सोमवार, 29 सितंबर 2008

मन्दिर में मातम



30 सितम्बर 2008
मन्दिर में मातम...शायद ये कहना गलत न होगा...क्योंकि रेत के धारों में बसे जोधपुर शहर की शान मेहरानगढ़ किले के भीतर बना ऐतिहासिक चामुंडा देवी मन्दिर मंगलवार को सौ से ज्यादा लोगों की मौत का गवाह बन गया। बड़ी तादाद में लोग घायल भी हो गए। नवरात्र का पहला दिन...हजारों की संख्या में इकठ्ठा हुए श्रद्धालुओं के बीच माता के दर्शन करने की होड़ लगी थी.. माता का पहले दर्शन करने की चाह ने मन्दिर परिसर में भगदड़ को जन्म दिया और फिर देखते ही देखते माता के जयकारे की जगह चारों तरफ चीख पुकार और मातम फैल गया। ठाठें मारता आस्था का जवार पल भर में काफूर हो गया। लोगों को अपने परिजनों की चिन्ता सताने लगी। लोग जहां ज्यादा भीड़ को भगदड़ की वजह बता रहे हैं वहीं राजस्थान के गृह सचिव का कहना है कि मंदिर जाने के रास्ते में एक दीवार के टूटने के कारण भगदड़ मची। शुरु में बम की अफवाह को भी भगदड़ का एक कारण बताया जा रहा था। बहरहाल कारण कुछ भी हो लेकिन अपने परिजनों की खुशी मांगने के लिए मंदिर पहुंचे श्रद्धालुओं की मन्नतों को ग्रहण लग गया। मन्दिर के बाहर रोते बिलखते बदहवास श्रद्धालु भगदड़ का शिकार हुए अपने परिजनों को खोजते नजर आए। मंदिर के आस-पास व्यवस्था बनाए रखने के लिए पुलिसकर्मियों की तैनाती तो गई थी लेकिन ये पर्याप्त नहीं थी। इस भगदड़ में घायल हुए लोगों को महात्मा गांधी अस्पताल और मथुरा दास अस्पताल में भर्ती कराया गया है। जहां उनका इलाज चल रहा है। अस्पताल के बाहर उनके परिजनों को रोते बिलखते देखा जा सकता है। हालत ऐसी मानो खुद से सवाल कर रहे हों कि आखिर माता ने उन्हें किस गलती की सज़ा दी है। आपको बता दें कि चामुंडा देवी मंदिर मेहरानगढ़ क़िले में स्थित है। पाँच किलोमीटर के दायरे में स्थित इस क़िले के आख़िर में ये मंदिर बना हुआ है। 400 फुट की ऊँचाई पर बने इस मंदिर में आने-जाने का रास्ता काफी संकरा है। पश्चिम राजस्थान में ये मंदिर काफी लोकप्रिय है और नवरात्र की शुरुआत लोग यहीं से करना पसंद करते हैं। इस मंदिर का निर्माण वर्ष 1459 में जोधपुर के संस्थापक राजा राव जोधा ने किया था। मंदिर की प्रतिमा ख़ुद राव जोधा ने स्थापित की थी और इसे परिहार राजवंश की कुलदेवी के रुप में स्थापित किया गया था। इस मन्दिर की महिमा ही बड़ी संख्या में भक्तों को यहां खींच कर लाती है और मौका जब नवरात्र का होता है तो भीड़ जन सैलाब में बदल जाती है। यही जन सैलाब जब अनियंत्रित होता है तो होते हैं, चामुंडा देवी मंदिर जैसे हादसे।

इससे पहले भी कई धार्मिक स्थलों पर ऐसी घटनाएं हो चुकी हैं। आईए नज़र डालते हैं पिछले कुछ वर्षों में मंदिरों में भगदड़ की घटनाओं पर।

अगस्त,2008 - हिमाचल प्रदेश के नैना देवी मंदिर में भूस्खलन की अफ़वाह के बाद भगदड़ मच गई. इसमें 145 लोगों की मौत हो गई।

नवंबर,2006 - उड़ीसा के पुरी में जगन्नाथ मंदिर में चार लोगों की मौत हो गई और 18 घायल हो गए। प्रत्यक्षदर्शियों का कहना था कि अधिकारियों ने मंदिर का दरवाज़ा खोलने में देर कर दी जिसके कारण भगदड़ मच गई।

जनवरी,2005 - महाराष्ट्र के दूरवर्ती मंढारा देवी मंदिर में भगदड़ मचने से 265 लोग मारे गए। सँकडॉरा रास्ता होने के कारण
हताहतों की संख्या बढ़ गई। मृतकों में बड़ी संख्या महिलाओं और बच्चों की थी।

अगस्त,2003 - नासिक में कुंभ मेले के दौरान मची भगदड़ में 30 से ज़्यादा लोगों की मौत हो गई।

1986 - हरिद्वार में एक धार्मिक आयोजन के दौरान भगदड़ में 50 लोगों की मौत हो गई।

1954 - इलाहाबाद में कुंभ मेले के दौरान भगदड़ का भयान मंजर देखने को मिला। इसमें लगभग 800 लोगों की जानें गईं।



चामुंडा मन्दिर में हुई भगदड़ के दौरान कुछ ऐसा हाल रहा।




















   

मंगलवार, 23 सितंबर 2008

उड़ीसा में भी बिहार की कहानी...


