मंगलवार, 22 जुलाई 2008

बीमारू राजनीति

23 जुलाई 2008
22 जुलाई, दिन मंगलवार, भारतीय लोकतंत्र के प्रतीक संसद भवन में गहमागहमी चरम पर थी। यूं तो देश में राजनीतिक पारा तभी से चढ़ने लगा था जब केंद्र की यूपीए सरकार को समर्थन दे रहे वाम दलों ने उससे किनारा कर लिया। वजह बताई गई अमेरिका के साथ होने वाला परमाणु करार। शब्दों के तरकश से आरोपों के तीर चलने शुरू हो चुके थे। गलबहियां कर संसद के गलियारों में चहलकदमी करने वाले अब एक दूसरे से कन्नी काटने लगे थे। सबको साथ लेकर चलने के दावे कहीं पीछे छूट गए थे। कांग्रेस और दूसरे घटक दल तो शांत थे लेकिन वामदल आग उगल रहे थे। वो किसी भी कीमत पर सरकार को सत्ता से बाहर करना चाहते थे लेकिन ऐसा वे अपने दम पर नहीं कर सकते थे लिहाजा नजरें दौड़ाकर कुछ दूसरे मतलब के यार तलाशने की कवायद की गई। तलाश पूरी हुई और यूएनपीए के साथ साथ उत्तर प्रदेश में सत्तासीन मायावती की बसपा को साथ लेकर वामदलों ने युद्ध का बिगुल फूंक दिया। उधर विपक्ष में बैठे एनडीए को भी लगा कि वो शायद यूपूए सरकार की फजीहत करने में कामयाब हो जाएगी। लिहाजा उसने भी अपने अस्त्र-शस्त्र संभालने शुरू कर दिए। कांग्रेस ने हर हाल में डील करने का फैसला किया फिर चाहे सरकार रहे या चली जाए। युवराज राहुल गांधी भी अमेठी में दहाड़े कि देश पहले है सरकार बाद में। इस बीच यूपीए के लिए राहत वाली बात ये रही कि समाजवादी पार्टी उसके साथ आ खड़ी हुई। पर्दे के पीछे उसकी कांग्रेस के साथ क्या खिचड़ी पकी ये तो आने वाले समय में ही साफ होगा लेकिन मुलायम सिंह सरकार के लिए संकटमोचक बनकर सामने आ खड़े हुए। झामुमो नेता शिबू सोरेन ने भी बहती गंगा में हाथ धोने से गुरेज नहीं किया और अपनी शर्तों पर वे भी सरकार के साथ देने के लिए राजी हो गए। दागी और जेल की हवा खा रहे सांसदों का भी भाव बढ़ गया । जनता के प्रतिनिधि बाजार में बिकने के लिए तैयार दिखाई दिए। सभी अपनी अपनी गोटियां फिट करने में लग गए। सरकार को अपने सांसदों को अपने पाले में रखने के साथ साथ ऐसे लोगों की भी तलाश थी जो संसद में उसकी स्थिति मजबूत कर सकें तो विपक्ष के सामने भी ये चुनौती थी कि वो अपने सांसदों को पाला बदलने से रोक सके। नतीजा सारे देश की नजरें इस बात पर जा टिकीं कि 22 जुलाई को संसद में क्या होगा। सरकार रहेगी या जाएगी। इस आपाधापी में ये सवाल कहीं पीछे छूट गया कि आखिर जिस परमाणु करार को लेकर इतनी हाय तौबा मची उससे आने वाले समय में देश को क्या और कितनी सहूलियत मिलेगी। सौ करोड़ की इस आबादी में न कोई ये सवाल पूछने वाला था और न ही कोई जवाब देने वाला। अविश्वास प्रस्ताव पर हुई बहस के दौरान भी शेरो शायरी औऱ जुमलों के साथ कटाक्ष का तड़का तो था लेकिन परमाणु करार पर एक स्वस्थ बहस का सर्वथा अभाव था। खैर वो दिन भी आया जब मनमोहन सिंह सरकार को संसद में विश्वास मत हासिल करना था। सारे देश की निगाहें संसद पर टिकी थीं। बहस मुबाहसों का दौर शुरू हुआ। आरोप लगे तो उनके जवाब भी आए। रेल मंत्री लालू यादव भी खूब बोले। राहुल गांधी ने भी भारी शोर शराबे के बीच विनम्रता से अपनी बात कही। इसी बीच संसद के इतिहास में वो पल भी आया जिसने उसके पचास साल के गौरवशाली इतिहास पर कालिख पोत दी। भाजपा के तीन सांसदों ने संसद में हजार हजार रुपए के नोट लहराते हुए ये आरोप लगाया कि सरकार ने उन्हें संसद से गैर हाजिर रहने के लिए रिश्वत दी। एक बार फिर संसद को हमारे माननीयों ने शर्मसार किया। आपको याद दिला दें कि जिस लोकसभा को बचाने या भंग करवाने की कोशिशें हो रही थीं उसी ने अपने कुछ सदस्यों को कुछ महीनों पहले इसलिए अयोग्य घोषित कर दिया था कि उन्हें या तो सांसद निधि की राशि में अनियमितता करने का दोषी पाया गया था अथवा उन पर प्रश्न पूछने के लिए धन प्राप्त करने के आरोप थे। एक बार फिर सांसदों की खरीद फरोख्त के आरोप भारतीय राजनीति के गलियारों में गूंजे थे। बहरहाल मतदान के बाद सरकार ने 19 वोटों से विश्वासमत हासिल कर लिया था लेकिन जोड़तोड़ और धनबल की राजनीति ने जिस तरह से देश की राजनीति में पलीता लगाया है उससे मन में एक ही सवाल उठता है कि क्या अब आंकड़ों का खेल ही सरकारों का भाग्य निर्माता होगा? हमें जो संवैधानिक परंपराएं विरासत में मिली हैं, क्या उन्हीं के सहारे आगे बढ़ना होगा या देश, काल और परिस्थितियों की जरूरतों को ध्यान में रखते हुए सरकार चुनने की किसी नई व्यवस्था की न सिर्फ मांग करनी चाहिए, उसके लिए एक राष्ट्रव्यापी आंदोलन भी खड़ा करना होगा।

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