीं बचा जो देश और समाज का विकास कर सके। जाति और धर्म के ज़रिए ही ये पार्टियां सत्ता के गलियारे नापने की फिराक में रहती हैं। या यूं कहें कि इसी ताने बाने के बीच वो अपना राजनीतिक अस्तित्व खड़ा करने की कूवत रखते हैं। ये बात पहले भी कई बार साबित हो चुकी है और वरुण गांधी के मामले ने इसे और पुख्ता कर दिया है। ये हमारे लोकतंत्र के लिए शुभ नहीं है।

मंगलवार, 17 मार्च 2009

चलो रे फिर चुनाव आया है...



17 मार्च 09
लोकसभा चुनाव का बिगुल बजने के साथ ही राजनीतिक दलों की कसरत शुरू हो चुकी है। भारतीय राजनीति की बात करें तो बीते कुछ सालों में वो काफी बदलाव देख चुकी है। मतदाताओं ने मुद्दों से भटकते राष्ट्रीय दलों को उनकी औकात दिखाई है तो क्षेत्रीय दल को मजबूती दी है। पूर्ण बहुमत से दूर बने रहने के दर्द ने काग्रेस और बीजेपी जैसे राष्ट्रीय दलों को क्षेत्रीय दलों का मुंह ताकने के लिए मजबूर कर दिया। बीजेपी ने एनडीए का गठन किया तो कांग्रेस ने यूपीए का चोला पहन सत्ता सुख भोगा। अब तक इन राष्ट्रीय दलों का सहयोग कर रहे छोटे छोटे दलों में भी कुर्सी की छटपटाहट देखने को मिल रही है। नतीजतन गठबंधनों में दरार पड़ने लगी है। पुराने दोस्त छूट रहे हैं, नए दोस्त तलाशने की कवायद चल रही है। बेपेंदे के लोटे की तरह नेता कभी इस दल तो कभी उस दल की सवारी कर रहे हैं। इधर उधर से धकियाए नेता तीसरे मोर्चे की पगड़ी पहन फिर से चुनावी जंग में दहाड़ मार रहे हैं। गठबंधन की नाव में सवार दलों के बीच सीटों के तालमेल को लेकर सिर फुटौवल चल रही है तो प्रधानमंत्री की कुर्सी के लिए भी मारामारी है। लालकृष्ण आडवाणी तो सालों से पीएम इन वेटिंग की तख्ती लटकाए घूम रहे हैं। उधर राहुल राहुल के शोर के बीच कांग्रेस ने मनमोहन सिंह पर ही भरोसा बनाए रखा है। लालू जी और रामविलास पासवान के ख्वाबों में भी पीएम की कुर्सी तांडव कर रही है। इन सबके बीच खुद को दलितों की मसीहा के रूप में प्रचारित प्रसारित कर राजनीतिक गलियारों में रसूख कायम करने वाली बहन मायावती भी दिल्ली का तख्त हथियाने के लिए पूरा जोर लगा रही हैं। इस सारी कवायद में पिस रही है बेचारी जनता। आर्थिक मंदी और मंहगाई की मार से बेहाल जनता पर चुनावों के भारी भरकम खर्च की भी मार पड़ने वाली है। 2004 में अगर लोकसभा चुनाव पर 1300 करोड़ रुपये खर्च हुए थे तो इस दफा यह आंकड़ा 1800 करोड़ रुपये का आंकड़ा पार करने वाला है। यह पैसा आम आदमी की जेब से ही निकलेगा। ऊपर से एक टिकाऊ सरकार चुनने का बोझ भी उसी के कंधों पर है। अब ये देखने वाली बात होगी कि आम आदमी अपनी जेब और कंधों पर पड़ने वाली इन जिम्मेदारियों को सफलता पूर्वक कैसे निभाता है।