23 सितम्बर 2008
बिहार के बाद उड़ीसा, कहानी जुदा नहीं है, हालात ठीक वैसे ही हैं, बस विकरालता थोड़ी कम है, वरना सब कुछ वैसा ही है। चारों तरफ ठाठें मारता जल, सब कुछ निगल लेने को आतुर, सब कुछ मिटा देने को तत्पर, जिंदगियों को मौत के अंधेरों में गुम करता जीवनदायी जल एकाएक खलनायक की भूमिका में आ गया है। बिहार में इसने कोसी की शक्ल ली तो उड़ीसा में महानदी और उसकी सहायक नदियों का चोला पहनकर आ गया। नदियों के तट पर बसे लोगों की तो हर साल शामत आती है लेकिन इस बार तो शहरों में बसे खुद को सुरक्षित महसूस करने वालों को भी पसीने आ गए। गांवों में तबाही मचाने वाला बाढ़ का पानी लपलपाता हुआ उनके घरों में भी घुस गया। सालों की मेहनत से बनाए गए तमाम आशियाने लहरों की भेंट चढ़ गए। गाढ़े पसीने की कमाई नदियां अपने साथ बहा ले गईं। बेटियों की शादी के लिए जमा दहेज बह गया तो बच्चों की फीस के लिए रखे रुपए भी पानी में मिल गए। बेजुबान मवेशी खामोशी के साथ नदियों की अठखेलियों का शिकार हो गए। लोगों के सिर से छत छिन चुकी है, खाने को लाले पड़े हैं, बच्चे भूख से बिलबिला रहे हैं, बुजुर्गों की सहनशीलता भी जवाब दे रही है। मां की छाती से चिपके बच्चे दूध के लिए जब उसका चेहरा ताकते हैं तो उसका दिल चाक चाक हो जाता है। क्या करें, कहां जाएं, किससे करें मदद की गुहार। अब तो उसी परमपिता का सहारा है जिसने इस दुनिया को बनाया है। वहीं पार करेगा नैया क्योंकि इस जल प्रलय से पार पाना धऱती के रहनुमाओं के बस की बात तो रही नहीं। हर साल बाढ़ आती है और अपने साथ लाती है तबाही लेकिन फिर भी इस तबाही से निपटने में नाकाम रहती हैं सरकारें। एक बार फिर नाकाम हैं। सवाल ये है कि आखिर क्यों पूरे साल में कोई एसी कारगर नीति क्यों नहीं बन पाती जिससे कहर बरपाती इन चंचल लहरों पर लगाम लगाई जा सके। करोड़ों अरबों रुपए खर्च करने के बावजूद आखिर क्यों हो जाते हैं हम हर साल बाढ़ का शिकार ।

सोमवार, 22 सितंबर 2008

मज़हब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना...

24 सितम्बर 2008
कर्नाटक और उड़ीसा के बाद दिल्ली में चर्च को निशाना बनाया गया। एक बार फिर धर्म के नाम पर इंसानियत का खून बहाने का दौर सा चल पड़ा है। 1949 से शुरू हुई अयोध्या के विवादित परिसर की लड़ाई आज भी अदालतों में जारी है। लोगों की भावनाओं पर चोट कर सियासत करना जैसे सियासतदां का शगल होता जा रहा है। मन्दिर-मस्जिद-गुरूद्वारे और चर्च की लड़ाई लड़कर जाने कौन सा भारत बनाना चाहते हैं हमारे रहनुमा। जाति धर्म और मजहब की दीवार खड़ी कर भाई से भाई को लड़ाने का इतिहास लगातार दोहराया जा रहा है। नफरत की इस सियासत को खत्म करने के लिए कई बार कोशिशें हुई हैं लेकिन हालात बदलते नजर नहीं आते। हम और आप नहीं चाहते कि धर्म के नाम पर इंसानी जिंदगियां कुर्बान की जाएं लेकिन सियासत की गाड़ी नफरत के पेट्रोल से ही चलती है। आज समाज में लाखों ऐसी समस्यायें हैं जिन्हें मुद्दा बनाकर एक साफ सुथरी राजनीति की जा सकती है लेकिन उनसे सरोकार रखना मानो जनप्रतिनिधियों ने सीखा ही नहीं हैं। महाराष्ट्र में तो हद ही हो गई है। भाषा के नाम पर लोगों को ज़लील किया जा रहा है, उनके साथ मारपीट की जा रही है। भारत की लोकतांत्रिक व्यवस्था को सीधे सीधे कुछ लोग चुनौती देने की कोशिश कर रहे हैं और हम भी किसी न किसी रूप में उस चुनौती का एक हिस्सा बने हुए हैं। आखिर क्यों हम भूल जाते हैं कि धर्म, मजहब और भाषा से पहले इंसान आता है। मानवता आती है। क्यों हम उन मौकापरस्त लोगों की उन बातों को सिर माथे ले लेते हैं जो भाई को भाई से बांटने का काम करती हैं। क्यों हम उनकी नफरत की सियासत का हिस्सा बन जाते हैं। हमें आज सीख लेने की ज़रूरत है, मुजफ्फरनगर के कांधला इलाके के उन लोगों से जो धर्म और मजहब की इस लड़ाई से परे हैं।

लेख का नीचे का हिस्सा जागरण अखबार के इंटरनेट संस्करण से लिया गया है।
जहां दीवार बांटती है पर दीवार जोड़ती भी है। यहां प्रेम की एक साझी दीवार मंदिर-मस्जिद को जोड़ती है। इस दीवार से जुड़ी खुदा की इबादतगाह में मोमिन सजदा करते हैं, तो लक्ष्मी नारायण मंदिर में लोग शीश नवाते हैं। लाखों हिंदू और मुसलमानों की भक्ति और अकीदत इस एक दीवार के सहारे खड़ी है। एक तरफ पूजा के दौर चलते हैं तो दूसरी तरफ पांच वक्त की नमाज। अपने वक्त पर मोअज्जन अजान देते हैं और घंटे-घडि़याल के साथ आरती भी अपने समय पर होती है। किसी को किसी से शिकवा नहीं। मंदिर-मस्जिद के भक्तों, अकीदतमंदों को देखकर लगता है कि शायर की ये पंक्तियां फिजां में तैर रही हैं...

जो उनका काम है, वो अहले सियासत जानें
मेरा पैगाम मोहब्बत है जहां तक पहुंचे


कहते हैं कि मोहम्मद तुगलक 1392 में शिकार खेलने के लिए कांधला आए थे। उनके लिए जुमे की नमाज के वास्ते नगर के सबसे ऊंचे स्थान पर मस्जिद बनवा दी गई। कस्बे के पुराने लोग बताते हैं कि सन 1900 के आसपास मस्जिद के बराबर में खाली पड़ी जमीन पर मंदिर के लिए निर्माण कार्य शुरू कराया गया तो दोनों वर्गो में वैचारिक मतभेद हो गए। कहते हैं यह जमीन मंदिर के लिए ही छोड़ी गई थी। बाद में दोनों समुदाय के लोग एकत्र हुए और फैसला हुआ कि जमीन मंदिर की ही है। 1950 के दशक में यहां पर लक्ष्मी नारायण मंदिर का निर्माण हुआ पर मंदिर और मस्जिद की एक ही दीवार रखी गई। यह सांप्रदायिक कलह का कारण बन सकता था, अगर सियासत की हवा बह जाती लेकिन मजहब आपस में बैर करना नहीं सिखाता। शायद यही वजह है कि कई दशक बीत जाने के बावजूद यहां दोनों समुदाय के लोगों में आज तक किसी भी प्रकार की कड़वाहट नहीं उभरी है। यहां तब भी सौहार्द की खुशनुमा बयार बहती रही, जब पूरे देश में सांप्रदायिकता की स्याह आंधी चल रही थी। हर समुदाय के लोगों के लिए यह सौहार्द एक नजीर है। किसी शायर ने ठीक ही कहा है।
सियासत को लहू पीने की लत है, वर्ना मुल्क में सब खैरियत है ...

