बुधवार, 28 मई 2008
आरक्षण की आग
29 मई 2008
राजस्थान से उठी आग की आंच अब देश की राजधानी समेत दूसरे हिस्सों में भी साफ महसूस की जा सकती है। खुद को अनुसूचित जाति का दर्जा देने को लेकर गुर्जरों ने जो आंदोलन राजस्थान में छेड़ा था वो अब व्यापक रूप ले चुका है। गुर्जरों ने राजधानी दिल्ली और एनसीआर में बंद का आह्वान कर तमाम रास्तों पर जाम लगा रखा है, कई महत्वपूर्ण ट्रेनें रोक दी गई हैं और बुनियादी ज़रूरतों वाली चीजों की आपूर्ति ठप कर दी गई है। कह सकते हैं कि जनजाति में आरक्षण की सुलगती भट्टी की लपटें अब आम आदमी को झुलसाने लगी है। समस्या पेचीदिगियों से भरी है,सुलझाने का रास्ता बातचीत की गलियों से होकर ही गुजरता है लेकिन उसका भी अभाव दिख रहा है। एक मंच पर आकर आम राय बनाते हुए अमन और शांति की बहाली के प्रयास के बजाए अभी भी राजनीतिक दल इसकी टोपी उसके सर वाला खेल खेलती नजर आ रही हैं। जिस तरह चुनावी राजनीति के तहत गुर्जरों को आरक्षण की हवा में बहाया गया था,आज भी लगभग वही प्रक्रिया सरकार द्वारा अपनाई जा रही है। गुर्जरों की मांग के अनुरूप प्रधानमंत्री को भेजे पत्र द्वारा यही स्थापित किया जा रहा है कि उनकी मांगों पर अब केंद्र को निर्णय लेना है लेकिन सभी जानते हैं कि इसकी एक पूरी संवैधानिक प्रक्रिया है और इसके तहत राष्ट्रीय अनुसूचित जनजाति आयोग की सिफारिश सबसे जरूरी और पहला कदम है। हालांकि इस दिशा में भी राजस्थान सरकार की तरफ से कोई पहल अभी तक तो नहीं हुई है। गौर से देखें तो राजस्थान में आरक्षण को लेकर गुर्जरों में पनपे असंतोष की पृष्ठभूमि में अवसरों से वंचित होने का अहसास तो है ही,साथ ही जनजाति में न आने के कारण राजनीतिक ताकत का लगातार छीजते चले जाना भी है। पूरे प्रदेश में एकाध इलाके को छोड़ दें तो बाकी राज्यभर में शैक्षिक व आर्थिक रूप से गुर्जरों की कोई बेहतर स्थिति नहीं बनी है,जबकि उनके समकक्ष अन्य कई जातियों ने अनुसूचित जनजाति का दर्जा पाने के बाद शिक्षा व नौकरियों के क्षेत्र में उल्लेखनीय सफलताएं हासिल की हैं,जिससे उनका आर्थिक स्तर भी बढ़ा है शायद यही कारण है कि यह मामला इतना जटिल होकर सामने आया है। ये स्थिति अभी औऱ विकट हो सकती है क्योंकि अनुसूचित जनजाति आयोग के सूत्रों की मानें तो करीब 1000 जातियों ने अर्जी दी है कि उन्हें जनजाति का दर्जा दिया जाए। उधर गुर्जरों के हितों की लड़ाई लड़ने के लिए गुर्जर नेता किरोड़ी सिंह बैंसला ने दलीय राजनीति में कूदने का मन बना लिया है। वह गुर्जरों को गोलबंद कर राजनीतिक दल का गठन करने की तैयारी कर रहे हैं। सामाजिक हक की लड़ाई अब राजनीतिक गलियारों में पहुंच चुकी है और अब लोग इस लड़ाई के दौरान मारे गए लोगों की लाशों पर अपना राजनीतिक मुकाम बनाने की संभावनाएं भी तलाशने लगे हैं। कहना गलत न होगा कि अगर आरक्षण की व्यवस्था को समय रहते तर्कसंगत नहीं बनाया गया तो जिस अर्थव्यवस्था को दुनिया के बराबर ले जाने की कोशिशें हो रही हैं,वह उल्टी दिशा में बहने लगे तो कोई आश्चर्य नहीं होगा।
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anil kumar verma
मां को मिला न्याय
29 मई 2008
नीतीश कटारा हत्याकांड में दिल्ली की पटियाला हाउस कोर्ट ने बुधवार को आपना फैसला सुनाया। बाहुबली सांसद डीपी यादव के बेटे और मामले के दोनों मुख्य अभियुक्तों विकास औऱ विशाल यादव को अदालत ने दोषी करार देते हुए सजा सुनाने के लिए तीस मई का दिन मुकर्रर किया। इस फैसले ने एक बार फिर न्यायपालिका में आम आदमी के भरोसे को और पुख्ता किया। इस हाईप्रोफाइल मामले से जिस तरह से रसूखदार लोगों के नाम जुड़े थे और जिस तरह से सुनवाई के दौरान न्याय प्रक्रिया को बाधित करने की कोशिशें हुईं उससे पीड़ित पक्ष को न्याय मिलने को लेकर मन थोड़ा आशंकित था लेकिन एक मां की लड़ाई रंग लाई और उसके बेटे को न्याय मिला। छह साल की लंबी और थका देने वाली अदालती प्रक्रिया पर एक मां का साहस भारी पड़ा। अपने जिगर के टुकड़े को न्याय दिलाने की एक मां की द्रढ़ इच्छा शक्ति ने एक बार फिर स्थापित कर दिया कि मां की ममता से ताकतवर इस दुनिया में कुछ भी नहीं। इस मामले में जिस तरह से एक बाहुबली सांसद के बेटों की भागीदारी सामने आ रही थी तो ये बात तो साफ थी कि केस को कमजोर करने की कोशिशें होंगी औऱ हुई भीं,जिस महिला मित्र के चलते नीतीश को अपनी जान गंवानी पड़ी उसका शुरूआती बयानों से मुकरना,जिस शख्स ने अभियुक्तों के साथ आखिरी बार नीतीश को देखने का दावा किया उसका अपने दावे से पलटना,गवाहों को डराने धमकाने की कोशिशों के बीच न्याय की खातिर लड़ी जा रही एक मां की जंग आसान नहीं थी लेकिन जिस तरह से नीतीश कटारा की मां नीलम कटारा मामले की हर सुनवाई के दौरान खुद कोर्ट में मौजूद रहीं वो अपने बेटे को न्याय दिलाने की उनकी जिजीविषा को दर्शाता है। तमाम चुनौतियों के बीच न्याय की ये जंग अपने अंजाम तक पहुंची तो इसके लिए न्यायपालिका और मीडिया के साथ साथ हर वो शख्स साधुवाद का पात्र है जो इस मां की लड़ाई में उसके साथ खड़ा था। यूं तो मां की ममता और उसकी महिमा को शब्दों में नहीं बांधा जा सकता लेकिन फिर भी किसी कवि ह्रदय से निकली ये पंक्तियां यहां ज़रूर लिखना चाहूंगा-
मां धरती से अधिक धैर्यवान
सागर से भी गहरी
हिमालय से बडी
और
सूरज से भी अधिक
ऊर्जामयी होती है
मां धरती की तरह दरकती तो है
पर
अपनी संतानों को नहीं लीलती
जैसे
भूमि ने अपने आपमें
समाहित कर लिया था भूमिजा को।
मां हिमालय से ऊंचे कद
बडे पद की होती हैं पर
उसकी तरह कठोर नहीं होती
संवेदना पर
पानी की एक बूंद भी गिरे तो
थरथरा जाती हैं मां
बर्फ सी गलने लगती है मां
आंधियों सी चलने लगती है मां
मां सूरज भी है और
उसकी अनंत अक्षुण्य ऊर्जा भी
पर
उसकी तरह
दिन रात खटने के बाद भी नहीं थकती
चिडियों की चहचहाहट हो
या बच्चों की किलकारियां
मां कभी नहीं ऊबती
एक बार उग जाए तो कभी नहीं डूबती।
मां एक रिश्ता है, संस्कार है
मां ही सृष्टि है, संसार है
मां सृजन है, साकार है
मां तृप्ति है, मनुहार है
मां सिर्फ मां नहीं, त्योहार है
ममता का बीज, क्षमता का पेड
समता का फल
और समरसता का संसार है
मां गति है, प्रगति है, प्रकृति है, पालनहार है
मां ग्रीष्म नहीं, सावन की फुहार है
मां सनातन है, सिद्ध है, सृजनहार है
मां प्रेम है, प्रमाण है, पुरस्कार है
मां दर्द की साक्षात अवतार है।
अंत में एक मां की ममता को एक बार फिर सादर नमन।
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anil kumar verma
रविवार, 25 मई 2008
सामाजिक बंटवारे की सियासत
26 मई 2008
राज ठाकरे ने एक बार फिर उत्तर भारतीयों को लेकर अपना इंफीरियारिटी कांप्लेक्स बेतुके और अमर्यादित शब्दों के माध्यम से जग जाहिर किया है। यूं तो राज की इन हरकतों को लेकर बहुत कुछ लिखा जा चुका है। बहुत से लोगों ने उन्हें देश के सामाजिक ढांचे को बिगाड़ने के लिए जिम्मेदार बताकर कठघरे में भी खड़ा किया लेकिन मैं ऐसा करने में पीछे रह गया। दरअसल इससे पहले राज ने जब भी कुछ कहा उस वक्त तक मैं ब्लॉग जैसे हथियार के इस्तेमाल से वाकिफ नहीं था। अब जबकि ऐसा हो चुका है तो मेरा मन भी राज की अगड़म बगड़म पर अपने विचारों को पेश करने के लिए मचल रहा है। राज बार बार ये कहते आ रहे हैं कि उत्तर भारतीयों ने मराठी मानुषों के रोजगार पर कब्जा कर लिया है, उनकी नौकरियों को हथिया लिया है, जिससे उनके सामने रोजी रोटी का संकट खड़ा हो गया है। इतना ही नहीं उन्होंने उत्तर भारतीयों द्वारा अपने त्योहार मनाए जाने को भी गुंडा गर्दी करार दिया और ऐसा करने पर परिणाम भुगतने की चेतावनी दे डाली। दरअसल शिवसेना से नाता टूटने के बाद अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहे राज को शायद इससे बेहतर कोई रास्ता नहीं सूझा और उन्होंने शिव सेना द्वारा दफन की जा चुकी उसी चिंगारी को हवा देना शुरू किया जिसमें न के बराबर आंच बची थी। इसी चिंगारी में उन्हें अपना राजनीतिक करियर परवाज भरता नजर आ रहा था क्योंकि मुबंई में बड़ी संख्या में उत्तर भारतीय बसे हैं। उन्हें टारगेट करना मतलब देश के दो ऐसे बड़े राज्यों पर निशाना साधना जहां से केंद्रीय सत्ता की दशा-दिशा तय होती है। राज ये बाखूबी जानते थे कि जब मुंबई में बसे इस वर्ग पर चोट की जाएगी तो वे केवल मुंबई की ही नहीं बल्कि भारतीय राजनीति की मुख्यधारा में शामिल हो जायेंगे। वे जानते हैं कि इस देश में सबसे आसान काम है किसी की भी भावना से खेलना सो उन्होंने उत्तर भारतीयों के माध्यम से मराठी मानुष की भावनाओं को भड़काया। उन्हें आपला मानुस और भैया में फर्क समझाना शुरू किया और उन्हें ये समझाने की कोशिश की कि भैया लोग उनके अस्तित्व के लिए खतरा बन रहे हैं। वरना साधनहीन, मेहनतकश उत्तर भारतीय ‘भैया’ लोग जो झुग्गियों में अत्यल्प साधनों के बीच रहते हैं, उनसे, राज ठाकरे जैसे नेताओं और आपले शहर में रहने वाले मराठियों का अस्तित्व किस तरह खतरे में पड़ गया ये मेरी ही नहीं मुंबई वासियों की समझ से भी परे था। राज को ये कौन समझाए कि जितने भी उत्तर भारतीय उनकी नजर में मराठियों के लिए खतरा हैं, जब वे मुबंई आए थे तो सपनों के इस शहर ने उनकी हर तरह से परीक्षा ली थी। उत्तर भारतीय जहां भी जमे हैं, अपने जीवट और मेहनत से जमे हैं। मुंबई ने उनके साथ कोई रियायत नहीं की। इतनी साधनहीन जिंदगी जीकर अगर उत्तर भारतीय किसी दूसरे प्रदेश में जाकर इतने महत्वपूर्ण हो जाते हैं कि किसी के अस्तित्व के लिए खतरा बन जाएं तो किसी को भी उनके अस्तित्व पर गर्व होना चाहिए। ऐसे में जो लोग इसे अपने देश, अपने शहर में रहते हुए अपनी अस्मिता को संकट में मानने लगे हैं, उनके जीवट पर शंका होनी लाजिमी है। राज ठाकरे को शुक्रगुजार होना चाहिए कि ये इस देश का लोकतंत्र ही है जिसने उन जैसे असहिष्णु, अपरिपक्व, असंवेदनशील व्यक्ति को भी राज करने का सपना देखने और उसे किसी भी रास्ते से पूरा करने की स्वच्छंदता दी है। जिसके चलते वो अब तक सार्वजनिक मंच से बकर-बकर कर पा रहे हैं वरना तो अब तक सामाजिक सौहार्द बिगाड़ने और हिंसा का माहौल पैदा करने के चलते उन्हें नजरबंद कर दिया गया होता। जिस तरह से उनकी पार्टी के कार्यकर्ताओं ने पिछले दिनों महाराष्ट्र में उत्पात मचाया उसके बाद तो पूरे उत्तर भारत को उन पर हमला बोल देना चाहिए था लेकिन ये उत्तर भारतीयों की सहिष्णुता और संवेदनशीलता ही है जो उनका भरोसा अब तक कानून में कायम है। उन्हें लगता है कि राज को उनके किए की सजा कानून ज़रूर देगा। ये अलग बात है कि राज्य की सरकार भी इस मामले को राजनीतिक चश्मे से ही देख रही है और वोटबैंक के चक्कर में कड़ी कारर्वाई करने से बचती आ रही है। मैं अपने ब्लॉग के माध्यम से राज ठाकरे से ये कहना चाहूंगा कि अगर देश के विकास और भलाई के लिए कुछ नहीं कर सकते तो कम से कम देश को बांटने की राह पर भी न चलें। वैसे भी हमारे वतन में अमन चैन की राह में तमाम दुश्मन पहले से मौजूद हैं। अंत में किसी कवि ह्रदय से निकली कुछ पंक्तियां कहना चाहूंगा -
पराये हैं,
ये तो मालूम था हमको
जो अब कह ही दिया तूने
तो आया सुकूं दिल को
शराफत के उन सारे कहकहों में
शोर था इतना
मेरी आवाज़ ही पहचान
में न आ रही मुझको
बिखेरे क्यों कोई अब
प्यार की खुशबू फिज़ाओं में
शक की चादरों में दिखती