गुरुवार, 19 फ़रवरी 2009

जिन्दगी जिन्दादिली का नाम है

20 फरवरी 09
दुनिया का शाश्वत सत्य है मौत...एक दिन आनी ही है...वक्त और जगह सब कुछ तय होता है...हालांकि हम उन चीजों से अनजान होते हैं....लेकिन ज़रा सोचिए अगर किसी को ये पता हो कि वो इस हसीन दुनिया में बस चंद दिनों का मेहमान है तो उसके दिल पर क्या गुजरेगी...पल पल मौत को अपनी तरफ बढ़ते देख वो हजारों मौत मरता है...लेकिन कुछ नहीं कर सकता...उन पलों की बेबसी और मजबूरी को समझना हमारे आपके लिए आसान नहीं क्योंकि उसे सिर्फ वो व्यक्ति ही महसूस कर सकता है...कुछ ऐसा ही हाल है जेड गुडी का...वही जेड गुडी जिन्होंने रियलिटी शो बिग ब्रदर के दौरान बॉलीवुड एक्ट्रेस शिल्पा शेट्टी पर नस्लभेदी टिप्पणी की थी...ये वक्त उन पलों को याद करने का नहीं है...गुडी के पास वक्त कम है...बची खुची सांसे वो हंसते मुस्कुराते लेना चाहती है...शायद इसीलिए उन्होंने अपनी मौत को यादगार बनाने का फैसला कर लिया है..गुडी मरने से पहले शादी कर रही हैं...अपनो उन दो बच्चों की खातिर जिनका उनके बाद इस दुनिया में कोई नहीं है...जिनकी जिम्मेदारी गुडी के कंधों पर ही है...इस दुनिया को छोड़ने से पहले गुड़ी अपने दोनों बच्चों का भविष्य सुरक्षित बना देना चाहती हैं... 23 फरवरी यानी की आने वाले रविवार को जेड की 21 साल के जैक से शादी करने वाली है और अपनी शादी को यादगार बनाने का जिम्मा जेड ने एक लिविंग टीवी को दिया है। जेड ने अपनी शादी की एक्सक्लूसिव तस्वीरों के लिए इस टीवी के साथ 4 करोड़ 90 लाख रुपए की डील पक्की की है। जेड की शादी उनके घर के ही पास होटल डाउन हॉल में होगी। दरअसल गुडी ये सबकुछ अपने बच्चों के लिए कर रही है। गुडी नहीं चाहती कि उनके जाने के बाद उनके बच्चों को किसी भी परेशानी का सामना करना पड़े। गुडी की इसी इच्छा को पूरा करने के लिए डॉक्टरों ने भी उन्हें फंड्स जमा करने के लिए मीडिया की मदद लेने की इजाजत दे दी। लिविंग टीवी के अधिकारी क्लीफफोर्ड का कहना है कि शादी के बाद गुडी के ऊपर फिल्माए जा रहे किसी भी एपिसोड को प्रसारित नहीं किया जाएगा। डील के मुताबिक शादी से इकट्ठा की गई रकम पर सिर्फ जेड के दोनों बच्चे बॉबी और फ्रेडी का ही हक होगा। उस रकम से जैक का कोई लेना-देना नहीं होगा। जैक पहले ही इस शर्त पर हामी भर चुके है। वहीं ब्रिटेन के प्रधानमंत्री गॉरडन ब्राउन ने भी गुडी के लिए प्रार्थना की। ब्राउन का कहना है कि देश भर में लोग गुडी के लिए प्रार्थना कर रहे है। उन्हें दुख है कि गुडी का ट्रिटमेंट कामयाब नहीं रहा। 27 साल की जेड गुडी पेशे से एक बिजनेस विमेन और टीवी प्रजेंटर हैं। जेड का जन्म 5 जून 1981 को इंगलैंड में हुआ। साल 2002 में महज 21 साल की उम्र में चैनल 4 के रियलिटी शो बिग ब्रदर से जेड ने अपनी पहचान बनाई। उसके बाद जेड गुडी ब्रिटेन के कई टीवी शोज में नजर आईं। जेड गुडी मौत का स्वागत हंसते हंसते करना चाहती हैं...वो नहीं चाहती कि मौत को उनकी बेबसी का एहसास हो...वो जिंदादिली का लिबास ओढ़कर मौत के आगोश में जाना चाहती हैं...शादी का फैसला गुडी की उसी कवायद का एक हिस्सा है...14 फरवरी को जब दुनिया भर में वैलेंटाइन डे मनाया जा रहा था...जेड गुडी ने लंदन में अपने अपने प्रेमी जैक ट्विड के साथ अंगूठियों की अदला बदली की...चलिए आपको भी दिखाते हैं...गुडी के जीवन के उन पलों की झलक जब उन्होंने अपनी मौत के साथ आंख मिचौली करते हुए जीवन के छोटे लेकिन अनमोल पलों की सौगात बटोरी...



गुडी के प्रेमी जैक ट्विड ने लंदन में वैलंटाइंस-डे के दिन गुडी को डायमंड एंगेजमंट रिंग पहनाई है।



नदी के किनारे जैसे ही दोनों ने रिंग एक्सचेंज किया, गुडी ने प्यार से जैक के हाथों को चूम लिया। कैंसर से जूझ रही ब्रिटिश कलाकार जेड गुडी का इलाज कर रहे डॉक्टरों ने भले ही हार मान ली हो, लेकिन उन्होंने जिंदगी के हर पल को खुशी के साथ जीने का जज्बा दिखाकर दुनिया को जीवन के अंतिम क्षणों का भी आनंद उठाने की नसीहत दे दी है।



मंगनी की रस्म टेम्स नदी के किनारे पूरी हुई। जैक ने पहले जेड के हाथों को चूमा और फिर घुटनों के बल वह आया। फिर दोनों ने एक दूसरे को वह अंगूठी पहनाई। यह खासा भावुक क्षण था।



दो बच्चों की मां जेड व्हीलचेयर पर बैठी हुई थी और गर्म कोट में होने के बावजूद वह खासी कमजोर लग रही थी। पर उसका मुर्झाया चेहरा तब खिल उठा जब मंगनी की रस्म पूरी हुई और दोनों ने एक दूसरे को चूमा। अपने जल्द होने वाले पति को गले लगाते वक्त जेड खुश दिख रही थी।



अपनी शादी की शॉपिंग के लिए पिछले वीकेंड्स पर गुडी हैरोड्स पहुंचीं, जहां के मालिक मोहम्मद अल फायेद ने गुडी को 3,500 पाउंड का वेडिंग ड्रेस गिफ्ट कर दिया।



उनकी शादी मशहूर गायक सर एल्टन जॉन की हवेली विंडसर कैसल में हो सकती है। एल्टन ने ही दरअसल उन्हें यह ऑफर किया है, जहां मौजूद होंगे उनके करीबी दोस्त और रिश्तेदार।



जैक भी व्यस्त हैं अपने वेडिंग शूट की तैयारी में उम्र के इस अंतिम पड़ाव पर गुडी अपने बच्चों को कुछ यादगार पल देना चाहती हैं। अपनी शादी पर अपने बेटों बॉबी और फ्रेडी के लिए कपड़ों की खरीदारी भी की। ट्वीड गुडी की तारीफ करते नहीं थकते कि कोई मरते वक्त भी जिंदगी को इतनी जिंदादिली से जीने को कैसे तैयार हो सकता है। इसलिए जैक भी उनका साथ निभाने में कहीं पीछे नहीं हट रहे।



जेड की मम्मी उनके बच्चों के साथ शादी की तैयारी में व्यस्त हैं। वह उनके लिए शादी में पहनने वाले बच्चों के सूट के इंतजाम में बिज़ी हैं।

जेड गुडी इस दुनिया में ज्यादा दिनों की मेहमान नहीं हैं लेकिन बावजूद इसके उनकी जिन्दादिली ने ने मौत को भी शरमाने के लिए मजबूर दिया। क्या कहेंगे आप...क्या आप मेरी बात से सहमत हैं...अगर हां तो भेजिए एक छोटी सी टिप्पणी...

