मंगलवार, 29 जुलाई 2008

भारत में सक्रिय आतंकवादी संगठन

30 जुलाई 2008
भारत में उग्रवादी संगठनों की सूची दिनो दिन बढ़ती ही जा रही है। आए दिन होने वाली आतंकवादी वारदातों में किसी नए संगठन का नाम सामने आता है,या फिर कोई नया संगठन हमले की जिम्मेदारी लेता है। जयपुर में हुए बम विस्फोटों की जिम्मेदारी इंडियन मुजाहिदीन ने ली है,हाँलाकि सुरक्षा एजेंसियों को इस दावे पर पूरा भरोसा नहीं है। यह अल्पज्ञात आतंकी संगठन पहले भी कुछ वारदातों की जिम्मेदारी ले चुका है। केंद्रीय गृह मंत्रालय राज्य सरकारों की पुलिस और खुफिया तंत्र से मिली जानकारी के आधार पर इन उग्रवादी और पृथकतावादी संगठनों पर नजर रखता है और इनके खिलाफ सतत कार्रवाई चलती रहती है। केंद्र सरकार विधि विरुद्ध क्रियाकलाप(निवारण)अधिनियम 2004 के तहत 32 गिरोहों को आतंकवादी संगठन के रूप में प्रतिबंधित कर चुकी है।

प्रतिबंधित उग्रवादी संगठन
* बब्बर खालसा इंटरनेशनल
* खालिस्तान कमांडो फोर्स
* खालिस्तान जिंदाबाद फोर्स
* इंटरनेशनल सिख यूथ फेडरेशन
* लश्कर-ए-तोइबा/पासवान-ए-अहले हदीस
* जैश-ए-मोहम्मद/तहरीक-ए-फुरकान
*हरकत-उल- मुजाहिद्दीन- हरकत-उल- जेहाद-ए-इस्लामी
* हिज्ब-उल-मुजाहिद्दीनर, पीर पंजाब रेजीमेंट
* अल-उमर-इस्लामिक फ्रंट
* यूनाइटेड लिब्रेशन फ्रंट ऑफ असम (उल्फा)
* नेशनल डेमोक्रेटिक फ्रंट बोडोलेंड (एनडीएफबी)
* पीपल्स लिब्रेशन आमी (पीएलए)
* यूनाइटेड नेशनल लिब्रेशन फ्रंट (यहव, एनएलएफ)
* पीपल्स रिवोल्यूशनरी पार्टी ऑफ कांग्लेईपाक (पीआरईपीएके)
* कांग्लेईपाक कम्युनिस्ट पार्टी (केसीपी)
* कैंग्लई याओल कन्चालुम (केवाईकेएल)
* मणिपुर पीपल्स लिब्रेशन फ्रंट (एमपीएलफ)
* आल त्रिपुरा टाइगर फोर्स
* नेशनल लिब्रेशन फ्रंट ऑफ त्रिपुरा
* लिब्रेशन टाइगर्स ऑफ तमिल ईलम (एलटीटीई)
* स्टूडेंट इस्लामिक मूवमेंट ऑफ इंडिया
* दीनदार अंजुमन
*कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया (मार्क्सवादी-लेनिनवादी) पीपल्स वार, इसके सभी फार्मेशन और प्रमुख संगठन।
* माओवादी कम्युनिस्ट सेंटर (एमसीसी) इसके सभी फार्मेशन और प्रमुख संगठन।
* अल बदर
* जमायत-उल-मुजाहिद्दीन
* अल-कायदा
* दुखतरान-ए-मिल्लत (डीईएम)
* तमिलनाडु लिबरेशन आर्मी (टीएनएलए)
* तमिल नेशनल रिट्रीवॅल टुप्स (टीएनआरटी)
* अखिल भारत नेपाली एकता समाज (एबीएनईएस)

दहशत में देश

30 जुलाई 2008



बैंगलुरु और और अहमदाबाद में हुए धमाकों की दहशत लोगों के ज़ेहन से अभी हटी भी नहीं थी कि गुजरात का एक और शहर आतंक के साए में डूबा नजर आया। गुजरात की व्यवसायिक राजधानी सूरत में एक के बाद एक 18 बम बरामद हुए। हालांकि बम निरोधक दस्ते ने सभी बमों को निष्क्रिय कर दिया लेकिन इस बात का अंदाजा लगाना कतई मुश्किल नहीं है कि अगर ये बम फट जाते तो हालात कैसे होते। पूरा का पूरा शहर मानों आतंक और दहशत की धुरी पर खड़ा था। इन बमों के विफल होते ही आतंकियों ने फिर से मेल करके जहां अपने मिशन सूरत को फेल होने की बात कबूली वहीं फिर से चेतावनी दे डाली कि वो गुजरात के दूसरे इलाकों में फिर धमाके करेंगे और सरकार में दम हो तो उन्हें रोक के दिखाए। गौर करने वाली बात ये है कि सूरत में जो 18बम मिले थे, उन सभी को स्थानीय नागरिकों ने तलाश किया था और उन्हें पुलिस के बम दस्ते से सिर्फ़ निष्क्रिय किया। मतलब साफ है कि पुख्ता सुरक्षा व्यवस्था का दम भरने वाली सुरक्षा एजेंसियां और पुलिस प्रशासन पंगु हो चुके हैं। एक के बाद एक हो रही आतंकी घटनाओं ने उन्हें अवसाद की स्थिति में ला खड़ा किया है। अब ऐसे में जनता को ये महसूस होने लगा है कि ऐसी भयानक त्रासदियों के बीच जीना ही उसकी नियति बन चुका है। इससे शर्मनाक औऱ क्या हो सकता है कि सूचना और संचार प्रौद्योगिकी की विश्वशक्ति,परमाणु शक्ति से लैस, भविष्य का सबसे युवा और ऊर्जावान देश अपनी जनता के जान माल की रक्षा करने में नाकाम साबित हो रहा है। आतंक, असुरक्षा और बेबसी उसकी पहचान बनता जा रहा है।



