रविवार, 25 मई 2008

कर्नाटक चुनाव के निहितार्थ




26 मई 2008
कांग्रेस के नेतृत्व वाली केंद्र की यूपीए सरकार अभी अपने चार साल पूरे होने के जश्न की खुमारी ही मिटा रही थी कि कर्नाटक विधानसभा चुनाव के नतीजों ने उसकी नींद उड़ा दी। 224 में से केवल 80 पर कामयाबी और प्रतिद्वन्द्वी भाजपा के खाते में आईं उसकी उम्मीद से कही ज्यादा 110 सीटें। उत्तराखंड, पंजाब और केरल के बाद कर्नाटक में मिली हार ने कांग्रेस को चिंतन मंथन के लिए मजबूर कर दिया है। कांग्रेस के लिए इस हार के गंभीर निहितार्थ हैं। लगातार देश के तमाम राज्यों में उसे मिल रही असफलता और उसके उलट भाजपा को मिल रही सफलता खास तौर से दक्षिण के किसी राज्य में बहुमत मिलना ये दर्शा रहा है कि राष्ट्रीय स्तर पर कही न कहीं कांग्रेस कमजोर हो रही है और भाजपा दिनों दिन मजबूत हो रही है। सवाल उठता है कि आखिर ऐसा हो क्यों रहा है। दरअसल कांग्रेस को राज्यों की राजनीति भी केंद्रीय परिपाटी के मुताबिक करना ही मंहगा पड़ रहा है। राज्यों के चुनाव स्थानीय मुद्दों पर लड़े जाते हैं और स्थानीय नेताओं के किए-धरे के आधार पर ही राजनीतिक दलों की किस्मत तय होती है। राज्यों की जनता अपने बीच के व्यक्ति को ही सत्ता में देखना चाहती है, जिससे उसे अपनी बात कहने सुनने के लिए इधर उधर भटकना ना पड़े। उन्हें लगता है कि उनके बीच का आदमी उनकी बात ध्यान से सुनेगा और उनकी समस्याओं का निराकरण करेगा। भाजपा ने यही किया औऱ एक ऐसी पार्टी के तौर पर अपने को लोगों के सामने पेश किया जो एक स्थिर सरकार बना सकती है। दूसरी बात थी राज्य में उनका नेतृत्व यानी मुख्यमंत्री के रूप में येदुरप्पा का चेहरा। एक समय था जब राष्ट्रीय राजनीति में कहा जाता था कि अटल जी प्रधानमंत्री बनने लायक हैं पर उन्हें अवसर नहीं मिल रहा है। कुछ इसी तरह की छवि राज्य में येदुरप्पा की रही है। भाजपा इस बात को भी प्रचारित करने में और लोगों के सामने रखने में सफल रही कि उनके साथ एक राजनीतिक धोखा हुआ है और उन्हें अपनी बारी आने पर काम करने का मौक़ा नहीं मिला है। जबकि ठीक इसके उलट कांग्रेस ऐसा करने में नाकाम रही। हमेशा की तरह अपनी पुरानी परिपाटी के मुताबिक कर्नाटक चुनाव में भी कांग्रेस ने किसी ऐसे व्यक्ति को आगे नहीं किया जो वहां की जनता के दिल के करीब होता, जो लोगों को ये भरोसा दिला पाता कि कांग्रेस का हाथ उनके साथ है। लिहाजा जनता ने जब फैसला सुनाया तो वो कांग्रेस के हित में नहीं रहा। दूसरा झटका कांग्रेस को मायावती ने दिया। नहीं-नहीं करते हुए भा बसपा ने कांग्रेस के वोट बेंक में सेंध लगाई। जिसका सीधा फायदा भाजपा ने उठाया और आगे भी उठाने की कोशिश करेगी। मुझे ऐसा लगता है कि पिछले लोकसभा चुनाव में मिली जीत के बाद कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी के करिश्माई नेतृत्व का जो तिलिस्म बना था वो अब दरकने लगा है। मैं ये नहीं कह रहा कि कर्नाटक की हार के बाद केंद्र सरकार पर संकट आन खड़ा हुआ है लेकिन अगर कांग्रेस ने इस हार को दरकिनार किया तो आने वाले लोकसभा चुनाव में उसे इसकी कींमत चुकानी पड़ सकती है। कांग्रेस अध्य़क्ष को ये समझना होगा कि राजनीतिक दर एनजीओ की तरह नहीं चलते, साथ ही ये भी कि इंदिरा गांधी की शैली का राजनीति इक्कीसवीं सदी में नहीं चलने वाली, क्योंकि उनमें न तो इंदिरा गांधी जैसा राजनीतिक कौशल है, न ही बड़े फैसले लेने का जिगर, न ऐसी सार्वदेशिक अपील