शुक्रवार, 13 फ़रवरी 2009

भावनाओं पर मत रखो काबू

14 फरवरी 09



आज वेलेंटाइन डे है...यानि प्यार के इजहार का दिन...दिल की बात जुबां पर लाने का दिन...अनकहे एहसासों को बयां करने का दिन...यूं तो प्यार के इजहार का कोई वक्त नहीं होता...दिल के अरमान कभी भी मचल सकते हैं...एहसास कभी भी करवट ले सकते हैं लेकिन फिर भी दिल की रूमानियत की इस साझेदारी को लोगों ने एक खास दिन के दायरे में बांध दिया है...वेलेंटाइन डे...यही वो दिन है, जब दिल की तड़प को शब्दों के सांचे में ढालकर लोग एक दूसरे के साथ बांटते हैं...एक बार फिर पूरी सजधज के साथ ये खास दिन हमारे आपके बीच मौजूद है...यूं कहें कि एहसास को बयां करने का एक बहाना बनकर आ खड़ा हुआ है वैलेंटाइन डे...एक ऐसा दिन जब दूरियां नजदीकियों में बदल जाती है और दायरे टूट जाते हैं...प्रेमियों के लिए ये दिन किसी त्योहार से कम नहीं...इजहारे मोहब्बत के इस सिलसिले ने कब त्योहार का रूप ले लिया कोई नहीं जान सका...यूं तो ये त्योहार रोमन साम्राज्य और ईसाई धर्म से जुड़ा है। प्राचीन काल में इसे जूनो देवी की उपासना से जोड़कर देखा जाता था। जूनों प्रेम और सौंदर्य की देवी थी और रोमन नागरिकों का मानना था कि वे युवतियों को प्रेम और विवाह में सफलता का आशीर्वाद देती हैं। इस अवसर पर देवी की पूजा होती, पार्टियां दी जातीं, उत्सव मनाया जाता और लोग देवी से अपने प्रिय व्यक्ति को पति या पत्नी के रूप में मांगते। बाद में इसका स्वरूप बदला और इसे संत वेलेंटाइन से संबंधित कर दिया गया। क्लाडियस द्वितीय के शासनकाल में संत वेलेंटाइन नाम के एक लोकप्रिय बिशप थे, जिनका देहांत 14 फरवरी 270 ईस्वी को हुआ। उसी दिन से इस पर्व को उनकी याद में 14 फरवरी को मनाया जाने लगा। आज वही खास दिन एक बार फिर प्यार का संदेश लिए हाजिर है...कहते हैं प्यार करना जितना आसान है इजहार उतना ही मुश्किल और उसी मुश्किल को आसान बनाता है वेलेंटाइन डे...दिल की बात कहने का इससे अच्छा मौका कोई और नहीं हो सकता...गिरजाघरों में इस अवसर पर संत वेलेंटाइन की याद में प्रार्थनाएं होती रहीं और जनसामान्य ने इस दिन भेजे जाने वाले प्रेमपत्रो का नाम ही वेलेंटाइन रख दिया। आज ये दिन जाति और धर्म की सीमा से परे हर धर्म के प्रेमियों के लिए एक महत्वपूर्ण पर्व बन गया है। तो करिए ना इंतजार...उठाइए एक लाल गुलाब और कर डालिए अपनी भावनाओं का इजहार...ख्याल इस बात का रखिए कि उस इजहार में हो शालीनता, सम्मान और समर्पण।

रविवार, 8 फ़रवरी 2009

जागो श्रीराम सेना जागो...

09 फरवरी 09

दुनिया भर के लोगों पर प्यार और मोहब्बत के पर्व वेलेंटाइन डे का बुखार छाने लगा है। फिर भला ये कैसे अछूते रहते। सो ये भी एक दूसरे से अपनी मोहब्बत का इजहार करने से बाज नहीं आए लेकिन लगता है इन्हें श्रीराम सेना के फरमान के बारे में जानकारी नहीं है। वेलेंटाइन डे को सभ्यता और संस्कृति के लिए खतरा बताने वाले इस संगठन ने वेलेंटाइन डे मनाने वाले जोड़ों की जबरदस्ती शादी कराने का ऐलान कर रखा है। इस फरमान की नाफरमानी करते इस जोड़े की तो ये सरासर दादागिरी है। अरे भाई कोई मुतालिक जी को सूचित तो करो...यहां वेलेंटाइन डे मनाया जा रहा है। अरे कहां हो भारतीय संस्कृति के ठेकेदारों...जरा देखो ये क्या हो रहा है।