हर बार की तरह एक बार फिर इस बार हुए धमाकों का शिकार हुए लोगों के परिजनों के प्रति शोक संवेदानाओं का दौर जारी है, आर्थिक सहायता दी जा रही है, माननीयों के दौरे हो रहे हैं, केंद्र और राज्यों की सुरक्षा एजेंसियों के बीच बेहतर तालमेल की उम्मीदें और दावे किए जा रहे हैं लेकिन इन सबके बीच सत्तारूढ़ दल और विपक्ष के बीच आरोप प्रत्यारोप का दौर भी जारी है। जो ये दर्शाता है कि आतंकवाद के विरुद्ध एक निर्णायक लड़ाई लड़ने का किस कदर अभाव है। जबकि दोषारोपण और असहायता के मनोविज्ञान से बाहर निकले बिना आतंकवाद के विरुद्ध कोई कारगर और निर्णायक लड़ाई नहीं लड़ी जा सकती।



हिंसा की सीमा ख़त्म हो चुकी है। क्योंकि यह ना उम्र देखती है,ना मज़हब। अस्पतालों को निशाना बना कर यह संकेत भी दे दिया गया कि हिंसा जितना संभव हो उतनी निर्मम शक्ल में होगी। माना कि इतने बड़े देश में हर जगह, हर शख्स को सुरक्षा नहीं दी जा सकती लेकिन क्या अब तक हुए बम धमाकों के बाद हुई जांच पड़ताल और उसके लिए बनी जांच कमेटियों की रिपोर्टो, गिरफ्तार हुए लोगों से हुई पूछताथ और घटनास्थल से मिले सुरागों के बाद क्या कोई ऐसी व्यवस्था विकसित हो पाई है, जिससे दिनों दिन गहराते आतंक के इस काले साए से निपटने में मदद मिल सके। शायद नहीं, क्योंकि ऐसी घटनाओं पर लगाम न लग पाना इसका स्पष्ट सबूत है। मेरे हिसाब से अब वो समय बीत गया है जब हम सुरक्षा एजेंसियों और प्रशासनिक व्यवस्था के भरोसे रहकर जिंदगी को जीने की कोशिश करें। अब वक्त हे हर नागरिक को अपनी हिफाजत के लिए आतंकवादी मंसूबों से लड़ने के लिए उठ खड़े होने का। मानवता-विरोधी, सभ्यता-विरोधी बर्बर लोगों को मार भगाने का जज्बा जब इस देश में रहने वाले हर शख्स के दिल में होगा तभी अमन चैन बहाल होगा और दहशत भरी हवाओं में सांस लेती जिन्दगी को खुली और आजाद हवा नसीब हो सकेगी। लोगों में इस बात के लिए विश्वास जगाना होगा कि देश मजहब और धर्म से बड़ा होता है। जब वो सुरक्षित होगा तो हम सुरक्षित होंगे।

सभी फोटो साभार बीबीसी

शनिवार, 26 जुलाई 2008

धमाके दर धमाके


27 जुलाई 2008

पाँच साल में भारत के बड़े धमाके
भारत में पिछले पाँच वर्षों के दौरान कई धमाके हुए हैं जिनमें बड़ी संख्या में लोगों की मौत हुई है.धमाके में कभी मंदिर तो कभी मस्जिद को निशाना बनाया गया.पिछले साल तो अजमेर की मशहूर ख़्वाजा ग़रीब नवाज़ की दरगाह पर भी धमाका हुआ.

इन धमाकों का ब्यौरा....

13 मार्च 2003: मुंबई में एक ट्रेन में हुए धमाके में 11 लोगों की मौत हो गई.

25 अगस्त 2003: मुंबई में एक के एक दो कार बम धमाकों में 60 लोगों की मौत हो गई.

15 अगस्त 2003: असम में हुए धमाके में 18 लोग मारे गए जिनमें ज़्यादातर स्कूली बच्चे थे.

29 अगस्त 2003: नई दिल्ली के तीन व्यस्त इलाक़ों में हुए धमाकों में 66 लोगों ने अपनी जान गँवाई.

7 मार्च 2006: वाराणसी में हुए तीन धमाकों में कम से कम 15 लोग मारे गए जबकि 60 से ज़्यादा घायल हुए.

11 जुलाई 2006: मुंबई में कई ट्रेन धमाकों में 180 से ज़्यादा लोगों की मौत हो गई.

8 सितंबर 2006: महाराष्ट्र के मालेगाँव में कुई सिलसिलेवार धमाकों में 32 लोग मारे गए.

19 फरवरी 2007: भारत से पाकिस्तान जा रही ट्रेन में हुआ धमाका. इस धमाके में 66 लोगों की मौत हो गई जिनमें से ज़्यादातर पाकिस्तान के नागरिक थे.

18 मई 2007: हैदराबाद की मशहूर मक्का मस्जिद में शुक्रवार की नमाज़ के दौरान धमाका हुआ. जिनमें 11 लोगों की मौत हो गई.

25 अगस्त 2007: हैदराबाद के एक पार्क में तीन धमाके हुए जिनमें कम से कम 40 लोग मारे गए.

11 अक्तूबर 2007: अजमेर में ख़्वाज़ा ग़रीब नवाज़ की दरगाह पर हुआ धमाका. धमाके में दो लोगों की मौत हो गई.

