18 जून 2008
जानना चाहता हूँ मैं
जीवन को
उसकी अन्यतम गहराइयों में
इसलिए उतरना चाहता हूँ मैं
दुख की गहन गुफ़ा में
तैरना चाहता हूँ
नकारात्मकता की अंधकारमय नदी में
जैसे तैरती है कोई मछली
धारा के विरोध में
मुझे लगता है
मछली प्राणवंत हो उठती होगी
उल्टी धारा से खेलते हुए
अनायास ही चहचहा उठती होगी चिड़िया
उठती हुई ऊपर
धरती से ऊपर
गुरुत्वाकर्षण के विरोध में
इसलिए बिंधना चाहता हूँ मैं
हज़ार-हज़ार काँटों से
कि अनुभव कर सकूँ कि
उस बिंधने में मैं अपने अस्तित्व के
कितने क़रीब था
अनुभव कर सकूँ
उसे जो बिंधा!
गुदगुदाने के भाव से भरकर
परम आस्था और अहोभाव से भरकर
मृत्युसहोदर परम पीड़ा की गोद में
नवजात शिशु-सा निश्चिंत होकर
उस संजीवनी का पान करना चाहता हूँ
सुकरात का उत्तराधिकारी बनकर
शायद परम किरण का स्पर्श
तभी होता है
ज़िंदगी को!
POST BY -
ANIL KUMAR VERMA
मंगलवार, 17 जून 2008
रविवार, 15 जून 2008
बस यूं ही
15 जून 2008
आज यूं ही बैठे बैठे मन में ख़्याल आया कि इस दुनिया के बारे में कुछ लिखा जाए। वो दुनिया जिसमें हम और आप बसते हैं। वो दुनिया, जिसमें हर पल होनी-अनहोनी के बीच जिन्दगी हांफती-डांफती रफ्तार पकड़ने की कोशिश करती नजर आती है। वो दुनिया, जिसमें तमाम रिश्ते-नाते पलते बढ़ते हैं औऱ दम तोड़ देते हैं। वो दुनिया, जहां जिन्दगी को जीने की जद्दोजहद करता इंसान पेट की खातिर कुछ भी कर गुजरने को तैयार दिखाई देता है। वो दुनिया, जहां खुद को बचाए रखने की मुहिम में इंसान दूसरों के खात्मे से परहेज नहीं करता है। वो दुनिया, जहां उसी को जीने का हक़ है जिसके पास ताकत है, रसूख है और पैसा है। वो दुनिया, जहां एक की तक़लीफ दूसरे का तमाशा होती है। वो दुनिया जहां आए दिन होने वाले बम धमाकों की गूंज अंतरआत्मा को झिंझोड़ देती है। जहां धर्म और मजहब की तलवारें मानवता का कत्ल कर इंसानियत को शर्मसार करती हैं। ये सब सोचते सोचते ख्याल आया कि दुनिया का ऐसा ही रूप तो नहीं है। इससे इतर भी कोई दुनिया है। वो दुनिया जहां प्यार और मोहब्बत के फूल खिलते हैं। जहां रिश्तों की मिठास मन के सूखे धरातल पर बारिश की बौछार की भांति गिरकर आत्मा को तृप्त कर जाती है। वो दुनिया जहां मां के आंचल तले मिलने वाली ममता की छांव हर दर्द का मरहम बन जाती है। जहां पिता का दुलार और प्यार से सर पर गिरा हाथ चट्टानों का सीना चाक कर देने की कूवत पैदा कर देता है। वो दुनिया जहां कलाई पर प्यार से बांधा गया एक धागा जीवन भर की सुरक्षा का वादा बन जाता है। वो दुनिया जहां ढाई अक्षर का एक शब्द लोगों के लिए इबादत बन जाता है। इसके अलावा और भी बहुत कुछ है जिससे दुनिया को शब्दों में बांध देमे को जी चाहता है लेकिन क्या करूं शब्द चंचल मन की गहराइयों में कहीं दूर दफन हो गए हैं। मेरा सवाल अभी भी अनुत्तरित है कि आखिर ये किसकी और कैसी दुनिया है....
दीन दुनिया से बेखबर ये एक अलग दुनिया है
ये ग़म की दुनिया है...ये खुशी की दुनिया है
ये भोले भाले और लाचार लोगों की दुनिया है
ये घर से बेघर हुए लोगों की दुनिया है
ये पल में रूठते और पल में मानते लोगों की दुनिया है
ये बच्चों की दुनिया है...ये बूढ़ों की दुनिया है
ये हालात के मारे लोगों की दुनिया है
ये अपनों से हारे लोगों की दुनिया है
कभी दिल झांकता है खुद ही अपने झरोखे में
तो खुद ही सोचता है कि आखिर ये कैसी दुनिया है....
post by-
anil kumar verma
आज यूं ही बैठे बैठे मन में ख़्याल आया कि इस दुनिया के बारे में कुछ लिखा जाए। वो दुनिया जिसमें हम और आप बसते हैं। वो दुनिया, जिसमें हर पल होनी-अनहोनी के बीच जिन्दगी हांफती-डांफती रफ्तार पकड़ने की कोशिश करती नजर आती है। वो दुनिया, जिसमें तमाम रिश्ते-नाते पलते बढ़ते हैं औऱ दम तोड़ देते हैं। वो दुनिया, जहां जिन्दगी को जीने की जद्दोजहद करता इंसान पेट की खातिर कुछ भी कर गुजरने को तैयार दिखाई देता है। वो दुनिया, जहां खुद को बचाए रखने की मुहिम में इंसान दूसरों के खात्मे से परहेज नहीं करता है। वो दुनिया, जहां उसी को जीने का हक़ है जिसके पास ताकत है, रसूख है और पैसा है। वो दुनिया, जहां एक की तक़लीफ दूसरे का तमाशा होती है। वो दुनिया जहां आए दिन होने वाले बम धमाकों की गूंज अंतरआत्मा को झिंझोड़ देती है। जहां धर्म और मजहब की तलवारें मानवता का कत्ल कर इंसानियत को शर्मसार करती हैं। ये सब सोचते सोचते ख्याल आया कि दुनिया का ऐसा ही रूप तो नहीं है। इससे इतर भी कोई दुनिया है। वो दुनिया जहां प्यार और मोहब्बत के फूल खिलते हैं। जहां रिश्तों की मिठास मन के सूखे धरातल पर बारिश की बौछार की भांति गिरकर आत्मा को तृप्त कर जाती है। वो दुनिया जहां मां के आंचल तले मिलने वाली ममता की छांव हर दर्द का मरहम बन जाती है। जहां पिता का दुलार और प्यार से सर पर गिरा हाथ चट्टानों का सीना चाक कर देने की कूवत पैदा कर देता है। वो दुनिया जहां कलाई पर प्यार से बांधा गया एक धागा जीवन भर की सुरक्षा का वादा बन जाता है। वो दुनिया जहां ढाई अक्षर का एक शब्द लोगों के लिए इबादत बन जाता है। इसके अलावा और भी बहुत कुछ है जिससे दुनिया को शब्दों में बांध देमे को जी चाहता है लेकिन क्या करूं शब्द चंचल मन की गहराइयों में कहीं दूर दफन हो गए हैं। मेरा सवाल अभी भी अनुत्तरित है कि आखिर ये किसकी और कैसी दुनिया है....