हर शय यहाँ सबको
बढ़ाओं आग नफ़रत की
जगह भी और है यारों
दिलों की भट्टियों में
सियासत को ज़रा सेको
सड़क पे आ के अक्सर
चुप्पियाँ दम तोड़ देती हैं
बस इतनी खता पे
पत्थर तो न फेंकों
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anil kumar verma
कर्नाटक चुनाव के निहितार्थ
26 मई 2008
कांग्रेस के नेतृत्व वाली केंद्र की यूपीए सरकार अभी अपने चार साल पूरे होने के जश्न की खुमारी ही मिटा रही थी कि कर्नाटक विधानसभा चुनाव के नतीजों ने उसकी नींद उड़ा दी। 224 में से केवल 80 पर कामयाबी और प्रतिद्वन्द्वी भाजपा के खाते में आईं उसकी उम्मीद से कही ज्यादा 110 सीटें। उत्तराखंड, पंजाब और केरल के बाद कर्नाटक में मिली हार ने कांग्रेस को चिंतन मंथन के लिए मजबूर कर दिया है। कांग्रेस के लिए इस हार के गंभीर निहितार्थ हैं। लगातार देश के तमाम राज्यों में उसे मिल रही असफलता और उसके उलट भाजपा को मिल रही सफलता खास तौर से दक्षिण के किसी राज्य में बहुमत मिलना ये दर्शा रहा है कि राष्ट्रीय स्तर पर कही न कहीं कांग्रेस कमजोर हो रही है और भाजपा दिनों दिन मजबूत हो रही है। सवाल उठता है कि आखिर ऐसा हो क्यों रहा है। दरअसल कांग्रेस को राज्यों की राजनीति भी केंद्रीय परिपाटी के मुताबिक करना ही मंहगा पड़ रहा है। राज्यों के चुनाव स्थानीय मुद्दों पर लड़े जाते हैं और स्थानीय नेताओं के किए-धरे के आधार पर ही राजनीतिक दलों की किस्मत तय होती है। राज्यों की जनता अपने बीच के व्यक्ति को ही सत्ता में देखना चाहती है, जिससे उसे अपनी बात कहने सुनने के लिए इधर उधर भटकना ना पड़े। उन्हें लगता है कि उनके बीच का आदमी उनकी बात ध्यान से सुनेगा और उनकी समस्याओं का निराकरण करेगा। भाजपा ने यही किया औऱ एक ऐसी पार्टी के तौर पर अपने को लोगों के सामने पेश किया जो एक स्थिर सरकार बना सकती है। दूसरी बात थी राज्य में उनका नेतृत्व यानी मुख्यमंत्री के रूप में येदुरप्पा का चेहरा। एक समय था जब राष्ट्रीय राजनीति में कहा जाता था कि अटल जी प्रधानमंत्री बनने लायक हैं पर उन्हें अवसर नहीं मिल रहा है। कुछ इसी तरह की छवि राज्य में येदुरप्पा की रही है। भाजपा इस बात को भी प्रचारित करने में और लोगों के सामने रखने में सफल रही कि उनके साथ एक राजनीतिक धोखा हुआ है और उन्हें अपनी बारी आने पर काम करने का मौक़ा नहीं मिला है। जबकि ठीक इसके उलट कांग्रेस ऐसा करने में नाकाम रही। हमेशा की तरह अपनी पुरानी परिपाटी के मुताबिक कर्नाटक चुनाव में भी कांग्रेस ने किसी ऐसे व्यक्ति को आगे नहीं किया जो वहां की जनता के दिल के करीब होता, जो लोगों को ये भरोसा दिला पाता कि कांग्रेस का हाथ उनके साथ है। लिहाजा जनता ने जब फैसला सुनाया तो वो कांग्रेस के हित में नहीं रहा। दूसरा झटका कांग्रेस को मायावती ने दिया। नहीं-नहीं करते हुए भा बसपा ने कांग्रेस के वोट बेंक में सेंध लगाई। जिसका सीधा फायदा भाजपा ने उठाया और आगे भी उठाने की कोशिश करेगी। मुझे ऐसा लगता है कि पिछले लोकसभा चुनाव में मिली जीत के बाद कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी के करिश्माई नेतृत्व का जो तिलिस्म बना था वो अब दरकने लगा है। मैं ये नहीं कह रहा कि कर्नाटक की हार के बाद केंद्र सरकार पर संकट आन खड़ा हुआ है लेकिन अगर कांग्रेस ने इस हार को दरकिनार किया तो आने वाले लोकसभा चुनाव में उसे इसकी कींमत चुकानी पड़ सकती है। कांग्रेस अध्य़क्ष को ये समझना होगा कि राजनीतिक दर एनजीओ की तरह नहीं चलते, साथ ही ये भी कि इंदिरा गांधी की शैली का राजनीति इक्कीसवीं सदी में नहीं चलने वाली, क्योंकि उनमें न तो इंदिरा गांधी जैसा राजनीतिक कौशल है, न ही बड़े फैसले लेने का जिगर, न ऐसी सार्वदेशिक अपील जो अकेले अपने दम पर वोट दिला सके और अब न ही उतना कमजोर विपक्ष है। पिछली बार के लोकसभा चुनाव में सत्ता का दंभ राजग को ले डूबा था, इस बार भी उनका नेतृत्व बिखऱता नजर आ रहा था लेकिन लगातार चार राज्यों के विधानसभा चुनाव में मिली सफलता से उनके हौंसले बुलंद है औऱ एकजुटता नजर आने लगी है। भाजपा की परेशानी बाहरी नहीं है आंतरिक है। अंतर्कलह उसकी राह की सबसे बड़ी बाधा है, जिस पर काबू उसे काबू पाना होगा और अगर ऐसा हो गया तो केंद्र की सत्ता उससे ज्यादा दिनों तक दूर नहीं रहेगी। दूसरी ओर आठ साल तक सत्ता से दूर रहने के बाद पिछले चार सालों से सत्ता सुख भोग रही कांग्रेस ने अगर अपनी चुनावी रणनीति नहीं बदली तो उसे खामियाजा भुगतने के लिए तैयार रहना होगा। दरअसल कांग्रेसियों को ये मुगालता हो गया है कि सोनिया और राहुल की बदौलत वो चुनावी जंग जीत जायेंगे। हालांकि
कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी कई बार पार्टी के बड़े नेताओं और मंत्रियों को चेता चुकी हैं कि वे लोगों के बीच जाएं और कार्यकर्ताओं को सम्मान और समय दें। कांग्रेस के नेता अभी तक उनकी बात को अनसुना करते रहे लेकिन अब उन्हें भी खतरे की घंटी सुनाई देने लगी है। कांग्रेस को महंगाई पर भी नजर रखनी होगी। अगर वो ये मानकर बैठी कि कर्नाटक की हार में इसकी कोई भूमिका नहीं है तो ये उसकी सबसे बड़ी भूल होगी। कर्नाटक में सत्ता से वंचित रही कांग्रेस यह दावा कर रही है कि इस राज्य के चुनाव नतीजों का केंद्रीय सत्ता पर असर नहीं पडे़गा, लेकिन कुल मिलाकर यह एक कमजोर दावा होगा। हां, कांग्रेस इस पर संतोष व्यक्त कर सकती है कि उसका वोट प्रतिशत भी बढ़ा और सीटें भी। यहां एक और वजह का जिक्र करना चाहूंगा जो राजनीतिक दलों के लिए मुसीबत बन चुकी है। दरअसल राजनेता ये मानकर चलते हैं कि जनता की याददाश्त काफी कमजोर होती है और वो सब कुछ आसानी से भुलाकर उनकी गलतियों को माफ कर देती है लेकिन उन्हें अब ये समझना होगा कि भारतीय राजनीति में अब ये वर्जना टूटती नजर आ रही है। जनता चार साल में सरकारों द्वारा किए गए सारे कामों का लेखा जोखा रखती है और चुनाव नजदीक देख एक साल मे किए गए काम के आधार पर अपने मतों का निर्धारण करना उसने छोड़ दिय़ा है। भाजपा का शाइनिंग इंडिया का नारा उसके गले नहीं उतरा था तो कांग्रेस को ऐसा क्यों लगा कि नौ फीसदी जीडीपी की विकास दर का ग्राफ उसका राजनीतिक ग्राफ बढ़ा देगा। पंजाब, उत्तराखंड और अब कर्नाटक की हार ने उसका ये मुगालता जरूर तोड़ा होगा। भाजपा को भी हालिया चुनावों में मिली जीत से ज्यादा खुश नहीं होना चाहिए क्योंकि देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश में अगर वो पस्त है तो मध्य प्रदेश और राजस्थान में भी उसकी हालत बेहतर नहीं कही जा सकती। यह ठीक है कि भाजपा अब 11 राज्यों में सत्ता में होगी, लेकिन बात तो तब बनेगी जब यह संख्या घटने न पाए। यदि भाजपा को केंद्र की सत्ता में वापसी करनी है तो उसे अपने कुछ मजबूत और भरोसेमंद सहयोगी भी चुनने होंगे। कुल मिलाकर भारतीय राजनीति की राहें दिनों दिन रपटीली होती जा रही हैं और उन पर चलने के लिए राजनीतिक दलों को अपनी चाल-ढाल बदलनी होगी।
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anil kumar verma
शनिवार, 24 मई 2008
समाज का नासूर
24मई 2008
आज जो कुछ लिखने जा रहा हूं उस विषय पर काफी कुछ लिखा जा चुका है। मुझसे पहले न जाने कितने लोग इस समस्या को लेकर लोगों को जागरुक करने का काम कर चुके हैं लेकिन न हालात बदले हैं और न बदलते दिख रहे हैं। फिर भी मैं तो अपने अंदर उठ रहे द्वंद्व को शब्दों का रुप दूंगा ही। विषय है जातिवाद के साथ आरक्षण और संदर्भ में है राजस्थान। साल भर पहले गुर्जरों ने खुद को अनुसूचित जाति में शामिल करने को लेकर जो आंदोलन छेड़ा था वो एक बार फिर जोर पकड़ चुका है। दो दिनों में 39 मौतें हो चुकी हैं। राज्य के 15 जिले इस आंदोलन की चपेट में हैं। तोड़फोड़, आगजनी और हिंसा के बीच सेना के जवान स्थिति को काबू में करने की कोशिश कर रहे हैं। सरकार ने बातचीत के लिए गुर्जर नेताओं को न्योता भेजा है लेकिन क्या इस समस्या को अब वातानुकूलित कमरों में बैठकर हल किया जा सकता है। तमाम घरों के चिराग बुझ गए,मांओ की गोद सूनी हो गई,जाने कितने ही परिवारों की उम्मीदें इस हिंसा की भीड़ में खो गईं। आखिर किसकी वजह से। ये सवाल जब मन में उठता है तो भारतीय राजनीति का ऐसा विद्रूप चेहरा आंखों के सामने उभरता है कि बस पूछिए मत। जाति, धर्म मजहब और वर्णों में हमारे समाज को बांटने वालों ने भी नहीं सोचा होगा कि हालात इस कदर बेकाबू हो जायेंगे। सत्ता के लालच में चूर हमारे माननीय नित नए राजनीतिक समीकरण तलाशते हैं, नई गोटियां बिठाते हैं, ये सोचने में अपनी जिन्दगी का तमाम वक्त जाया करते हैं कि धर्मों और जातियों में बंटे समाज को अब और किन खाचों में बांटा जाए। उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती दलितों के पत्तों के साथ राजनीतिक बाजी खेलते खेलते थक गईं तो दलित-ब्राह्मण गठजोड़ कर अपना हाथी सत्ता के सिंहासन तक पहुंचाया, सपा मुखिया मुलायम सिंह यादव एम-वाई समीकरण साधते हैं तो चौधरी अजित सिंह किसानों और जाटों को एक छत के नीचे लाने की कसरत करते हैं, किस किस के बारे में लिखूं सभी एक ही कश्ती के सवार हैं। ऐसा ही कुछ राजस्थान की मुख्यमंज्ञी वसुंधरा राजे ने किया। साढ़े तीन साल पहले राजस्थान के मतदाताओं ने मुख्यमंत्री के रूप में वसुंधरा राजे का राजतिलक किया तो उन्होंने उम्मीद की थी कि वे राज्य को एक परिवार की तरह चलाएँगी लेकिन हालात कुछ और ही गवाही देते हैं। इस परिवार में कभी जाति के नाम पर विखंडन हुआ तो कभी सियासत में आवाम को क्षेत्र के नाम पर विभाजित किया गया। अब आरक्षण के नाम पर दो समुदायों में संघर्ष के हालात बन गए हैं। स्थिति बेकाबू हुई तो सरकार ने कहा गूजरों से आरक्षण का कोई वायदा नहीं किया गया था। जबकि गूजर नेता कहते हैं, वसुंधरा राजे मुख्यमंत्री बनने से पहले जब परिवर्तन यात्रा पर गईं थी तो उन्होंने कहा था कि मैं आपकी समधन हूँ और अगर मैं सरकार में आई तो आपको अनुसूचित जनजाति का दर्जा दूंगी। नतीजा आज सामने है, उन्मादी नारे, हिंसक भीड़ और राजमार्गों पर बहता लहू धीरे धीऱे राजस्थान की नियति बनता जा रहा है। एक वर्ग दूसरे वर्ग के खून का प्यासा हो रहा है। क्यों, शायद इसीलिए कि-
जातिवाद ने, प्रांतवाद ने, भाषा ने बांटा है।
वर्ण-भेद के विषधर ने मानव मन को काटा है।
धर्मों और जातियों में बंटे समाज को उसके उत्थान के नाम पर हमारे राजनेताओं ने आरक्षण का जो झुनझुना थमाया वो ऐसा बजा कि उसकी गूंज से देश अब तक दहल रहा है। शिक्षा और नौकरी में आरक्षण के ज़रिए बेहतर सुविधाओं के सपने दिखाकर समाज की तस्वीर बदलने की कोशिश की कीमत आज हम और आप ही चुका रहे हैं और ऐसा करने वाले अपनी इसी कोशिश का राजनीतिक लाभ उठाकर अपनी सेफद खादी को और सफेद कर रहे हैं। इन लोगों ने राष्ट्रीय एकता और अखंडता के सामने कट्टरता, संकीर्णता और स्वार्थवृत्ति का ऐसा जाल बुन दिया है जिससे बचकर निकलना असंभव सा लगने लगा है। हमारे सामने यही चुनौती है कि हम क्षुद्र मानसिकता की गलियों से निकलकर व्यापक द्रष्टिकोण अपनाएं,संयम और सहनशीलता के साथ सदभावना का परिचय दें, आगाह करें सभी राजनीतिक दलों, धार्मिक समूहों और वर्गो को कि सामाजिक स्तर पर विचार न करके मनुष्य के तौर पर मनुष्य के अनिवार्य अधिकारों की प्रभुता को स्वीकार करें और एक उच्च नैतिक आदर्श पेश कर कवि नीरज के शब्दों में एक ऐसे हिन्दुस्तान का निर्माण करें-