23 नवंबर, 2007 : वाराणसी, फ़ैज़ाबाद और लखनऊ के अदालत परिसर में सिलसिलेवार धमाके हुए जिसमें 13 लोगों की मौत हो गई और 50 से ज़्यादा घायल हो गए.

13 मई 2008: जयपुर में सात बम धमाके हुए. जिनमें कम से कम 63 लोगों की मौत हो गई.

25 जुलाई 2008: बंगलौर में हुए सात धमाके. जिनमें दो व्यक्ति की मौत हो गई और कम से कम 15 घायल हुए.

26 जुलाई 2008: अहमदबाद में लगातार कई धमाके हुए.

साभार बीबीसी

आतंकवाद का पसरता साया




27 जुलाई 2008
26 जुलाई यानि शनिवार को गुजरात की औद्योगिक राजधानी अहमदाबाद 70 मिनट के भीतर हुए सोलह धमाकों से थर्राई, बीस से ज्यादा लोगों की मौत और सौ से ज्यादा घायल। इस खबर से जहां सभी अखबार रंगे पड़े हैं तो सारे न्यूज चैनल भी मानों इन्हीं के इर्द-गिर्द सिमट कर रह गए हैं। इससे ठीक एक दिन पहले शुक्रवार को कर्नाटक की राजधानी बैंगलुरू में हुए नौ घमाकों की आवाज अभी लोगों के कानों में गूंज ही रही थी कि एक और आतंकी हमले ने लोगों को भीतर तक झकझोर कर रख दिया। अभी ज्यादा वक्त नहीं बीता जब जयपुर और हैदराबाद में भी कुछ ऐसा ही नजारा सामने आया था। आतंकियों ने ऐसे ही धमाके कर तमाम लोगों की जानें ले ली थी। अहमदाबाद में जो कुछ हुआ उससे एक बात तो साफ हो गई कि देश में सुरक्षा व्यवस्था के नाम पर कुछ शेष नहीं बचा है। देश का हर नागरिक अपनी जिन्दगी अपनी किस्मत के सहारे जी रहा है। आतंकी आते हैं, छाती ठोंक के, चुनौती देकर, जहां मर्जी होती है बम फोड़कर चले जाते हैं। पीछे छोड़ जाते हैं दहशत, रोते-बिलखते लोग और फिजा में पसरा मौत का सन्नाटा। सुनाई देती है तो केवल बुद्धिजीवियों में आतंकवाद को लेकर छिड़ी बहस, कानों में गूंजती है तो प्रधानमंत्री सहित तमाम नेताओं द्वारा की जा रही बम धमाकों की निन्दा, आरोप-प्रत्यारोप और रेड अलर्ट के साथ हाई अलर्ट का शोर। हर बार यही होता है। कोई हमारे नीति नियंताओं, देश चलाने और संभालने का ठेका लेने वालो और हमें सुरक्षा का भरोसा दिलाने वालों से ये नहीं पूछता कि आखिर इस सब पर लगाम कब लगेगी। खेमों और वर्गों में बंटा हमारा समाज भी अपने अपनों को सही ठहराते हुए दूसरों की कमियां गिनाने में लग जाता है। राष्ट्रीय और क्षेत्रीय दलों में विभाजित देश की सौ करोड़ की आबादी उन लोगों से ये सवाल नहीं करती कि आखिर उन परिवारों का क्या कसूर था, जिनके कलेजे के टुकड़े इस आतंक की भेंट चढ़ गए। कोई नहीं पूछता कि कब तक यूं ही आतंकवाद से लड़ने के खोखले दावे किए जाते रहेंगे। सरकार किसी की भी हो धमाके होते हैं, बार बार होते हैं और निर्दोष जनता मारी जाती है। इंसानियत के इन दुश्मनों से निपटने के लिए कहीं कोई आम राय बनती नजर नहीं आती। क्या वजह है कि अमेरिका में 9-11 के बाद कोई आतंकी हमला नहीं हुआ जबकि हम रोज ऐसे हमलों से दो-चार हो रहे हैं। कमी आखिर कहां है। इस समस्या से निपटने के लिए हमारी इच्छा शक्ति में कमी है या फिर संसाधनों में। आखिर क्यों हम आतंकियों के नापाक मंसीबों पर लगाम लगाने में कामयाब नहीं हो पा रहे हैं। प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति द्वारा इस मौके पर भले ही लोगों से शांति बनाए रखने की अपील बेशक लोगों को अमन के लिए आतंक के खिलाफ उभरते जज्बातों को जब्त किए रखने को मजबूर कर रही हो लेकिन हर शख्स के मन में यही सवाल धधक रहा है कि आखिर कब तक। दरअसल पिछले पंद्रह-बीस वर्षों में कुछ वजहों से दुनिया बहुत बदल गई है। ये वजह हैं,संचार क्रांति, इमीग्रेशन, ग्लोबलाइजेशन, ग्लोबल वार्मिंग और आतंकवाद। इनमें से पहली दो चीजों से नक्शे और समाज बदले , तीसरी की मार संस्कृति पर पड़ी और चौथी बात से पूरी पृथ्वी का मुस्तकबिल ही खतरे में पड़ गया लेकिन पांचवी और आखिरी बात से तो पूरी इंसानियत का मुस्तकबिल ही दांव पर लग गया है। दरअसल आतंकवाद की आकांक्षा हमेशा से ही रक्तरंजित और प्रवृत्ति पाश्विक रही है। दहशत पैदा करने और फैलाने के लिए उसने नित नयी भाव भंगिमाएं गढ़ीं। विध्वंस, आतंकवाद की पहली शर्त रहा है और वो इसी शर्त का पालने करने में लगे हैं लेकिन आतंकवाद से लड़ने के लिए हमने ऐसी कोई शर्त नहीं बनाई और शायद यही वजह है कि हम इस राक्षस से लड़ने में नाकाम हो रहे हैं।