क्या हम सांप्रदायिक सौहार्द की इस मिसाल से कुछ सीख सकते हैं। शायद हां...और हमें सीख लेनी ही होगी। वरना वो दिन दूर नहीं जब दुनिया को मानवता और भाईचारे की सीख देने वाले हमारे देश से ही इनका नामोनिशान मिट जाएगा।

बुधवार, 17 सितंबर 2008

कलाकार को फ़तवा

18 सितम्बर 2008
पिछले दिनों मशहूर फिल्म अभिनेत्री जया बच्चन के एक बयान को लेकर इस कदर हंगामा हुआ कि सदी के महानायक को खुद जया के बचाव के लिए आगे आना पड़ा और माफी मांगते हुए सफाई पेश करनी पड़ी। भाषा को लेकर की गई जया की टिप्पणी को राजनीतिक रंग देकर जिस तरह से कुछ लोगों ने अपनी राजनीति चमकाने की कोशिश की उसकी चारों तरफ निन्दा हुई। आज इंटरनेट पर एक और खबर पढ़ी जिसके मुताबिक एक बार फिर धर्म के ठेकेदारों ने एक कलाकार को निशाना बनाया है। मामला जुड़ा है अवध के नवाब अमजद अली शाह के वंशज नवाब सैय्यद बदरुल हसन उर्फ पप्पू पोलिस्टर से, जिन्होंने कई धार्मिक धारावाहिकों में भगवान नंदी का किरदार निभाया है। एक मुस्लिम द्वारा नंदी का किरदार निभाए जाने से नाराज होकर कट्टरपंथी मौलानाओं ने सैय्यद बदरुल हसन उर्फ पप्पू पोलिस्टर के खिलाफ मोर्चा खोल लिया हैं। इन मौलानाओं ने हसन के खिलाफ कलमा पढ़कर दोबारा मुसलमान बनाने का फरमान तक जारी कर दिया है। नवाब बदरुल हसन उर्फ पप्पू पोलिस्टर ने कई धार्मिक धारावाहिकों ' ओम नमः शिवाय ' संतोषी माता ' ' जय हनुमान ' और ' सत्यनारायण की कथा ' में नंदी जैसे धार्मिक चरित्र से अपनी एक अलग पहचान बना ली है और उनको इसी तरह के धारावाहिकों के प्रस्ताव भी लगातार मिल रहे हैं। उनके बेटे अमन पोलिस्टर ने भी एक धारावाहिक में भगवान गणेश की भूमिका की है। इससे भी नाराजगी जाहिर करते हुए कुछ कट्टरपंथियों ने उन्हें धमकी दी कि जैसे गणेश के रूप में तुम्हारे बेटे का सिर कटा था, हम घर आकर ऐसे ही उसका सिर भी काट देंगे तब इसकी रिपोर्ट मुंबई के अंधेरी ईस्ट स्थित मेगवाड़ी थाने में भी दर्ज कराई गई थी। यहाँ तक कि पप्पू पोलिस्टर के सगे चाचा विलायत हुसैन ने उन्हें यह कहकर पुश्तैनी सम्पति देने से मना कर दिया है कि खुद तो भगवान बन गए, लड़के को भी भगवान बना दिया। इसलिए तुम मुसलमान ही नहीं रहे और हमारे परिवार से अब तुम्हारा कोई नाता भी नहीं रहा। नवाब हसन कहते हैं कि हिन्दू देवताओं के अभिनय करने पर उन्हें हिन्दू समाज के लोगों ने उनके प्रति जो सम्मान और श्रध्दा व्यक्त की उसकी मैं कभी कल्पना भी नहीं कर सकता लेकिन इसके ठीक उलट मुस्लिम समाज के कट्ट्रपंथियों की ओर से मुझे लगातार तिरस्कार और धमकियाँ मिलती है। नवाब बदरुल हसन उर्फ पप्पू पोलिस्टर की ये परेशानी कई सवाल खड़े करती है। क्या अब कलाकारों को भी धर्म और मजहब के तराजू में तौला जाएगा। क्या अब धर्म के आधार पर कलाकारों को अपनी भूमिका चुनने के लिए बाध्य किया जाएगा। क्या कलाकारों को अब एक सीमा में रहकर काम करने के लिए मजबूर किया जाएगा। क्या इस तरह की हरकतें कर इस देश का अमन चैन बिगाड़ने की कोशिश नहीं हो रही है। सलमान खान अपने घर में गणपति लाते हैं तो इन कट्टरपंथियों के पेट में दर्द होने लगता है लेकिन उन्हें अजमेर में विश्व प्रसिद्ध बाबा बादामी शाह की दरगाह पर एक हिन्दू परिवार द्वारा सालों से की जा रही खिदमत दिखाई नहीं देती। ऐसे ही न जाने कितने उदाहरण है हिन्दू-मुस्लिम एकता के और शायद यही एकता कुछ मौका परस्त लोगों को रास नहीं आ रही है। इसीलिए वो इस देश के लोगों में अपने पराए का भेद पैदा कर रहे हैं। नवाब बदरुल हसन उर्फ पप्पू पोलिस्टर के खिलाफ जारी फतवा तो इसी बात को दर्शाता है।

मंगलवार, 16 सितंबर 2008

THIRD WORLD WAR

16 सितम्बर 2008

Don't worry about WORLD WAR III…
Just sit back, relax and watch
because now the Special Forces
will take of WORLD WAR III....













