अब तो मजहब कोई ऐसा चलाया जाए
जिसमें इंसान को इंसान बनाया जाए
मेरे दु:ख दर्द का तुझ पर हो असर कुछ ऐसा
मैं रहूं भूखा तो तुझसे भी न खाया जाए।
post by-
anil kumar verma
शुक्रवार, 23 मई 2008
मुश्किल में सेना
24 मई 2008
हमारी राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल ने 23 मई यानि शुक्रवार को उत्तरी कश्मीर के बारामुला इलाके का दौरा किया और सीमाओं पर तैनात सेना के जवानों से मुलाकात कर उन दिक्कतों के बारे में जाना जिनसे उन्हें दो-चार होना पड़ता है। इस दौरान राष्ट्रपति ने कहा कि भारतीय सेना के जवान किसी भी घटना से निपटने के लिए हमेशा तैयार रहते हैं और इन लोगों के हाथों में देश की सीमाएं सुरक्षित हैं। मैं यहां ये कहना चाहूंगा कि सेना के जवानों के हाथों में तो हमारा देश और भविष्य सुरक्षित है लेकिन उन सैनिकों का क्या जो अपने परिवारों और उनके भविष्य की चिंता में दिन रात घुले जा रहे हैं और निदान न मिलने पर या तो सेना छोड़कर जा रहे हैं या फिर मौत को गले लगा रहे हैं। सैन्य पृष्ठभूमि से जुड़े विषयों पर बॉलीवुड खासा मेहरबान रहा है। कई फिल्में बनी और कई लेख भी लिखे गए लेकिन आजकल सेना की चर्चा कुछ दूसरी ही वजहों से होती है। दुश्मन देश की सेनाओं के साथ साथ उन्हें एक और दुश्मन तनाव से दिन रात लड़ना पड़ता है। लगातार घर परिवार से दूर रहने और प्रतिकूल परिस्थितियों में काम करने के चलते जवान तनाव और अवसाद से घिर जाते हैं। जब अवसाद का ये गुबार फूटता है तो सामने आता है किसी जवान द्वारा आत्महत्या या फिर अपने ही किसी सहयोगी या अधिकारी की हत्या का मामला।
ऐसी घटनाओं में मारे गए सैनिकों की संख्या को जोड़ें तो पाएँगे कि जितने जवान आतंकवादी हमलों में मारे गए उनसे लगभग दोगुने इन घटनाओं में मरे। मेरे पास ताजा आंकड़े तो मौजूद नहीं हैं लेकिन बात करें 2006 की तो इस साल में 72 सैनिक आतंकवादी हमले में मारे गए, वहीं 102 सैनिकों ने आत्महत्या की, 23 एक-दूसरे की गोली का निशाना बने और नौ ने अंधाधुंध गोलीबारी में अपनी जान गँवाई और इन सबके पीछे जो कारण रहा वो था तनाव। ऐसी घटनाओं से उबरने के लिए सेना ने सैनिकों और अधिकारियों के बीच औपचारिक और अनौपचारिक संवाद को मजबूत करने का काम किया है और अधिकारियों, मनोचिकित्सकों, और धार्मिक शिक्षकों का परामर्श भी लिया है लेकिन इसके अलावा एक और समस्या ने सेना से जवानों का मोहभंग करने का काम शुरू कर दिया है और वो है सेना के मुकाबले कार्पोरेट जगत द्वारा अपने कर्मचारियों को दी जाने वाली भारी भरकम तनख्वाह। प्रतिकूल परिस्थितियों के चलते उपजते तनाव और परिवार की चिंता ने जवानों के साथ सेना के अफसरों को भी कार्पोरेट जगत की ओर खींचना शुरू कर दिया। आलम ये है कि सेना व वायुसेना में करीब 12-12 हजार ऑफिसरों के पद रिक्त हैं और हजारों अधिकारियों ने नौकरी छोड़ने के आवेदन दे रखे हैं। कंपनियां भी डिफेंस के अनुशासित, दक्ष, कुशल व अच्छे प्रबंध जानने वाले अधिकारियों को चार से पांच गुना अधिक तनख्वाह देकर अपने साथ जोड़ने में दिलचस्पी दिखाती हैं। एक नजर डालते हैं सेना द्वारा दी जाने वाली तनख्वाह पर-
कैप्टन- बेसिक 8 हजार, मकान किराए भत्तों सहित 20 हजार
मेजर- बेसिक 12 हजार, भत्तों सहित 27 हजार
कर्नल- बेसिक 16 हजार, भत्तों सहित 35 हजार
जबकि कार्पोरेट जगत से जुड़ा कोई भी शख्स जब अपना कैरियर शुरू करता है तो उसका सैलरी पैकेज इससे कहीं बेहतर होता है। रक्षामंत्री एके एंटोनी भी मानते है कि बेहतर वेतन व सुविधाएं नहीं मिलने की वजह से अधिकारी कॉपोरेट जगत की तरफ आकर्षित हो रहे है। उन्होंने छठे वेतन आयोग में सशस्त्र सेनाओं के लिए बेहतर वेतन पैकेज होने के संकेत दिए थे लेकिन
सेना के अफसर और जवान तो छठे वेतन आयोग की सिफारिशों से नाराज दिखे ही सेना के रिटायर अफसर भी इस सिफारिश से नाखुश दिखाई दिए। अधिकारियों की मानें तो सेना के लिए वेतन निर्धारित करने के लिए गठित वेतन आयोग में सेना को शामिल नहीं किया गया। ऐसे में किसी भी तरह की उम्मीद करना बेकार है। एयरकंडिशनरों में बैठ कर सेना की जमीनी हकीकत नहीं समझी जा सकती। आजादी के पहले से सेना सरहदों की रक्षा कर रही है। इसके बावजूद हर वेतन आयोग में उसकी अनदेखी होती रही है। इनका कहना है कि कॉमन पे स्केल सभी जवानों के लिए लागू होना चाहिए। वेतन आयोग ने1 जनवरी 2006 से पहले के भर्ती पीबीओआर के लिए इसे लागू नहीं किया है। वेतन आयोग ने जवानों के लिए एशोर्ड करिअर प्रोग्रेशन (एसीपी) 10 और 20 साल निर्धारित की है, जबकि सिपाही 17 साल की सर्विस के बाद रिटायर हो जाता है। रैंक पे को ग्रेड पे में शामिल नहीं किया गया, इससे अफसरों के लाभ ओर कम हो जाएंगे। मिल्ट्री सर्विस पे (एमएसपी) को वेतन में शामिल नहीं किया गया। ये सब कुछ लिखने का मेरा मकसद इतना ही है कि राष्ट्रपति ने जवानों की उन दिक्कतों को तो समझा जिनसे वे सीमा पर दो चार होते हैं लेकिन उन्हें और भारत सरकार को उनके बेहतर पैकेज की तलाश कोभी समझना होगा और कुछ ऐसा करना होगा जिससे सेना में उनके घटते रुझान को बढ़ाया जा सके।
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anil kumar verma
हमारी राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल ने 23 मई यानि शुक्रवार को उत्तरी कश्मीर के बारामुला इलाके का दौरा किया और सीमाओं पर तैनात सेना के जवानों से मुलाकात कर उन दिक्कतों के बारे में जाना जिनसे उन्हें दो-चार होना पड़ता है। इस दौरान राष्ट्रपति ने कहा कि भारतीय सेना के जवान किसी भी घटना से निपटने के लिए हमेशा तैयार रहते हैं और इन लोगों के हाथों में देश की सीमाएं सुरक्षित हैं। मैं यहां ये कहना चाहूंगा कि सेना के जवानों के हाथों में तो हमारा देश और भविष्य सुरक्षित है लेकिन उन सैनिकों का क्या जो अपने परिवारों और उनके भविष्य की चिंता में दिन रात घुले जा रहे हैं और निदान न मिलने पर या तो सेना छोड़कर जा रहे हैं या फिर मौत को गले लगा रहे हैं। सैन्य पृष्ठभूमि से जुड़े विषयों पर बॉलीवुड खासा मेहरबान रहा है। कई फिल्में बनी और कई लेख भी लिखे गए लेकिन आजकल सेना की चर्चा कुछ दूसरी ही वजहों से होती है। दुश्मन देश की सेनाओं के साथ साथ उन्हें एक और दुश्मन तनाव से दिन रात लड़ना पड़ता है। लगातार घर परिवार से दूर रहने और प्रतिकूल परिस्थितियों में काम करने के चलते जवान तनाव और अवसाद से घिर जाते हैं। जब अवसाद का ये गुबार फूटता है तो सामने आता है किसी जवान द्वारा आत्महत्या या फिर अपने ही किसी सहयोगी या अधिकारी की हत्या का मामला।
ऐसी घटनाओं में मारे गए सैनिकों की संख्या को जोड़ें तो पाएँगे कि जितने जवान आतंकवादी हमलों में मारे गए उनसे लगभग दोगुने इन घटनाओं में मरे। मेरे पास ताजा आंकड़े तो मौजूद नहीं हैं लेकिन बात करें 2006 की तो इस साल में 72 सैनिक आतंकवादी हमले में मारे गए, वहीं 102 सैनिकों ने आत्महत्या की, 23 एक-दूसरे की गोली का निशाना बने और नौ ने अंधाधुंध गोलीबारी में अपनी जान गँवाई और इन सबके पीछे जो कारण रहा वो था तनाव। ऐसी घटनाओं से उबरने के लिए सेना ने सैनिकों और अधिकारियों के बीच औपचारिक और अनौपचारिक संवाद को मजबूत करने का काम किया है और अधिकारियों, मनोचिकित्सकों, और धार्मिक शिक्षकों का परामर्श भी लिया है लेकिन इसके अलावा एक और समस्या ने सेना से जवानों का मोहभंग करने का काम शुरू कर दिया है और वो है सेना के मुकाबले कार्पोरेट जगत द्वारा अपने कर्मचारियों को दी जाने वाली भारी भरकम तनख्वाह। प्रतिकूल परिस्थितियों के चलते उपजते तनाव और परिवार की चिंता ने जवानों के साथ सेना के अफसरों को भी कार्पोरेट जगत की ओर खींचना शुरू कर दिया। आलम ये है कि सेना व वायुसेना में करीब 12-12 हजार ऑफिसरों के पद रिक्त हैं और हजारों अधिकारियों ने नौकरी छोड़ने के आवेदन दे रखे हैं। कंपनियां भी डिफेंस के अनुशासित, दक्ष, कुशल व अच्छे प्रबंध जानने वाले अधिकारियों को चार से पांच गुना अधिक तनख्वाह देकर अपने साथ जोड़ने में दिलचस्पी दिखाती हैं। एक नजर डालते हैं सेना द्वारा दी जाने वाली तनख्वाह पर-
कैप्टन- बेसिक 8 हजार, मकान किराए भत्तों सहित 20 हजार
मेजर- बेसिक 12 हजार, भत्तों सहित 27 हजार
कर्नल- बेसिक 16 हजार, भत्तों सहित 35 हजार
जबकि कार्पोरेट जगत से जुड़ा कोई भी शख्स जब अपना कैरियर शुरू करता है तो उसका सैलरी पैकेज इससे कहीं बेहतर होता है। रक्षामंत्री एके एंटोनी भी मानते है कि बेहतर वेतन व सुविधाएं नहीं मिलने की वजह से अधिकारी कॉपोरेट जगत की तरफ आकर्षित हो रहे है। उन्होंने छठे वेतन आयोग में सशस्त्र सेनाओं के लिए बेहतर वेतन पैकेज होने के संकेत दिए थे लेकिन
सेना के अफसर और जवान तो छठे वेतन आयोग की सिफारिशों से नाराज दिखे ही सेना के रिटायर अफसर भी इस सिफारिश से नाखुश दिखाई दिए। अधिकारियों की मानें तो सेना के लिए वेतन निर्धारित करने के लिए गठित वेतन आयोग में सेना को शामिल नहीं किया गया। ऐसे में किसी भी तरह की उम्मीद करना बेकार है। एयरकंडिशनरों में बैठ कर सेना की जमीनी हकीकत नहीं समझी जा सकती। आजादी के पहले से सेना सरहदों की रक्षा कर रही है। इसके बावजूद हर वेतन आयोग में उसकी अनदेखी होती रही है। इनका कहना है कि कॉमन पे स्केल सभी जवानों के लिए लागू होना चाहिए। वेतन आयोग ने1 जनवरी 2006 से पहले के भर्ती पीबीओआर के लिए इसे लागू नहीं किया है। वेतन आयोग ने जवानों के लिए एशोर्ड करिअर प्रोग्रेशन (एसीपी) 10 और 20 साल निर्धारित की है, जबकि सिपाही 17 साल की सर्विस के बाद रिटायर हो जाता है। रैंक पे को ग्रेड पे में शामिल नहीं किया गया, इससे अफसरों के लाभ ओर कम हो जाएंगे। मिल्ट्री सर्विस पे (एमएसपी) को वेतन में शामिल नहीं किया गया। ये सब कुछ लिखने का मेरा मकसद इतना ही है कि राष्ट्रपति ने जवानों की उन दिक्कतों को तो समझा जिनसे वे सीमा पर दो चार होते हैं लेकिन उन्हें और भारत सरकार को उनके बेहतर पैकेज की तलाश कोभी समझना होगा और कुछ ऐसा करना होगा जिससे सेना में उनके घटते रुझान को बढ़ाया जा सके।
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anil kumar verma
गुर्जरों पर भारी आरुषि
24 मई 2008