आओ लद्दाख चलें

26 जुलाई 2008
जम्मू-कश्मीर का लद्दाख़ क्षेत्र 96701 वर्ग किलोमीटर में फैला हुआ है और इसकी क़रीब दो लाख की आबादी इसके दो ज़िलों में रहती है. लेह ज़िला बौद्ध बहुल है जबकि कारगिल में क़रीब 99 प्रतिशत आबादी मुस्लिम है.1979 से पहले लद्दाख एक ही ज़िला था लेकिन तब उसे बाँटकर दो ज़िले बनाए गए. कुछ लोग आरोप लगाते हैं कि लद्दाख का ये विभाजन सांप्रदायिक आधार पर किया गया था.लद्दाख नवंबर से जून के महीनों में बाक़ी दुनिया से कट जाता है क्योंकि इसे बाक़ी दुनिया से जोड़ने वाले श्रीनगर-लेह मार्ग और लद्दाख-मनाली मार्ग बर्फ़ गिरने के कारण बंद हो जाते हैं.लद्दाख़ को बर्फ़ीला रेगिस्तान भी कहा जाता है और जाड़ों के मौसम में लेह और कारगिल का तापमान सामान्य से तीस डिग्री सेल्सियस और द्रास सेक्टर में तो साठ डिग्री सेल्सियस नीचे तक चला जाता है.लद्दाख़ अपनी उँचाई के लिए भी प्रसिद्ध है.अलबत्ता लद्दाख़ का राजनीतिक माहौल अवश्य गर्म रहता है और ये गर्माहट उसके अंदर कम बल्कि राज्य के जम्मू-कश्मीर क्षेत्रों में और राष्ट्रीय राजनीतिक पटल पर ज़्यादा महसूस की जाती है. लद्दाख़ के दोनों ज़िलों लेह और कारगिल के लोग इस क्षेत्र के लिए अलग-अलग माँग करते नज़र आते हैं. लद्दाख़ बुद्धिस्ट एसोसिएशन के अध्यक्ष त्सेरिंग सिम्फेल कहते हैं कि जम्मू-कश्मीर राज्य का फिर गठन किया जाना चाहिए. इसके तहत जम्मू और कश्मीर को अलग राज्य का दर्जा दिया जाए और लद्दाख को केंद्र शासित प्रदेश बना दिया जाए.
जबकि मुस्लिम बहुल कारगिल के लोग इसका विरोध करते हैं और कहते हैं कि लद्दाख जम्मू-कश्मीर के साथ साथ भारत का ही एक हिस्सा रहना चाहिए और तभी उसके विकास पर ध्यान दिया जाना चाहिए.

बौद्ध माँग
सिम्फेल कहते हैं कि ये कोई सांप्रदायिक माँग नहीं है. हम लद्दाख क्षेत्र के लिए केंद्र शासित प्रदेश का दर्जा इसलिए माँगते हैं क्योंकि इसके दो ज़िलों लेह और कारगिल को "शेख़ अब्दुल्ला ने 1979 में सांप्रदायिक आधार पर ही विभाजित किया था."
"हम इन ज़िलों का एकीकरण इसलिए चाहते हैं क्योंकि इससे बौद्ध बहुल लेह और मुस्लिम बहुल करगिल दोनों ही ज़िलों के एक होने से सांप्रदायिक समरसता बनेगी."सिम्फेल के अनुसार, उनकी यह माँग राष्ट्रविरोधी भी नहीं है क्योंकि भारत में 1956 में केवल 14 राज्य थे जब राज्य पुनर्गठन आयोग की सिफ़ारिशों पर नए राज्य बनाए गए थे. लेकिन जम्मू-कश्मीर राज्य को इस आयोग के दायरे से बाहर रखा गया था.राज्यों का पुनर्गठन मुख्य रूप से भाषा के आधार पर हुआ था. उसके बाद भी राज्यों के पुनर्गठन का सिलसिला बंद नहीं हुआ है और दो साल पहले ही तीन नए राज्य उत्तराँचल, झारखंड और छत्तीसगढ़ बनाए गए हैं.जम्मू-कश्मीर में भी तीनों ही क्षेत्रों में अलग अलग भाषाएँ बोली जाती हैं, अलग-अलग संस्कृति है, अलग-अलग जातीय समुदाय के लोग रहते हैं और तीनों ही क्षेत्रों की भौगोलिक संरचना भी एक दूसरे से बिल्कुल अलग है.


मुस्लिम माँग

लेह के बौद्ध लोगों के उलट करगिल के मुस्लिम लोग लद्दाख़ के लिए केंद्रशासित प्रदेश का दर्जा दिए जाने के ख़िलाफ़ नज़र आते हैं.करगिल के मुसलमानों के एक प्रमुख संगठन इमाम ख़ुमैनी मेमोरियल ट्रस्ट के अध्यक्ष असग़र क़रबलाही कहते हैं कि लद्दाख़ जम्मू-कश्मीर की एक हिस्सा है और उसी के साथ उसका अस्तित्व बरक़रार रहना चाहिए. करबलाही कहते हैं कि लद्दाख़ बिना शर्त भारत का हिस्सा रहना चाहिए लेकिन जम्मू-कश्मीर के एक हिस्से के रूप में ही इसका समुचित विकास संभव है.
"लद्दाख़ का लेह ज़िले में तो पहले से ही बहुत विकास हो चुका है लेकिन कागिल तक लोगों की पहुँच मुश्किल होने की वजह से वह अभी तक बहुत पिछड़ा हुआ है."करगिल के मुसलमान कट्टर रूप से भारत के समर्थक माने जाते हैं और 1999 में पाकिस्तान की तरफ़ से घुसपैठ के मौक़े पर उन्होंने भारतीय सेना का साथ दिया था.करबलाही कहते हैं कि लद्दाख़ के भविष्य के बारे में कोई फैसला करने से पहले करगिल के लोगों की भी राय ली जानी चाहिए और करगिल के लोग एक वृहत्तर लद्दाख़ यानी ग्रेटर लद्दाख़ के हिमायती हैं न कि उसे एक केंद्रशासित प्रदेश बनाने के.