रविवार, 14 सितंबर 2008

एक बार फिर


15 सितम्बर 2008

एक बार फिर दहशतगर्द अपने नापाक मंसूबों को अंजाम देने में कामयाब रहे। एक बार फिर तमाम निर्दोष लोग अपनी जान से हाथ धो बैंठे। एक बार फिर कुछ बच्चे अनाथ हो गए, कुछ सुहागिनें विधाव हो गईं, कुछ माओं की गोद उजड़ गई। एक बार फिर फिजा में आतंक का साया पसरा नजर आया । एक बार फिर अफरा तफरी और चीख पुकार मची, एक बार फिर लोग बदहवास से इधर उधर भागते नजर आए, एक बार फिर सारी सुरक्षा व्यवस्था के दावे खोखले साबित हुए। एक बार फिर लोगों की सुरक्षा कर पाने में पुलिस महकमा नाकाम रहा। एक बार फिर आतंकियों ने ई मेल भेजा है। जी हां एक बार फिर धमाके हए हैं। धमाके भी ऐसे वैसे नहीं सिलसिलेवार हुए हैं। वो भी देश की राजधानी बल्कि यू कहें कि राजधानी के दिल कनाट प्लेस में हुए हैं। एक बार फिर रेड अलर्ट, हाई अलर्ट का शोर गूंजा है, एक बार फिर सुरक्षा व्यवस्था को चाक चौबन्द करने की कवायद की जा रही है., एक बार फिर दबिश दी जा रही है, छापेमारी हो रही है। एक बार फिर स्केच जारी हो रहे हैं, एक बार फिर कुछ गिरफ्तारियां हो रही हैं। एक बार फिर जांच हो रही है, कमेटी बन रही है। एक बार फिर प्रधानमंत्री सहित तमाम नेताओं ने धमाकों की निन्दा की है, एक बार फिर आतंक को कोसा है, एक बार फिर आतंकियों को मुंह तोड़ जवाब देने की हुंकार भरी जा रही है, एक बार फिर सभी को धैर्य से काम लेने की अपील की जा रही है। जी हां एक बार फिर धमाके हुए हैं। धमाके भी ऐसे वैसे नहीं सिलसिलेवार हुए हैं लेकिन एक बार फिर लोग सब कुछ भूल गए हैं, एक बार फिर जिन्दगी मुस्कुरा रही है, एक बार फिर नई सुबह आई है, एक बार फिर लोग अपने अपने काम पर लौट आए हैं, जी हां एक बार फिर सब कुछ शान्त हो गया है। एक बार फिर सरकार ने राहत की सांस ली है कि पहले की तरह जनता भड़की नहीं बल्कि पहले की तरह एक बार फिर धमाकों को भूलकर अपने काम में जुट गई है लेकिन सवाल ये है कि कब तक एक बार फिर हम इस तरह की घटनाओं को भूलते रहेंगे और कब तक एक बार फिर इंसानियत को ये धमाके लहुलुहान करते रहेंगे। कब तक एक बार फिर जैसी ये घटनाएं हमारे देश में दोहराई जाती रहेंगी।

शनिवार, 13 सितंबर 2008

हर तस्वीर कुछ कहती है

13 सितम्बर 2008



कौन कहता है बिल्ली और चूहे की दोस्ती नहीं हो सकती। अंगोला में इन चूहों को बारुदी सुरंग ढूंढने का प्रशिक्षण दिया जा रहा है।




स्कॉटलैंड के एडिनबर्ग चिड़ियाघर में यह नवजात जेबरा क़ुदरत की रंगीनियाँ देख मस्त हो गया और अठखेलियां करने लगा।




ब्रिटेन के स्टॉकपोर्ट में इस गोरैये ने पानी की ज़रुरत इस तरह पूरी की।





सभी फोटो साभार बीबीसी

भारत के गौरव की नीलामी



13 सितम्बर 2008
पंजाब के पूर्व महाराजा रणजीत सिंह की संगमरमर से बनी दुर्लभ दुधिया प्रतिमा नौ अक्तूबर को लंदन के बोनहैम्स में नीलाम की जाएगी। महाराजा रणजीत सिंह की यह प्रतिमा 1900 सदी में भारत में बनी है। इस प्रतिमा के 45 से 63 लाख रुपये के बीच बिकने की संभावना है। 1793 में स्थापित बोनहैम्स पुरानी और ऐतिहासिक वस्तुओं की नीलामी करने वाली बहुत पुरानी संस्था है। इसके पहले इस नीलाम घर द्वारा रणजीत सिंह के बेटे दिलीप सिंह की प्रतिमा 17 लाख पाउंड में नीलाम की जा चुकी है। शेर-ए-पंजाब के नाम से विख्यात रणजीत सिंह का जन्म 13 नवंबर 1780 को गुजरांवाला में हुआ था जो अब पाकिस्तान में है। महाराजा रणजीत सिंह के बारे में पंजाब रियासत के प्रधानमंत्री रहे दीवान जरमनी दास ने कई रोचक किस्से लिखे हैं। एक किस्सा यूँ है कि महाराजा रणजीत सिंह कोलकोता में रोल्स रॉयस गाड़ी के शो रुम के सामने से गुजर रहे थे, अचानक उनका ध्यान वहाँ रखी रोल्स रायस कारों पर गया तो वे सहज ही उन कारों का भाव पूछने चले गए। उनका पंजाबी और सरदार की विचित्र वेशभूषा देखकर वहाँ मौजूद अंग्रेज कर्मचारी ने उनको डाँट कर कहा कि ये बहुत महंगी कारें हैं इनको खरीदना तुम्हारे बस की बात नहीं और उनको कार के शो रुम से बाहर कर दिया। थोड़ी ही देर में महाराजा रणजीत सिंह ने अपने मंत्री को भेजकर शो रुम में रखी सभी रोल्य रॉयस कारें खरीद ली। लेकिन किस्सा यहीं खत्म नहीं हुआ, असली किस्सा तो इन कारों को खरीदने के बाद शुरु होता है। महाराजा रणजीत सिंह अपने अपमान से इतने आहत थे कि उन्होंने इऩ कारों को पंजाब लाकर इनको शहर का कचरा ढोने में लगा दिया और कोलकोता के शो रूम मालिक अंग्रेज को इसकी खबर भी भिजवा दी। इधर लंदन के अखबारों में रोल्स रॉयस के कचरा ढोते हुए फोटो भी प्रकाशित हो गए तो पूरे इंग्लैंड में हंगामा मच गया। रोल्य रॉयस कंपनी ने काफी मिन्नतों और मनुहारों के बाद महाराजा रणजीत सिंह को इस बात के लिए मनाया कि वे इन कारों को कचरा ढोने के काम में न लें। उन्हीं महाराजा रणजीत सिंह की प्रतिमा की एक विदेशी नीलाम घर में बोली लगेगी और सौ करोड़ की आबादी वाला हमारा देश इस कार्रवाई को मूक दर्शक बनकर देखेगा। वैसे तो हम अपने इतिहास और गौरव की दुहाई देते नहीं थकते लेकिन जहां बात उसी इतिहास को संभालने, सहेजने और संवारने की बात आती है तो हमारे रहनुमाओं को लकवा मार जाता है। उनके सोचने समझने की क्षमता मानों जैसे समाप्त हो जाती है। देश के धुरंधर नेताओं की सुरक्षा पर करोड़ो खर्च करने वाली सरकार क्या हमारे गौरव की इस नीलामी को रोक नहीं सकती। जो महाराजा रणजीत सिंह भारतीय आन-बान और शान के प्रतीक थे, उनकी प्रतिमा एक विदेशी नीलाम घर द्वारा नीलाम किया जाना इस बात का सबूत है कि हमारे देश में हम दो दो कौड़ी के नेताओं और फिल्मी कलाकारों को तो सम्मान देते हैं मगर अपने देश के असली नायकों को भूल जाते हैं।