शनिवार, 31 जनवरी 2009

गुम होती कांव कांव

01 फरवरी 09

इंटरनेट पर एक खबर पढ़कर अंतर्मन के सूखे धरातल पर तमाम सवाल चहलकदमी करने लगे । खबर थी कि धरती पर कौओं का अस्तित्व खतरे में हैं। गिद्धों के बाद कौओं के जीवन पर मंडराते संकट ने बहुत कुछ सोचने के लिए मजबूर कर दिया। यूं तो पृकृति से खिलवाड़ और उसके साम्राज्य में मानव के दखल ने तमाम जीव जंतुओं को इतिहास के पन्नों में दर्ज कराने की पहल काफी पहले शुरू करा दी थी लेकिन अब जब बात कौओं तक भी जा पहुंची है तो वास्तव में लगता है कि मामला काफी गंभीर है। बाघों को बचाने के लिए प्रोजेक्ट टाइगर और गैंडों की रखवाली के लिए प्रोजेक्ट राइन्हो चल रहा है। गिद्धों के हक में भी हरियाणा में एक मुहिम चल रही है और भी तमाम ऐसे जानवर जो लुप्त होने की कगार पर हैं उनके लिए कुछ न कुछ किया जा रहा है लेकिन बेचारा कौआ अभी तक उसके हक में कहीं से कोई भी आवाज बुंलद नहीं हुई है। हो भी कैसे यदा कदा ही तो कौए का स्मरण होता है। पितृ पक्ष के दौरान पुरखों के श्राद्ध के वक्त या फिर अगर इस बेचारे प्राणी ने किसी के छत की मुंडर से कांव कांव की रट लगाकर किसी मेहमान के आने का संकेत दे दिया हो तो। वरना कौए को सदैव उपेक्षा की दृष्टि से ही देखा जाता है। विकास की अंधी दौड़ में आज हम कौओं की महत्ता को भले ही न समझ रहे हों लेकिन उनकी लगातार घटती संख्या को पर्यावरणविद् एक खतरनाक संकेत मान रहे हैं। कौआ जितना पर्यावरण के लिए उपयोगी है उतना ही उसका लोक व्यवहार में भी महत्व है। पहले कौआ अगर किसी को चोंच मार देता था तो उसे घोर अपशकुन माना जाता था लेकिन हालात बता रहे हैं कि अगर हम जल्द नहीं चेते तो कौए हमें ये सूचना देने के लिए भी शेष नहीं रहेंगे। पर्यावरणविदों की मानें तो कौओं की घटती संख्या के लिए बदलता पर्यावरण जिम्मेदार है। दरअसल जिस तरह से खाने पीने की चीजों में कीटनाशकों और जहरीली चीजों का उपयोग हो रहा है, उससे कौओं की प्रजनन क्षमता घटती जा रही है। दूसरा कारण जो कौओं के लिए परेशानी का सबब बनता जा रहा है वो है जंगलों की लगातार कटाई। कौआ एकांतप्रिय पक्षी है और सुनसान जगह ही अपना घोंसला बनाता है, जो वृक्षों की कटाई के चलते उसे मिल नहीं पा रहा है। जिससे उसके लिए आवास की समस्या उत्पन्न हो गई है। अपने आसपास गौर करें तो आपको काला कौआ मुश्किल से देखने को मिलेगा। हो सकता है गले पे सफेद धारी वाला कौआ आपको दिख जाए। दरअसल कौए की इस प्रजाति की प्रतिरोधक क्षमता काले कौए से कहीं बेहतर है, इसलिए इस प्रजाति के कौए अभी दिख रहे हैं लेकिन इसका ये मतलब नहीं लगाया जाना चाहिए कि बदलते पर्यावरण का उन पर असर नहीं हो रहा है। हालात यही रहे तो इस प्रजाति को भी लुप्त होने में देर नहीं लगेगी। लोग जिस तरह से कौओं के प्रति लापरवाही बरत रहे हैं उससे प्राण शर्मा की गजल की कुछ पंक्तियां याद आती हैं -

मुंडेरों पर बैठे कौओं, कौन सुनेगा तुम्हें यहां
दुनिया वाले तो मरते हैं कोयल की मृदुबानी पर


दुनिया वाले भले ही कौए की महत्ता को नजरअंदाज करें लेकिन ये उन्हीं के लिए परेशानी का कारण बनने वाला है। यही हाल रहा तो पृकृति के संतुलन में महती भूमिका निभाने वाले कौए जल्द ही किस्से कहानियों तक ही सीमित रह जायेंगे। आने वाली पीढ़ियां कौए को या तो संघर्ष की प्रेरणा देने वाली प्यासे कौए की कहानी या फिर कागा छत पर शोर मचाए गाने के लिए ही याद रखेंगी। साथ ही लोगों को कौए की कमी तब महसूस होगी जब पितृ पक्ष के मौके पर पुरखों की आत्मा की शांति के लिए की जाने वाली पूजा के दौरान प्रसाद खिलाने के लिए कौए ढूंढने से भी नहीं मिलेंगे।