दीन दुनिया से बेखबर ये एक अलग दुनिया है
ये ग़म की दुनिया है...ये खुशी की दुनिया है
ये भोले भाले और लाचार लोगों की दुनिया है
ये घर से बेघर हुए लोगों की दुनिया है
ये पल में रूठते और पल में मानते लोगों की दुनिया है
ये बच्चों की दुनिया है...ये बूढ़ों की दुनिया है
ये हालात के मारे लोगों की दुनिया है
ये अपनों से हारे लोगों की दुनिया है
कभी दिल झांकता है खुद ही अपने झरोखे में
तो खुद ही सोचता है कि आखिर ये कैसी दुनिया है....
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anil kumar verma
सोमवार, 9 जून 2008
एक अनोखा फैसला
09 जून 2008
आज ऑफिस में एक स्क्रिप्ट पर काम करते समय एक चौंकाने वाली जानकारी सामने आई। चौकाने वाली इसलिए कह रहा हूं क्योंकि मुझे इस खबर के बारे में ज़रा भी अंदाजा नहीं था। खबर ये थी कि मध्य प्रदेश की राजधानी भोपाल और जिले इंदौर में कुंआरी लड़कियां बिना शादी के ही मां बनने का गौरव हासिल कर रही हैं। इस वाक्य की गलत व्याख्या मत करिएगा। दरअसल इन इलाकों की लड़कियां शादी-ब्याह जैसे सामाजिक बंधन में बंधे बिना ही बच्चों को गोद लेकर अपनी ममता का हकदार चुन रही हैं। सामाजिक बंधनों से मुक्त रहते हुए भी मां होने का एहसास इन युवतियों को सालता नहीं बल्कि इसकी खुशी उनके चेहरे पर साफ देखी जा सकती है। सामाजिक मान्यताओं के उलट, कुंआरी लड़कियों में जीवनसाथी के बिना ही मां बनने की इस चाहत को रोकने के लिए कोई कानूनी बंदिश हो ऐसा भी नहीं है। (ऐसा मैं उस अधिवक्ता की बाइट के आधार पर कह रहा हूं जो हमारे रिपोर्टर ने ली थी)लिहाजा घर गृहस्थी के बंधन से परे किसी बच्चे को अपनाकर उसकी मां बनने की चाहत बहुत सी युवतियों में घर कर गई है। भोपाल स्थित 'मातृछाया' नाम की बच्चे गोद देने वाली एक संस्था की मानें तो पिछले एक साल में आठ से दस बिन ब्याही लड़कियां बच्चा गोद लेने के लिए उसके ऑफिस के चक्कर लगा चुकी हैं। हालांकि ये काम इतना आसान नहीं है। आवेदक युवती को अपने परिवार के सहमति पत्र के साथ-साथ बच्चे के सुरक्षित भविष्य की गांरटी भी देनी होती है। अगर युवती ऐसा करने में नाकाम रहती है तो संस्था उसे बच्चा गोद देने से मना कर देती है। हमारे समाजिक ढांचे में बिन ब्याही मां की राह आसान नहीं होती। रीति रिवाजों की मुखालफत कर अपनी जिन्दगी अपने ढंग से जीने की छूट भारतीय समाज आसानी से नहीं देता। ऐसे में ये देखना दिलचस्प होगा कि क्या हिन्दुस्तानी परिवार अपनी बिन ब्याही बेटियों को उनकी ममता का हकदार चुनने की आजादी दे पायेंगे।
POST BY-
ANIL KUMAR VERMA
आज ऑफिस में एक स्क्रिप्ट पर काम करते समय एक चौंकाने वाली जानकारी सामने आई। चौकाने वाली इसलिए कह रहा हूं क्योंकि मुझे इस खबर के बारे में ज़रा भी अंदाजा नहीं था। खबर ये थी कि मध्य प्रदेश की राजधानी भोपाल और जिले इंदौर में कुंआरी लड़कियां बिना शादी के ही मां बनने का गौरव हासिल कर रही हैं। इस वाक्य की गलत व्याख्या मत करिएगा। दरअसल इन इलाकों की लड़कियां शादी-ब्याह जैसे सामाजिक बंधन में बंधे बिना ही बच्चों को गोद लेकर अपनी ममता का हकदार चुन रही हैं। सामाजिक बंधनों से मुक्त रहते हुए भी मां होने का एहसास इन युवतियों को सालता नहीं बल्कि इसकी खुशी उनके चेहरे पर साफ देखी जा सकती है। सामाजिक मान्यताओं के उलट, कुंआरी लड़कियों में जीवनसाथी के बिना ही मां बनने की इस चाहत को रोकने के लिए कोई कानूनी बंदिश हो ऐसा भी नहीं है। (ऐसा मैं उस अधिवक्ता की बाइट के आधार पर कह रहा हूं जो हमारे रिपोर्टर ने ली थी)लिहाजा घर गृहस्थी के बंधन से परे किसी बच्चे को अपनाकर उसकी मां बनने की चाहत बहुत सी युवतियों में घर कर गई है। भोपाल स्थित 'मातृछाया' नाम की बच्चे गोद देने वाली एक संस्था की मानें तो पिछले एक साल में आठ से दस बिन ब्याही लड़कियां बच्चा गोद लेने के लिए उसके ऑफिस के चक्कर लगा चुकी हैं। हालांकि ये काम इतना आसान नहीं है। आवेदक युवती को अपने परिवार के सहमति पत्र के साथ-साथ बच्चे के सुरक्षित भविष्य की गांरटी भी देनी होती है। अगर युवती ऐसा करने में नाकाम रहती है तो संस्था उसे बच्चा गोद देने से मना कर देती है। हमारे समाजिक ढांचे में बिन ब्याही मां की राह आसान नहीं होती। रीति रिवाजों की मुखालफत कर अपनी जिन्दगी अपने ढंग से जीने की छूट भारतीय समाज आसानी से नहीं देता। ऐसे में ये देखना दिलचस्प होगा कि क्या हिन्दुस्तानी परिवार अपनी बिन ब्याही बेटियों को उनकी ममता का हकदार चुनने की आजादी दे पायेंगे।
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ANIL KUMAR VERMA
Homophones क्या हैं भला...?
09 जून, 2008
मिर्ज़ा एबी बेग
बीबीसी, दिल्ली
प्रिंस्पल और प्रिंस्पुल में भेद तो है लेकिन प्रिंस्पल अगर प्रिंस्पुल वाला हो तो क्या कहने। हाल ही में भारतीय मूल के 13 वर्षीय समीर मिश्रा ने स्क्रिप्स नेश्नल स्पेलिंग बी प्रतियोगिता में जीत दर्ज करके यह साबित कर दिया है कि अंग्रेज़ी भाषा में भारतीयों की कितनी पकड़ है। यही नहीं, इस प्रतियोगिता में पहले 12 प्रतियोगियों में चार भारतीय नस्ल के हैं। समीर ने यह फ़ाइनल मिशिगन के भारतीय मूल के 12 वर्षीय सिद्धार्थ चंद को हरा कर जीता। इसमें 8-15 वर्ष के 288 बच्चों ने हिस्सा लिया था। इस ख़बर का मतलब यहां यह है कि हम अपनी अंग्रेज़ी में अक्सर एक ही स्वर वाले शब्दों की स्पेलिंग करने में चूक कर जाते हैं परिणाम कुछ का कुछ हो जाता है, कभी तो यह हमारी आलोचना का कारण बनता है और कभी हास्य और व्यंग्य का।
होमोफ़ोन्स (Homophones)
आज की बैठक में हम एक प्रकार के स्वर वाले शब्दों को देखेंगे जिन्हें होमोफ़ोन्स (Homophones) कहा जाता है (Words that sound alike or nearly alike but have different meanings) और हम अकसर इसकी स्पेलिंग और इसके प्रयोग में ग़लती करते हैं। दूसरी भाषा के तौर पर अंग्रेज़ी सीखने वालों से साधारण तौर पर जो ग़लतियां होती हैं उन्हें हम कॉमन एरर कहते हैं। आज सिर्फ़ होमोफ़ोन्स (Homophones) की बात करेंगे।
Accept (ऐक्सेप्ट) स्वीकार करना, मान लेना, जैसे Dhoni accepted the defeat in the IPL final frankly या The headmaster accepted the demand of the students for a football match.