कश्मीर की ख़ूबसूरती तो जगज़ाहिर है. इन्हीं ख़ूबसूरत इलाक़ों में से एक लद्दाख है. देखिए लद्दाख और आसपास के कुछ मनोरम नज़ारे (सभी तस्वीरें: दिनेश कुमार)




































साभार बीबीसी

शुक्रवार, 25 जुलाई 2008

यदि मैं होता घन सावन का

25 जुलाई 2008

सावन का महीना चल रहा है। धरती के आंचल में फैली हरियाली की चादर मन की उमंगों में आग लगा रही है। हरे भरे पेड़ों की झूमती शाखें, बारिश की सुनहरी बूंदें, और भी न जाने क्या-क्या। सावन की छटा को शब्दों में बांधना मेरे बस की बात नहीं। इसलिए अपने ब्लॉग पर आने वालों के लिए मैं नीरज जी की एक कविता यहां छोड़ रहा हूं। पढ़ें और सावन के सौंदर्य का आनन्द लें।

मेरे हित भी मृग-नयनी निज सेज सजाती कोई,
निरख मुझे भी थिरक उठा करता मन-मोर किसी का,
श्याम-संदेशा मुझसे भी राधा मँगवाती कोई,
किसी माँग का मोती बनता ढल मेरा भी आँसू,
मैं भी बनता दर्द किसी कवि कालिदास के मन का।
यदि मैं होता घन सावन का॥

आगे आगे चलती मेरे ज्योति-परी इठलाती,
झांक कली के घूंघट से पीछे बहार मुस्काती,
पवन चढ़ाता फूल, बजाता सागर शंख विजय का,
तृषा तृषित जग की पथ पर निज पलकें पोंछ बिछाती,
झूम झूम निज मस्त कनखियों की मृदु अंगड़ाई से,
मुझे पिलाती मधुबाला मधु यौवन आकर्षण का।
यदि मैं होता घन सावन का ॥

प्रेम-हिंडोले डाल झुलाती मुझे शरीर जवानी,
गा गा मेघ-मल्हार सुनाती अपनी विरह कहानी,
किरन-कामिनी भर मुझको अरुणालिंगन में अपने,
अंकित करती भाल चूम चुम्बन की प्रथम निशानी,
अनिल बिठा निज चपल पंख पर मुझे वहाँले जाती,
खिलकर जहाँन मुरझाता है विरही फूल मिलन का।
यदि मैं होता घन सावन का॥

खेतों-खलिहानों में जाकर सोना मैं बरसाता,
मधुबन में बनकर बसंत मैं पातों में छिप जाता,
ढहा-बहाकर मन्दिर, मस्जिद, गिरजे और शिवाले,
ऊंची नीची विषम धरा को समतल सहज बनाता,
कोयल की बांसुरी बजाता आमों के झुरमुट में,
सुन जिसको शरमाता साँवरिया वृन्दावन का।
यदि मैं होता घन सावन का ॥

जीवन की दोपहरी मुझको छू छाया बन जाती,
साँझ किसी की सुधि बन प्यासी पलकों में लहराती,
द्वार द्वार पर, डगर डगर पर दीप चला जुगनू के,
सजल शरबती रात रूप की दीपावली मनाती,
सतरंगी साया में शीतल उतर प्रभात सुनहला
बनता कुन्द कटाक्ष कली की खुली धुली चितवन का।
यदि मैं होता घन सावन का ॥

बिहग-बाल के नरम परों में बन कँपन बसता मैं,
उरोभार सा अंग अंग पर मुग्धा के हँसता मैं,
मदिरालय में मँदिर नशा बन प्याले में ढल जाता,
बन अनंग-अंजन अलसाई आँकों में अंजता मैं,
स्वप्न नयन में, सिरहन तन में, मस्ती मन में बनकर,
अमर बनाता एक क्षुद्र क्षण मैं इस लघु जीवन का।
यदि मैं होता घन सावन का ॥

जब मैं जाता वहाँ जहाँ मेरी निष्ठुर वह सुन्दर,
साँझ-सितारा देख रही होगी बैठी निज छत पर,
पहले गरज घुमड़ भय बन मन में उसके छिप जाता,
फिर तरंग बन बहता तन में रिमझिम बरस बरस कर,
गोल कपोलों कर ढुलका कर प्रथम बूँद वर्षा की,
याद दिलाता मिलन-प्रात वह प्रथम प्रथम चुम्बन का।
यदि मैं होता घन सावन का।

(गोपाल दास नीरज)