मंगलवार, 27 जनवरी 2009

विचारों भरी रात

17 जून 2008
यूं तो कुछ लिखने का कोई वक्त नहीं होता। विचार कभी भी मन के दरवाजे पर दस्तक दे सकते हैं और शब्दों का मायावी संसार आपको मजबूर कर सकता है कि आप उस दस्तक को महसूस कर उन विचारों को कहीं सहेज लें। दिन के वक्त लोग बाग ज्यादातर व्यस्त रहते हैं जिसके चलते चंचल मन उस हद तक परवाज नहीं कर पाता जहां पहुंचकर कोई भी कलम उठाने के लिए मजबूर हो जाता है। कहते हैं अगर वक्त रात का हो और साथ तन्हाई का तो उंगलियां खुद बा खुद कलम थामने को मजबूर हो जाती हैं और जब इंसान लिखने के लिए बैठता है तो उसके दिल का दर्द शब्दों का रूप लेकर कागजों में समाने लगता है। बात मोहब्बत के आगाज की हो या फिर बेवफाई के सितम की, बात जिन्दगी की जंग की हो या फिर मौत के संग आंख मिचौली की, बात रिश्तों की तिजारत की हो या फिर उनकी इबादत की, दुनिया की हर शै को शब्दों में ढाल देने को जी चाहता है। इंसान अपने मन की जिन भावनाओं को लोगों के साथ बांट नहीं पाता उनको कागजों में उतारकर कहीं कैद कर देने के लिए रात से बेहतर भला कोई वक्त हो सकता है। दिमागी परतों पर करियर, पैसा, उम्र और समय का इम्प्रेशन बनता बिगड़ता है, उसकी रेखाओं को थोड़ा और गहरा कर, इंसान अपने उज्जवल भविष्य के सपनों में रंग भरने की कोशिश रात को ही करता है। रात जब सूरज दूर कहीं बादलों की ओट में गुम हो जाता है, जब आसमान में तारिकाएं एक दूसरे से बतियाती नजर आती हैं, झींगुर अपनी ध्वनि से अपने होने का एहसास कराते हैं, जुगनू चमककर ये दिखाते हैं कि वो भी इसी दुनिया का हिस्सा हैं, हवा का हल्का शोर, चांद की चांदनी में लिपटी धरती की काया उस पर किसी के न होने का एहसास, रात की काली चादर भयावह लगने की बजाए अपनी सी लगती है। कभी कभी तो दिल कहता है इस रात की सुबह ही न हो। मैं और मेरी तन्हाई एक दूसरे से बतियाते रहें और जीवन के किस्से को यूं ही कहीं उकेरकर लोगों से बांटते रहें।

सोमवार, 26 जनवरी 2009

किसकी और कैसी दुनिया

26 जनवरी 2009
आज यूं ही बैठे बैठे मन में ख़्याल आया कि इस दुनिया के बारे में कुछ लिखा जाए। वो दुनिया जिसमें हम और आप बसते हैं। वो दुनिया, जिसमें हर पल होनी-अनहोनी के बीच जिन्दगी हांफती-डांफती रफ्तार पकड़ने की कोशिश करती नजर आती है। वो दुनिया, जिसमें तमाम रिश्ते-नाते पलते बढ़ते हैं औऱ दम तोड़ देते हैं। वो दुनिया, जहां जिन्दगी को जीने की जद्दोजहद करता इंसान पेट की खातिर कुछ भी कर गुजरने को तैयार दिखाई देता है। वो दुनिया, जहां खुद को बचाए रखने की मुहिम में इंसान दूसरों के खात्मे से परहेज नहीं करता है। वो दुनिया, जहां उसी को जीने का हक़ है जिसके पास ताकत है, रसूख है और पैसा है। वो दुनिया, जहां एक की तक़लीफ दूसरे का तमाशा होती है। वो दुनिया जहां आए दिन होने वाले बम धमाकों की गूंज अंतरआत्मा को झिंझोड़ देती है। जहां धर्म और मजहब की तलवारें मानवता का कत्ल कर इंसानियत को शर्मसार करती हैं। ये सब सोचते सोचते ख्याल आया कि दुनिया का ऐसा ही रूप तो नहीं है। इससे इतर भी कोई दुनिया है। वो दुनिया जहां प्यार और मोहब्बत के फूल खिलते हैं। जहां रिश्तों की मिठास मन के सूखे धरातल पर बारिश की बौछार की भांति गिरकर आत्मा को तृप्त कर जाती है। वो दुनिया जहां मां के आंचल तले मिलने वाली ममता की छांव हर दर्द का मरहम बन जाती है। जहां पिता का दुलार और प्यार से सर पर गिरा हाथ चट्टानों का सीना चाक कर देने की कूवत पैदा कर देता है। वो दुनिया जहां कलाई पर प्यार से बांधा गया एक धागा जीवन भर की सुरक्षा का वादा बन जाता है। वो दुनिया जहां ढाई अक्षर का एक शब्द लोगों के लिए इबादत बन जाता है। इसके अलावा और भी बहुत कुछ है जिससे दुनिया को शब्दों में बांध देमे को जी चाहता है लेकिन क्या करूं शब्द चंचल मन की गहराइयों में कहीं दूर दफन हो गए हैं। मेरा सवाल अभी भी अनुत्तरित है कि आखिर ये किसकी और कैसी दुनिया है....

दीन दुनिया से बेखबर ये एक अलग दुनिया है
ये ग़म की दुनिया है...ये खुशी की दुनिया है
ये भोले भाले और लाचार लोगों की दुनिया है
ये घर से बेघर हुए लोगों की दुनिया है
ये पल में रूठते और पल में मानते लोगों की दुनिया है
ये बच्चों की दुनिया है...ये बूढ़ों की दुनिया है
ये हालात के मारे लोगों की दुनिया है
ये अपनों से हारे लोगों की दुनिया है
कभी दिल झांकता है खुद ही अपने झरोखे में
तो खुद ही सोचता है कि आखिर ये कैसी दुनिया है....