अगर किसी से आज ये पूछा जाए कि कल यानि शुक्रवार को हिन्दुस्तान में वो कौन सी खबरें थीं जो सुर्खियों में रहीं तो निसन्देह अपने जवाब में वो पहले नोएडा के आरुषि-हेमराज हत्याकांड का नाम लेगा उसके बाद राजस्थान में आरक्षण को लेकर गुर्जरों द्वारा एक बार फिर की गई हिंसा की बात करेगा। बात करें मीडिया की तो उसके लिए तो कल मानो दुनिया ही थम गई थी। शाम को जैसे ही नोएडा के चर्चित आरुषि-हेमराज दोहरे हत्याकांड का खुलासा हुआ पूरा मीडिया जगत उस खबर की कवरेज के लिए ठीक उसी तरह टूट पड़ा जैसे चींटों का झुंड किसी गुड़ के धेले पर टूट पड़ता है। इस खबर के चक्कर में अपने आत्मसम्मान के लिए सड़को पर खून बहाने को आतुर शासन के खिलाफ मोर्चा खोलने वाले गुर्जरों की वो लड़ाई फीकी पड़ गई जिसमें 16 लोगों को अपनी जान से हाथ धोना पड़ा। वाहनों में तोड़फोड़ और आगजनी के बीच कई मांओं की गोद सूनी हो गई। पुलिस के जवानों की पिटाई हुई, ट्रेनें रोक दी गईं बात कर्फ्यू तक जा पहुंची लेकिन बावजूद इसके मीडिया का ध्यान नोएडा पर ही केंद्रित रहा। बीते एक साल में गुर्जरों ने आरक्षण की इसी मांग को लेकर कई बार हंगामा किया और देश के दूसरे कई राज्य भी उनके इस आंदोलन की आंच में झुलसे। इससे पहले मई 2007 में जब गुर्जर समाज सड़कों पर उतरा था तो मीडिया जगत के लिए उससे बड़ी कोई खबर नहीं थी और हर तरफ गुर्जरों के ही आंदोलन की चर्चा थी। शायद इसलिए क्योंकि उस वक्त अपने अनैतिक संबंधों को छुपाने के लिए किसी बाप ने अपनी मासूम बेटी की गला रेतकर हत्या नहीं की थी, जैसा कि इस बार हुआ। नोएडा में हुए आरुषि हत्याकांड ने गुर्जरों के आंदोलन की आग को ठण्डा कर दिया। अखबारों का मुख्य पृष्ठ हो या फिर कोई न्यूज चैनल हर जगह एक ही चर्चा थी, एक बाप ने अपनी बेटी की इसलिए हत्या कर दी क्योंकि वो उसके अनैतिक संबंधों के बारे में जान गई थी और उसका विरोध करती थी। इस हत्याकांड में आरुषि के पिता का हाथ होने की बात ही वो खास बिन्दु था जिसके चलते ये घटना अहम हो गई। उस पर जब ये खुलासा हुआ कि ये ऑनर किंलिंग थी तो फिर मामले ने बहस का रुप ले लिया। ऐसा नहीं था कि किसी बाप ने पहली बार अपनी बेटी का कत्ल किया था और ऐसा भी नहीं था कि पहली बार किसी 14 साल की बच्ची की हत्या हुई थी लेकिन इससे पहले हुई उन घटनाओं पर ये घटना इसलिए भारी पड रही थी क्योंकि इस कत्ल के पीछे जो उद्देश्य था वो समाज की उस तस्वीर को पेश कर रहा था जो हद से ज्यादा विकृत हो चली है। एक बाप अपनी उस 14 साल की बेटी के सामने वो हरकतें कर रहा था जिसे उसके गुरुओं और किताबों ने अनैतिक की संज्ञा दे रखी थी। उम्र के उस दौर में जब आरुषि को सबसे ज्यादा अपने माता पिता के मार्गदर्शन की ज़रूरत थी ऐसे में घर के माहौल में घुले अनैतिक रिश्तों के ज़हर ने उसकी जिन्दगी को निगल लिया। इस घटना से जुडी सभी कड़ियों को जोड़ने पर एक ऐसे समाज का अक्स उभरता है जो खुद को आईना दिखाना पसंद नहीं करता। आरुषि कुछ ऐसा ही करती थी। अपने पिता द्वारा नैतिकता के उल्लंघन का विरोध उसे मौत के मुहाने तक ले गया। मेरे मुताबिक यही वो वजह थी जिसने गुर्जर आंदोलन की खबर को निगल लिया। आज आरुषि हत्याकांड से उबरकर मीडिया गुर्जरों पर भले ही फोकस करेगा लेकिन सच यही है कि एक तयशुदा ढांचे में जीने वाला समाज जब अपनी वर्जनाओं को टूटते देखता है तो जड़ हो जाता है और इसीलिए मीडिया ने गुर्जर आंदोलन को छोड़ आरूषि हत्याकांड को प्रमुखता दी और लोग टेलीविजन से चिपके नजर आए।
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anil kumar verma
अगर किसी से आज ये पूछा जाए कि कल यानि शुक्रवार को हिन्दुस्तान में वो कौन सी खबरें थीं जो सुर्खियों में रहीं तो निसन्देह अपने जवाब में वो पहले नोएडा के आरुषि-हेमराज हत्याकांड का नाम लेगा उसके बाद राजस्थान में आरक्षण को लेकर गुर्जरों द्वारा एक बार फिर की गई हिंसा की बात करेगा। बात करें मीडिया की तो उसके लिए तो कल मानो दुनिया ही थम गई थी। शाम को जैसे ही नोएडा के चर्चित आरुषि-हेमराज दोहरे हत्याकांड का खुलासा हुआ पूरा मीडिया जगत उस खबर की कवरेज के लिए ठीक उसी तरह टूट पड़ा जैसे चींटों का झुंड किसी गुड़ के धेले पर टूट पड़ता है। इस खबर के चक्कर में अपने आत्मसम्मान के लिए सड़को पर खून बहाने को आतुर शासन के खिलाफ मोर्चा खोलने वाले गुर्जरों की वो लड़ाई फीकी पड़ गई जिसमें 16 लोगों को अपनी जान से हाथ धोना पड़ा। वाहनों में तोड़फोड़ और आगजनी के बीच कई मांओं की गोद सूनी हो गई। पुलिस के जवानों की पिटाई हुई, ट्रेनें रोक दी गईं बात कर्फ्यू तक जा पहुंची लेकिन बावजूद इसके मीडिया का ध्यान नोएडा पर ही केंद्रित रहा। बीते एक साल में गुर्जरों ने आरक्षण की इसी मांग को लेकर कई बार हंगामा किया और देश के दूसरे कई राज्य भी उनके इस आंदोलन की आंच में झुलसे। इससे पहले मई 2007 में जब गुर्जर समाज सड़कों पर उतरा था तो मीडिया जगत के लिए उससे बड़ी कोई खबर नहीं थी और हर तरफ गुर्जरों के ही आंदोलन की चर्चा थी। शायद इसलिए क्योंकि उस वक्त अपने अनैतिक संबंधों को छुपाने के लिए किसी बाप ने अपनी मासूम बेटी की गला रेतकर हत्या नहीं की थी, जैसा कि इस बार हुआ। नोएडा में हुए आरुषि हत्याकांड ने गुर्जरों के आंदोलन की आग को ठण्डा कर दिया। अखबारों का मुख्य पृष्ठ हो या फिर कोई न्यूज चैनल हर जगह एक ही चर्चा थी, एक बाप ने अपनी बेटी की इसलिए हत्या कर दी क्योंकि वो उसके अनैतिक संबंधों के बारे में जान गई थी और उसका विरोध करती थी। इस हत्याकांड में आरुषि के पिता का हाथ होने की बात ही वो खास बिन्दु था जिसके चलते ये घटना अहम हो गई। उस पर जब ये खुलासा हुआ कि ये ऑनर किंलिंग थी तो फिर मामले ने बहस का रुप ले लिया। ऐसा नहीं था कि किसी बाप ने पहली बार अपनी बेटी का कत्ल किया था और ऐसा भी नहीं था कि पहली बार किसी 14 साल की बच्ची की हत्या हुई थी लेकिन इससे पहले हुई उन घटनाओं पर ये घटना इसलिए भारी पड रही थी क्योंकि इस कत्ल के पीछे जो उद्देश्य था वो समाज की उस तस्वीर को पेश कर रहा था जो हद से ज्यादा विकृत हो चली है। एक बाप अपनी उस 14 साल की बेटी के सामने वो हरकतें कर रहा था जिसे उसके गुरुओं और किताबों ने अनैतिक की संज्ञा दे रखी थी। उम्र के उस दौर में जब आरुषि को सबसे ज्यादा अपने माता पिता के मार्गदर्शन की ज़रूरत थी ऐसे में घर के माहौल में घुले अनैतिक रिश्तों के ज़हर ने उसकी जिन्दगी को निगल लिया। इस घटना से जुडी सभी कड़ियों को जोड़ने पर एक ऐसे समाज का अक्स उभरता है जो खुद को आईना दिखाना पसंद नहीं करता। आरुषि कुछ ऐसा ही करती थी। अपने पिता द्वारा नैतिकता के उल्लंघन का विरोध उसे मौत के मुहाने तक ले गया। मेरे मुताबिक यही वो वजह थी जिसने गुर्जर आंदोलन की खबर को निगल लिया। आज आरुषि हत्याकांड से उबरकर मीडिया गुर्जरों पर भले ही फोकस करेगा लेकिन सच यही है कि एक तयशुदा ढांचे में जीने वाला समाज जब अपनी वर्जनाओं को टूटते देखता है तो जड़ हो जाता है और इसीलिए मीडिया ने गुर्जर आंदोलन को छोड़ आरूषि हत्याकांड को प्रमुखता दी और लोग टेलीविजन से चिपके नजर आए।
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anil kumar verma
गुरुवार, 22 मई 2008
दंगे और हिन्दुस्तान
23मई 2008
गुरूवार को देश में कांग्रेस के नेतृत्व वाली संप्रग सरकार ने अपने चार साल पूरे कर लिए। खट्टे मीठे अनुभवों के बीच जहां गठबंधन को एक टीम के रूप में तो प्रधानमंत्री डॉ.मनमोहन सिंह को एक कुशल अर्थशास्त्री के रूप में और सोनियां गांधी को एक जननेता के रूप में पेश किया गया। इन चार सालों में सरकार ने रोज़गार गारंटी योजना, सूचना का अधिकार, किसानों के लिए 60 हज़ार करोड़ रुपए के कर्ज़ की माफ़ी की घोषणाएँ कर जनता के बीच छाप छोड़ने की कोशिश की तो सच्चर आयोग का गठन कर और अन्य पिछड़ा वर्ग के लिए उच्च शिक्षण संस्थाओं में आरक्षण की कवायद छेड़कर उन्हें ये विश्वास दिलाने में मदद की कि वास्तव में कांग्रेस का हाथ आम आदमी के साथ है। हालांकि परमाणु करार जैसे तमाम मुद्दों पर सरकार के सहयोगी वामदलों और विपक्ष के साथ उनका तालमेल गड़बड़ाता नजर आया और संप्रग सरकार को आलोचनाओं का सामना करना पड़ा लेकिन इसी बीच सरकार ने एक और अहम फैसला लेकर सत्ता के गलियारों में चर्चा का माहौल बना दिया है। सरकार ने साल 2002 में गुजरात में हुए दंगों के दौरान पीड़ित हुए परिवार के लोगों के लिए 3.32 अरब रुपए के मुआवजे की घोषणा की है। वित्तमंत्री पी. चिदंबरम ने पत्रकारों से बातचीत में कहा कि गुजरात दंगे में जिन 1,169 लोगों की जानें गई हैं उनके परिवारों को प्रति परिवार तीन लाख पचास हजार रुपये की दर से मुआवजा दिया जाएगा। इस तरह मुआवजे के तौर पर कुल 40.19 करोड़ रुपये की राशि का वितरण किया जाएगा। उल्लेखनीय है कि गोधरा रेलवे स्टेशन के निकट साबरमती एक्सप्रेस में एक हिंसक भीड़ द्वारा 59 हिंदुओं को जलाकर मार देने के बाद गुजरात में साम्प्रदायिक दंगे भड़क उठे थे। इन दंगों में एक हजार से अधिक लोग मारे गए थे। छह साल के बाद सरकार के इस कदम ने राजनीतिक विश्लेषकों को अपना दिमाग चलाने के लिए मजबूर कर दिया है। आने वाले समय में मध्य प्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़, और नई दिल्ली समेत देश के तमाम राज्यों में चुनाव तो होने ही हैं साथ ही लोकसभा चुनावों की आहट भी सुनाई दे रही है। ऐसे में पहली नजर में यूपीए सरकार द्वारा गुजरात दंगा पीड़ितों के लिए की गई राह्त पैकेज की घोषणा महज चुनावी द्रष्टिकोण से उठाय़ा गया कदम ही लगता है। हालांकि ये कहना अभी जल्दबाजी होगी कि इस फैसले के चलते उसे बड़ा राजनीतिक लाभ मिलने जा रहा है क्योंकि गुजरात विधानसभा चुनाव में मोदी सरकार की खिलाफत में बजाया गया इसी दंगे का बिगुल कोई गुल नहीं खिला सका था। मोदी मंत्र फिर चला था और कमल निखरकर खिला था। बहरहाल ये तो हो गया राजनीतिक द्रष्टिकोण, बात करें गुजरात दंगे में मारे गए उन परिवारों की तो इस घोषणा के बाद देर से ही सही उनके ज़ख्मों पर मरहम ज़रूर लगेगा। बात गुजरात दंगे की चली है तो मैं यहा ये सवाल भी उठाना चाहूंगा कि आखिर हम धर्म और मजहब के नाम पर आपस में उलझकर राजनीतिक दलों को ये मौका कब तक देते रहेंगे कि वो हमारी और हमारे प्रियजनों की लाशों पर अपने फायदे की रोटियां सेंक सकें। सांप्रदायिक तनाव की स्थिति आज भी देश में सर्वाधिक चिंतनीय है। देश में संप्रदाय के नाम पर लोगों को आपस में खूब लड़ाया जाता है। राजनैतिक दल एवं राजनेता स्वयं जातिवाद या सांप्रदायवाद के प्रतीक बन गए हैं। आज हर वर्ष देश के कुछ भागों में सांप्रदायिक दंगे का भड़क जाना और सैकड़ों बेगुनाहों का खून बह जाना, सामान्य बात हो गई है। आखिर हम कबीर दास जी की इन पंक्तियों को अपने जीवन में कब उतारेंगे कि-
काशी-काबा एक है,एकै राम-रहीम।
मैदा एक पकवान बहु,बैठ कबीरा जीम॥
आप सोच रहे होंगे राजनीति की बात करते करते ये अचानक मेरा लहजा उपदेशात्मक क्यों और कैसे हो गया। दरअसल राजनीतिक नजरिए से बात को इसलिए शुरू किया क्योंकि दंगों की बात लिखते, सुनते और कहते हुए भी डर लगता है। बहाना मिला तो कह रहा हूं क्योंकि देश में हालात अभी भी बहुंत अच्छे नहीं है। इंसानियत के दुश्मन अपना नापाक मंसूबों की कामयाबी के लिए मौके ढूंढ रहे हैं और हमारी सोच उन्हें अवसर भी दे रही है। हालात ऐसे हैं कि अब तो मौत को भी इन दंगाइयों से डर लगने लगा होगा। यहां किसी कवि की ये कविता कहना चाहूंगा -
शहर में दंगा और दंगे के बाद कर्फ्यू
स्थिति तनावपूर्ण लेकिन नियंत्रण में
कुछ कुछ ऐसा ही था समाचारों में
सुबह के सात बज गए थे
अखबार वाला भी आया नहीं
तभी किसी के पदचापों का स्वर
और फिर खटखट की आवाज
सोचा चलो अखबार तो आया
लेकिन दरवाजों पर उभरी आकृति ने
मुझको चौंकाया
वह नारी थी
सांस उसकी इतनी तेज कि
जैसे उसे किसी ने दूर तक भगाया हो
मैं सोच ही रहा था कि कौन है ये
पहले ही वह बोल उठी मैं
मैं हूं मौत, हां मौत
मैं चीखा मौत
भाग जाओ यहां से
अब तक तूने कितने ही
निर्दोषों का खून पिया है
अब मुझे लेने आई है
पर वह क्षमा याचना स्वर में बोली
तुम बचा लो
मुझे डर लग रहा है
डर, हा-हा-हा मैं हंसा और बोला
क्या मौत को भी डर लगता है
किससे
जवाब था हां,