Except (एक्सेप्ट) यानी छोड़ देना या किसी को छोड़ कर जैसे Everyone except Asha got first division in the class. या I like all kinds of drinks except milkshake.
शिक्षक और छात्र के संबंध में ऐडवाइस बहुत काम आती है
Advice (ऐडवाइस) यानी परामर्श, मशविरा, सलाह या राय यह संज्ञा के तौर पर इस्तेमाल होता है, जैसे I need your advice या An expert advice can save the government in the coming elections.
Advise (ऐडवाइज़) यह क्रिया के तौर पर इस्तेमाल होता है और इसका अर्थ होता है परामर्श या सलाह देना, जैसे The police advised the media not to blow the issue out of proportion. या The doctor advised the patient to take rest.
Affect (अफ़ेक्ट) प्रभाव डालना, असर डालना, प्रभावित करना वग़ैरह जैसे The latest injury of Tendulkar will affect the performance of the Indian cricket team in the coming tour.
Effect (इफ़ेक्ट) आम तौर पर इसका प्रयोग संज्ञा के तौर पर होता है और इसका अर्थ होता है परिणाम, नतीजा, असर वग़ैरह जैसे Music has a calming effect. लेकिन जब इसका प्रयोग क्रिया के रूप में होता है तो अर्थ है उत्पन्न करना, पूरा करना वग़ैरह जैसे The medicine effected a complete recovery. इन-इफ़ेक्ट In effect का मतलब होता है वास्तव में असल में.
All ready (ऑल रेडी) यानी पूरी तरह से तैयार या सभी तैयार हैं जैसे They were all ready for the danger ahead.
Already (ऑलरेडी) यानी पहले से ही, अभी तक वग़ैरह, जैसे— I have already read the book. या We are late already.
Allude (अल्यूड) संकेत करना, इशारे में कहना, जैसे Teachers often allude to the previous chapters for the better understanding of their students.
Elude (एल्यूड) यानी चालाकी से बच निकलना, टाल-मटोल करना, जैसे The group of car thieves continue to elude the police.
दूसरी भाषा के तौर पर अंग्रेज़ी सीखने वालों से साधारण तौर पर जो ग़लतियां होती हैं उन्हें हम कॉमन एरर कहते हैं
Beside (बिसाइड) यानी के पास, के बग़ल में जैसे The baby was sleeping beside her mother.
Besides (बिसाइड्स) का अर्थ है के अलावा, के अतिरिक्त, इसके सिवाय, को छोड़कर वग़ैरह जैसे She likes green, yellow, blue besides white. के साथ के तौर पर इसका प्रयोग ज़्यादा होता है Besides journalism he has done other professional courses like computer, short hand etc.
Complement (कमप्लिमेंट) का अर्थ होता है पूरक, सम्पूरक जैसे They complement each other in Mathematics and Science.
Compliment (कमप्लिमेंट) यानी प्रशंसा, अभिनंदन तारीफ़ वग़ैरह जैसे Anil received compliments from his colleagues as well as boss on achieving the target.
Decent (डीसेंट) विशेषण है और इसका अर्थ होता है, शालीन, सुघड़, सलीक़ेदार उदार, मुनासिब वग़ैरह और इसका प्रयोग इस प्रकार होता है. I thought he was a decent sort of person. या Every once should be entitled to a decent living.
Descent (डीसेंट) संज्ञा है और इसका अर्थ होता है उतार, ढ़लाव, वंशक्रम, वंशपरंपरा वग़ैरह और इसका प्रयोग इस प्रकार होता है. They trace their line of descent back to Ashoka. या There is a sharp descent after that hill into the valley.
Dissent (डीसेंट) यह संज्ञा और क्रिया दोनों में प्रयोग होता है और इसका अर्थ होता ह विरोध करना, सहमति नहीं दिखाना वग़ैरह जैसे — There is some dissent within the committee over the issue. या Seven people favoured the proposal while nine dissented.
रेगिस्तान में खाने के बाद ऐसे सावादिष्ट डेज़र्ट कहां मिलेंगे.
Desert (डेज़र्ट) यानी सुनसान, वीराना, मरुस्थल, मरुभूमि, छोड़ देना, त्याग देना, छोड़ भागना वग़ैरह जैसे, Thar and Sahara desert are great deserts with different features. या He deserted the army during the war. या I prefer wandering in deserted places.
Dessert (डेज़र्ट) खाने के बाद वाली मीठी चीज़ जैसे There is no ice-cream or gulab jamun for the desert in the menu.
Discreet (डिसक्रीट) यानी चालाक, चतुर, विवेकशील वग़ैरह जैसे, Anil has been very discreet in his professional life, never giving any idea of his move.
Discrete (डिसक्रीट) यानी अलग, पृथक, मुख़तलिफ़ वग़ैरह जैसे, The small companies are fighting for their discrete identity.
Principal (प्रिंस्पल) यानी मुख्य, प्रधान, प्रमुख, मूलधन वग़ैरह जैसे— India’s principal export is tea. या The principal announced the final result of class X. या Radha lives on interest and wants to keep her principal intact
Principle (प्रिंस्पुल) यानी नियम, सिद्धांत, मूलतत्व, निष्ठा, ईमानदारी वग़ैरह – India is run on the principle of social justice and equality. या He is a man of principle.
इसके अलावा भी बहुत सारे ऐसे शब्द हैं जिनसे तरह तरह की भ्रांतियां पैदा होती हैं. अगली बैठक में हम कुछ ऐसे शब्दों को देखेंगे जिनके प्रयोग में आम तौर पर ग़लतियां देखी जाती हैं. इन्हें कॉमन एरर (common error) कहते हैं।
साभार बीबीसी
post by
anil kumar verma
शनिवार, 7 जून 2008
महंगाई की राजनीति
07 जून 2008
उबली जन-मन भावना, महंगाई की आंच,
कीमत इतनी नुकीली, रस्ते पर ज्यों कांच।
रस्ते पर ज्यों कांच, बालकों को बहलाओ,
बटुआ लहूलुहान, न शॉपिंग करने जाओ।
चक्र सुदर्शन कहे— 'चाय है कैसी बबली?'