ये जानकारी साभार hindi media.in से ली गई है।

रविवार, 7 सितंबर 2008

देहदान - महादान


07 सितम्बर 2008
मोक्ष प्राप्ति के लिए शरीर को मृत्यु के बाद जलाने या दफनाने की परंपरा है लेकिन अगर ये कहा जाए कि मोक्ष प्राप्ति से भी महत्वपूर्ण कुछ है जिसे आप करके पूरी दुनिया की भलाई कर सकते हैं तो आप क्या कहेंगे। जी हां, बात देह दान की हो रही है। जिसके लिए लोग धीरे धीरे ही सही लेकिन आगे आने लगे हैं। कुछ ऐसा ही हुआ है गुलाबी नगरी जयपुर में। यहां के सवाई मानसिंह मेडिकल कॉलेज में शनिवार को एक रिटायर्ड आईएएस अधिकारी श्री पुखराज सालेचा की मां श्रीमती प्यारी देवी ने जब 91 साल की उम्र में अंतिम सांस ली तो उनकी मौत हमेशा के लिए अमर हो गई। वजह बनी उनकी वो अंतिम इच्छा जिसके मुताबिक उन्होंने अपनी देह को दान करने की बात कही थी। उनकी इस इच्छा का सम्मान करते हुए उनके परिजनों ने उनका शरीर मेडिकल कॉलेज को सौंप दिया। साथ ही पूरे परिवार ने ये फैसला भी किया कि परिवार के किसी भी सदस्य की कहीं भी मृत्यु होने पर पास के मेडिकल कॉलेज में उसकी देह दान कर दी जाएगी। आपको बता दें कि एक साल पहले प्यारी देवी के पुत्र रिटायर्ड आईएएस अधिकारी पुखराज सालेचा की पत्नी ने भी अपनी मौत के बाद देह दान किया था। एक साल के अंतराल पर सास-बहू के देह दान का यह अनूठा उदाहरण है। एसएमएस मेडिकल कॉलेज का एनाटमी विभाग इस बात को लेकर खासा उत्साहित है कि लोगों की सोच में देह दान करने को लेकर मौजूद भ्रांतियां धीरे धीरे ही सही टूट रही हैं और देहदान करने वालों की संख्या धीरे-धीरे बढ़ रही है। 1988 में जहां देह दान करने वाले की संख्या एक थी, वहीं 2007 में बढ़कर छह हो गई। मेडिकल कॉलेज में अब तक देहदान के लिए 139 संकल्प पत्र भरे जा चुके हैं। डॉक्टरों को उम्मीद है कि मृत्यु के बाद देहदान करने वालों की बढ़ती संख्या के बाद चिकित्सा जगत में शोध और अध्ययन में काफी मदद मिलेगी। आपको बता दें कि साधारणत: एक कैडवार (मृत शरीर का मेडिकल नाम) के अध्ययन के लिए पांच से अधिक छात्र नहीं होने चाहिए लेकिन अपने यहां इस कमी का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि एक मृत शरीर के अध्ययन में लगभग ३० छात्र तक लगे होते हैं। अगर हम तुलना करें तो पाएंगे कि अंग्रेज देह दान जैसे विचार को काफी खुलेपन से ग्रहण करते हैं और इसका समर्थन करते हैं। इंग्लैंड में हर वर्ष ८०० से अधिक अंग्रेज मेडिकल शोध के लिए देह दान करते हैं। मृत शरीर दान करने के पीछे कारण अलग-अलग हो सकते हैं लेकिन इतना विश्वास तो उनको होता ही है कि उनका शरीर संसार में किसी काम आ सकता है। १९३२ में पृथ्वी पर मानव कल्याण और चिकित्सा विज्ञान की उन्नति के लिए मरणोपरांत देह दान करने वाले प्रथम व्यक्ति थे चिन्तक जेरेम बेन्हॉम। भारत में मरणो परांत देह दान करने वाले पहले व्यक्ति थे महाराष्ट्र के पूना में शिक्षक पाण्डुरंग आप्टे। पश्चिम बंगाल मे संगठित रूप से इस पर कार्य शुरू हुआ वर्ष १९८५ में और पहला देहदान हुआ १८ जनवरी १९९० आर.जी. कर मेडिकल कॉलेज में जब सुकुमार होम चौधरी की मौत के बाद दान किया गया उनका शरीर मेडिकल कॉलेज ने ग्रहण किया। इससे पहले ६ जून १९८८ को भारतीय शल्य चिकित्सा जगत में एक चमत्कारी घटना घट चुकी थी। मृत देह से किडनी निकाल कर एक रोगणी को प्रत्यारोपित किया गया। कृष्णानगर के दीनेन्द्र चन्द्र मोदक हठात मस्तिष्क रक्त क्षरण के कारण मारे गए। उस समय उनकी पुत्री वन्दना किडनी खराब होने के कारण अस्वस्थ थीं। डॉ. एम.सी. शील एवं उनके सहयोगी डॉक्टरों ने तत्काल मृतक की किडनी का प्रत्यारोपण करने का निर्णय लिया मृतक की पत्नी लक्ष्मी देवी ने अनुमति दी। मृत पिता की किडनी पाकर वन्दना ने नया जीवन पाया। नवम्बर १९८९ में भारत की लोकसभा में अंग प्रत्यारोपण विषयक एक कानून की घोषणा हुई। वह कानून पारित हुआ जून १९९४ में दि ट्रान्सप्लाण्टेशन ऑफ ह्यूमन आरगन (एक्ट ४२)। देह दान जिसमे अंगदान भी शामिल है, भारत में अभी शैशवस्था में है। इस बारे में सामान्यतया अनिच्छा देखी जाती है। यहां तक कि कुछ मामलों में लोगों में विमुखता भी पायी जाती है। किसी भी डाक्टर द्वारा चाहे वह मृत्यु के बाद ही क्यों न हो, अपने शरीर का चीरफाड़ कराने का विचार लोगों को देहदान के प्रति अनिच्छुक बना देता है। अपने शरीर के किसी भी अंग के दान की मान्यता अभी भी है लेकिन मेडिकल शोध के लिए अपनी सम्पूर्ण देह का दान करने के लिए कम ही लोग सामने आते हैं। हालांकि हिन्दू, मुस्लिम सिख ईसाई धर्म कोई भी हो इस प्रकार के दान को न तो प्रतिबंधित करता है और न ही इसकी भर्त्सना करता है। दरअसल धर्म का मूल आधार ही त्याग है। जैसे हजारों साल पहले महर्षि दधीचि ने लोक कल्याण के लिए अपनी अस्थियों का दान कर दिया था। ठीक उसी तरह आपकी मौत के बाद आपका शरीर भी इस दुनिया के किसी काम आ सकता है, ये विचार काफी नहीं है देहदान को एक परंपरा का रूप देने के लिए। दुनिया में रोज मौतें होती है लेकिन उनकी याद किसी को नहीं रहती। मौत प्यारी देवी जैसी लोगों की भी होती है लेकिन उनकी चर्चा होती है। लोग श्रद्धा से उनका नाम लेते हैं। असम की राजधानी गुवाहाटी में तो देहदान करने वाली असम की पहली महिला एलोरा रॉय चौधारी की पुण्यतिथि पर खास कार्यक्रम आयोजित किए जाते हैं। उनसे लोग प्रेरणा लेते हैं। कुछ महीनों पहले ऐसे ही एक कार्यक्रम में 51 लोगों ने, जिनमें 25 महिलाएं शामिल थीं, अपनी ''अन्तिम इच्छा'' पर दस्तखत किए कि उनकी मृत्यु के बाद उनके शरीरों को चिकित्सकीय अनुसन्धान के लिए सौंप दिया जाए। कह सकते हैं कि मृत्यु के बाद अपना देहदान या नेत्रदान करने के लिए लोगों को प्रेरित करने में पिछले चार साल से लगे गुवाहाटी के इस 'एलोरा विज्ञान मंच' की मुहिम के लिए यह एक बड़ी कामयाबी थी। इस घोषणा के बाद उपरोक्त मंच के जरिये देहदान की घोषणा करने वालों की संख्या 219 तक जा पहुंची है। ये संख्या लगातार बढ़े इसकी मैं उम्मीद करता हूं क्योकि लोक कल्याण के लिए ये ज़रूरी है।