शुक्रवार, 23 जनवरी 2009

अधूरे होमवर्क की सज़ा

24 जनवरी 09
उस मासूम का कुसूर बस इतना था कि उसने किन्ही कारणों से अपना होमवर्क पूरा नहीं किया था। उसके इस अपराध की सजा उसकी शिक्षिका ने जिस अंदाज में दी उससे हैवानियत भी शरमा गई। पहले शरीर पर बेहिसाब डंडों की बरसात और फिर भी जब मन को सुकून नहीं मिला तो बात लात घूंसों और चप्पलों पर आ गई। वो मासूम चीखता रहा, चिल्लाता रहा लेकिन उसकी टीचरजी का दिल नहीं पसीजा। उनके हाथ चलते रहे...तब तक जब तक उस मासूम की चीखें खामोशी में नहीं बदल गईं। जब तक वो बेहोश नहीं हो गया।












ये नजारा देखकर आपकी आंखें भर आई होंगी। दिल से बस एक ही सवाल निकल रहा होगा कि आखिर कौन है वो हैवान शिक्षिका जिसने इस मासूम के साथ जानवरों से भी बद्तर सलूक किया है। दरअसल ये मामला है छत्तीसगढ़ के कोरिया जिले का...जहां के मनेन्द्रगढ़ विकास खंड के राजकीय प्राथमिक स्कूल में ये घटना घटी है। आपने कई ऐसी घटनाओं के बारे में सुना होगा जब, किसी शिक्षक ने छात्र को पीटा होगा। कई बार बेतहाशा पिटाई का दर्द न बरदाश्त कर पाने के चलते ऐसे मासूमों की जान तक जा चुकी है। कोई बहरा हो गया तो कोई जिन्दगी भर के लिए अपाहिज। कई बार शिक्षक अपनी मर्यादा और शालीनता लांघ हैवान बनते नजर आए हैं। ऐसा ही कुछ हुआ था अहमदाबाद निवासी अरविन्द नाम के एक छात्र के साथ...जब अपने शिक्षक हंसमुखभाई गोकुलदास शाह की पिटाई से आहत होकर उसने खुदकुशी कर ली थी। मामला सुप्रीम कोर्ट पहुंचा था और चीफ जस्टिस के.जी.बालाकृष्णन और जस्टिस पी.सदाशिवम की बेंच ने ये फैसला सुनाया कि पढ़ाई के लिए बच्चे को पीटने का अधिकार किसी शिक्षक को नहीं है और क्लास में पढाई के लिए बच्चों से मारपीट किसी भी सूरत में बरदाश्त नहीं की जाएगी। बावजूद इस आदेश के कोरिया में एक बार फिर सुनील नाम का ये मासूम अपनी टीचरजी की हैवानियत का शिकार बन गया।






सुनील की पिटाई का नजारा देख स्कूल के दूसरे बच्चे इस कदर सहमे हैं कि स्कूल जाने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहे हैं...उनकी आंखों के सामने बुरी तरह से पिटता सुनील कौंध जाता है...उनके माता पिता भी अपने बच्चों को स्कूल भेजने से कतरा रहे हैं। आरोपी शिक्षिका भारती राही फिलहाल फरार है। जिलाधिकारी कमलप्रीत सिंह ने मामले की जांच कराकर आरोपी शिक्षिका के खिलाफ कड़ी कार्रवाई का भरोसा दिलाया है लेकिन ये भरोसा इन मासूमों के दिल से पिटाई का खौफ मिटा पाने में नाकाम साबित हो रहा है। साथ ही स्कूल में हुई मासूम की पिटाई और उससे पैदा हुई इस दहशत ने शासन की उन योजनाओं पर भी पानी फेरने का काम किया है, जिसके तहत वो बच्चों को स्कूल से जोड़ने का काम कर रहा है।






मैं अपने ब्लॉग पर आने वाले सभी लोगों से पूछना चाहता हूं कि क्या केवल कानून बना देने भर से ऐसी घटनाओं पर रोक लगाई जा सकती है। क्या कानून की धाराओं से ही ऐसे शिक्षकों को उनकी जिम्मेदारी का एहसास दिलाया जा सकता है।

गुरुवार, 22 जनवरी 2009

कुर्बानी का अपमान

22 जनवरी 09



99 साल के इस बुजुर्ग को राजस्थान के केकड़ी जिले में देवकी बल्लभ द्विवेदी के नाम से जाना जाता है। आजादी के लिए लड़ी गई जंग में उनकी भागीदारी के चलते उन्हें स्वतंत्रता संग्राम सेनानी का खिताब भी हासिल है। उनकी इस भागीदारी को खुद राज्य सरकार ने रजत पदक और ताम्र पत्र देकर सलाम किया है। इनके पास आज सब कुछ है। दो बेटे और उनका हंसता खेलता परिवार बावजूद इसके एक चीज ऐसी है जिसने इन्हें व्यथित कर रखा है और उसी कमी को पूरा करने के लिए आराम करने की उम्र में भी उन्होंने जंग छेड़ रखी है।









जंग उस चीज के लिए है, जो उनके हक में आती है और वो चीज है, केन्द्र सरकार की तरफ से आजादी के सिपाहियों को मिलने वाली पेंशन। आप ये जानकर हैरान रह जायेंगे कि इसी पेंशन को हासिल करने के लिए ये बुजुर्गवार पिछले तीस साल से लड़ाई लड़ रहे हैं। ये लड़ाई पैसों के लिए नहीं है क्योंकि ईश्वर ने द्विवेदी जी को इस नेमत से बख्श रखा है। इनकी तमन्ना है कि अगर उन्हें उनके ही हक की रकम मिल जाए तो वे उसे गरीबों को दान कर सकें। द्विवेदी जी ने कानून के दायरे में रहकर शालीनता के साथ अपने इस हक की मांग की। अब इसे व्यवस्था की खोट कहें या फिर कुर्सी की खुमारी, तीस साल का वक्त बीत गया लेकिन इन्हें इनका हक नहीं मिला। हक दिलाने का भरोसा मिला, चिठ्ठियां मिलीं, चिठ्ठियों के जवाब मिले लेकिन नहीं मिला तो पेंशन रूपी आत्मसम्मान।