मंगलवार, 22 जुलाई 2008

बीमारू राजनीति

23 जुलाई 2008
22 जुलाई, दिन मंगलवार, भारतीय लोकतंत्र के प्रतीक संसद भवन में गहमागहमी चरम पर थी। यूं तो देश में राजनीतिक पारा तभी से चढ़ने लगा था जब केंद्र की यूपीए सरकार को समर्थन दे रहे वाम दलों ने उससे किनारा कर लिया। वजह बताई गई अमेरिका के साथ होने वाला परमाणु करार। शब्दों के तरकश से आरोपों के तीर चलने शुरू हो चुके थे। गलबहियां कर संसद के गलियारों में चहलकदमी करने वाले अब एक दूसरे से कन्नी काटने लगे थे। सबको साथ लेकर चलने के दावे कहीं पीछे छूट गए थे। कांग्रेस और दूसरे घटक दल तो शांत थे लेकिन वामदल आग उगल रहे थे। वो किसी भी कीमत पर सरकार को सत्ता से बाहर करना चाहते थे लेकिन ऐसा वे अपने दम पर नहीं कर सकते थे लिहाजा नजरें दौड़ाकर कुछ दूसरे मतलब के यार तलाशने की कवायद की गई। तलाश पूरी हुई और यूएनपीए के साथ साथ उत्तर प्रदेश में सत्तासीन मायावती की बसपा को साथ लेकर वामदलों ने युद्ध का बिगुल फूंक दिया। उधर विपक्ष में बैठे एनडीए को भी लगा कि वो शायद यूपूए सरकार की फजीहत करने में कामयाब हो जाएगी। लिहाजा उसने भी अपने अस्त्र-शस्त्र संभालने शुरू कर दिए। कांग्रेस ने हर हाल में डील करने का फैसला किया फिर चाहे सरकार रहे या चली जाए। युवराज राहुल गांधी भी अमेठी में दहाड़े कि देश पहले है सरकार बाद में। इस बीच यूपीए के लिए राहत वाली बात ये रही कि समाजवादी पार्टी उसके साथ आ खड़ी हुई। पर्दे के पीछे उसकी कांग्रेस के साथ क्या खिचड़ी पकी ये तो आने वाले समय में ही साफ होगा लेकिन मुलायम सिंह सरकार के लिए संकटमोचक बनकर सामने आ खड़े हुए। झामुमो नेता शिबू सोरेन ने भी बहती गंगा में हाथ धोने से गुरेज नहीं किया और अपनी शर्तों पर वे भी सरकार के साथ देने के लिए राजी हो गए। दागी और जेल की हवा खा रहे सांसदों का भी भाव बढ़ गया । जनता के प्रतिनिधि बाजार में बिकने के लिए तैयार दिखाई दिए। सभी अपनी अपनी गोटियां फिट करने में लग गए। सरकार को अपने सांसदों को अपने पाले में रखने के साथ साथ ऐसे लोगों की भी तलाश थी जो संसद में उसकी स्थिति मजबूत कर सकें तो विपक्ष के सामने भी ये चुनौती थी कि वो अपने सांसदों को पाला बदलने से रोक सके। नतीजा सारे देश की नजरें इस बात पर जा टिकीं कि 22 जुलाई को संसद में क्या होगा। सरकार रहेगी या जाएगी। इस आपाधापी में ये सवाल कहीं पीछे छूट गया कि आखिर जिस परमाणु करार को लेकर इतनी हाय तौबा मची उससे आने वाले समय में देश को क्या और कितनी सहूलियत मिलेगी। सौ करोड़ की इस आबादी में न कोई ये सवाल पूछने वाला था और न ही कोई जवाब देने वाला। अविश्वास प्रस्ताव पर हुई बहस के दौरान भी शेरो शायरी औऱ जुमलों के साथ कटाक्ष का तड़का तो था लेकिन परमाणु करार पर एक स्वस्थ बहस का सर्वथा अभाव था। खैर वो दिन भी आया जब मनमोहन सिंह सरकार को संसद में विश्वास मत हासिल करना था। सारे देश की निगाहें संसद पर टिकी थीं। बहस मुबाहसों का दौर शुरू हुआ। आरोप लगे तो उनके जवाब भी आए। रेल मंत्री लालू यादव भी खूब बोले। राहुल गांधी ने भी भारी शोर शराबे के बीच विनम्रता से अपनी बात कही। इसी बीच संसद के इतिहास में वो पल भी आया जिसने उसके पचास साल के गौरवशाली इतिहास पर कालिख पोत दी। भाजपा के तीन सांसदों ने संसद में हजार हजार रुपए के नोट लहराते हुए ये आरोप लगाया कि सरकार ने उन्हें संसद से गैर हाजिर रहने के लिए रिश्वत दी। एक बार फिर संसद को हमारे माननीयों ने शर्मसार किया। आपको याद दिला दें कि जिस लोकसभा को बचाने या भंग करवाने की कोशिशें हो रही थीं उसी ने अपने कुछ सदस्यों को कुछ महीनों पहले इसलिए अयोग्य घोषित कर दिया था कि उन्हें या तो सांसद निधि की राशि में अनियमितता करने का दोषी पाया गया था अथवा उन पर प्रश्न पूछने के लिए धन प्राप्त करने के आरोप थे। एक बार फिर सांसदों की खरीद फरोख्त के आरोप भारतीय राजनीति के गलियारों में गूंजे थे। बहरहाल मतदान के बाद सरकार ने 19 वोटों से विश्वासमत हासिल कर लिया था लेकिन जोड़तोड़ और धनबल की राजनीति ने जिस तरह से देश की राजनीति में पलीता लगाया है उससे मन में एक ही सवाल उठता है कि क्या अब आंकड़ों का खेल ही सरकारों का भाग्य निर्माता होगा? हमें जो संवैधानिक परंपराएं विरासत में मिली हैं, क्या उन्हीं के सहारे आगे बढ़ना होगा या देश, काल और परिस्थितियों की जरूरतों को ध्यान में रखते हुए सरकार चुनने की किसी नई व्यवस्था की न सिर्फ मांग करनी चाहिए, उसके लिए एक राष्ट्रव्यापी आंदोलन भी खड़ा करना होगा।

