बुधवार, 27 अगस्त 2008

चले गए फ़राज़


27 अगस्त 2008

ज़िन्दगी से यही गिला है मुझे
तू बहुत देर से मिला है मुझे

हमसफ़र चाहिये हूज़ूम नहीं
इक मुसाफ़िर भी काफ़िला है मुझे

तू मोहब्बत से कोई चाल तो चल
हार जाने का हौसला है मुझे

लब कुशां हूं तो इस यकीन के साथ
कत्ल होने का हौसला है मुझे

दिल धडकता नहीं सुलगता है
वो जो ख्वाहिश थी, आबला है मुझे

कौन जाने कि चाहतो में फ़राज़
क्या गंवाया है क्या मिला है मुझे


बेशक ग़ज़ल, शायरी की सबसे मकबूल सिन्फ़ (विधा) है लेकिन इसकी मकबूलियत में चार चाँद लगाए हैं कुछ शायरों और कुछ ग़ज़ल गायकों ने। ग़ज़ल को अवाम के दिलों की धड़कन बनाने में अहमद फ़राज़ की खिदमत को कभी फरामोश नहीं किया जा सकता। उनकी ग़ज़लें उनके दिल का दर्द बनकर अवाम के दिलों में समा गई। ग़ज़ल के शौकीन हिन्दुस्तान में हों, पाकिस्तान में हों या फिर दुनिया के किसी हिस्से में। उन सबके चहीते शायर कहलाए अहमद फ़राज़। अहमद फ़राज़ की पैदाइश 14 जनवरी 1931 (कुछ लोगों ने इनकी पैदाइश का साल 1934 भी बताया है) को नौशेरा (पाकिस्तान) में हुई। पेशावर यूनिवर्सिटी से उन्होंने फारसी और उर्दू में तालीम हासिल की। शायरी का शौक बचपन से था। बेतबाजी के मुकाबलों में हिस्सा लिया करते थे। इब्तिदाई दौर में इक़बाल के कलाम से मुतास्सिर रहे। फिर आहिस्ता-आहिस्ता तरक्की पसंद तेहरीक को पसंद करने लगे। अली सरदार जाफरी और फ़ैज़ अहमद फै़ज़ के नक्शे-कदम पर चलते हुए जियाउल हक की हुकूमत के वक्त कुछ गज़लें ऐसी कहीं और मुशायरों में उन्हें पढ़ीं कि इन्हें जेल की हवा खानी पड़ी। कई साल पाकिस्तान से दूर बरतानिया, कनाडा मुल्कों में गुजारना पड़े। फ़राज़ ने रेडियो पाकिस्तान में सर्विस की और फिर दर्स-व-तदरीस के पेशे से भी जुड़े। उनकी शोहरत के साथ-साथ उनके दराजात में भी तरक्की होती रही। 1976 में पाकिस्तान एकेडमी ऑफ लेटर्स के डायरेक्टर जनरल और फिर उसी एकेडमी के चेयरमैन भी बने। 2004 में पाकिस्तान हुकूमत ने उन्हें हिलाल-ए-इम्तियाज़ अवार्ड से नवाजा लेकिन 2006 में उन्होंने ये अवार्ड इसलिए वापस कर दिया कि वो हुकूमत की पोलिसी से इत्तेफाक नहीं रखते थे। फ़राज़ को क्रिकेट खेलने का भी शौक था। लेकिन शायरी का शौक उन पर ऐसा ग़ालिब हुआ कि वो दौरे हाज़िर के ग़ालिब बन गए। उनकी शायरी की कई किताबें शाय हो चुकी हैं। ग़ज़लों के साथ ही फ़राज़ ने नज़्में भी लिखी हैं लेकिन लोग उनकी ग़ज़लों के दीवाने हैं। इन ग़ज़लों के अशआर न सिर्फ पसंद करते हैं बल्कि वो उन्हें याद हैं और महफिलों में उन्हें सुनाकर, उन्हें गुनगुनाकर फ़राज़ को अपनी दाद से नवाजते रहते हैं। 26 अगस्त को 77 साल की उम्र में अहमद फ़राज का निधन हो गया। फ़राज पिछले कुछ समय से बीमार चल रहे थे। वे इलाज के लिए अमरीका भी गए थे। उनकी याद में यहां उन्ही की एक रचना पेश करना चाहूंगा....

रंजिश ही सही, दिल ही दुखाने के लिए आ
आ फिर से मुझे छोड़ के जाने के लिए आ

कुछ तो मेरे पिन्दार-ए-मोहब्बत* का भरम रख
तू भी तो कभी मुझको मनाने के लिए आ

पहले से मरासिम* न सही, फिर भी कभी तो
रस्म-ओ-रह-ए-दुनिया ही निभाने के लिए आ

किस किस को बताएँगे जुदाई का सबब हम
तू मुझ से खफा है, तो ज़माने के लिए आ

एक उमर से हूँ लज्ज़त-ए-गिरया* से भी महरूम
ए राहत-ए-जां मुझको रुलाने के लिए आ

अब तक दिल-ए-खुशफ़हम को तुझ से हैं उम्मीदें
यह आखिरी शमाएं भी बुझाने के लिए आ


शायरों के शायर फ़राज़ को हमारी तरफ से भावभीनी श्रद्धांजलि

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