सोमवार, 30 मार्च 2009

मैं भी जीवित हूं....

30 मार्च 09
मैं आया था तुम्हारे घर,
तुम तो कहती थी...
मेरे द्वार खुले हैं,
हर पल तुम्हारे लिए...
पर वहां एक ताला था,
मैं सीढ़ियों पर बैठा...
कर रहा था...तुम्हारा इंतजार,
एक घण्टा...दो घण्टा...विवश...
अंतत: मैनें खिड़की से झांका,
नजर आया...
एक सूखा गुलाब का फूल,
एक खुली किताब...
मोर पंख,
फिर एक हवा का झोंका आया
कुछ पन्ने फड़फड़ाए...
एक पन्ना उड़ चला,
कुछ पुराना सा,
पीला-पीला सा पन्ना...
मैनें सिर्फ अपना नाम पढ़ा,
मुस्कुराया...
ताले पर नजर डाली,
और गुनगुनाते लौट चला,
तुमसे मिला अच्छा लगा,
अब मैं भी जीवित हूं यह जाना...

3 टिप्‍पणियां:

बेनामी ने कहा…

प्यार के एहसास को दर्शाती एक लाजवाब कविता...बधाई

डॉ. मनोज मिश्र ने कहा…

अब मैं भी जीवित हूं यह जाना....
सुंदर .

kshitij ने कहा…

Ek achchhi kavita

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