22 जुलाई को विश्वास प्रस्ताव के दौरान रही राजनीतिक गहमागहमी

23 जुलाई 2008


यूं तो संसद भवन भारतीय राजनीति का इतिहास और वर्तमान सब कुछ समेटे हुए है लेकिन पिछले कई दिनों से खास तौर से जबसे यूपीए सरकार से वामदलों ने अमेरिका के साथ होने वाले परमाणु करार को लेकर समर्थन वापस लिया और सरकार को विश्वास मत हासिल करने के लिए कहा गया तब से संसद राजनीतिक गहमागहमी का केंद्र बना रहा।


यूपीए सररकार को 22 जुलाई को संसद में विश्वास मत हासिल करना था। देश भर के लोगों में इस बात को लेकर उत्सुकता थी। लोग घरों में अगर अपने टेलीविजन सेटों से चिपके थे तो राजधानी में सुबह से ही संसद की दर्शक दीर्घा में जाने के लिए लोगों का तांता लगा हुआ था।


तृणमूल कांग्रेस की ममता बैनर्जी ने लोकसभा में विश्वास मत में हिस्सा नहीं लेने का फ़ैसला किया।


स्पीकर सोमनाथ चटर्जी ने पार्टी के दबाव के बावजूद अपना पद नहीं छोड़ा.


राहुल गांधी संसद में सरकार के पक्ष में जमकर बोले और परमाणु समझौते को देश की ज़रूरत बताया.


झारखंड मुक्ति मोर्चा के शिबू सोरेन ने संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन को अपनी शर्तों के साथ समर्थन दिया।


समाजवादी पार्टी के मुलायम सिंह यादव ने भी सरकार को समर्थन दिया।


मुलायम के बेटे अखिलेश और लालू के साले साधु यादव की नई दोस्ती, दोनों सरकार के पक्ष में खड़े दिखाई दिए।


समाजवादी पार्टी की सांसद जया प्रदा भी विश्वास मत पर वोट डालने के लिए संसद पहुँची.



राष्ट्रीय लोकदल के नेता अजित सिंह ने सरकार को समर्थन नहीं देने का फ़ैसला किया।

साभार बीबीसी

भारतीय संसद और सत्ताओं का सफ़र

23 जुलाई 2008


भारतीय संसद में आज़ादी के बाद सत्ता की सीढ़ियों पर अलग अलग दलों, विचारधाराओं और दृष्टिकोणों से देश को दिशा दी जाती रही है. इस दौरान कई विश्वास प्रस्ताव आए, कई सरकारें बचीं, कई गिरीं और कई राजनीतिक परिवर्तन देखने को मिले. आइए, प्रधानमंत्रियों के क्रम के ज़रिए इस संसदीय इतिहास की बानगी लें...



भारत के प्रथम प्रधानमंत्री बने पंडित जवाहर लाल नेहरु. पंडित नेहरू 15 अगस्त, 1947 को देश के प्रधानमंत्री बने और फिर लगातार 27 मई, 1964 तक देश की संसद में प्रधानमंत्री के तौर पर सत्तासीन रहे. इसी दौरान 1963 में संसद में पहला अविश्वास प्रस्ताव भी आया. नेहरू के ख़िलाफ़ यह अविश्वास प्रस्ताव लाए थे जेबी कृपलानी पर इस अविश्वास प्रस्ताव को करारी हार मिली.


नेहरू के बाद नाम आता है गुरज़ारीलाल नंदा का. नंदा अल्पकाल के लिए यानी लगभग दो-दो सप्ताहों के लिए दो बार देश के प्रधानमंत्री बने. एक बार नेहरू जी के बाद यानी 27 मई, 1964 से नौ जून, 1964 तक और फिर लालबहादुर शास्त्री के बाद गुलज़ारीलाल नंदा ने दोबारा 11 जनवरी, 1966 से 24 जनवरी, 1966 तक पद का दायित्व संभाला.



जय जवान, जय किसान का नारा देने वाले लाल बहादुर शास्त्री नौ जून, 1964 से 11 जनवरी, 1966 तक देश के प्रधानमंत्री रहे. लालबहादुर शास्त्री का ताशकंद में निधन हो गया था. उनके निधन के बाद दोबारा कुछ दिनों के लिए गुलज़ारीलाल नंदा को प्रधानमंत्री बनाया गया था पर लगभग दो सप्ताह तक यह ज़िम्मेदारी उठाने के बाद इंदिरा गांधी ने सत्ता की बागडोर संभाल ली.


जवाहरलाल नेहरू की बेटी इंदिरा गांधी देश की पहली महिला प्रधानमंत्री बनीं. इंदिरा गांधी 24 जनवरी, 1966 से 1971 तक और फिर दोबारा चुनकर 24 मार्च, 1977 तक भारत की प्रधानमंत्री रहीं. इसी दौरान पहली बार भारतीय लोकतंत्र के इतिहास में आपातकाल भी लगाया गया. इंदिरा गांधी ने इस दौरान 12 अविश्वास प्रस्ताव देखे पर कोई भी सरकार को गिरा नहीं सका.



अभी तक भारत में एक ही पार्टी की सरकार क़ायम थी. पर राजनीतिक नेतृत्व में दलीय परिवर्तन आता है मोरार जी देसाई के प्रधानमंत्री बनने के साथ. जनता पार्टी की सरकार में मोरार जी देसाई ने 24 मार्च, 1977 से 28 जुलाई, 1979 तक प्रधानमंत्री का पद संभाला. उन्हें 15 जुलाई, 1979 को अविश्वास प्रस्ताव का सामना करना पड़ा जिसके बाद सरकार गिर गई.