बात बनती ना देख आजादी के इस सिपाही का धैर्य जवाब दे गया। उन्होंने घोषणा कर दी कि वे आने वाली 26 जनवरी को तिरंगे के नीचे बैठकर आमरण अनशन शुरू करेंगे। जैसा कि हमेशा होता है, ये खबर फैलते ही सत्ता के गलियारों में खलबली मच गई। एक स्वतंत्रता सेनानी अगर आमरण अनशन करेगा तो सरकार की छवि खराब होगी, जनता क्या सोचेगी, सरकार की बेइज्जती होगी, अब सत्ता की मलाई खाने वालों को गालियां खाना भला कैसे शोभा देता। सो केकड़ी के विधायक रघु शर्मा हरकत में आए और उन्होंने प्रशासनिक अधिकारियों को इस सेनानी की चौखट चूमने के लिए रवाना कर दिया। अधिकारी भी ये जा वो जा...पहुंच गए अपनी नाक बचाने की जद्दोजहद करने। अनशन का फैसला टालने के लिए अनुनय विनय की, हाथ जोड़े, साथ ही एक बार फिर भरोसा दिलाया इन्हें, इनका हक दिलाने का।










(केकड़ी के एसडीएम गजेन्द्र सिंह देवकी बल्लभ द्विवेदी को मनाने पहुंचे)

इस बुजुर्ग को भी अच्छा नहीं लगा कि कोई उनके दरवाजे पर आकर बेइज्जत हो लिहाजा उन्होंने अपना इरादा टाल दिया लेकिन इस चेतावनी के साथ कि अगर उनका भरोसा इस बार टूटा तो परिणाम अच्छा नहीं होगा। अब इस बुजुर्ग को मिला सरकारी भरोसा कार्रवाई की शकल लेता है या फिर वक्त कि बिसात पर हर बार की तरह झूठ का एक मुलम्मा बनकर चिपक जाता है ये देखने वाली बात होगी। ये मामला यहां मैनें इसलिए उठाया है क्योंकि द्विवेदी जी जैसे न जाने कितने आजादी के सिपाही आज भी अपने हक और आत्मसम्मान को हासिल करने के लिए एड़ियां रगड़ रहे हैं। जिनकी कुर्बानी की बदौलत हम आज आजादी की हवा अपने फेफड़ों में भर रहे हैं वो आज भी दर दर की ठोकरें खाने को मजबूर हैं। अगर वो इस हाल में नहीं हैं तो उनके परिवार वाले उनकी कुर्बानी का सिला भुगत रहे हैं। ऐसे सिपाहियों की जवानी अगर अंग्रेजों से लोहा लेने में बीत गई तो बुढ़ापा अपनों से ही अपना हक हासिल करने की जंग में खत्म हुआ जा रहा है। ऐसे में क्या हम अपनी आजादी और अपने गणतंत्र पर गर्व कर सकते हैं।

मंगलवार, 20 जनवरी 2009

ये क्या हो रहा है राजनाथ ?

20 जनवरी 09
आज पूरा देश ओबामा की जय करने में लगा हुआ है। मीडिया में भी ओबामा की हीं गूंज है। हर खबर आज उसके आगे बौनी है। हो सकता है ब्लॉग की दुनिया में भी आज ओबामा ही छाए रहें। ऐसे में किसी और मुद्दे पर लिखने से मैं भी पहले हिचक रहा था लेकिन फिर हिम्मत जुटा ही ली। खबर राजनीतिक हलके से हैं। केंद्र में है बीजेपी के कद्दावर नेता और उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री कल्याण सिंह। जिन्होंने एक बार फिर बीजेपी को कठघरे में खड़ा करते हुए उससे किनारा कर लिया। अगर आपको याद हो तो 1999 में भी कल्याण ने कुछ इसी अंदाज में बीजेपी को बॉय बॉय किया था। हालांकि बाजपेयी जी के हस्तक्षेप के बाद कल्याण की पार्टी में वापसी हो गई थी। उस वक्त पार्टी छोड़ने वाले कल्याण ने जिस आक्रामक लहजे में बीजेपी पर आरोपों की झड़ी लगाई थी उस अंदाज में तो कभी विपक्षी भी नहीं दिखे। कल्याण सिंह के मुताबिक पार्टी में उन्हें वो सम्मान नहीं मिल रहा था जिसके वो हकदार थे। उनके मुताबिक उन पर कुछ ऐसे आरोप लगे जो सरासर बेबुनियाद हैं। बहरहाल मैं उन आरोपों की गहराई में नहीं जाना चाहता। ये विषय इसलिए उठाया क्योंकि आने वाले वक्त में बीजेपी को लोकसभा चुनाव की जंग लड़नी है। ऐसे में कल्याण का जाना...क्या ये मान लिया जाए कि पार्टी को कल्याण सिंह पर भरोसा नहीं रहा...उसे लगता है कि वो उन्हें ढो रही थी...क्योंकि उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव में पार्टी को आशानुरूप सफलता नहीं मिली थी...पार्टी को ऐसा लगने लगा था कि उत्तर प्रदेश में कल्याण का सूरज अस्त हो चला है...उनका इस्तीफा जिस सहजता से स्वीकार कर लिया गया उससे तो कम से कम ऐसा ही लगा कि आलाकमान भी उन्हें पार्टी में देखने का इच्छुक नहीं है...ये तो हुई एक घटना...अब बात एक दूसरे नेता की...एक ऐसे नेता की जिसका पार्टी में एक रुतबा था...एक हैसियत थी लेकिन उसने भी इसी शिकवे के साथ पार्टी का साथ छोड़ दिया कि उसे बीजेपी परिवार में वो मान सम्मान हासिल नहीं हो रहा था जिसके वो हकदार थे...जी हां मैं भैरों सिंह शेखावत की बात कर रहा हूं...उन्होंने लोकसभा चुनाव लड़ने की इच्छा क्या जताई पूरी बीजेपी उन पर चढ़ बैठी...पार्टी अध्यक्ष राजनाथ का बयान आपको याद होगा...(जो गंगा स्नान कर चुके हों उन्हें कुंए में डुबकी लगाने की ख्वाहिश नहीं रखनी चाहिए)...कल्याण ने भले ही अभी शालीनता की चादर ओढ़ रखी हो लेकिन अपमान की इस आग में जलते शेखावत ने राजस्थान में कूटनीतिक तरीके से बगावत का झंडा बुलंद कर दिया है। आज बीकानेर में जिस तरह से उन्होंने वसुंधरा के शासनकाल में हुए भ्रष्टाचार के मामलों को उठाते हुए गहलोत सरकार से जांच की मांग की...उनके तेवर बीजेपी के लिए किसी लिहाज से शुभ नहीं हैं...इसी बीच कल्याण ने पार्टी छोड़कर शेखावत की ही बात को आगे बढ़ाया है...जाहिर है पार्टी विद डिफरेंस के भीतर कुछ ठीक नहीं चल रहा है। लोकसभा चुनाव से पहले बीजेपी ने अगर इस नुकसान की तरफ ध्यान नहीं दिया तो कहीं ऐसा ना हो कि लोकसभा चुनाव जीतकर पीएम इन वेटिंग आडवाणी को तख्तो ताज से संवारने का उसका सपना सपना ही रह जाए। कल्याण और शेखावत की हाय बी अपना रंग जरूर दिखाएगी।