'गैस बचाने के चक्कर में आधी उबली।'
अशोक चक्रधर साहब की ये रचना देश में लगातार बढती महंगाई का सटीक चित्रण करती है। दो दिन बीते हैं, अभी केंद्र सरकार ने पेट्रोल, डीजल और रसोई गैस की कीमतों में इजाफा किया है। कहते हैं मजबूरी है, अंतर्राष्ट्रीय बाजार में तेल की कीमतें लगातार बढ़ रही हैं और देश में उन कंपनियों को भारी घाटा उठाना पड़ रहा है, जो इनकी सप्लाई करती हैं। सरकार के इस फैसले की जनता के बीच मिली जुली प्रतिक्रिया हुई। कुछ ने उसकी मजबूरी को समझते हुए इस फैसले को जायज बताया तो कुछ ने खुद को ठगा हुआ महसूस किया। उधर तमाम दूसरे राजनीतिक दल औऱ मीडिया तो जैसे तड़े बैठे थे कि सरकार बस पेट्रोलियम उत्पादों की कीमतों में वृद्धि का फैसला भर करे, उसके बाद के तमाशे की जिम्मेदारी तो उनकी है। विपक्षी दलों ने महंगाई को लेकर जंग तो पहले ही छेड़ रखी थी, पेट्रोलियम पदार्थों की कीमतों में हुए इजाफे ने तो उन्हें मन मागी मुराद दे दी। पहले मीडिया के सामने बयानों के ज़रिए भड़ास निकाली कि केंद्र सरकार जन विरोधी है, उसने जनता की जेब पर डाका डाला है, चेतावनियों का भी दौर चला, लोग सड़कों पर भी उतरे, पुतले भी फूंके गए, नारे भी लगाए गए और जनता से अपील की गई कि वो सरकार को उसके किए की सजा चुनाव में उसे हराकर दे। सरकार के सहयोगी वाम दलों ने भी सरकार के इस फैसले पर त्यौरियां तरेरने में कोताही नहीं बरती। सहयोगियों का भी मिजाज बिगड़ते देख यूपीए के सबसे बड़े दल कांग्रेस ने अपनी राज्य सरकारों से कहा कि वे अपने अपने राज्यों में पेट्रोलियम उत्पादों पर सेल्स टैक्स में कमी करके जनता पर पड़ेने वाले बोझ को कम करें। दिल्ली, पश्चिम बंगाल, केरल, आंध्र प्रदेश औऱ तमिलनाडु ने तत्काल कटौती को घोषणा की लेकिन कुछ राज्यों ने बिक्री कर घटाने से साफ इंकार कर दिया। कुल मिलाकर महंगाई की भट्टी पर अपने अपने फायदें की रोटियां सेंकने मे कोई भी राजनीतिक दल पीछे नहीं रहना चाहता था। समाज का चौथा स्तंभ भी महंगाई के चलते जनता को मिले दर्द की पराकाष्ठा को व्यक्त करने के लिए मरा जा रहा था। तेल में आग, किचन में आग, बटुए में आग, मार डाला, जेब पर डाका जैसे स्लोगनों को बड़े बड़े हर्फों में बैक ड्राप पर उकेरकर मानो जनता को ये एहसास दिलाने की कोशिश की जा रही थी कि भइया महंगाई बढ़ गई है, गैस महंगी हो गई है, पेट्रोल औऱ डीजल भी महंगा हो गया है, एंकर चिल्ला चिल्ला कर जनता से एक ही सवाल पूछ रही थी कि गैस महंगी होने से किचन कैसे मैनेज करेंगे, पेट्रोल औऱ डीजल महंगा होने से गाड़ी कैसे मैनेज करेंगे, महीने के बजट पर इसका क्या असर पड़ेगा। जनता बेचारी हक्की बक्की होकर महंगाई को लेकर चलने वाले इस तमाशे को देख रही थी। गुर्जरों के बंद का दंश अभी झेल ही रही थी कि अपने हितैषियों द्वारा आहूत बंद ने उसकी मुश्किलें और बढ़ा दीं। महंगाई और बंद के दो पाटों में बेचारी जनता पिस रही थी और हमारे नेता इस समस्या से निपटने के बजाए राजनीतिक जोड़तोड़ में लगे हुए हैं। मीडिया भी स्वस्थ बहस के बजाए डंडा लेकर सरकार के पीछे पड़ गई और इस फैसले के चलते आने वाले लोकसभा चुनाव के दौरान सरकार को हने वाले नफे नुकसान की गणित समझाने लगी। जिस तरह से महंगाई को लेकर हल्ला मच रहा था और सरकार को कोसा जा रहा था, मैं ये सोचने के लिए मजबूर हो गया कि क्या अगर भाजपा या फिर कोई और दल सत्ता में होता तो तेल की कीमतें न बढतीं। क्या तब अंतर्राष्ट्रीय बाजार में तेल की बढ़ती कीमतें नजरअंदाज कर दी जातीं, क्या तब कोई ऐसा रास्ता तलाश लिया जाता जिससे आम जनता को बढ़ती मंहगाई के इस दौर में पेट्रोलियम पदार्थों की कीमतों में होने वाली वृद्धि के असर से बचाया सकता, अगर हां तो क्या विपक्ष में बैठी भाजपा को इस समस्या के समाधान के लिए सत्ता पर काबिज होना ज़रूरी है, क्या वो विपक्ष में बैठकर सरकार को इस संबंध में सकारात्मक राय नहीं दे सकती, क्या जनता के दर्द को हथियार बनाकर उसके ज़रिए राजनीति करना उचित है। सरकार के सहयोगी की भूंमिका निभा रहे उन वामदलों को देखकर मुझे और ज्यादा कोफ्त होती है जो सहयोगी के बजाए दुश्मन की भूमिका कुछ ज्यादा अच्छी तरह से निभा रहे हैं। सरकार के हर फैसले को विरोध उनकी आदत बन चुका है। किसी मसले पर आम राय बनाकर उसका हल निकालने के बजाए सड़क पर उतरकर उछलकूद करना उन्हें ज्यादा अच्छा लगता है। जाहिर है ये लोग सत्ता की मलाई भी खाना चाहते हैं और जनता के हमदर्द बने रहने का ढोंग भी करना चाहते हैं। दुनिया के विकसित देशों जी-8 के ऊर्जा मंत्रियों की बैठक जापान में हो रही है, जिसमें तेल की बढ़ती क़ीमतों के दुनिया की अर्थव्यवस्था पर पड़ने वाले गंभीर असर पर विचार किया जाना है। ईश्वर से दुआ है कि इस बैठक में कुछ सार्थक निकले जिससे महंगाई के बोझ तले कराह रही जनता को कुछ राहत मिले वरना तो फिर भगवान ही मालिक है इस देश का और इस देश की व्यवस्था का।
post by-
anil kumar verma
उबली जन-मन भावना, महंगाई की आंच,
कीमत इतनी नुकीली, रस्ते पर ज्यों कांच।
रस्ते पर ज्यों कांच, बालकों को बहलाओ,
बटुआ लहूलुहान, न शॉपिंग करने जाओ।
चक्र सुदर्शन कहे— 'चाय है कैसी बबली?'