जो अकेले अपने दम पर वोट दिला सके और अब न ही उतना कमजोर विपक्ष है। पिछली बार के लोकसभा चुनाव में सत्ता का दंभ राजग को ले डूबा था, इस बार भी उनका नेतृत्व बिखऱता नजर आ रहा था लेकिन लगातार चार राज्यों के विधानसभा चुनाव में मिली सफलता से उनके हौंसले बुलंद है औऱ एकजुटता नजर आने लगी है। भाजपा की परेशानी बाहरी नहीं है आंतरिक है। अंतर्कलह उसकी राह की सबसे बड़ी बाधा है, जिस पर काबू उसे काबू पाना होगा और अगर ऐसा हो गया तो केंद्र की सत्ता उससे ज्यादा दिनों तक दूर नहीं रहेगी। दूसरी ओर आठ साल तक सत्ता से दूर रहने के बाद पिछले चार सालों से सत्ता सुख भोग रही कांग्रेस ने अगर अपनी चुनावी रणनीति नहीं बदली तो उसे खामियाजा भुगतने के लिए तैयार रहना होगा। दरअसल कांग्रेसियों को ये मुगालता हो गया है कि सोनिया और राहुल की बदौलत वो चुनावी जंग जीत जायेंगे। हालांकि
कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी कई बार पार्टी के बड़े नेताओं और मंत्रियों को चेता चुकी हैं कि वे लोगों के बीच जाएं और कार्यकर्ताओं को सम्मान और समय दें। कांग्रेस के नेता अभी तक उनकी बात को अनसुना करते रहे लेकिन अब उन्हें भी खतरे की घंटी सुनाई देने लगी है। कांग्रेस को महंगाई पर भी नजर रखनी होगी। अगर वो ये मानकर बैठी कि कर्नाटक की हार में इसकी कोई भूमिका नहीं है तो ये उसकी सबसे बड़ी भूल होगी। कर्नाटक में सत्ता से वंचित रही कांग्रेस यह दावा कर रही है कि इस राज्य के चुनाव नतीजों का केंद्रीय सत्ता पर असर नहीं पडे़गा, लेकिन कुल मिलाकर यह एक कमजोर दावा होगा। हां, कांग्रेस इस पर संतोष व्यक्त कर सकती है कि उसका वोट प्रतिशत भी बढ़ा और सीटें भी। यहां एक और वजह का जिक्र करना चाहूंगा जो राजनीतिक दलों के लिए मुसीबत बन चुकी है। दरअसल राजनेता ये मानकर चलते हैं कि जनता की याददाश्त काफी कमजोर होती है और वो सब कुछ आसानी से भुलाकर उनकी गलतियों को माफ कर देती है लेकिन उन्हें अब ये समझना होगा कि भारतीय राजनीति में अब ये वर्जना टूटती नजर आ रही है। जनता चार साल में सरकारों द्वारा किए गए सारे कामों का लेखा जोखा रखती है और चुनाव नजदीक देख एक साल मे किए गए काम के आधार पर अपने मतों का निर्धारण करना उसने छोड़ दिय़ा है। भाजपा का शाइनिंग इंडिया का नारा उसके गले नहीं उतरा था तो कांग्रेस को ऐसा क्यों लगा कि नौ फीसदी जीडीपी की विकास दर का ग्राफ उसका राजनीतिक ग्राफ बढ़ा देगा। पंजाब, उत्तराखंड और अब कर्नाटक की हार ने उसका ये मुगालता जरूर तोड़ा होगा। भाजपा को भी हालिया चुनावों में मिली जीत से ज्यादा खुश नहीं होना चाहिए क्योंकि देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश में अगर वो पस्त है तो मध्य प्रदेश और राजस्थान में भी उसकी हालत बेहतर नहीं कही जा सकती। यह ठीक है कि भाजपा अब 11 राज्यों में सत्ता में होगी, लेकिन बात तो तब बनेगी जब यह संख्या घटने न पाए। यदि भाजपा को केंद्र की सत्ता में वापसी करनी है तो उसे अपने कुछ मजबूत और भरोसेमंद सहयोगी भी चुनने होंगे। कुल मिलाकर भारतीय राजनीति की राहें दिनों दिन रपटीली होती जा रही हैं और उन पर चलने के लिए राजनीतिक दलों को अपनी चाल-ढाल बदलनी होगी।

post by-
anil kumar verma

1 टिप्पणी:

सुबोध ने कहा…

चलिए आपको पढ़ने से वंचित नहीं रहना पड़ेगा..आपकी कलम में जादू है..ये जादू यूं ही बरकरार रहे...

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