दंगाइयों और कर्फ्यू से....ये लिखने का मेरा मकसद यही है कि अब भी वक्त है हमें सचेतना होगा और अपने अतीत से सीखकर वर्तमान को संभालना होगा। तभी एक विकसित और खुशहाल हिन्दुस्तान बने सकेगा।
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anil kumar verma
गुरूवार को देश में कांग्रेस के नेतृत्व वाली संप्रग सरकार ने अपने चार साल पूरे कर लिए। खट्टे मीठे अनुभवों के बीच जहां गठबंधन को एक टीम के रूप में तो प्रधानमंत्री डॉ.मनमोहन सिंह को एक कुशल अर्थशास्त्री के रूप में और सोनियां गांधी को एक जननेता के रूप में पेश किया गया। इन चार सालों में सरकार ने रोज़गार गारंटी योजना, सूचना का अधिकार, किसानों के लिए 60 हज़ार करोड़ रुपए के कर्ज़ की माफ़ी की घोषणाएँ कर जनता के बीच छाप छोड़ने की कोशिश की तो सच्चर आयोग का गठन कर और अन्य पिछड़ा वर्ग के लिए उच्च शिक्षण संस्थाओं में आरक्षण की कवायद छेड़कर उन्हें ये विश्वास दिलाने में मदद की कि वास्तव में कांग्रेस का हाथ आम आदमी के साथ है। हालांकि परमाणु करार जैसे तमाम मुद्दों पर सरकार के सहयोगी वामदलों और विपक्ष के साथ उनका तालमेल गड़बड़ाता नजर आया और संप्रग सरकार को आलोचनाओं का सामना करना पड़ा लेकिन इसी बीच सरकार ने एक और अहम फैसला लेकर सत्ता के गलियारों में चर्चा का माहौल बना दिया है। सरकार ने साल 2002 में गुजरात में हुए दंगों के दौरान पीड़ित हुए परिवार के लोगों के लिए 3.32 अरब रुपए के मुआवजे की घोषणा की है। वित्तमंत्री पी. चिदंबरम ने पत्रकारों से बातचीत में कहा कि गुजरात दंगे में जिन 1,169 लोगों की जानें गई हैं उनके परिवारों को प्रति परिवार तीन लाख पचास हजार रुपये की दर से मुआवजा दिया जाएगा। इस तरह मुआवजे के तौर पर कुल 40.19 करोड़ रुपये की राशि का वितरण किया जाएगा। उल्लेखनीय है कि गोधरा रेलवे स्टेशन के निकट साबरमती एक्सप्रेस में एक हिंसक भीड़ द्वारा 59 हिंदुओं को जलाकर मार देने के बाद गुजरात में साम्प्रदायिक दंगे भड़क उठे थे। इन दंगों में एक हजार से अधिक लोग मारे गए थे। छह साल के बाद सरकार के इस कदम ने राजनीतिक विश्लेषकों को अपना दिमाग चलाने के लिए मजबूर कर दिया है। आने वाले समय में मध्य प्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़, और नई दिल्ली समेत देश के तमाम राज्यों में चुनाव तो होने ही हैं साथ ही लोकसभा चुनावों की आहट भी सुनाई दे रही है। ऐसे में पहली नजर में यूपीए सरकार द्वारा गुजरात दंगा पीड़ितों के लिए की गई राह्त पैकेज की घोषणा महज चुनावी द्रष्टिकोण से उठाय़ा गया कदम ही लगता है। हालांकि ये कहना अभी जल्दबाजी होगी कि इस फैसले के चलते उसे बड़ा राजनीतिक लाभ मिलने जा रहा है क्योंकि गुजरात विधानसभा चुनाव में मोदी सरकार की खिलाफत में बजाया गया इसी दंगे का बिगुल कोई गुल नहीं खिला सका था। मोदी मंत्र फिर चला था और कमल निखरकर खिला था। बहरहाल ये तो हो गया राजनीतिक द्रष्टिकोण, बात करें गुजरात दंगे में मारे गए उन परिवारों की तो इस घोषणा के बाद देर से ही सही उनके ज़ख्मों पर मरहम ज़रूर लगेगा। बात गुजरात दंगे की चली है तो मैं यहा ये सवाल भी उठाना चाहूंगा कि आखिर हम धर्म और मजहब के नाम पर आपस में उलझकर राजनीतिक दलों को ये मौका कब तक देते रहेंगे कि वो हमारी और हमारे प्रियजनों की लाशों पर अपने फायदे की रोटियां सेंक सकें। सांप्रदायिक तनाव की स्थिति आज भी देश में सर्वाधिक चिंतनीय है। देश में संप्रदाय के नाम पर लोगों को आपस में खूब लड़ाया जाता है। राजनैतिक दल एवं राजनेता स्वयं जातिवाद या सांप्रदायवाद के प्रतीक बन गए हैं। आज हर वर्ष देश के कुछ भागों में सांप्रदायिक दंगे का भड़क जाना और सैकड़ों बेगुनाहों का खून बह जाना, सामान्य बात हो गई है। आखिर हम कबीर दास जी की इन पंक्तियों को अपने जीवन में कब उतारेंगे कि-
काशी-काबा एक है,एकै राम-रहीम।
मैदा एक पकवान बहु,बैठ कबीरा जीम॥
आप सोच रहे होंगे राजनीति की बात करते करते ये अचानक मेरा लहजा उपदेशात्मक क्यों और कैसे हो गया। दरअसल राजनीतिक नजरिए से बात को इसलिए शुरू किया क्योंकि दंगों की बात लिखते, सुनते और कहते हुए भी डर लगता है। बहाना मिला तो कह रहा हूं क्योंकि देश में हालात अभी भी बहुंत अच्छे नहीं है। इंसानियत के दुश्मन अपना नापाक मंसूबों की कामयाबी के लिए मौके ढूंढ रहे हैं और हमारी सोच उन्हें अवसर भी दे रही है। हालात ऐसे हैं कि अब तो मौत को भी इन दंगाइयों से डर लगने लगा होगा। यहां किसी कवि की ये कविता कहना चाहूंगा -
शहर में दंगा और दंगे के बाद कर्फ्यू
स्थिति तनावपूर्ण लेकिन नियंत्रण में
कुछ कुछ ऐसा ही था समाचारों में
सुबह के सात बज गए थे
अखबार वाला भी आया नहीं
तभी किसी के पदचापों का स्वर
और फिर खटखट की आवाज
सोचा चलो अखबार तो आया
लेकिन दरवाजों पर उभरी आकृति ने
मुझको चौंकाया
वह नारी थी
सांस उसकी इतनी तेज कि
जैसे उसे किसी ने दूर तक भगाया हो
मैं सोच ही रहा था कि कौन है ये
पहले ही वह बोल उठी मैं
मैं हूं मौत, हां मौत
मैं चीखा मौत
भाग जाओ यहां से
अब तक तूने कितने ही
निर्दोषों का खून पिया है
अब मुझे लेने आई है
पर वह क्षमा याचना स्वर में बोली
तुम बचा लो
मुझे डर लग रहा है
डर, हा-हा-हा मैं हंसा और बोला
क्या मौत को भी डर लगता है
किससे
जवाब था हां,
दंगाइयों और कर्फ्यू से....ये लिखने का मेरा मकसद यही है कि अब भी वक्त है हमें सचेतना होगा और अपने अतीत से सीखकर वर्तमान को संभालना होगा। तभी एक विकसित और खुशहाल हिन्दुस्तान बने सकेगा।
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anil kumar verma
हाल-ए-नोएडा
22मई 2008
दिल्ली से सटा उत्तर प्रदेश का जिला गौतमबुद्दनगर यानि नोएडा किसी परिचय का मोहताज नहीं है। 203 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में फैले पांच लाख की आबादी वाले इस जिले में कारोबार की अपार संभावनाएं युवाओं से लेकर हर वर्ग के लोगों को अपनी ओर खींच रहा है। बात रिहाइश की हो यो फिर रोजगार की राजधानी दिल्ली को भी ये शहर मात देता नजर आ रहा है लेकिन इन अच्छाइयों के साथ साथ इस शहर में कुछ बुराइयां भी पल रही है। मैं सभी तो नहीं हां कानून व्यवस्था की बात ज़रूर करूंगा। नोएडा का निठारी कांड हो या फिर भूमि आंबटन घोटाला, अनंत आपहरण कांड हो या फिर आए दिन ब्लू लाइन के पहियों तले कुचले जाते लोगों की व्यथा ये शहर अखबारों से लेकर इलेक्ट्रानिक मीडिया तक के लिए खास तवज्जो का केंद्र रहा है। इधर बीते कुछ महीनों से सपनों के इस शहर में हत्याओ का सिलसिला सा चल पड़ा है। बीती 18 मार्च को हुई स्टील अथॉरिटी ऑफ इंडिया के एक वरिष्ठ अधिकारी की हत्या के बाद आजकल नोएडा सेक्टर 25 में हुए दोहरे हत्याकाण्ड को लेकर एक बार फिर से चर्चा में है। डीपीएस की कक्षा नौ की छात्रा आऱुषि तलवार और उसके नौकर हेमराज की हत्या पुलिस के लिए जहां एक चुनौती बनकर सामने खड़ी है वहीं प्रदेश सरकार भी इस मामले को लेकर सवालों के कठघरे में खड़ी नजर आ रही है। घटना की सूचना के बाद मौके पर पहुंची पुलिस अपनी कार्यशैली को लेकर मीडिया के निशाने पर रही। लापरवाही के आरोप में जिले के पुलिस कप्तान और इलाके के थानाध्यक्ष के तबादले तक कर दिए गए लेकिन बावजूद इसके अभी तक हत्यारे पुलिस की गिरफ्त से दूर हैं। अब नोएडा पुलिस ने इस हत्याकांड के खुलासे में मदद के लिए दिल्ली पुलिस की क्राइम ब्रांच से संपर्क साधा है। उधर इस हत्याकांड के बाद मुख्यमंत्री मायावती एक बार जिले का दौरा भी कर गईं लेकिन उन्होंने तो इस मामले पर कुछ बोलने से ही मना कर दिया। हालांकि उन्होंने जन समस्याओं के निराकरण के लिए अधिकारियों की क्लास ज़रूर लगाई लेकिन कानून व्यवस्था को लेकर फिलहाल उन्होंने कुछ भी नहीं कहा। उनके इस बर्ताव पर मुझे तो किसी कवि द्वारा कही गई ये पंक्तियां एकदम सटीक लगती हैं-
तुम्हारे शहर में कुछ भी हुआ नहीं है क्या
कि तुमने चीखों को सचमुच सुना नहीं है क्या
मैं इक ज़माने से हैरान हूँ कि हाकिम-ए-शहर
जो हो रहा है उसे देखता नहीं है क्या
हालांकि नोएडा एक और वजह से खासा चर्चा में है और वो है यहां लगातार ज़मीनों की कीमत मे लगातार हो रही बढोतरी। नोएडा विकास प्राधिकरण ने जमीन के दामों में 70 से 80 फीसदी का अप्रत्याशित इजाफा किया है। ग्रेटर नोएडा में आवासीय भूखंडो की दरों को 5900 रुपये से बढ़ाकर 10,500 रुपये प्रति वर्ग मीटर,संस्थागत श्रेणी के भूंखडों के दाम 2800 रुपये से बढ़ाकर 6000 रुपये प्रति वर्ग मीटर और कामर्शियल श्रेणी में 12,000 रुपये से 20,000 रुपये प्रति वर्ग मीटर कर दिये गये है। कह सकते हैं कि अब नोएडा में आम आदमी के लिए मकान खरीदने का सपना भी हाथी पालने के बराबर हो गया है। बदहाल कानून व्यवस्था और आसमान छूती ज़मीन की कीमतों के साथ साथ पीने के पानी की समस्या और बिजली की आंख मिचौली के बीच लोग अपने सपनों में हकीकत का रंग भरने के लिए इस शहर की और दौडे चले आ रहे हैं।
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anil kumar verma
दिल्ली से सटा उत्तर प्रदेश का जिला गौतमबुद्दनगर यानि नोएडा किसी परिचय का मोहताज नहीं है। 203 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में फैले पांच लाख की आबादी वाले इस जिले में कारोबार की अपार संभावनाएं युवाओं से लेकर हर वर्ग के लोगों को अपनी ओर खींच रहा है। बात रिहाइश की हो यो फिर रोजगार की राजधानी दिल्ली को भी ये शहर मात देता नजर आ रहा है लेकिन इन अच्छाइयों के साथ साथ इस शहर में कुछ बुराइयां भी पल रही है। मैं सभी तो नहीं हां कानून व्यवस्था की बात ज़रूर करूंगा। नोएडा का निठारी कांड हो या फिर भूमि आंबटन घोटाला, अनंत आपहरण कांड हो या फिर आए दिन ब्लू लाइन के पहियों तले कुचले जाते लोगों की व्यथा ये शहर अखबारों से लेकर इलेक्ट्रानिक मीडिया तक के लिए खास तवज्जो का केंद्र रहा है। इधर बीते कुछ महीनों से सपनों के इस शहर में हत्याओ का सिलसिला सा चल पड़ा है। बीती 18 मार्च को हुई स्टील अथॉरिटी ऑफ इंडिया के एक वरिष्ठ अधिकारी की हत्या के बाद आजकल नोएडा सेक्टर 25 में हुए दोहरे हत्याकाण्ड को लेकर एक बार फिर से चर्चा में है। डीपीएस की कक्षा नौ की छात्रा आऱुषि तलवार और उसके नौकर हेमराज की हत्या पुलिस के लिए जहां एक चुनौती बनकर सामने खड़ी है वहीं प्रदेश सरकार भी इस मामले को लेकर सवालों के कठघरे में खड़ी नजर आ रही है। घटना की सूचना के बाद मौके पर पहुंची पुलिस अपनी कार्यशैली को लेकर मीडिया के निशाने पर रही। लापरवाही के आरोप में जिले के पुलिस कप्तान और इलाके के थानाध्यक्ष के तबादले तक कर दिए गए लेकिन बावजूद इसके अभी तक हत्यारे पुलिस की गिरफ्त से दूर हैं। अब नोएडा पुलिस ने इस हत्याकांड के खुलासे में मदद के लिए दिल्ली पुलिस की क्राइम ब्रांच से संपर्क साधा है। उधर इस हत्याकांड के बाद मुख्यमंत्री मायावती एक बार जिले का दौरा भी कर गईं लेकिन उन्होंने तो इस मामले पर कुछ बोलने से ही मना कर दिया। हालांकि उन्होंने जन समस्याओं के निराकरण के लिए अधिकारियों की क्लास ज़रूर लगाई लेकिन कानून व्यवस्था को लेकर फिलहाल उन्होंने कुछ भी नहीं कहा। उनके इस बर्ताव पर मुझे तो किसी कवि द्वारा कही गई ये पंक्तियां एकदम सटीक लगती हैं-
तुम्हारे शहर में कुछ भी हुआ नहीं है क्या
कि तुमने चीखों को सचमुच सुना नहीं है क्या
मैं इक ज़माने से हैरान हूँ कि हाकिम-ए-शहर