'गैस बचाने के चक्कर में आधी उबली।'
अशोक चक्रधर साहब की ये रचना देश में लगातार बढती महंगाई का सटीक चित्रण करती है। दो दिन बीते हैं, अभी केंद्र सरकार ने पेट्रोल, डीजल और रसोई गैस की कीमतों में इजाफा किया है। कहते हैं मजबूरी है, अंतर्राष्ट्रीय बाजार में तेल की कीमतें लगातार बढ़ रही हैं और देश में उन कंपनियों को भारी घाटा उठाना पड़ रहा है, जो इनकी सप्लाई करती हैं। सरकार के इस फैसले की जनता के बीच मिली जुली प्रतिक्रिया हुई। कुछ ने उसकी मजबूरी को समझते हुए इस फैसले को जायज बताया तो कुछ ने खुद को ठगा हुआ महसूस किया। उधर तमाम दूसरे राजनीतिक दल औऱ मीडिया तो जैसे तड़े बैठे थे कि सरकार बस पेट्रोलियम उत्पादों की कीमतों में वृद्धि का फैसला भर करे, उसके बाद के तमाशे की जिम्मेदारी तो उनकी है। विपक्षी दलों ने महंगाई को लेकर जंग तो पहले ही छेड़ रखी थी, पेट्रोलियम पदार्थों की कीमतों में हुए इजाफे ने तो उन्हें मन मागी मुराद दे दी। पहले मीडिया के सामने बयानों के ज़रिए भड़ास निकाली कि केंद्र सरकार जन विरोधी है, उसने जनता की जेब पर डाका डाला है, चेतावनियों का भी दौर चला, लोग सड़कों पर भी उतरे, पुतले भी फूंके गए, नारे भी लगाए गए और जनता से अपील की गई कि वो सरकार को उसके किए की सजा चुनाव में उसे हराकर दे। सरकार के सहयोगी वाम दलों ने भी सरकार के इस फैसले पर त्यौरियां तरेरने में कोताही नहीं बरती। सहयोगियों का भी मिजाज बिगड़ते देख यूपीए के सबसे बड़े दल कांग्रेस ने अपनी राज्य सरकारों से कहा कि वे अपने अपने राज्यों में पेट्रोलियम उत्पादों पर सेल्स टैक्स में कमी करके जनता पर पड़ेने वाले बोझ को कम करें। दिल्ली, पश्चिम बंगाल, केरल, आंध्र प्रदेश औऱ तमिलनाडु ने तत्काल कटौती को घोषणा की लेकिन कुछ राज्यों ने बिक्री कर घटाने से साफ इंकार कर दिया। कुल मिलाकर महंगाई की भट्टी पर अपने अपने फायदें की रोटियां सेंकने मे कोई भी राजनीतिक दल पीछे नहीं रहना चाहता था। समाज का चौथा स्तंभ भी महंगाई के चलते जनता को मिले दर्द की पराकाष्ठा को व्यक्त करने के लिए मरा जा रहा था। तेल में आग, किचन में आग, बटुए में आग, मार डाला, जेब पर डाका जैसे स्लोगनों को बड़े बड़े हर्फों में बैक ड्राप पर उकेरकर मानो जनता को ये एहसास दिलाने की कोशिश की जा रही थी कि भइया महंगाई बढ़ गई है, गैस महंगी हो गई है, पेट्रोल औऱ डीजल भी महंगा हो गया है, एंकर चिल्ला चिल्ला कर जनता से एक ही सवाल पूछ रही थी कि गैस महंगी होने से किचन कैसे मैनेज करेंगे, पेट्रोल औऱ डीजल महंगा होने से गाड़ी कैसे मैनेज करेंगे, महीने के बजट पर इसका क्या असर पड़ेगा। जनता बेचारी हक्की बक्की होकर महंगाई को लेकर चलने वाले इस तमाशे को देख रही थी। गुर्जरों के बंद का दंश अभी झेल ही रही थी कि अपने हितैषियों द्वारा आहूत बंद ने उसकी मुश्किलें और बढ़ा दीं। महंगाई और बंद के दो पाटों में बेचारी जनता पिस रही थी और हमारे नेता इस समस्या से निपटने के बजाए राजनीतिक जोड़तोड़ में लगे हुए हैं। मीडिया भी स्वस्थ बहस के बजाए डंडा लेकर सरकार के पीछे पड़ गई और इस फैसले के चलते आने वाले लोकसभा चुनाव के दौरान सरकार को हने वाले नफे नुकसान की गणित समझाने लगी। जिस तरह से महंगाई को लेकर हल्ला मच रहा था और सरकार को कोसा जा रहा था, मैं ये सोचने के लिए मजबूर हो गया कि क्या अगर भाजपा या फिर कोई और दल सत्ता में होता तो तेल की कीमतें न बढतीं। क्या तब अंतर्राष्ट्रीय बाजार में तेल की बढ़ती कीमतें नजरअंदाज कर दी जातीं, क्या तब कोई ऐसा रास्ता तलाश लिया जाता जिससे आम जनता को बढ़ती मंहगाई के इस दौर में पेट्रोलियम पदार्थों की कीमतों में होने वाली वृद्धि के असर से बचाया सकता, अगर हां तो क्या विपक्ष में बैठी भाजपा को इस समस्या के समाधान के लिए सत्ता पर काबिज होना ज़रूरी है, क्या वो विपक्ष में बैठकर सरकार को इस संबंध में सकारात्मक राय नहीं दे सकती, क्या जनता के दर्द को हथियार बनाकर उसके ज़रिए राजनीति करना उचित है। सरकार के सहयोगी की भूंमिका निभा रहे उन वामदलों को देखकर मुझे और ज्यादा कोफ्त होती है जो सहयोगी के बजाए दुश्मन की भूमिका कुछ ज्यादा अच्छी तरह से निभा रहे हैं। सरकार के हर फैसले को विरोध उनकी आदत बन चुका है। किसी मसले पर आम राय बनाकर उसका हल निकालने के बजाए सड़क पर उतरकर उछलकूद करना उन्हें ज्यादा अच्छा लगता है। जाहिर है ये लोग सत्ता की मलाई भी खाना चाहते हैं और जनता के हमदर्द बने रहने का ढोंग भी करना चाहते हैं। दुनिया के विकसित देशों जी-8 के ऊर्जा मंत्रियों की बैठक जापान में हो रही है, जिसमें तेल की बढ़ती क़ीमतों के दुनिया की अर्थव्यवस्था पर पड़ने वाले गंभीर असर पर विचार किया जाना है। ईश्वर से दुआ है कि इस बैठक में कुछ सार्थक निकले जिससे महंगाई के बोझ तले कराह रही जनता को कुछ राहत मिले वरना तो फिर भगवान ही मालिक है इस देश का और इस देश की व्यवस्था का।
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anil kumar verma
मंगलवार, 3 जून 2008
ये कैसा फ़रमान
03 जून 2008
