रविवार, 7 सितंबर 2008

देहदान - महादान


07 सितम्बर 2008
मोक्ष प्राप्ति के लिए शरीर को मृत्यु के बाद जलाने या दफनाने की परंपरा है लेकिन अगर ये कहा जाए कि मोक्ष प्राप्ति से भी महत्वपूर्ण कुछ है जिसे आप करके पूरी दुनिया की भलाई कर सकते हैं तो आप क्या कहेंगे। जी हां, बात देह दान की हो रही है। जिसके लिए लोग धीरे धीरे ही सही लेकिन आगे आने लगे हैं। कुछ ऐसा ही हुआ है गुलाबी नगरी जयपुर में। यहां के सवाई मानसिंह मेडिकल कॉलेज में शनिवार को एक रिटायर्ड आईएएस अधिकारी श्री पुखराज सालेचा की मां श्रीमती प्यारी देवी ने जब 91 साल की उम्र में अंतिम सांस ली तो उनकी मौत हमेशा के लिए अमर हो गई। वजह बनी उनकी वो अंतिम इच्छा जिसके मुताबिक उन्होंने अपनी देह को दान करने की बात कही थी। उनकी इस इच्छा का सम्मान करते हुए उनके परिजनों ने उनका शरीर मेडिकल कॉलेज को सौंप दिया। साथ ही पूरे परिवार ने ये फैसला भी किया कि परिवार के किसी भी सदस्य की कहीं भी मृत्यु होने पर पास के मेडिकल कॉलेज में उसकी देह दान कर दी जाएगी। आपको बता दें कि एक साल पहले प्यारी देवी के पुत्र रिटायर्ड आईएएस अधिकारी पुखराज सालेचा की पत्नी ने भी अपनी मौत के बाद देह दान किया था। एक साल के अंतराल पर सास-बहू के देह दान का यह अनूठा उदाहरण है। एसएमएस मेडिकल कॉलेज का एनाटमी विभाग इस बात को लेकर खासा उत्साहित है कि लोगों की सोच में देह दान करने को लेकर मौजूद भ्रांतियां धीरे धीरे ही सही टूट रही हैं और देहदान करने वालों की संख्या धीरे-धीरे बढ़ रही है। 1988 में जहां देह दान करने वाले की संख्या एक थी, वहीं 2007 में बढ़कर छह हो गई। मेडिकल कॉलेज में अब तक देहदान के लिए 139 संकल्प पत्र भरे जा चुके हैं। डॉक्टरों को उम्मीद है कि मृत्यु के बाद देहदान करने वालों की बढ़ती संख्या के बाद चिकित्सा जगत में शोध और अध्ययन में काफी मदद मिलेगी। आपको बता दें कि साधारणत: एक कैडवार (मृत शरीर का मेडिकल नाम) के अध्ययन के लिए पांच से अधिक छात्र नहीं होने चाहिए लेकिन अपने यहां इस कमी का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि एक मृत शरीर के अध्ययन में लगभग ३० छात्र तक लगे होते हैं। अगर हम तुलना करें तो पाएंगे कि अंग्रेज देह दान जैसे विचार को काफी खुलेपन से ग्रहण करते हैं और इसका समर्थन करते हैं। इंग्लैंड में हर वर्ष ८०० से अधिक अंग्रेज मेडिकल शोध के लिए देह दान करते हैं। मृत शरीर दान करने के पीछे कारण अलग-अलग हो सकते हैं लेकिन इतना विश्वास तो उनको होता ही है कि उनका शरीर संसार में किसी काम आ सकता है। १९३२ में पृथ्वी पर मानव कल्याण और चिकित्सा विज्ञान की उन्नति के लिए मरणोपरांत देह दान करने वाले प्रथम व्यक्ति थे चिन्तक जेरेम बेन्हॉम। भारत में मरणो परांत देह दान करने वाले पहले व्यक्ति थे महाराष्ट्र के पूना में शिक्षक पाण्डुरंग आप्टे। पश्चिम बंगाल मे संगठित रूप से इस पर कार्य शुरू हुआ वर्ष १९८५ में और पहला देहदान हुआ १८ जनवरी १९९० आर.जी. कर मेडिकल कॉलेज में जब सुकुमार होम चौधरी की मौत के बाद दान किया गया उनका शरीर मेडिकल कॉलेज ने ग्रहण किया। इससे पहले ६ जून १९८८ को भारतीय शल्य चिकित्सा जगत में एक चमत्कारी घटना घट चुकी थी। मृत देह से किडनी निकाल कर एक रोगणी को प्रत्यारोपित किया गया। कृष्णानगर के दीनेन्द्र चन्द्र मोदक हठात मस्तिष्क रक्त क्षरण के कारण मारे गए। उस समय उनकी पुत्री वन्दना किडनी खराब होने के कारण अस्वस्थ थीं। डॉ. एम.