जो हो रहा है उसे देखता नहीं है क्या
हालांकि नोएडा एक और वजह से खासा चर्चा में है और वो है यहां लगातार ज़मीनों की कीमत मे लगातार हो रही बढोतरी। नोएडा विकास प्राधिकरण ने जमीन के दामों में 70 से 80 फीसदी का अप्रत्याशित इजाफा किया है। ग्रेटर नोएडा में आवासीय भूखंडो की दरों को 5900 रुपये से बढ़ाकर 10,500 रुपये प्रति वर्ग मीटर,संस्थागत श्रेणी के भूंखडों के दाम 2800 रुपये से बढ़ाकर 6000 रुपये प्रति वर्ग मीटर और कामर्शियल श्रेणी में 12,000 रुपये से 20,000 रुपये प्रति वर्ग मीटर कर दिये गये है। कह सकते हैं कि अब नोएडा में आम आदमी के लिए मकान खरीदने का सपना भी हाथी पालने के बराबर हो गया है। बदहाल कानून व्यवस्था और आसमान छूती ज़मीन की कीमतों के साथ साथ पीने के पानी की समस्या और बिजली की आंख मिचौली के बीच लोग अपने सपनों में हकीकत का रंग भरने के लिए इस शहर की और दौडे चले आ रहे हैं।
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anil kumar verma
बुधवार, 21 मई 2008
सपनों की हकीकत
21मई 2008
विदेशों में नौकरी दिलाने के नाम पर कबूतरबाजों ने गाजियाबाद में छह लोगों को छह लाख अस्सी हजार रुपए का चूना लागाया और फरार हो गए। एक हिन्दी अखबार में छपी ये खबर कोई नयी नहीं है। इस तरह के सैकड़ों मामले पहले भी प्रकाश में आए हैं। पूरे देश में इस तरह के तमाम नेटवर्क काम कर रहे हैं जो लोगों का दूसरे मुल्कों के प्रति बढ़ते रुझान और बढ़ती बेरोजगारी
का फायदा उठाकर लोगों को ठग रहे हैं। ये तो वो लोग हैं जो विदेश पहुंचने से पहले ही ठगी का शिकार हो गए लेकिन तमाम ऐसे लोग भी हैं जिन्हें असलियत का पता उस वक्त चला जब उन्होंने अपने वतन से हजारों किलोमीटर दूर अनजाने मुल्क में कदम रखा। भारत के तमाम राज्यों से बड़ी तादात में लोग नौकरी या रोजगार के नाम पर दूसरे मुल्को का रुख कर रहे हैं। ये लोग विदेश जाने के लिए ट्रेवेल एजेंटों का सहारा लेते हैं लेकिन इनमें से ज्यादातर एजेंट फर्जी होते हैं। दरअसल विदेशी मुल्कों का रुख करने के पीछे कुछ तो लोगों की बुनियादी ज़रूरतें हैं और कुछ आकर्षण। ऐसे लोगों में ग्रामीण परिवेश में रहने वालों की संख्या ज्यादा होती है। ये लोग जीवन में कुछ बेहतरीन हासिल करने के लिए मन में ठाठें मार रही ख्वाहिशों को हकीकत का जामा पहनाने के लिए पराए मुल्क का रुख करते हैं। हालांकि इनके दिलों में आसमान साध लेने की ललक नहीं होती ये लोग अपने परिवार के लिए दो वक्त की रोटी का जुगाड़ करने के लिए ही अपनों से दूर जाते हैं। इनसे इनका घर बार छूटता है, अपनों का प्यार छूटता है, गांव की वो गलियां छूटती हैं जिनमें उनका बचपन बीता है, छूट जाते हैं वो त्योहार जिनकी रूमानियत उनके रोम रोम में बसी है, छूट जाती है वो हवा जिसकी खुश्बू उनकी सांसों को महकाती है साथ ही छूट जाती है वो मिट्टी जिसकी गोद में खेलकर वो बड़े हुए हैं लेकिन क्या करें इन सब पर उनकी जरूरतों की मार भारी पड़ती है। बच्चों को पढ़ाना है, मां बाप का इलाज कराना है, बरसात में टपकती कच्ची छत को पक्का करवाना है, साहूकार का कर्ज चुकाना है ऐसी तमाम उलझनें सुलझाने के लिए लोग विदेशों का रुख करते हैं। ऐशो-आराम उनका मकसद नही होता, मकसद होता है परिवार का सुकून। हालांकि सभी को ये हासिल हो ऐसा ज़रूरी भी नहीं। कबूतरबाजों के चक्कर में अपना सब कुछ गिरवी रखकर पराए मुल्क पहुंचे भोले भाले लोगों को कागजी कार्रवाई के जाल में उलझकर तमाम मुसीबतों का भी समाना करना पड़ता है। परेशानी कभी फर्जी पासपोर्ट और वीजे के रूप में सामने आती है तो कभी कोई और रुप धरकर। सब सहते हैं परिवार की खातिर। बहरीन, कुवैत, ओमान, कतर, सउदी अरब और संयुक्त अरब अमीरात जैसे तमाम देशों में भारतीय पुरुष और महिलाएं अपना पसीना बहा रहे हैं। इनको यहां मिला रोजगार शारीरिक शोषण और दूसरे अमानवीय जुल्मों का पर्याय बन जाता है लेकिन क्या करें अपने परिवार के लिए सब सहते हैं। आंकड़े बताते हैं कि 2006 में इन देशों से भारत भेजी गई कुल रकम 235 करोड़ रुपए थी। यही वजह रहती है कि सब सहकर भी लोग चुप रहते हैं। कभी कभी तो बीमार होने पर समय पर कंपनियां इन्हें उचित इलाज तक नहीं देती जिसके अभाव में इनकी मौत तक हो जाती है। इतना ही नहीं इसकी सूचना तक संबंधित परिवार तक नहीं पहुंचाई जाती है। अपने आखिरी समय में अपने परिजनों से मिलने की ललक दिल में लिए इस तरह के तमाम लोग इस दुनिया से विदा ले लेते हैं। महीनों बाद घर वालों को सूचना मिलती है कि उनके घर का चिराग हमेशा के लिए बुझ गया। किसी को समय से पता भी चल गया तो सरकारी दफ्तरों और दूतावास के चक्कर लगाते लगाते उनकी एडियां घिस जाती है लेकिन लाश क्लेम नहीं हो पाती। ऐसे तमाम उदहाऱण देखने को मिले हैं जब पराए मुल्क में नौकरी के लिए गए लोगों की मौत के बाद उनका शरीर अंतिम दर्शनों के लिए उनके परिजनों को नसीब नहीं हुआ। हालांकि खाड़ी देशों में अब ऐसे लोगों के लिए सुधारात्मक उपाय अपनाने की पहल की जा रही हैं। इनसके तहत भारतीयें के लिए काम करने के हालात सुधारने की पहल की जा रही है। इसके पीछे बड़ी वजह है भारत का नई आर्थिक शक्ति के रूप में उभरना लेकिन फिलहाल इसमें काफी वक्त लग सकता है। फिलहाल तो गरीबी और बेरोजगारी भारतीयों को विदेशों का रुख करने के लिए मजबूर कर रही है और ये लोग कभी कबूतरबाजों का शिकार बन रहे हैं तो कभी पराए मुल्क पहुंचकर शारीरिक शोषण झेल रहे हैं। भारत से ही शुरू हई शोषण की कहानी जब तक इन लोगों की समझ में आती है तब तक इनकी जिन्दगी दूसरों की दया की मोहताज हो चुकी होती है। ये सिलसिला शायद चलता रहे क्योंकि इस देश से न तो गरीबी मिटने वाली है औऱ नही बेरोजगारी। सच्चाई कड़वी है लेकिन यही है।
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anil kumar verma
विदेशों में नौकरी दिलाने के नाम पर कबूतरबाजों ने गाजियाबाद में छह लोगों को छह लाख अस्सी हजार रुपए का चूना लागाया और फरार हो गए। एक हिन्दी अखबार में छपी ये खबर कोई नयी नहीं है। इस तरह के सैकड़ों मामले पहले भी प्रकाश में आए हैं। पूरे देश में इस तरह के तमाम नेटवर्क काम कर रहे हैं जो लोगों का दूसरे मुल्कों के प्रति बढ़ते रुझान और बढ़ती बेरोजगारी
का फायदा उठाकर लोगों को ठग रहे हैं। ये तो वो लोग हैं जो विदेश पहुंचने से पहले ही ठगी का शिकार हो गए लेकिन तमाम ऐसे लोग भी हैं जिन्हें असलियत का पता उस वक्त चला जब उन्होंने अपने वतन से हजारों किलोमीटर दूर अनजाने मुल्क में कदम रखा। भारत के तमाम राज्यों से बड़ी तादात में लोग नौकरी या रोजगार के नाम पर दूसरे मुल्को का रुख कर रहे हैं। ये लोग विदेश जाने के लिए ट्रेवेल एजेंटों का सहारा लेते हैं लेकिन इनमें से ज्यादातर एजेंट फर्जी होते हैं। दरअसल विदेशी मुल्कों का रुख करने के पीछे कुछ तो लोगों की बुनियादी ज़रूरतें हैं और कुछ आकर्षण। ऐसे लोगों में ग्रामीण परिवेश में रहने वालों की संख्या ज्यादा होती है। ये लोग जीवन में कुछ बेहतरीन हासिल करने के लिए मन में ठाठें मार रही ख्वाहिशों को हकीकत का जामा पहनाने के लिए पराए मुल्क का रुख करते हैं। हालांकि इनके दिलों में आसमान साध लेने की ललक नहीं होती ये लोग अपने परिवार के लिए दो वक्त की रोटी का जुगाड़ करने के लिए ही अपनों से दूर जाते हैं। इनसे इनका घर बार छूटता है, अपनों का प्यार छूटता है, गांव की वो गलियां छूटती हैं जिनमें उनका बचपन बीता है, छूट जाते हैं वो त्योहार जिनकी रूमानियत उनके रोम रोम में बसी है, छूट जाती है वो हवा जिसकी खुश्बू उनकी सांसों को महकाती है साथ ही छूट जाती है वो मिट्टी जिसकी गोद में खेलकर वो बड़े हुए हैं लेकिन क्या करें इन सब पर उनकी जरूरतों की मार भारी पड़ती है। बच्चों को पढ़ाना है, मां बाप का इलाज कराना है, बरसात में टपकती कच्ची छत को पक्का करवाना है, साहूकार का कर्ज चुकाना है ऐसी तमाम उलझनें सुलझाने के लिए लोग विदेशों का रुख करते हैं। ऐशो-आराम उनका मकसद नही होता, मकसद होता है परिवार का सुकून। हालांकि सभी को ये हासिल हो ऐसा ज़रूरी भी नहीं। कबूतरबाजों के चक्कर में अपना सब कुछ गिरवी रखकर पराए मुल्क पहुंचे भोले भाले लोगों को कागजी कार्रवाई के जाल में उलझकर तमाम मुसीबतों का भी समाना करना पड़ता है। परेशानी कभी फर्जी पासपोर्ट और वीजे के रूप में सामने आती है तो कभी कोई और रुप धरकर। सब सहते हैं परिवार की खातिर। बहरीन, कुवैत, ओमान, कतर, सउदी अरब और संयुक्त अरब अमीरात जैसे तमाम देशों में भारतीय पुरुष और महिलाएं अपना पसीना बहा रहे हैं। इनको यहां मिला रोजगार शारीरिक शोषण और दूसरे अमानवीय जुल्मों का पर्याय बन जाता है लेकिन क्या करें अपने परिवार के लिए सब सहते हैं। आंकड़े बताते हैं कि 2006 में इन देशों से भारत भेजी गई कुल रकम 235 करोड़ रुपए थी। यही वजह रहती है कि सब सहकर भी लोग चुप रहते हैं। कभी कभी तो बीमार होने पर समय पर कंपनियां इन्हें उचित इलाज तक नहीं देती जिसके अभाव में इनकी मौत तक हो जाती है। इतना ही नहीं इसकी सूचना तक संबंधित परिवार तक नहीं पहुंचाई जाती है। अपने आखिरी समय में अपने परिजनों से मिलने की ललक दिल में लिए इस तरह के तमाम लोग इस दुनिया से विदा ले लेते हैं। महीनों बाद घर वालों को सूचना मिलती है कि उनके घर का चिराग हमेशा के लिए बुझ गया। किसी को समय से पता भी चल गया तो सरकारी दफ्तरों और दूतावास के चक्कर लगाते लगाते उनकी एडियां घिस जाती है लेकिन लाश क्लेम नहीं हो पाती। ऐसे तमाम उदहाऱण देखने को मिले हैं जब पराए मुल्क में नौकरी के लिए गए लोगों की मौत के बाद उनका शरीर अंतिम दर्शनों के लिए उनके परिजनों को नसीब नहीं हुआ। हालांकि खाड़ी देशों में अब ऐसे लोगों के लिए सुधारात्मक उपाय अपनाने की पहल की जा रही हैं। इनसके तहत भारतीयें के लिए काम करने के हालात सुधारने की पहल की जा रही है। इसके पीछे बड़ी वजह है भारत का नई आर्थिक शक्ति के रूप में उभरना लेकिन फिलहाल इसमें काफी वक्त लग सकता है। फिलहाल तो गरीबी और बेरोजगारी भारतीयों को विदेशों का रुख करने के लिए मजबूर कर रही है और ये लोग कभी कबूतरबाजों का शिकार बन रहे हैं तो कभी पराए मुल्क पहुंचकर शारीरिक शोषण झेल रहे हैं। भारत से ही शुरू हई शोषण की कहानी जब तक इन लोगों की समझ में आती है तब तक इनकी जिन्दगी दूसरों की दया की मोहताज हो चुकी होती है। ये सिलसिला शायद चलता रहे क्योंकि इस देश से न तो गरीबी मिटने वाली है औऱ नही बेरोजगारी। सच्चाई कड़वी है लेकिन यही है।
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anil kumar verma
सोमवार, 19 मई 2008
बेबस बुंदेलखण्ड
19 मई 2008
