शनिवार, 26 जुलाई 2008

आतंकवाद का पसरता साया




27 जुलाई 2008
26 जुलाई यानि शनिवार को गुजरात की औद्योगिक राजधानी अहमदाबाद 70 मिनट के भीतर हुए सोलह धमाकों से थर्राई, बीस से ज्यादा लोगों की मौत और सौ से ज्यादा घायल। इस खबर से जहां सभी अखबार रंगे पड़े हैं तो सारे न्यूज चैनल भी मानों इन्हीं के इर्द-गिर्द सिमट कर रह गए हैं। इससे ठीक एक दिन पहले शुक्रवार को कर्नाटक की राजधानी बैंगलुरू में हुए नौ घमाकों की आवाज अभी लोगों के कानों में गूंज ही रही थी कि एक और आतंकी हमले ने लोगों को भीतर तक झकझोर कर रख दिया। अभी ज्यादा वक्त नहीं बीता जब जयपुर और हैदराबाद में भी कुछ ऐसा ही नजारा सामने आया था। आतंकियों ने ऐसे ही धमाके कर तमाम लोगों की जानें ले ली थी। अहमदाबाद में जो कुछ हुआ उससे एक बात तो साफ हो गई कि देश में सुरक्षा व्यवस्था के नाम पर कुछ शेष नहीं बचा है। देश का हर नागरिक अपनी जिन्दगी अपनी किस्मत के सहारे जी रहा है। आतंकी आते हैं, छाती ठोंक के, चुनौती देकर, जहां मर्जी होती है बम फोड़कर चले जाते हैं। पीछे छोड़ जाते हैं दहशत, रोते-बिलखते लोग और फिजा में पसरा मौत का सन्नाटा। सुनाई देती है तो केवल बुद्धिजीवियों में आतंकवाद को लेकर छिड़ी बहस, कानों में गूंजती है तो प्रधानमंत्री सहित तमाम नेताओं द्वारा की जा रही बम धमाकों की निन्दा, आरोप-प्रत्यारोप और रेड अलर्ट के साथ हाई अलर्ट का शोर। हर बार यही होता है। कोई हमारे नीति नियंताओं, देश चलाने और संभालने का ठेका लेने वालो और हमें सुरक्षा का भरोसा दिलाने वालों से ये नहीं पूछता कि आखिर इस सब पर लगाम कब लगेगी। खेमों और वर्गों में बंटा हमारा समाज भी अपने अपनों को सही ठहराते हुए दूसरों की कमियां गिनाने में लग जाता है। राष्ट्रीय और क्षेत्रीय दलों में विभाजित देश की सौ करोड़ की आबादी उन लोगों से ये सवाल नहीं करती कि आखिर उन परिवारों का क्या कसूर था, जिनके कलेजे के टुकड़े इस आतंक की भेंट चढ़ गए। कोई नहीं पूछता कि कब तक यूं ही आतंकवाद से लड़ने के खोखले दावे किए जाते रहेंगे। सरकार किसी की भी हो धमाके होते हैं, बार बार होते हैं और निर्दोष जनता मारी जाती है। इंसानियत के इन दुश्मनों से निपटने के लिए कहीं कोई आम राय बनती नजर नहीं आती। क्या वजह है कि अमेरिका में 9-11 के बाद कोई आतंकी हमला नहीं हुआ जबकि हम रोज ऐसे हमलों से दो-चार हो रहे हैं। कमी आखिर कहां है। इस समस्या से निपटने के लिए हमारी इच्छा शक्ति में कमी है या फिर संसाधनों में। आखिर क्यों हम आतंकियों के नापाक मंसीबों पर लगाम लगाने में कामयाब नहीं हो पा रहे हैं। प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति द्वारा इस मौके पर भले ही लोगों से शांति बनाए रखने की अपील बेशक लोगों को अमन के लिए आतंक के खिलाफ उभरते जज्बातों को जब्त किए रखने को मजबूर कर रही हो लेकिन हर शख्स के मन में यही सवाल धधक रहा है कि आखिर कब तक। दरअसल पिछले पंद्रह-बीस वर्षों में कुछ वजहों से दुनिया बहुत बदल गई है। ये वजह हैं,संचार क्रांति, इमीग्रेशन, ग्लोबलाइजेशन, ग्लोबल वार्मिंग और आतंकवाद। इनमें से पहली दो चीजों से नक्शे और समाज बदले , तीसरी की मार संस्कृति पर पड़ी और चौथी बात से पूरी पृथ्वी का मुस्तकबिल ही खतरे में पड़ गया लेकिन पांचवी और आखिरी बात से तो पूरी इंसानियत का मुस्तकबिल ही दांव पर लग गया है। दरअसल आतंकवाद की आकांक्षा हमेशा से ही रक्तरंजित और प्रवृत्ति पाश्विक रही है। दहशत पैदा करने और फैलाने के लिए उसने नित नयी भाव भंगिमाएं गढ़ीं। विध्वंस, आतंकवाद की पहली शर्त रहा है और वो इसी शर्त का पालने करने में लगे हैं लेकिन आतंकवाद से लड़ने के लिए हमने ऐसी कोई शर्त नहीं बनाई और शायद यही वजह है कि हम इस राक्षस से लड़ने में नाकाम हो रहे हैं।
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