सी. शील एवं उनके सहयोगी डॉक्टरों ने तत्काल मृतक की किडनी का प्रत्यारोपण करने का निर्णय लिया मृतक की पत्नी लक्ष्मी देवी ने अनुमति दी। मृत पिता की किडनी पाकर वन्दना ने नया जीवन पाया। नवम्बर १९८९ में भारत की लोकसभा में अंग प्रत्यारोपण विषयक एक कानून की घोषणा हुई। वह कानून पारित हुआ जून १९९४ में दि ट्रान्सप्लाण्टेशन ऑफ ह्यूमन आरगन (एक्ट ४२)। देह दान जिसमे अंगदान भी शामिल है, भारत में अभी शैशवस्था में है। इस बारे में सामान्यतया अनिच्छा देखी जाती है। यहां तक कि कुछ मामलों में लोगों में विमुखता भी पायी जाती है। किसी भी डाक्टर द्वारा चाहे वह मृत्यु के बाद ही क्यों न हो, अपने शरीर का चीरफाड़ कराने का विचार लोगों को देहदान के प्रति अनिच्छुक बना देता है। अपने शरीर के किसी भी अंग के दान की मान्यता अभी भी है लेकिन मेडिकल शोध के लिए अपनी सम्पूर्ण देह का दान करने के लिए कम ही लोग सामने आते हैं। हालांकि हिन्दू, मुस्लिम सिख ईसाई धर्म कोई भी हो इस प्रकार के दान को न तो प्रतिबंधित करता है और न ही इसकी भर्त्सना करता है। दरअसल धर्म का मूल आधार ही त्याग है। जैसे हजारों साल पहले महर्षि दधीचि ने लोक कल्याण के लिए अपनी अस्थियों का दान कर दिया था। ठीक उसी तरह आपकी मौत के बाद आपका शरीर भी इस दुनिया के किसी काम आ सकता है, ये विचार काफी नहीं है देहदान को एक परंपरा का रूप देने के लिए। दुनिया में रोज मौतें होती है लेकिन उनकी याद किसी को नहीं रहती। मौत प्यारी देवी जैसी लोगों की भी होती है लेकिन उनकी चर्चा होती है। लोग श्रद्धा से उनका नाम लेते हैं। असम की राजधानी गुवाहाटी में तो देहदान करने वाली असम की पहली महिला एलोरा रॉय चौधारी की पुण्यतिथि पर खास कार्यक्रम आयोजित किए जाते हैं। उनसे लोग प्रेरणा लेते हैं। कुछ महीनों पहले ऐसे ही एक कार्यक्रम में 51 लोगों ने, जिनमें 25 महिलाएं शामिल थीं, अपनी ''अन्तिम इच्छा'' पर दस्तखत किए कि उनकी मृत्यु के बाद उनके शरीरों को चिकित्सकीय अनुसन्धान के लिए सौंप दिया जाए। कह सकते हैं कि मृत्यु के बाद अपना देहदान या नेत्रदान करने के लिए लोगों को प्रेरित करने में पिछले चार साल से लगे गुवाहाटी के इस 'एलोरा विज्ञान मंच' की मुहिम के लिए यह एक बड़ी कामयाबी थी। इस घोषणा के बाद उपरोक्त मंच के जरिये देहदान की घोषणा करने वालों की संख्या 219 तक जा पहुंची है। ये संख्या लगातार बढ़े इसकी मैं उम्मीद करता हूं क्योकि लोक कल्याण के लिए ये ज़रूरी है।

यह प्रक्रिया है देहदान की
देहदान का शपथ पत्र मेडिकल कॉलेज में निशुल्क उपलब्ध है। कानूनी उत्तराधिकारी का अनापत्ति प्रमाण पत्र दस रुपए के नॉन ज्यूडिशियल स्टॉम्प पर संभागीय दंडनायक से सत्यापित कराकर देहदान का शपथ पत्र फॉर्म के साथ संलग्न करके एक प्रति मेडिकल कॉलेज दूसरी संबंधित थाने और तीसरी स्वंय के पास रखनी होगी।

महानगर ऑनलाइन और हम समवेत नाम के ब्लाग से जानकारी लेकर ये लेख लिखा गया है।

1 टिप्पणी:

Udan Tashtari ने कहा…

सत्य वचन: देहदान-महा दान!!


--प्रेरक!!

http://