सूखे और दरारों से भरे खेत, आसमान में टकटकी लगाए बूढी और कमजोर आंखें, शरीर के नाम पर हड्डियों का ढांचा लिए भूख से बिलबिलाते बच्चे, सूनी मांग लिए विधवाओं की एक बड़ी संख्या, सूखे तालाब और नदियां, सन्नाटे को भी शर्मसार कर देने वाली वीरानी समेटे गांव और उन गांवों के घरों में पड़े ताले, किसी उपन्यासकार के लिए कहानी की एक अच्छी पृष्ठभूमि साबित हो सकते हैं और हुए भी हैं। कहानियां लिखी जा रही हैं, लेख लिखे जा रहे हैं, ब्लाग्स पर विचारों को शब्दों की चाशनी में ढाला जा रहा है। फिल्में बन भी चुकी हैं और हो सकता है किसी फिल्मकार का दिल एक बार फिर इन हालातों को सिने जगत की सिल्वर स्क्रीन पर दिखाने के लिए मचल जाए लेकिन जरा उन दिलों से पूछिए जो वास्तव में इस तस्वीर का एक हिस्सा हैं। जी हां, ऊपर जिन दृश्यों को मैनें शब्दों का मुलम्मा पहनाया वो वास्तव में बुंदेलखण्ड की तस्वीर का एक जीता जागता उदाहरण भर हैं। उदाहरण इसलिए कह रहा हूं क्योंकि हकीकत इससे कहीं ज्यादा भयावह है। अपने अतीत की चादर में एक गौरवशाली इतिहास समेटे उत्तर प्रदेश का ये इलाका पिछले पांच सालों से सूखा, भूख और बेकारी के साथ साथ कर्ज के मकड़जाल की उस दास्तान से रूबरू हो रहा है जिसने इसकी समृद्धशाली तस्वीर को बदरंग कर दिया है। अन्नदाता के नाम से मशहूर किसानों से इंद्र देवता क्या रूठे गरीबी ने इनके घरों में स्थाई ठिकाना बना लिया। खेत बंजर हो गए तो बात कर्जे तक जा पहुंची। गांव के साहूकार ने गहनों और ज़मीनों को गिरवी रखकर कर्ज दिया तो बैकों ने क्रेडिट कार्ड का झुनझुना थमाया लेकिन हालात न बदलने थे न बदले। सूखे ने साथ नहीं छोड़ा, कर्जे पर ब्याज बढ़ गया तो कर्ज चुकाने के लिए फिर कर्ज लिया। फिर तो जैसे सिलसिला सा चल पड़ा और सिलसिले की भेंट चढ़ने लगी अन्नदाताओ की जिंदगी। सूखे और कर्ज से परेशान किसान एक एक कर आत्महत्या करने लगे। भूख, बेकारी और तंगहाली ने इन किसानों के घरों में डेरा डाल दिया था। ये तीनों तो घर से निकले नहीं लिहाजा घर के दूसरे मर्दों ने कामकाज की तलाश में गांव छोड़ना शुरू कर दिया। इसका अंदाजा आपको तब होगा जब आप महोबा रेलवे स्टेशन पर पहुंचेगे और आपको पता चलेगा कि पिछले कुछ महीनों में वहां से डेढ़ लाख टिकट बिके, जिनमें से ज्यादातर दिल्ली के थे। कुछ ऐसा ही हाल झांसी और उरई का है। लगभग डेढ़ लाख किसान हर महीने इस इलाके से पलायन कर रहे हैं। कर्ज के मकड़जाल और भूख की तपिश से होने वाली मौतों को पहले तो स्थानीय प्रशासन अपनी गरदन नपने के डर से दबाए रहा लेकिन जब इन इलाकों में काम करने वाली स्वयंसेवी संस्थाओं ने हो हल्ला मचाया तो बात दूर तक फैली। वातानुकूलित कमरों में बैठकर ऐसे लोगों की सरपरस्ती का दम भरने वाले खद्दरधारियों के कानों पर भी सिलवटें दिखीं और वो हरकत में आ गए। फिर शुरू हुआ एक दूसरे को कोसने का सिलसिला। राज्य सरकार ने केंद्र को कोसा और केंद्र ने हालातों के लिए राज्य को जिम्मेदार ठहराया। इतने से तसल्ली नहीं हुई तो ताबड़तोड़ दौरे शुरू हो गए। प्रदेश में नई पारी खेलने को तैयार बैठी कांग्रेस को भी अवसर मुफीद लगा तो युवराज राहुल गांधी भी बुंदेलखण्ड का दर्द जानने के लिए मचल उठे। जब राहुल बांदा से 20 किलोमीटर दूर बसे पंडुई गांव पहुंचे तो वहां के लोगों में अपना दर्द बयां करने की होड़ सी लग गई। थरथराती काया के मुंह से जब बोल फूटे तो आँखों से आंसुओं की अविरल धारा बह निकली। इसी गांव से सटी एक दलित बस्ती में रहने वाली बच्ची प्रभा से जब कुरेद कर पूछा गया तो उसने कहा कि रोज रोज खाने को नहीं मिलता। अम्मा चूल्हे की राख गरम पानी में घोलकर कपड़े से छान देती है। आज पूरा दिन वही पीकर गुजारा है। हालात इतने भयावह थे कि राहुल खुद भावुक हो गए। हर दिल से एक ही आवाज आ रही थी कि साहब हमका बचाए लियो नाहीं त हम भूखय मर जाबै। राहुल सभी को राहत का भरोसा दिलाकर गए और केंद्र सरकार ने इस बार के बजट में किसानों को राहत देते हुए सोलह हजार करोड़ के कर्ज माफ कर दिए। बावजूद इसके भी हालात नहीं सुधरे हैं। बुंदेलखण्ड को लेकर यूं तो राजनीति पहले भी होती रही है लेकिन राहुल के दौरे के बाद इसमें कुछ ज्यादा ही तेजी आ गई। मुख्यमंत्री मायावती को लगा कि राहुल तो बाजी मार ले जायेंगे लिहाजा उन्होंने बुंदेलखण्ड को अलग राज्य बनाने की मांग करते हुए केंद्र से अस्सी हजार करोड़ के पैकेज की मांग कर डाली। दूसरे राजनीतिक दल भी अपने स्तर से बुंदेलखण्ड के नाम पर कुछ न कुछ खिचड़ी पका रहे हैं लेकिन सवाल यही है कि ये सारी कवायद महज राजनीतिक शोशा भर है। बुंदेलखण्ड में आज भी कर्ज वसूली के नाम पर खेत बंधक बनाए जा रहे हैं। सिकरी व्यास गांव में तो पूरे गांव की जमीन गिरवी पड़ी है। सौ-सौ बीघे खेतों के काश्तकार शहरों में जाकर चौकीदारी कर रहे हैं। क्या करें खेतों की कोख बंजर हो चुकी है। भूख, भुखमरी, खुदकुशी और पलायन यही बुंदेलखण्ड की नियति बन चुकी है और हमारे देश की राजनीति और नेता इसी नियति पर अपने चूल्हे की रोटी सेंक रहे हैं और संकते रहेंगे भले ही हमारा अन्नदाता भूख से बिलबिला कर दम तोड़ दे।
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anil kumar verma
सूखे और दरारों से भरे खेत, आसमान में टकटकी लगाए बूढी और कमजोर आंखें, शरीर के नाम पर हड्डियों का ढांचा लिए भूख से बिलबिलाते बच्चे, सूनी मांग लिए विधवाओं की एक बड़ी संख्या, सूखे तालाब और नदियां, सन्नाटे को भी शर्मसार कर देने वाली वीरानी समेटे गांव और उन गांवों के घरों में पड़े ताले, किसी उपन्यासकार के लिए कहानी की एक अच्छी पृष्ठभूमि साबित हो सकते हैं और हुए भी हैं। कहानियां लिखी जा रही हैं, लेख लिखे जा रहे हैं, ब्लाग्स पर विचारों को शब्दों की चाशनी में ढाला जा रहा है। फिल्में बन भी चुकी हैं और हो सकता है किसी फिल्मकार का दिल एक बार फिर इन हालातों को सिने जगत की सिल्वर स्क्रीन पर दिखाने के लिए मचल जाए लेकिन जरा उन दिलों से पूछिए जो वास्तव में इस तस्वीर का एक हिस्सा हैं। जी हां, ऊपर जिन दृश्यों को मैनें शब्दों का मुलम्मा पहनाया वो वास्तव में बुंदेलखण्ड की तस्वीर का एक जीता जागता उदाहरण भर हैं। उदाहरण इसलिए कह रहा हूं क्योंकि हकीकत इससे कहीं ज्यादा भयावह है। अपने अतीत की चादर में एक गौरवशाली इतिहास समेटे उत्तर प्रदेश का ये इलाका पिछले पांच सालों से सूखा, भूख और बेकारी के साथ साथ कर्ज के मकड़जाल की उस दास्तान से रूबरू हो रहा है जिसने इसकी समृद्धशाली तस्वीर को बदरंग कर दिया है। अन्नदाता के नाम से मशहूर किसानों से इंद्र देवता क्या रूठे गरीबी ने इनके घरों में स्थाई ठिकाना बना लिया। खेत बंजर हो गए तो बात कर्जे तक जा पहुंची। गांव के साहूकार ने गहनों और ज़मीनों को गिरवी रखकर कर्ज दिया तो बैकों ने क्रेडिट कार्ड का झुनझुना थमाया लेकिन हालात न बदलने थे न बदले। सूखे ने साथ नहीं छोड़ा, कर्जे पर ब्याज बढ़ गया तो कर्ज चुकाने के लिए फिर कर्ज लिया। फिर तो जैसे सिलसिला सा चल पड़ा और सिलसिले की भेंट चढ़ने लगी अन्नदाताओ की जिंदगी। सूखे और कर्ज से परेशान किसान एक एक कर आत्महत्या करने लगे। भूख, बेकारी और तंगहाली ने इन किसानों के घरों में डेरा डाल दिया था। ये तीनों तो घर से निकले नहीं लिहाजा घर के दूसरे मर्दों ने कामकाज की तलाश में गांव छोड़ना शुरू कर दिया। इसका अंदाजा आपको तब होगा जब आप महोबा रेलवे स्टेशन पर पहुंचेगे और आपको पता चलेगा कि पिछले कुछ महीनों में वहां से डेढ़ लाख टिकट बिके, जिनमें से ज्यादातर दिल्ली के थे। कुछ ऐसा ही हाल झांसी और उरई का है। लगभग डेढ़ लाख किसान हर महीने इस इलाके से पलायन कर रहे हैं। कर्ज के मकड़जाल और भूख की तपिश से होने वाली मौतों को पहले तो स्थानीय प्रशासन अपनी गरदन नपने के डर से दबाए रहा लेकिन जब इन इलाकों में काम करने वाली स्वयंसेवी संस्थाओं ने हो हल्ला मचाया तो बात दूर तक फैली। वातानुकूलित कमरों में बैठकर ऐसे लोगों की सरपरस्ती का दम भरने वाले खद्दरधारियों के कानों पर भी सिलवटें दिखीं और वो हरकत में आ गए। फिर शुरू हुआ एक दूसरे को कोसने का सिलसिला। राज्य सरकार ने केंद्र को कोसा और केंद्र ने हालातों के लिए राज्य को जिम्मेदार ठहराया। इतने से तसल्ली नहीं हुई तो ताबड़तोड़ दौरे शुरू हो गए। प्रदेश में नई पारी खेलने को तैयार बैठी कांग्रेस को भी अवसर मुफीद लगा तो युवराज राहुल गांधी भी बुंदेलखण्ड का दर्द जानने के लिए मचल उठे। जब राहुल बांदा से 20 किलोमीटर दूर बसे पंडुई गांव पहुंचे तो वहां के लोगों में अपना दर्द बयां करने की होड़ सी लग गई। थरथराती काया के मुंह से जब बोल फूटे तो आँखों से आंसुओं की अविरल धारा बह निकली। इसी गांव से सटी एक दलित बस्ती में रहने वाली बच्ची प्रभा से जब कुरेद कर पूछा गया तो उसने कहा कि रोज रोज खाने को नहीं मिलता। अम्मा चूल्हे की राख गरम पानी में घोलकर कपड़े से छान देती है। आज पूरा दिन वही पीकर गुजारा है। हालात इतने भयावह थे कि राहुल खुद भावुक हो गए। हर दिल से एक ही आवाज आ रही थी कि साहब हमका बचाए लियो नाहीं त हम भूखय मर जाबै। राहुल सभी को राहत का भरोसा दिलाकर गए और केंद्र सरकार ने इस बार के बजट में किसानों को राहत देते हुए सोलह हजार करोड़ के कर्ज माफ कर दिए। बावजूद इसके भी हालात नहीं सुधरे हैं। बुंदेलखण्ड को लेकर यूं तो राजनीति पहले भी होती रही है लेकिन राहुल के दौरे के बाद इसमें कुछ ज्यादा ही तेजी आ गई। मुख्यमंत्री मायावती को लगा कि राहुल तो बाजी मार ले जायेंगे लिहाजा उन्होंने बुंदेलखण्ड को अलग राज्य बनाने की मांग करते हुए केंद्र से अस्सी हजार करोड़ के पैकेज की मांग कर डाली। दूसरे राजनीतिक दल भी अपने स्तर से बुंदेलखण्ड के नाम पर कुछ न कुछ खिचड़ी पका रहे हैं लेकिन सवाल यही है कि ये सारी कवायद महज राजनीतिक शोशा भर है। बुंदेलखण्ड में आज भी कर्ज वसूली के नाम पर खेत बंधक बनाए जा रहे हैं। सिकरी व्यास गांव में तो पूरे गांव की जमीन गिरवी पड़ी है। सौ-सौ बीघे खेतों के काश्तकार शहरों में जाकर चौकीदारी कर रहे हैं। क्या करें खेतों की कोख बंजर हो चुकी है। भूख, भुखमरी, खुदकुशी और पलायन यही बुंदेलखण्ड की नियति बन चुकी है और हमारे देश की राजनीति और नेता इसी नियति पर अपने चूल्हे की रोटी सेंक रहे हैं और संकते रहेंगे भले ही हमारा अन्नदाता भूख से बिलबिला कर दम तोड़ दे।
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anil kumar verma
गुरुवार, 15 मई 2008
बदलता क्रिकेट
15 मई 2008