पहले विश्वास प्रस्ताव की स्थिति पैदा होती है वर्ष 1979 में. चौधरी चरण सिंह 28 जुलाई, 1979 को प्रधानमंत्री की कुर्सी पर आए लेकिन 20 अगस्त, 1979 को विश्वास मत का सामना किए बिना ही चरण सिंह ने अपने पद से इस्तीफ़ा दे दिया.


पहले दो बार प्रधानमंत्री रह चुकी इंदिरा गांधी 14 जनवरी, 1980 को कांग्रेस (आई) की नेता के तौर पर फिर से सत्तासीन होती हैं और 31 अक्टूबर, 1984 तक प्रधानमंत्री रहीं.

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इंदिरा गांधी के देहांत के बाद उनके बेटे राजीव गांधी युवा नेतृत्वकर्ता के तौर पर राजनीतिक पटल पर सामने आते हैं. राजीव गांधी 31 अक्टूबर, 1984 से दो दिसंबर, 1989 तक प्रधानमंत्री पद संभालते हैं.



इसके बाद विश्वनाथ प्रताप सिंह के नेतृत्व में नई सरकार बनी. दो दिसंबर, 1989 को प्रधानमंत्री पद की शपथ लेने के कुछ दिन बाद ही यानी 21 दिसंबर को देश की संसद में विश्वास प्रस्ताव आया और विश्वनाथ प्रताप सिंह की सरकार ने ध्वनि मत से विश्वास मत हासिल किया. वीपी सिंह 10 नवंबर, 1990 तक प्रधानमंत्री रहे. सात नवंबर को ही प्रधानमंत्री को दोबारा विश्वास मत हासिल करने के लिए प्रस्ताव सदन के समक्ष रखना पड़ा पर वीपी सिंह अपनी कुर्सी नहीं बचा सके.



10 नवंबर, 1990 को चंद्रशेखर ने जनता दल (एस) के नेता के तौर पर प्रधानमंत्री का पद संभाला और छह दिन बाद ही यानी 16 नवंबर को सदन में दूसरा विश्वास मत प्रस्ताव आया. चंद्रशेखर ने विश्वास मत हासिल किया और 21 जून, 1991 तक देश के प्रधानमंत्री रहे.



पीवी नरसिंहराव ने 21 जून, 1991 को प्रधानमंत्री पद की शपथ ली. 15 जुलाई को नरसिंहराव की सरकार ने सदन में विश्वास मत हासिल कर लिया. विवादित झारखंड मुक्ति मोर्चा सांसद रिश्वत कांड नरसिंहराव के इसी कार्यकाल में बहुमत की गणित के लिए चर्चा का विषय बना. इस दौरान आया अविश्वास प्रस्ताव नरसिंहराव सरकार को नहीं गिरा सका.



इसके बाद सत्ता ने नई करवट ली और भारतीय जनता पार्टी की अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में सरकार बनी. अटल बिहारी वाजपेयी ने 16 मई को प्रधानमंत्री पद की शपथ ली. ये सरकार 13 दिनों में गिर गई. 28 मई, 1996 को विश्वास मत से पहले ही अटल बिहारी वाजपेयी ने इस्तीफ़ा देने की घोषणा कर दी.



इसके बाद एचडी देवेगौड़ा के नेतृत्व में सरकार बनी. इस तरह एक बार फिर जनता दल के नेता को सत्ता की शीर्ष पद मिली. 12 जून, 1996 को सातवाँ विश्वास मत देवेगौड़ा ने हासिल किया. हालांकि देवेगौड़ा अगला विश्वास मत हासिल नहीं कर सके. 11 अप्रैल, 1997 को देवेगौड़ा विश्वास मत हार गए.



देश एक बार फिर अल्पकालिक प्रधानमंत्रियों का दौर देख रहा था. एचडी देवेगौड़ा के बाद इंद्र कुमार गुजराल ने प्रधानमंत्री की कुर्सी संभाली. उन्होंने 22 अप्रैल, 1997 को विश्वास मत हासिल किया और 19 मार्च, 1998 तक जनता दल की सरकार को आगे बढ़ाया.


मार्च, 1998 में देश की 12वीं लोकसभा के लिए मतदान हुआ और अटल बिहारी वाजपेयी 19 मार्च, 1998 को देश के नए प्रधानमंत्री बने. उन्होंने 28 मार्च को सदन में विश्वास मत हासिल किया पर 13 महीने की सरकार 1999 में गिर गई. वर्ष 1999 का यह विश्वास मत ऐतिहासिक माना जाता है. अटल सरकार एक वोट से गिर गई. 1999 में फिर से आम चुनाव हुए और केंद्र में भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्व वाली एनडीए सरकार आई जिसने पाँच साल पूरे भी किए.



वर्ष 2004 में जब आम चुनाव हुए तो जनादेश एनडीए के ख़िलाफ़ गया. केंद्र में कांग्रेस के नेतृत्व वाला यूपीए गठबंधन सत्तासीन हुआ. इस सरकार को वामपंथी दलों से भी बाहर से समर्थन मिल रहा था पर भारत-अमरीका परमाणु क़रार पर पैदा हुए गतिरोध के कारण जुलाई, 2008 में वामपंथी ने सरकार से समर्थन वापस ले लिया. 22 जुलाई को मनमोहन सिंह सरकार ने विश्वास प्रस्ताव हासिल कर लिया।

साभार बीबीसी
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