आज हिन्दी दैनिक अमर उजाला के संपादकीय पेज पर एक लेख पढ़ा। जानकारी मिली कि पशुओं के उत्पीड़न को लेकर देश के एनीमल वेलफेयर बोर्ड की बॉलीवुड के निर्माताओं पर त्योरियां चढी हुई हैं। बोर्ड ने अपने ताजा दिशा निर्देशों में शेर, बाघ, तेंदुए औऱ बन्दर को लेकर दृश्यों के फिल्मांकन पर रोक लगा दी है। साथ ही इस निर्देश में दूसरे अन्य जानवरों के साथ शूटिंग के लिए भी एक महीने पहले अनुमति लेने की ताकीद की गई है। जिस तरह से दुनिया भर में लुप्त होते पशुओं को बचाने के लिए, उनके संरक्षण के लिए विभिन्न संस्थाओं ने अपने अपने स्तर से मुहिम छेड़ रखी है वो काबिले तारीफ है। निश्चित ही इस तरह के किसी भी प्रयास का स्वागत होना चाहिए लेकिन बोर्ड के इस दिशा निर्देश से उसकी मंशा पर सवाल खड़े होते नजर आ रहे हैं। सबसे पहले तो ये कि क्या पशुओं के फिल्मांकन करने मात्र से उनका उत्पीड़न हो जाता है। दूसरा ये कि बालीवुड ने अपनी फिल्मों के ज़रिए पशुओं को लेकर समाज को जो सकारात्मक संदेश देने की कोशिश अब तक की है क्या बोर्ड ने उन पर गौर करके इन निर्देशों को जारी किया है। जिस तरह से हाथी मेरा साथी, मै तेरा दुश्मन, तेरी मेहरबानियां, महाराजा और नागिन जैसी फिल्मों ने पशुओं को लेकर समाज को जो संदेश पहुंचाने की कोशिश की है क्या बोर्ड ने इन दिशा निर्देशों को जारी करते समय उन्हें ध्यान में रखा था क्योंकि इन फिल्मों के कारुणिक दृश्य आज भी आंखों में नमी ला देते हैं और बहुत कुछ सोचने के लिए मजबूर करते हैं। किस तरह से इंसान का लालच पशुओं के अस्तित्व के लिए खतरा बन सकता है, उसे दर्शाने के लिए बॉलीवुड से बेहतर माध्यम कोई हो सकता है भला। अगर बोर्ड ने इन बातों को ध्यान में रखकर नए दिशआ निर्देश जारी किए हैं तो उसकी इस पहल का स्वागत है। हालांकि इसकी गुंजाइश मुझे न के बराबर लगती है। दरअसल बीते कुछ दिनों में जिस तरह से सरकारी महकमे बॉलीवुड के खिलाफ मोर्चा खोले नजर आए उससे तो मुझे कम से कम यही लगा कि इस तरह की सारी कवायद महज लोकप्रियता पाने की ललक है इसके सिवा कुछ भी नहीं। बीते दिनों केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री ने जिस तरह से बॉलीवुड के कुछ लोकप्रिय अभिनेताओं के खिलाफ धूम्रपान के विज्ञापनों को लेकर टीका टिप्पणी की उससे
तो यही संदेश गया। ये कुछ बोलेंगे फिर वो कुछ बोलेंगे फिर जब मीडिया उसे मसालेदार बनाकर जनता के सामने परोसता है तो सुर्खियां तो बनती ही हैं। बात करें एनीमल वेलफेयर बोर्ड की तो मुझे लगता है उसका ध्यान पशुओं की संरक्षा और सुरक्षा पर कम खुद की पब्लीसिटी पर ज्यादा है। वरना बीते कुछ महीनों में जिस तरह से रिहाइशी इलाकों में जंगली पशुओं की आमद औऱ उसके बाद उनके शिकार की घटनाएं बढीं हैं वो इन पर रोक लगाने के लिए कुछ सार्थक कदम उठाता न कि इस तरह के बेमतलब और अतार्किक फरमान जारी कर अपना वक्त बरबाद करता। मीडिया में हर दूसरे दिन खबर आती है कि संरक्षित पशुओं की खालों की तस्करी करने वाले गिरोह का भंडाफोड़, दुर्लभ किस्म के कछुओं की तस्करी करने वाला गिरोह पुलिस की गिरफ्त में और भी न जाने क्या क्या, लेकिन बोर्ड इस तरह से अवैध शिकार पर रोक लगाने के लिए किसी तरह की पहल करने के बजाए बेकार के फरमान जारी करने मे व्यस्त है। संसारचन्द जैसे न जाने कितने पशु तस्कर लगातार संरक्षित पशुओं के शिकार और तस्करी मे लिप्त हैं लेकिन उन पर किसी तरह की नकेल नहीं कस पा रही है। एक औऱ बात जो उस सम्पादकीय में कही गई वो भी मुझे ठीक लगी कि इस तरह के फरमान हमारे देश में अभिव्यक्ति की आजादी पर हमला हैं। कल को बाल अधिकारों के लिए लड़ाई लड़ रही सरकारी औऱ गैर सरकारी संस्थाएं फिल्मों मे बच्चों के काम करने को उनका शोषण करार देने की मांग करेंगी तो अनोखा बंधन, नन्हें जैसलमेर, तारे ज़मीन पर, भूतनाथ, हम हैं राही प्यार के जैसी ह्रदयस्पर्शी फिल्में कहां से देखने को मिलेंगी। समाज में फैली तमाम भ्रातियों औऱ बुराइयों को आईना दिखाने में बालीवुड की अहम भूमिका है। अगर उसके योगदान को नकारकर हम उसके कुछ नकारात्मक पहलुओं को लेकर हो हल्ला मचायें ये कहां तक उचित है। एनीमल वेल फेयर बोर्ड को मेरी सलाह है कि वो अपनी ऊर्जा व्यर्थ के कामों की बजाए कुछ सार्थक करने में खर्च करे। इस मामले में मैं अपने तमाम ब्लागिए यार दोस्त और दूसरे भाई बंधुओं की राय जानने का इच्छुक हूं। कृपया इश लेख पर टिप्पणी कर अपने सुझावों से ज़रूर अवगत कराएं। धन्यवाद।
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anil kumar verma
आज हिन्दी दैनिक अमर उजाला के संपादकीय पेज पर एक लेख पढ़ा। जानकारी मिली कि पशुओं के उत्पीड़न को लेकर देश के एनीमल वेलफेयर बोर्ड की बॉलीवुड के निर्माताओं पर त्योरियां चढी हुई हैं। बोर्ड ने अपने ताजा दिशा निर्देशों में शेर, बाघ, तेंदुए औऱ बन्दर को लेकर दृश्यों के फिल्मांकन पर रोक लगा दी है। साथ ही इस निर्देश में दूसरे अन्य जानवरों के साथ शूटिंग के लिए भी एक महीने पहले अनुमति लेने की ताकीद की गई है। जिस तरह से दुनिया भर में लुप्त होते पशुओं को बचाने के लिए, उनके संरक्षण के लिए विभिन्न संस्थाओं ने अपने अपने स्तर से मुहिम छेड़ रखी है वो काबिले तारीफ है। निश्चित ही इस तरह के किसी भी प्रयास का स्वागत होना चाहिए लेकिन बोर्ड के इस दिशा निर्देश से उसकी मंशा पर सवाल खड़े होते नजर आ रहे हैं। सबसे पहले तो ये कि क्या पशुओं के फिल्मांकन करने मात्र से उनका उत्पीड़न हो जाता है। दूसरा ये कि बालीवुड ने अपनी फिल्मों के ज़रिए पशुओं को लेकर समाज को जो सकारात्मक संदेश देने की कोशिश अब तक की है क्या बोर्ड ने उन पर गौर करके इन निर्देशों को जारी किया है। जिस तरह से हाथी मेरा साथी, मै तेरा दुश्मन, तेरी मेहरबानियां, महाराजा और नागिन जैसी फिल्मों ने पशुओं को लेकर समाज को जो संदेश पहुंचाने की कोशिश की है