रविवार, 18 जनवरी 2009

लालू जी गौर फ़रमाइए

18 जनवरी 09
डग्गामार गाड़ियां तो आपने बहुत सी देखी होंगी लेकिन क्या कभी डग्गामार रेल से आपका वास्ता पड़ा है। अगर नहीं पड़ा तो चलिए मेरे साथ मध्य प्रदेश के सरहदी जिले श्योपुर की ओर। मेरा दावा है कि आप इस डग्गामार रेल क देखकर दांतो तले उंगली दबा लेंगे।












ये नजारा देखकर आपकी आंखें ज़रूर फैल गई होंगी...फैलें भी क्यों ना...सुहाने सफर का वादा करने वाली भारतीय रेल का ऐसा सफर कम ही देखने को मिलता है...लेकिन जनाब ये कोई एक दो दिन की बात नहीं बल्कि आजादी के बाद से ही चला आ रहा सिलसिला है। एक ऐसा सिलसिला जिससे जुड़ी है हजारों परिवारों की जिन्दगी की डोर जो कभी भी टूट सकती है लेकिन बावजूद इसके ये सिलसिला थमता नजर नहीं आता या यूं कहें कि लोग नहीं चाहते कि थमे।










श्योपुर से ग्वालियर के बीच इस ट्रेन को रियासती काल में सिंधिया शासकों ने अपनी सुविधा के लिए चलाया था। जिसे आजादी के बाद आम जनता को सौप दिया गया। तब से लेकर अब तक देश में बहुत कुछ बदला। यात्रा मार्ग बढ़े, स्टेशन बढ़े, यात्री बढ़े लेकिन इस ट्रेन में बोगियां नहीं बढ़ी। नतीजा आपके सामने है। क्या बोगी के भीतर और क्या बाहर...लोग जान पर खेलकर सफऱ कर रहे हैं।














श्योपुर और मुरैना जिलों के एक बड़े हिस्से के लोगों के लिए ये ट्रेन यातायात का मुख्य साधन है। लोगों के पास कोई दूसरा विकल्प नहीं है और जिन्दगी के कई काम निपटाने के लिए सफर भी जरूरी है। फिर चाहे वो जान पर खेलकर ही क्यों ना हो।












इस रेल मार्ग के आमान परिवर्तन की मांग पिछले कई वर्षों से ठन्डे बस्ते में पड़ी है। इस मांग पर ध्यान क्यों नहीं दिया जा रहा है, ये बताने वाला कोई नहीं है। अधिकारी इस ट्रेन के बारे में बात तक नहीं करना चाहते। इस सफर के दौरान हादसे भी हुए हैं लेकिन बावजूद इसके ये सूरत बदलती नहीं दिख रही है।







मुझे पता है कि आपको टेलीविजन पर आने वाला वो फेवीकोल का विज्ञापन याद आ गया होगा। जिसमें एक ट्रक पर क्षमता से ज्यादा लोग सवार रहते हैं लेकिन गिरते नहीं है और तभी बैकग्राउंड से आवाज आती है कि फेवीकोल का जोड़ है टूटेगा नहीं। लेकिन वो बात विज्ञापन की थी, कल्पना की थी लेकिन ऊपर दिख रहा नजारा हकीकत है। एक ऐसी हकीकत जिससे हमारी भारतीय रेल के अधिकारी और मंत्री मुंह मोड़ते आ रहे हैं। भारतीय रेल को घाटे से उबारकर फायदे का सौदा बनाने वाले माननीय लालू यादव को भी शायद मौत का ये सफ़र दिखाई नहीं दे रहा है या फिर वो देखना नहीं चाह रहे हैं। अगर देखना चाहते तो शायद अब तक इस ट्रेन में कुछ बोगियां जुड़ गई होतीं। भारतीय रेल के इस सफर पर आप क्या कहेंगे जनाब...जागिए कुछ तो कहिए।
http://