यह प्रक्रिया है देहदान की
देहदान का शपथ पत्र मेडिकल कॉलेज में निशुल्क उपलब्ध है। कानूनी उत्तराधिकारी का अनापत्ति प्रमाण पत्र दस रुपए के नॉन ज्यूडिशियल स्टॉम्प पर संभागीय दंडनायक से सत्यापित कराकर देहदान का शपथ पत्र फॉर्म के साथ संलग्न करके एक प्रति मेडिकल कॉलेज दूसरी संबंधित थाने और तीसरी स्वंय के पास रखनी होगी।

महानगर ऑनलाइन और हम समवेत नाम के ब्लाग से जानकारी लेकर ये लेख लिखा गया है।

शुक्रवार, 5 सितंबर 2008

कौन समझेगा इनका दर्द

05 सितम्बर 2008



इस तस्वीर को ज़रा गौर से देखिएगा। ये तस्वीर है उस बेबस और लाचार पत्नी की है जिसके पति ने बुधवार को खुदकुशी कर ली। अब आप कारण भी जानना चाहेंगे। दरअसल कालिका संतरा नाम की इस महिला के दो बेटे टाटा के सिंगूर स्थित उसी प्लांट में काम करते हैं जहां दुनिया की सबसे सस्ती कार बनाने का काम चल रहा था लेकिन इस परियोजना के विरोध में छेड़े गए आंदोलन के चलते जिस पर संकट के बादल मंडराने लगे। इस आंदोलन के बाद इस प्लांट में काम काज ठप हो गया और टाटा समूह के चैयरमैन रतन टाटा ने सिंगूर से इस प्लांट को कहीं औऱ स्थानांतरित करने का फैसला कर लिया। उनके इस फैसले के बाद कालिका के दोनों बेटों के बेरोजगार होने का खतरा पैदा हो गया और खतरे की इस आहट ने कालिका के पति सुशेन को वो कदम उठाने के लिए मजबूर कर दिया जो उसकी पत्नी ने सपने में भी नहीं सोचा था। सुशेन ने कीटनाशक पीकर अपनी जीवनलीला समाप्त कर ली। कालिका के बेटे की मानें तो उसके पिता किसी पर बोझ नहीं बनना चाहते थे और दोनों भाइयों की बेरोजोगारी के डर ने ही उनके पिता की जान ले ली। हालांकि सभी जानते हैं फिर भी बता दूं कि सिंगूर भूमि अधिग्रहण के ख़िलाफ़ तृणमूल कांग्रेस की प्रमुख ममता बनर्ज़ी 25 दिनों के अनशन पर बैठी थीं और प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के आश्वासन के बाद ही उन्होंने अनशन समाप्त किया था। ममता बनर्जी परियोजना के लिए उपजाऊ ज़मीन के अधिग्रहण का विरोध कर रही थीं। इस कारखाने के लिए साढ़े तीन हज़ार से भी अधिक किसानों की ज़मीन ली जा रही है और विरोध करने वालों का कहना है कि किसानों के विस्थापन की क़ीमत पर कारखाना नहीं लगने दिया जाएगा। इनका ये भी कहना है कि वे नहीं चाहते कि टाटा सिंगूर से जाएं। उनका कहना है कि जिस ज़मीन पर कारखाना बना है उसके लिए ज़मीन ज़बरदस्ती अधिग्रहीत की गई है। ये ज़मीन उनके मालिकों को वापस कर दी जाए। टाटा और तृणमूल कांग्रेस के बीच चल रहे इस अघोषित युद्ध ने ही जॉमाला गाँव के किसान सुशेन संतारा की जान ले ली। टाटा अपनी परियोजना लेकर कहीं और चले जायेंगे, जिसके बाद तृणमूल कांग्रेस इसे अपने संघर्ष की जीत बताकर चुनावी मौसम में वोटों की फसल काटेगा। नुकसान न टाटा को है और न ही तृणमूल कांग्रेस को। नुकसान तो है उन लोगों का जो इस प्लांट में मजदूरी करते हैं। जिनके घर का चूल्हा इस परियोजना के चलते ही जल रहा था। अगर इन्हें काम से निकाल दिया गया तो इनके भूखों मरने की नौबत आ जाएगी और अगर इन्हे निकाला नहीं भी गया तो किसी औऱ राज्य में परियोजना के लगने पर वहां जाकर काम करना भी इनके लिए आसान नहीं होगा। मेरा मानना है कि इस समस्या के समाधान को लेकर जो भी कदम उठाया जाए वो इस परियोजना से जुड़े हर शख्स के हित को ध्यान में रखकर उठाया जाए। वरना रहीं ऐसा न हो कि बेरोजगारी का डर दूसरे मजदूरों को भी सुशेन संतारा की राह चलने के लिए मजबूर कर दे।

गुरुवार, 4 सितंबर 2008

अब आगे क्या होगा...