क्या बोर्ड ने इन दिशा निर्देशों को जारी करते समय उन्हें ध्यान में रखा था क्योंकि इन फिल्मों के कारुणिक दृश्य आज भी आंखों में नमी ला देते हैं और बहुत कुछ सोचने के लिए मजबूर करते हैं। किस तरह से इंसान का लालच पशुओं के अस्तित्व के लिए खतरा बन सकता है, उसे दर्शाने के लिए बॉलीवुड से बेहतर माध्यम कोई हो सकता है भला। अगर बोर्ड ने इन बातों को ध्यान में रखकर नए दिशआ निर्देश जारी किए हैं तो उसकी इस पहल का स्वागत है। हालांकि इसकी गुंजाइश मुझे न के बराबर लगती है। दरअसल बीते कुछ दिनों में जिस तरह से सरकारी महकमे बॉलीवुड के खिलाफ मोर्चा खोले नजर आए उससे तो मुझे कम से कम यही लगा कि इस तरह की सारी कवायद महज लोकप्रियता पाने की ललक है इसके सिवा कुछ भी नहीं। बीते दिनों केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री ने जिस तरह से बॉलीवुड के कुछ लोकप्रिय अभिनेताओं के खिलाफ धूम्रपान के विज्ञापनों को लेकर टीका टिप्पणी की उससे
तो यही संदेश गया। ये कुछ बोलेंगे फिर वो कुछ बोलेंगे फिर जब मीडिया उसे मसालेदार बनाकर जनता के सामने परोसता है तो सुर्खियां तो बनती ही हैं। बात करें एनीमल वेलफेयर बोर्ड की तो मुझे लगता है उसका ध्यान पशुओं की संरक्षा और सुरक्षा पर कम खुद की पब्लीसिटी पर ज्यादा है। वरना बीते कुछ महीनों में जिस तरह से रिहाइशी इलाकों में जंगली पशुओं की आमद औऱ उसके बाद उनके शिकार की घटनाएं बढीं हैं वो इन पर रोक लगाने के लिए कुछ सार्थक कदम उठाता न कि इस तरह के बेमतलब और अतार्किक फरमान जारी कर अपना वक्त बरबाद करता। मीडिया में हर दूसरे दिन खबर आती है कि संरक्षित पशुओं की खालों की तस्करी करने वाले गिरोह का भंडाफोड़, दुर्लभ किस्म के कछुओं की तस्करी करने वाला गिरोह पुलिस की गिरफ्त में और भी न जाने क्या क्या, लेकिन बोर्ड इस तरह से अवैध शिकार पर रोक लगाने के लिए किसी तरह की पहल करने के बजाए बेकार के फरमान जारी करने मे व्यस्त है। संसारचन्द जैसे न जाने कितने पशु तस्कर लगातार संरक्षित पशुओं के शिकार और तस्करी मे लिप्त हैं लेकिन उन पर किसी तरह की नकेल नहीं कस पा रही है। एक औऱ बात जो उस सम्पादकीय में कही गई वो भी मुझे ठीक लगी कि इस तरह के फरमान हमारे देश में अभिव्यक्ति की आजादी पर हमला हैं। कल को बाल अधिकारों के लिए लड़ाई लड़ रही सरकारी औऱ गैर सरकारी संस्थाएं फिल्मों मे बच्चों के काम करने को उनका शोषण करार देने की मांग करेंगी तो अनोखा बंधन, नन्हें जैसलमेर, तारे ज़मीन पर, भूतनाथ, हम हैं राही प्यार के जैसी ह्रदयस्पर्शी फिल्में कहां से देखने को मिलेंगी। समाज में फैली तमाम भ्रातियों औऱ बुराइयों को आईना दिखाने में बालीवुड की अहम भूमिका है। अगर उसके योगदान को नकारकर हम उसके कुछ नकारात्मक पहलुओं को लेकर हो हल्ला मचायें ये कहां तक उचित है। एनीमल वेल फेयर बोर्ड को मेरी सलाह है कि वो अपनी ऊर्जा व्यर्थ के कामों की बजाए कुछ सार्थक करने में खर्च करे। इस मामले में मैं अपने तमाम ब्लागिए यार दोस्त और दूसरे भाई बंधुओं की राय जानने का इच्छुक हूं। कृपया इश लेख पर टिप्पणी कर अपने सुझावों से ज़रूर अवगत कराएं। धन्यवाद।
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anil kumar verma
रविवार, 1 जून 2008
क्यों बिगड़ा रिजल्ट
1 जून 2008
जब से शाहरुख खान की फिल्म ओम शांति ओंम और करीना कपूर की टशन सिनेमाघरों में पहुंची है लोगों को लिखने और चर्चा करने का एक नया और ताजा विषय मिल गया है। शाहरुख की सिक्स पैक एब्स और करीना के जीरो फिगर को लेकर समाज को चौथा स्तंभ भी काफी कांशस नजर आया। शाहरुख के साथ हुई हर बातचीत में जहां उनकी सिक्स पैक एब्स की चर्चा हुई वहीं करीना के जीरो फिगर को भी घुमाघुमा कर टेलीविजन स्क्रीन मे चार चांद लगाने की कोशिश की गई। इसका असर ये हुआ कि शहरों से लेकर गांव तक में हर चौराहे और नुक्कड़ पर युवा इसी विषय पर बतियाते दिखाई दिए। उनमें शाहरुख औऱ करीना की तरह दिखने का जुनून घर कर गया। नतीजा ये हुआ कि इनके दिन का आधा वक्त जिम में पसीना बहाने में गुजरने लगा। जिस संजीदगी और तन्मयता से युवाओं ने शाहरुख और करीना को फॉलो करना शुरू किया वो वास्तव में काबिले तारीफ था। इसी बीच खबर आई कि यूपी बोर्ड के अंतर्गत होने वाली हाईस्कूल की परीक्षा में 15 लाख छात्र फेल हो गए। स्वकेंद्र प्रणाली के खात्मे ने इन छात्रों के भविष्य पर कालिख पोत दी। मुझे लगा समाज को जागरुक करने की मुहिम में लगा हमारा मीडिया इस बात को भी गंभीरता से लेगा और हाईस्कूल के नतीजों को लेकर व्यापक स्तर पर बहस जरूर छिड़ेगी। इन कारणों की पड़ताल होगी कि क्या केवल छात्र ही इस स्थिति के लिए जिम्मेदार हैं यो फिर इसके पीछे कहीं शिक्षकों का भी योगदान है लेकिन कुछ जगहों पर छोड़ कहीं कोई इस मामले को लेकर चिंतित नहीं दिखा। इस बीच रबीश जी के कस्बे से खबर आई कि वे उत्तर प्रदेश की मर चुकी शिक्षा प्रणाली के लिए एक शोक सभा के आयोजन में लगे हैं और देश भर के लोगों को उन्होंने निमंत्रण भी भेजा है। हालांकि इस सभा में उन्होंने सिर्फ फेल होने वाले लड़कों और उनके परिवार वालों को ही आमंत्रित किया है। लड़कियों को इसलिए नहीं किया क्योंकि उनके उत्तीर्ण होने का प्रतिशत पिछली बार की ही तरह लड़कों से बेहतर है। इसी बीच उन्होंने नकल के समाजशास्त्र की परिभाषा भी समझा दी और प्रदेश की बेटियों की सफलता पर उन्हें सलामी भी ठोंक दी। इतना ही नहीं उन्होंने तो फेल हुए छात्रों को