बुधवार की शाम मैं अपने एक रिश्तेदार के घर मिलने गया। काफी दिनों के बाद पहुंचा था सो मुझे भव्य स्वागत की उम्मीद थी लेकिन ऐसा कुछ हुआ नहीं। इसका कारण बना आईपीएल टूर्नामेंट। जब मैं वहां पहुंचा तो मुंबई इंडियन्स और चैन्नई के बीच मैच चल रहा था। घर का हर सदसय बच्चो से लेकर बुजुर्ग तक टेलीविजन सेट से चिपके नजर आए। औपचारिक स्वागत के बाद सभी की निगाहें वापस टेलीविजन सेट पर चिपक गईं। अभी तक मैं आईपीएल के प्रभाव के बारे में सुन रहा था लेकिन प्रत्यक्ष देखा तो मेरे होश ही उड़ गए। अपनों के बीच में मैं बेगाना बनकर रह गया। दरअसल आईपीएल ने तीन घंटे में मनोरंजन की जिजीविषा को उस चरम पर पहुंचा दिया है जिसे कोई भी हाथ से जाने नहीं देना चाहता। क्रिकेट कहीं पीछे छूट गया है, विशुद्ध मनोरंजन हावी है। तीन घंटे का जोरदार तमाशा। क्रिकेट खिलाड़ियों पर फिल्मी सितारों का जलवा भारी है। उस पर मैदान पर हर चौके-छक्के के बाद चीयर्स लीडर्स का डांस, लोग पलकें झपकाएं बिना टेलीविजन से सटे रहते हैं। लोगों को उससे मतलब नहीं कि कौन सी टीम जीत रही है और कौन सी हार रही है, उन्हें मतलब है तो नाच गाने और गाजे बाजे से। समय बीत रहा था और चेन्नई की टीम ने मुंबई इंडियन्स के सामने 157 रनों का लक्ष्य रखा। जवाब में सचिन और जयसूर्या पारी की शुरूआत करने उतरे। सचिन क्रिकेट के इस संस्करण में अपने करियर की शुरूआत कर रहे थे। जयसूर्या अभी तक के मैचों में कुछ खास नहीं कर पाए थे। सचिन तो 12 रन बनाकर चलते बने लेकिन उसके बाद जयसूर्या ने मैदान पर जो तूफान मचाया तो कमरे में बैठा हर शख्स मानो जड़ हो गया। मंत्रमुग्ध होकर सभी मनोरंजन के इस नए अवतार को निहार रहे थे। मैं बेबस और लाचार इस इंतजार में बैठा ता कि कब ये मैच खत्म हो और लोग मुझ पर नजरे इनायत करें। फिलहाल तो सभी जयसुर्या के हर चौके छक्के के बद मचने वाले शोर और चीयर्स लीडर्स के डांस का एक हिस्सा बने हुए थे। हर किसी पर जैसे एक जुनून सवार था। बल्लेबाजों को गेदं सीमा रेखा पार कराने का जुनून, गेदबाजों को विकेट उखाड़ने का जुनून, दर्शकों को मैदान पर घटने वाली हर गतिविधि का मजा लेने का जुनून। क्रिकेट कहीं पीछे छूट गया, रह गया तो केवल मनोरंजन। जोगिन्दर शर्मा ने जब सचिन के स्टमप बिखेरे तो मैदान में सन्नाटा फैल गया लेकिन जब न्हीं की गेंद पर जयसूर्या छक्के-चौके उड़ा रहे थे तो मैदान तालियों की गड़गड़हाट से गूंज रहा था। मेरा कहने का तात्पर्य ये है कि मनोरंजन के इस चक्रवात में खेल भावना भी कहीं गुम हो गई क्योंकि ये वही दर्शक हैं जो अगर मैच भारत और श्रीलंका के बीच होता तो जोगिन्दर शर्मा की गेंद पर छक्के उड़ाने वाले जयसूर्या को गालियों से नवाजते नजर आते। बहरहाल मैच खत्म हुआ मुंबई इंडियन्स ने जीत का एक और स्वाद चखा। जयसूर्या मैन ऑफ द मैच बने। दर्शक मैदान से खिसकने लगे तो कमरे का भी माहौल बदला और लोगों को मेरा ख्याल आया। हालांकि रात काफी हो चुकी थी लिहाजा मैनें संक्षेप में हालचाल के बाद घर की राह पकड़ना ही मुनासिब समझा।
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Anil Kumar Verma
बुधवार की शाम मैं अपने एक रिश्तेदार के घर मिलने गया। काफी दिनों के बाद पहुंचा था सो मुझे भव्य स्वागत की उम्मीद थी लेकिन ऐसा कुछ हुआ नहीं। इसका कारण बना आईपीएल टूर्नामेंट। जब मैं वहां पहुंचा तो मुंबई इंडियन्स और चैन्नई के बीच मैच चल रहा था। घर का हर सदसय बच्चो से लेकर बुजुर्ग तक टेलीविजन सेट से चिपके नजर आए। औपचारिक स्वागत के बाद सभी की निगाहें वापस टेलीविजन सेट पर चिपक गईं। अभी तक मैं आईपीएल के प्रभाव के बारे में सुन रहा था लेकिन प्रत्यक्ष देखा तो मेरे होश ही उड़ गए। अपनों के बीच में मैं बेगाना बनकर रह गया। दरअसल आईपीएल ने तीन घंटे में मनोरंजन की जिजीविषा को उस चरम पर पहुंचा दिया है जिसे कोई भी हाथ से जाने नहीं देना चाहता। क्रिकेट कहीं पीछे छूट गया है, विशुद्ध मनोरंजन हावी है। तीन घंटे का जोरदार तमाशा। क्रिकेट खिलाड़ियों पर फिल्मी सितारों का जलवा भारी है। उस पर मैदान पर हर चौके-छक्के के बाद चीयर्स लीडर्स का डांस, लोग पलकें झपकाएं बिना टेलीविजन से सटे रहते हैं। लोगों को उससे मतलब नहीं कि कौन सी टीम जीत रही है और कौन सी हार रही है, उन्हें मतलब है तो नाच गाने और गाजे बाजे से। समय बीत रहा था और चेन्नई की टीम ने मुंबई इंडियन्स के सामने 157 रनों का लक्ष्य रखा। जवाब में सचिन और जयसूर्या पारी की शुरूआत करने उतरे। सचिन क्रिकेट के इस संस्करण में अपने करियर की शुरूआत कर रहे थे। जयसूर्या अभी तक के मैचों में कुछ खास नहीं कर पाए थे। सचिन तो 12 रन बनाकर चलते बने लेकिन उसके बाद जयसूर्या ने मैदान पर जो तूफान मचाया तो कमरे में बैठा हर शख्स मानो जड़ हो गया। मंत्रमुग्ध होकर सभी मनोरंजन के इस नए अवतार को निहार रहे थे। मैं बेबस और लाचार इस इंतजार में बैठा ता कि कब ये मैच खत्म हो और लोग मुझ पर नजरे इनायत करें। फिलहाल तो सभी जयसुर्या के हर चौके छक्के के बद मचने वाले शोर और चीयर्स लीडर्स के डांस का एक हिस्सा बने हुए थे। हर किसी पर जैसे एक जुनून सवार था। बल्लेबाजों को गेदं सीमा रेखा पार कराने का जुनून, गेदबाजों को विकेट उखाड़ने का जुनून, दर्शकों को मैदान पर घटने वाली हर गतिविधि का मजा लेने का जुनून। क्रिकेट कहीं पीछे छूट गया, रह गया तो केवल मनोरंजन। जोगिन्दर शर्मा ने जब सचिन के स्टमप बिखेरे तो मैदान में सन्नाटा फैल गया लेकिन जब न्हीं की गेंद पर जयसूर्या छक्के-चौके उड़ा रहे थे तो मैदान तालियों की गड़गड़हाट से गूंज रहा था। मेरा कहने का तात्पर्य ये है कि मनोरंजन के इस चक्रवात में खेल भावना भी कहीं गुम हो गई क्योंकि ये वही दर्शक हैं जो अगर मैच भारत और श्रीलंका के बीच होता तो जोगिन्दर शर्मा की गेंद पर छक्के उड़ाने वाले जयसूर्या को गालियों से नवाजते नजर आते। बहरहाल मैच खत्म हुआ मुंबई इंडियन्स ने जीत का एक और स्वाद चखा। जयसूर्या मैन ऑफ द मैच बने। दर्शक मैदान से खिसकने लगे तो कमरे का भी माहौल बदला और लोगों को मेरा ख्याल आया। हालांकि रात काफी हो चुकी थी लिहाजा मैनें संक्षेप में हालचाल के बाद घर की राह पकड़ना ही मुनासिब समझा।
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Anil Kumar Verma
बुधवार, 14 मई 2008
जयपुर में धमाके
14 मई 2008
मंगलवार की शाम मैं ऑफिस से घर पहुंचा। शाम के साढ़े छह बज चुके थे। तब तक सब कुछ सामान्य था। चूंकि हैदराबाद से नोएडा आने के बाद अभी मैनें केबल कनेक्शन नहीं लिया था इसलिए टेलीविजन बन्द ही चल रहा है। मेरे दिमाग में विचारों का बवंडर चल रहा था तभी मेरे एक मित्र का फोन आया और उसने जो खबर सुनाई उसके बाद सब कुछ मानों थम गया। जयपुर में श्रंखलाबद्ध तरीके से आठ धमाके हुए थे। दहशतगर्दों ने एक बार फिर देश के अमन चैन को निशाना बनाया था। मैं अपने मकान मालिक के घर पहुंचा और टेलीविजन से चिपक गया। साठ से ज्यादा लोग इस हरकत का शिकार हुए थे । सौ से ज्यादा लोग अस्पतालों में इन नापाक इरादों की कीमत चुका रहे हैं। इस घटना में कुछ नया नहीं था, नया था तो सिर्फ जगह का नाम और मरने वालों के साथ साथ घायलों की संख्या। बाकी सब कुछ वैसा ही था जैसा कि लगभग छह महीने पहले अजमेर में और उससे थोड़ा पहले हैदराबाद में हुए धमाकों के दौरान था। वही रेड अलर्ट, हाई अलर्ट का शोर, सरकारी बैठकें, खुफिया विभाग की असफलता का राग, विपक्षी दलों द्वारा सरकार पर आरोपो की झड़ी, राजनीतिज्ञों का दौरा सब कुछ वही। आतंक फैलानो वाले एक बार फिर अपने इरादों में कामयाब हुए थे। टेलीविजन पर दिखाई जा रही तस्वीरें और घटनास्थल का दृश्य मन को विचलित कर रहा था। मेरे अंतर्मन ने मुझसे सवाल किया कि आखिर क्यों हर बार यही कहानी दोहराई जाती है। निर्दोषों को अपनी स्वार्थसिद्धि का ज़रिया बनाया जाता है। आखिर क्यों ऐसी घटनाओं पर रोक नहीं लग पा रही है। कमी आखिर कहां है। हमारे सुरक्षा तंत्र में या फिर हमारे इरादो में या फिर इस तरह की घटनाओं में पहले पकड़े गए आतंकियों को लेकर हमारी सुस्त जांच प्रक्रिया। जिसके चलते इन आतंकियों को पालने पोसने वाले संगठनों में डर नाम की कोई चीज नहीं है और वो बैखौफ होकर आतंक का नंगा नाच नाच नाचते हैं। संसद पर हमले का दोषी आराम से जेल में बैठकर रोटियां तोड़ता है, देश के तमाम इलाकों में हुए धमाकों के आरोपियों की पेशी पर पेशी हो रही है लेकिन नतीजा सिफर ही है। जांच रिपोर्टें फाइलों में धूल फांकती रह जाती है और सजा होने से पहले या तो आरोपी बरी हो जाता है या फिर जेलों में ही दम तोड़ देता है। सख्त सजा का अभाव उसे उसके गुनाहों का एहसास भी नहीं करा पाता। मुझे ऐसा लगता है अगर पहले के मामलों को जल्द सुलझा लिया जाए और दहशतगर्दों के खिलाफ सख्त रवैया अपनाया जाए तो धमाकों के इस सिलसिले पर थोड़ी लगाम तो लगाई ही जा सकती है। बहरहाल अगले कुछ हफ्तों में जयपुर में हुए धमाकों पर चर्चाओं का दौर जारी रहने वाला है। उसके बाद गुलाबी नगरी में जिन्दगी के पटरी पर लौटते ही सब कुछ ठंडे बस्ते में चला जाएगा। एक जांच कमेटी धमाकों की जांच करेगी। पुलिस ने कुछ गिरफ्तारियां की हैं कुछ और करेगी। फिर सब कुछ पहले जैसा हो जाएगा लेकिन इस सिलसिले पर लगाम लग पाएगी कहना मुश्किल है। शायद इसकी एक और वजह है और वो है हम भारतीयों की भूलने की आदत। हम पिछले से सबक लेना नहीं जानते। आगे बढ़ने में भरोसा रखते हैं और शायद यही वजह है कि हमें अक्सर नुकसान उठाना पड़ता है।
मंगलवार की शाम मैं ऑफिस से घर पहुंचा। शाम के साढ़े छह बज चुके थे। तब तक सब कुछ सामान्य था। चूंकि हैदराबाद से नोएडा आने के बाद अभी मैनें केबल कनेक्शन नहीं लिया था इसलिए टेलीविजन बन्द ही चल रहा है। मेरे दिमाग में विचारों का बवंडर चल रहा था तभी मेरे एक मित्र का फोन आया और उसने जो खबर सुनाई उसके बाद सब कुछ मानों थम गया। जयपुर में श्रंखलाबद्ध तरीके से आठ धमाके हुए थे। दहशतगर्दों ने एक बार फिर देश के अमन चैन को निशाना बनाया था। मैं अपने मकान मालिक के घर पहुंचा और टेलीविजन से चिपक गया। साठ से ज्यादा लोग इस हरकत का शिकार हुए थे । सौ से ज्यादा लोग अस्पतालों में इन नापाक इरादों की कीमत चुका रहे हैं। इस घटना में कुछ नया नहीं था, नया था तो सिर्फ जगह का नाम और मरने वालों के साथ साथ घायलों की संख्या। बाकी सब कुछ वैसा ही था जैसा कि लगभग छह महीने पहले अजमेर में और उससे थोड़ा पहले हैदराबाद में हुए धमाकों के दौरान था। वही रेड अलर्ट, हाई अलर्ट का शोर, सरकारी बैठकें, खुफिया विभाग की असफलता का राग, विपक्षी दलों द्वारा सरकार पर आरोपो की झड़ी, राजनीतिज्ञों का दौरा सब कुछ वही। आतंक फैलानो वाले एक बार फिर अपने इरादों में कामयाब हुए थे। टेलीविजन पर दिखाई जा रही तस्वीरें और घटनास्थल का दृश्य मन को विचलित कर रहा था। मेरे अंतर्मन ने मुझसे सवाल किया कि आखिर क्यों हर बार यही कहानी दोहराई जाती है। निर्दोषों को अपनी स्वार्थसिद्धि का ज़रिया बनाया जाता है। आखिर क्यों ऐसी घटनाओं पर रोक नहीं लग पा रही है। कमी आखिर कहां है। हमारे सुरक्षा तंत्र में या फिर हमारे इरादो में या फिर इस तरह की घटनाओं में पहले पकड़े गए आतंकियों को लेकर हमारी सुस्त जांच प्रक्रिया। जिसके चलते इन आतंकियों को पालने पोसने वाले संगठनों में डर नाम की कोई चीज नहीं है और वो बैखौफ होकर आतंक का नंगा नाच नाच नाचते हैं। संसद पर हमले का दोषी आराम से जेल में बैठकर रोटियां तोड़ता है, देश के तमाम इलाकों में हुए धमाकों के आरोपियों की पेशी पर पेशी हो रही है लेकिन नतीजा सिफर ही है। जांच रिपोर्टें फाइलों में धूल फांकती रह जाती है और सजा होने से पहले या तो आरोपी बरी हो जाता है या फिर जेलों में ही दम तोड़ देता है। सख्त सजा का अभाव उसे उसके गुनाहों का एहसास भी नहीं करा पाता। मुझे ऐसा लगता है अगर पहले के मामलों को जल्द सुलझा लिया जाए और दहशतगर्दों के खिलाफ सख्त रवैया अपनाया जाए तो धमाकों के इस सिलसिले पर थोड़ी लगाम तो लगाई ही जा सकती है। बहरहाल अगले कुछ हफ्तों में जयपुर में हुए धमाकों पर चर्चाओं का दौर जारी रहने वाला है। उसके बाद गुलाबी नगरी में जिन्दगी के पटरी पर लौटते ही सब कुछ ठंडे बस्ते में चला जाएगा। एक जांच कमेटी धमाकों की जांच करेगी। पुलिस ने कुछ गिरफ्तारियां की हैं कुछ और करेगी। फिर सब कुछ पहले जैसा हो जाएगा लेकिन इस सिलसिले पर लगाम लग पाएगी कहना मुश्किल है। शायद इसकी एक और वजह है और वो है हम भारतीयों की भूलने की आदत। हम पिछले से सबक लेना नहीं जानते। आगे बढ़ने में भरोसा रखते हैं और शायद यही वजह है कि हमें अक्सर नुकसान उठाना पड़ता है।
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अनिल कुमार वर्मा
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