04 सितम्बर 2008


कोसी का जल स्तर तेजी से घट रहा है। बाढ़ का पानी गांवों, सड़कों पुलों और रेल ट्रैकों से खिसकने लगा है। जो लोग अब तक अपना सब कुछ छोड़ छाड़कर जान बचाने की फिराक में भाग रहे थे उनके कदम ठिठकने लगे हैं। घर की याद सता रही है। लिहाजा अब लोग वापस लौटना चाहते हैं। अपने उजड़े खेत, जर्जर हो चुके मकान दोबारा देखना चाहते हैं। वो देखना चाहते हैं, बाढ़ का पानी खिसकने के बाद की वीरानी। उनकी आंखों में दर्द है, सीने में हलचल। वो दोबारा जिन्दगी को किस सिरे से शुरू करें और कैसे शुरू करें, ऐसे ही तमाम सवाल हैं जो उनके जेहन में कांटे की तरह चुभ रहे हैं। तमाम लोग अपनों से बिछड़ गए हैं और उन्हें खोजने की जद्दोजहद में लगे हैं। उधर बाढ़ में फंसे लोगों को बचाने वाली टीमें भी अब राहत की सांस ले रही हैं लेकिन हालात दूसरे खतरे का संकेत देने लगे हैं। जैसे जैसे बाढ़ का पानी खिसकेगा तरह तरह की बीमारियां अपने पैर पसारेंगी। दूर दराज और ग्रामीण इलाकों में स्वास्थ्य सेवाओं का हाल किसी से छिपा नहीं है। राहत शिविरों में तो लोगों का शरीर जवाब दे रहा है। कई दिनों तक लगातार भीगे रहने और खाने को कुछ न मिलने से बीमारियों को हमले का रास्ता मिल गया है। तन पर कपड़े के नाम पर चंद चीथड़े, सिर पर अंगौछा, सामान के नाम पर छोटी सी गठरी। ये है एक बाढ़ पीड़ित की तस्वीर जिसका कोसी नदी सब कुछ छीन चुकी है। ऐसी ही गठरियों के सहारे बिहार की एक बड़ी आबादी को मुश्किलों से जूझते हुए अपनी जिन्दगी की जंग लड़नी है। अब लोग बचाव नहीं राहत चाहते हैं। कोसी ने कई माओं की गोद सूनी कर दी है, तमाम बच्चों को अनाथ कर दिया है, सुहागिनों की मांग उजड़ गई है। राहत शिविरों में हालात बहुच अच्छे नहीं है। पुरुषों को अगर छोड़ दें तो शिविरों में हज़ारों महिलाएँ और दुधमुँहे बच्चे हैं जिनमें से कई ऐसे हैं जो बीमार हैं। कुछ बच्चे तो चंद दिन पहले ही पैदा हुए हैं। जीवन के लिए संघर्ष उनकी किस्मत बन चुका है। न खाने की अच्छी व्यवस्था है और न ही पहनने ओढ़ने की। खाने के नाम पर एक वक्त खिचड़ी मिल रही है वो भी ऐसी कि खाने के बाद बीमार होना तय है। बीबीसी के मुताबिक शरणार्थी तो ये तक कह रहे हैं कि जब ऐसा ही खाना देना था तो उन्हें पानी से ही क्यों निकाला। मर ही जाने देते। कम से कम अपने घर में तो मरते लेकिन सरकारी शिविरों में ये सब सुनने वाला कौन है।


बथनाहा शिविर में खाने के लिए लंबी लाइनें लगती हैं और लोगों को बस एक बार खाना मिल पा रहा है।



खाने की गुणवत्ता ठीक न होने से बाढ़ पीड़ितों में नाराजगी


इतना दर्द समेटकर जिन्दगी जीना बड़ा मुश्किल होता है लेकिन बावजूद इसके ये जंग लड़ी जाएगी। लोग फिर से उठ खड़े होंगे और जिन्दगी फिर पटरी पर लौटेगी लेकिन सवाल यही है कि ऐसा कब तक होता रहेगा। नेपाल सरकार ने भारत और भारत सरकार ने नेपाल को इस तबाही की जिम्मेदार बताना शुरू कर दिया है। इस भीषण त्रासदी के बीच भी राजनीति के मौके तलाशे जा रहे हैं। वक्त बीतने के साथ इसमें तेजी आएगी और पीड़ितों के दर्द भुला दिए जायेंगे। फिर ये दर्द याद तब आयेंगे जब चुनाव आयेंगे। फिर इसी दर्द को राजनीति का अखाड़ा बनया जाएगा और अपना सब कुछ गंवा चुके बिहार के इन बाढ़ पीड़ितों को उनका दर्द फिर सताएगा...उन्हें फिर याद आएगा कि कैसे लहरों के कहर ने उनसे उनका सब कुछ छीन लिया था। उनके ज़ख्म एक बार फिर हरे हो जायेंगे। जिसकी टीस केवल वही महसूस करेंगे उनके रहनुमाई की दावा करने वाले नहीं।