लेकर राजनीति करने का मार्ग भी सुझा दिया। रबीश जी ने जिस व्यंगात्मक अंदाज में प्रदेश की शिक्षा व्यवस्था पर चोट की वो दिल को छू गया। आप सोच रहे होंगे मैनें पहले शाहरुख की सिक्स पैक एब्स औऱ करीना के जीरो फिगर की चर्चा की लेकिन फिर अचानक यूपी की शिक्षा प्रणाली के बारे में बात करने लगा। दरअसल मैं ये समझने और जानने की कोशिश कर रहा हूं कि जब शाहरुख की बॉडी और करीना के फिगर को युवा इतनी संजीदगी से लेते हैं तो फिर पढ़ाई को क्यों नहीं। क्या वजह है कि माता-पिता,शिक्षक कोई भी इन छात्रों का झुकाव उन किताबों की तरफ न करा सका जिनसे उनकी जिन्दगी संवरनी है। उल्टे वो इस जुगाड़ में लगे रहे कि कैसे वो अपने घर के चिरागों को नकल कराकर कैरियर की एक सीढ़ी उपर चढ़ा दिया जाए। चिराग भी इसी भरोसे में रहे कि नकल का तेल उनकी बाती की लौ में रौशनी का सबब बनेगा ही। परिणाम सामने आए तो पांच लाख चिरागों की जिन्दगी नाकामी के अंधेरों में गुम होती दिखाई दी। बावजूद इसके इस मामले में कहीं कोई बहस या चर्चा होती नहीं दिखी। मैं इसी वजह की तलाश में हूं लेकिन जवाब अभी तक नदारद है। साथ ही मैं शिक्षा जगत की सतत सुधार प्रक्रिया में शामिल लोगों का ध्यान भी इस ओर आकृष्ट करना चाहता हूं कि वे पढ़ाई का कोई ऐसा तरीका खोजें जो इन छात्रों को तो क्लासरूम और किताबों से बांधे ही साथ ही उनके गुरुओं को भी इस बात के लिए प्रेरित करे कि वो अपने छात्रों के साथ संजीदगी से क्लासरूम में कुछ समय बिताएं। अभिभावकों से अनुरोध है कि वो अपने बच्चों को समझाएं कि कड़ी मेहनत का कोई विकल्प नहीं है।
जब से शाहरुख खान की फिल्म ओम शांति ओंम और करीना कपूर की टशन सिनेमाघरों में पहुंची है लोगों को लिखने और चर्चा करने का एक नया और ताजा विषय मिल गया है। शाहरुख की सिक्स पैक एब्स और करीना के जीरो फिगर को लेकर समाज को चौथा स्तंभ भी काफी कांशस नजर आया। शाहरुख के साथ हुई हर बातचीत में जहां उनकी सिक्स पैक एब्स की चर्चा हुई वहीं करीना के जीरो फिगर को भी घुमाघुमा कर टेलीविजन स्क्रीन मे चार चांद लगाने की कोशिश की गई। इसका असर ये हुआ कि शहरों से लेकर गांव तक में हर चौराहे और नुक्कड़ पर युवा इसी विषय पर बतियाते दिखाई दिए। उनमें शाहरुख औऱ करीना की तरह दिखने का जुनून घर कर गया। नतीजा ये हुआ कि इनके दिन का आधा वक्त जिम में पसीना बहाने में गुजरने लगा। जिस संजीदगी और तन्मयता से युवाओं ने शाहरुख और करीना को फॉलो करना शुरू किया वो वास्तव में काबिले तारीफ था। इसी बीच खबर आई कि यूपी बोर्ड के अंतर्गत होने वाली हाईस्कूल की परीक्षा में 15 लाख छात्र फेल हो गए। स्वकेंद्र प्रणाली के खात्मे ने इन छात्रों के भविष्य पर कालिख पोत दी। मुझे लगा समाज को जागरुक करने की मुहिम में लगा हमारा मीडिया इस बात को भी गंभीरता से लेगा और हाईस्कूल के नतीजों को लेकर व्यापक स्तर पर बहस जरूर छिड़ेगी। इन कारणों की पड़ताल होगी कि क्या केवल छात्र ही इस स्थिति के लिए जिम्मेदार हैं यो फिर इसके पीछे कहीं शिक्षकों का भी योगदान है लेकिन कुछ जगहों पर छोड़ कहीं कोई इस मामले को लेकर चिंतित नहीं दिखा। इस बीच रबीश जी के कस्बे से खबर आई कि वे उत्तर प्रदेश की मर चुकी शिक्षा प्रणाली के लिए एक शोक सभा के आयोजन में लगे हैं और देश भर के लोगों को उन्होंने निमंत्रण भी भेजा है। हालांकि इस सभा में उन्होंने सिर्फ फेल होने वाले लड़कों और उनके परिवार वालों को ही आमंत्रित किया है। लड़कियों को इसलिए नहीं किया क्योंकि उनके उत्तीर्ण होने का प्रतिशत पिछली बार की ही तरह लड़कों से बेहतर है। इसी बीच उन्होंने नकल के समाजशास्त्र की परिभाषा भी समझा दी और प्रदेश की बेटियों की सफलता पर उन्हें सलामी भी ठोंक दी। इतना ही नहीं उन्होंने तो फेल हुए छात्रों को लेकर राजनीति करने का मार्ग भी सुझा दिया। रबीश जी ने जिस व्यंगात्मक अंदाज में प्रदेश की शिक्षा व्यवस्था पर चोट की वो दिल को छू गया। आप सोच रहे होंगे मैनें पहले शाहरुख की सिक्स पैक एब्स औऱ करीना के जीरो फिगर की चर्चा की लेकिन फिर अचानक यूपी की शिक्षा प्रणाली के बारे में बात करने लगा। दरअसल मैं ये समझने और जानने की कोशिश कर रहा हूं कि जब शाहरुख की बॉडी और करीना के फिगर को युवा इतनी संजीदगी से लेते हैं तो फिर पढ़ाई को क्यों नहीं। क्या वजह है कि माता-पिता,शिक्षक कोई भी इन छात्रों का झुकाव उन किताबों की तरफ न करा सका जिनसे उनकी जिन्दगी संवरनी है। उल्टे वो इस जुगाड़ में लगे रहे कि कैसे वो अपने घर के चिरागों को नकल कराकर कैरियर की एक सीढ़ी उपर चढ़ा दिया जाए। चिराग भी इसी भरोसे में रहे कि नकल का तेल उनकी बाती की लौ में रौशनी का सबब बनेगा ही। परिणाम सामने आए तो पांच लाख चिरागों की जिन्दगी नाकामी के अंधेरों में गुम होती दिखाई दी। बावजूद इसके इस मामले में कहीं कोई बहस या चर्चा होती नहीं दिखी। मैं इसी वजह की तलाश में हूं लेकिन जवाब अभी तक नदारद है। साथ ही मैं शिक्षा जगत की सतत सुधार प्रक्रिया में शामिल लोगों का ध्यान भी इस ओर आकृष्ट करना चाहता हूं कि वे पढ़ाई का कोई ऐसा तरीका खोजें जो इन छात्रों को तो क्लासरूम और किताबों से बांधे ही साथ ही उनके गुरुओं को भी इस बात के लिए प्रेरित करे कि वो अपने छात्रों के साथ संजीदगी से क्लासरूम में कुछ समय बिताएं। अभिभावकों से अनुरोध है कि वो अपने बच्चों को समझाएं कि कड़ी मेहनत का कोई विकल्प नहीं है।
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