गुरुवार, 19 मार्च 2009

छिड़ी लड़इया यूपी में...


19 मार्च 09
लोकसभा चुनाव का बिगुल बज चुका है...इसके साथ ही शुरू हो गया है...सियासत की बिसात पर मोहरे सजाने का खेल...समीकरणों की गणित के हिसाब से खिलाड़ियों को मैदान में उतारने की कवायद में जुटे राजनीतिक दल नफा नुकसान तौल रहे हैं...देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश में भी सियासी हलचल चरम पर है...केन्द्र के सिंहासन का रास्ता इसी राज्य की गलियों से होकर गुजरता है...इसीलिए जिसने इन गलियों में रहने वालों का दिल और वोट जीत लिया...मान लिया जाता है कि उसने सत्ता हासिल करने का आधे से ज्यादा सफर तय कर लिया...इसीलिए राजनीतिक दलों की निगाहें इस प्रदेश की हलचल पर जा टिकी हैं...मतदाताओं को रिझाने के लिए दावों और वादों के पिटारे खोल दिए गए हैं...मेरी खादी उससे उजली की तर्ज पर खुद को बेहतर साबित करने की होड़ सी लग गई है...बात करें यूपी के घमासान की तो मुकाबला सपा और बसपा के बीच ही नजर आता है...कांग्रेस और भाजपा को तो तीसरे नंबर की लड़ाई लड़नी है...यूपी में सफलता हासिल करने के लिए छटपटा रही कांग्रेस एक ऐसे सहयोगी की तलाश में थी जो उसे इस चुनावी वैतरणी में पार लगा सके...सपा के रूप में उसकी ये तलाश पूरी होती नजर आ रही थी लेकिन अहम की लड़ाई ने इसकी संभावनाएं खत्म कर दीं...बाबरी विध्वंस के दौरान केन्द्र की तत्कालीन कांग्रेस सरकार की निष्क्रिय भूमिका ने अल्पसंख्यकों के बीच उसके आधार का ऐसा बंटाधार किया कि वो आज तक इस वर्ग का दिल जीतने में नाकाम ही रही है...प्रदेश स्तर पर कांग्रेस के पास संगठन और असरदार नेताओं का अभाव है...ये दोनों बातें केन्द्र की सत्ता पर दोबारा काबिज होने की उसकी राह का सबसे बड़ा रोड़ा हैं...हां राहुल गांधी के नाम पर उसे युवाओं का समर्थन मिल सकता है...जिससे आम चुनाव की लड़ाई में उसकी हालत थोड़ी बेहतर हो सकती है...लेकिन बावजूद इसके वो कई बड़ा उलटफेर करती नहीं दिखाई दे रही है...बात करें बीजेपी की तो उसकी हालत भी कांग्रेस से कुछ जुदा नहीं है...पीएम इन वेटिंग लालकृष्ण आडवाणी के राजनीतिक व्यक्तित्व का यूपी में कोई खास आकर्षण नहीं है...1999 में हुए संसदीय चुनाव के दौरान उसके करिश्माई व्यक्तित्व के धनी अटल बिहारी वाजपेयी जैसी शख्सियत थी..जिसका आज अभाव है...हालांकि रालोद के साथ गठबंधन बीजेपी को पश्चिमी उत्तर प्रदेश में कुछ राहत दिला सकता है...साथ ही बीजेपी अगर आंतरिक सुरक्षा के मुद्दे को हिन्दुत्व की चासनी देने में कामयाब हुई तो हो सकता है उसे चुनावी जंग में कुछ लाभ हासिल हो जाए...वरना तो उसे कुछ खास हासिल होता नहीं दिखता...बात करें बसपा की तो भदोही उपचुनाव में मिली हार से अगर उसके कार्यकर्ता नहीं उबरे तो फिर उसका नुकसान तय है...साथ ही उसे सवर्ण समुदाय के मतदाताओं पर भी नजर रखनी होगी...उसे इस वर्ग को कांग्रेस और भाजपा के पाले में जाने से रोकना होगा...क्योंकि अगर ऐसा हुआ तो बसपा को नुकसान उठाना पड़ सकता है...एंटी इन्कमबैंसी का असर भी बसपा की राह का रोड़ा बन सकता है...लेकिन अगर मायावती के पीएम बनने की बात चुनावी हवा में तब्दील हो गई तो केंद्र की ओर हाथी तेजी से बढ़ सकता है...साथ ही बसपा को अपने दलित-सवर्ण सामाजिक समीकरण का भी फायदा मिल सकता है...मायावती अगर अल्पसंख्यक मतों का विभाजन करने में कामयाब हुईं तो केंद्र की ओर उनकी दौड़ आसान ही होगी...कुल मिलाकर हाथी इस चुनाव में काफी सशक्त नजर आता है...रह गई मुलायम सिंह यादव की सपा...मुलायम को अल्पसंख्यक और पिछड़ों के अपने जनाधार को संभाल कर रखना होगा...अगर इसमें बिखराव आया तो साइकिल की हवा निकल सकती है...मुलायम के लिए दूसरा खतरा है माया का सर्वजनवाद...विधानसभा चुनाव के बाद अगर ये फार्मूला आम चुनाव में भी क्लिक कर गया तो मुलायम के लिए मुश्किल खड़ी हो सकती है...अमर सिंह का विवादास्पद आचरण और उनकी अनर्गल बयानबाजीपर लगाम नहीं कसी गई तो सपा के नेताओं और संगठन में बिखराव हो सकता है...आजम खान की नाराजगी इसकी मिसाल है...हां, कल्याण सिंह का साथ पश्चिमी उत्तर प्रदेश में मुलायम को कुछ सीटों का फायदा करा सकता है...इसके अलावा अगर मुख्य विपक्षी दल होने के नाते बसपा शासन से नाराज लोगों का ध्रुवीकरण उसकी तरफ हुआ तो मुलायम को मुस्कुराने का मौका मिल सकता है...कुल मिलाकर यूपी में सिंहासन का फाइनल हर बार की तरह इस बार भी जोरदार होगा...आप तो बस तेल देखिए और तेल की धार...

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