सभी फोटो साभार बीबीसी

बुधवार, 3 सितंबर 2008

बिलखता बिहार...जिम्मेदार कौन

03 सितम्बर 2008


कल शाम घऱ पर बैठा बिहार में आई बाढ़ के चलते पैदा हुए हालातों के बारे में सोच रहा था। ताजा स्थिति जानने के लिए टेलीविजन का रिमोट हाथ में लिया और चैनल सर्च करने लगा। आईबीएन-7 पर जाकर हाथ ठिठक गया। जिंदगी की रेल नाम से एक प्रोग्राम चल रहा था। सार ये था कि किस तरह से कोसी के प्रलय से बचने के लिए लोग भेड़ बकरियों की तरह ट्रेन में ठुंसे भाग रहे हैं। क्या ट्रेन की छत और क्या डिब्बे,क्या इंजन और क्या दरवाजे सभी जगह जान हथेली पर लिए लोग भाग निकलना चाहते हैं। कोसी के आगोश से दूर...किसी सुरक्षित जगह...जहां जिन्दगी के बारे में सोच सकें। सोच सकें कि अब आगे क्या...प्रोग्राम देखकर आंखे भर आईं। दिल में हाहाकार मच गया। लगातार विकास की नई गाथा लिखने को तैयार हिन्दुस्तान के गांवों की...गरीबों की...लाचारों की असल तस्वीर देख मन विचलित हो गया। भ्रष्ट सरकारी तंत्र, सुस्त कार्यशैली और अदूरदर्शिता ने आज बिहार को शोक संतप्त होने के लिए मजबूर कर दिया है। अधिकारियों का कहना है कि सेना की 20 कंपनियाँ, 11 हेलिकॉप्टरों और 1300 नौकाओं के माध्यम से बाढ़ प्रभावितों को बचाने और राहत शिविरों तक पहुँचाने के अभियान में जुटी हुई हैं लेकिन सरकारी दावे से अलग प्रभावित इलाक़ों से ख़बरें आ रही हैं कि लाखों बाढ़ पीड़ित अब भी राहत का इंतज़ार कर रहे हैं और राहत कार्य में व्यवस्था की बेहद कमी है। इस बीच बिहार में बाढ़ राहत के कार्य में जुटी संस्थाओं में से एक – ऐक्शन एड – का कहना है कि बाढ़ में मारे गए लोगों की संख्या 2000 के आस-पास हो सकती है, सरकारी आंकड़ों के मुताबिक़ मरने वालों की संख्या अब भी 100 से कम है। पंद्रह दिनों से एक ही कपड़ा पहनकर बिलख रहे लोग अपने रिश्तेदारों की मौत का मातम मना रहे हैं लेकिन उनकी मौत किसी सरकारी आंकड़े में दर्ज नहीं है। बात करें कारण की कि आखिर ये हालात पैदा क्यों हुए तो भारत सरकार की अदूरदर्शिता भी उजागर होती है।
यहां बीबीसी हिन्दी पर आए एक लेख का जिक्र करना चाहूंगा...
कहा जा रहा है कि कि कोसी नदी ने धारा बदल ली इसलिए बिहार में प्रलयंकारी बाढ़ कि स्थिति पैदा हुई है। ये बात बिल्कुल बेबुनियाद है। हमे याद रखना चाहिए कि नदी ने ख़ुद धारा नहीं बदली बल्कि प्राकृतिक धारा को रोक कर बनाए गए बराज या तटबंध के टूटने के कारण ये स्थिति पैदा हुई है। ब्रिटिश हुकूमत सौ वर्षों तक इस बात पर विचार करती रही कि बिहार का शोक कही जाने वाली इस नदी की धारा को नियंत्रित करने के लिए बराज बनाया जाए या नहीं। ब्रितानी सरकार ने तटबंध नहीं बनाने का फ़ैसला इस बिना पर किया कि तटबंध टूटने से जो क्षति होगी उसकी भरपाई करना ज़्यादा मुश्किल साबित होगा लेकिन आज़ादी के बाद भारत सरकार ने नेपाल के साथ समझौता कर 1954 में बराज बनाने का फ़ैसला कर लिया। उस समय पचास के दशक के शुरुआती वर्षों में इस तटबंध के ख़िलाफ़ स्थानीय लोगों ने विरोध प्रदर्शन तक किए थे। आज भी विशेषज्ञों का एक तबका ये मानता है कि कोसी की धारा के साथ कृत्रिम छेड़छाड़ इस तरह की भयानक स्थिति के लिए ज़िम्मेदार है। तटबंध बनाकर नदी की धारा को नियंत्रित दिशा दी गई। अब जब अतिरिक्त पानी के दबाव में तटबंध का जो हिस्सा टूटेगा उसी से होकर नदी बहेगी जो बिल्कुल स्वाभाविक है। इसलिए ये कहना बिल्कुल ग़लत है कि नदी ने ख़ुद धारा बदली। जब बांध बनाया गया तो पिछले सौ वर्षों के इतिहास को ध्यान में रखा गया और पानी का औसत बहाव मापने की कोशिश की गई। इस हिसाब से ये कहा गया कि तटबंध साढ़े नौ लाख घन फुट प्रति सेकेंड (क्यूसेक) पानी के बहाव को बर्दाश्त कर सकता है। ये भी बताया गया कि बांध की आयु 25 वर्ष है जो बिल्कुल अवैज्ञानिक तथ्यों पर आधारित है। हम पिछले इतिहास के आधार पर भविष्य की गणना नहीं कर सकते। कौन जानता है कि बांध बनने के अगले ही साल सबसे ज़्यादा पानी का दबाव उसे झेलना पड़े। ख़ैर इस वर्ष तो हद हो गई क्योंकि जब 18 अगस्त को बांध टूटा तो पानी का बहाव महज एक लाख 44 हज़ार क्यूसेक था। कोसी पर बना तटबंध सात बार टूट चुका है और बाढ़ से तबाही पहले भी हुई है। वर्ष 1968 में तटबंध पाँच जगहों से टूटा था और उस समय पानी का बहाव नौ लाख 13 हज़ार क्यूसेक मापा गया था। हालाँकि पहली बार 1963 में ही तटबंध टूट गया था। वर्ष 1968 में कोसी तटबंध बिहार के जमालपुर में टूटा था और सहरसा, खगड़िया और समस्तीपुर में भारी नुकसान हुआ था। नेपाल में यह तटबंध 1963 में डलबा, 1991 में जोगनिया और इस वर्ष कुसहा में टूट चुका है। बांध टूटने का एक बड़ा कारण कोसी नदी की तलहटी में तेज़ी से गाद का जमना भी है। इसके कारण जलस्तर बढ़ता है और तटबंध पर दबाव पड़ता है। इस बार कोसी ने जो कहर बरपाया है उससे बिहार का नक्शा बदलने का खतरा पैदा हो गया है। बिहार में बाढ़ का क़हर बरपा रही कोसी नदी का जलस्तर कहीं-कहीं कुछ कम हुआ है लेकिन उसका नए-नए इलाक़ों में प्रवेश जारी है। जहाँ दो दिनों पहले पानी नहीं था वहाँ अब पानी भर आया है और लोग वहाँ से सुरक्षित स्थानों की तलाश में विस्थापित हो रहे हैं। 18 अगस्त को कोसी नदी के तटबंध टूटने से आई इस बाढ़ से बिहार के 16 ज़िले प्रभावित हैं लेकिन कोसी इलाक़े के चार ज़िलों सुपौल, सहरसा, अररिया और मधेपुरा में इसकी स्थिति ख़ासी गंभीर है। बाढ़ पीड़ित 33 लाख लोगों में से 22 लाख तो कोसी इलाक़ों के चार ज़िलों से ही हैं। भूख से बिलबिलाते लोगों को अब बीमारियों का डर भी सता रहा है। जैसे जैसे बाढ़ का पानी उतरेगा बीमारियों का कहर शुरू होगा, जो न सिर्फ बाढ़ पीड़ितों के लिए बल्कि प्रशासन के लिए भी किसी चुनौती से कम नहीं होगा।


नेपाल में कुसहा बांध की यही वो जगह है जहां से कोसी ने बांध को तोड़ा है और यहीं से बिहार में पानी घुसा है।



सभी फोटो साभार बीबीसी
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