औरैया जिले में एक इंजीनियर उत्तर प्रदेश की मर चुकी कानून व्यवस्था और बेशर्म हो चुकी खादी के कहर का शिकार हो गया। हत्या की पहली और ठोस वजह जो सामने आई उसने हमारी राजनीति के एक और घिनौने चेहरे को उजागर कर दिया। जब वही लोग हमारी जान के दुश्मन बन जाएं जिन्हें हमने ही चुनकर विधानसभा में भेजा है तो फिर हमारा और इस प्रदेश के साथ साथ देश का भी ईश्वर ही मालिक है। मैनें वो दृश्य टीवी पर देखे हैं, जिनमें मनोज गुप्ता की पत्नी जार जार रो रही हैं, उनका बेटा प्रतीक और बेटी जूही उनके आंसू पोंछ रहे हैं। ये दृश्य देख यकीन मानिए बहुत रोकने के बावजूद मेरी आंखें भर आईं। उस मां की बेबसी और लाचारी के बारे में सोचिए, जिसने अपने बेटे की मौत से दो दिन पहले ही उसे लंबी उम्र का आशीर्वाद दिया था। मनोज गुप्ता का हंसता खेलता परिवार हमारी सड़ गल चुकी राजनीतिक व्यवस्था की भेंट चढ़ गया। मेरे जैसे न जाने कितने लोगों ने इस मामले पर अपने विचार लिखे होंगे लेकिन यकीन मानिए हालात इससे भी कहीं ज्यादा बुरे हैं। मनोज गुप्ता के परिवार को दुखों के सागर में डुबोने वाला कोई और नहीं बल्कि हमारी सरकार का ही एक नुमाइंदा है। उसके इस कृत्य पर अब शर्मिन्दा हो रही सरकार कानूनी कार्रवाई की बात कर रही है। इस परिवार को मुआवजा देकर,दिलासा देकर अपने गुनाह का बोझ हल्का करने की कोशिश कर रही है। सत्ता के मद में चूर ऐसे लोगों से कोई पूछे ज़रा कि क्या कोई मुआवज़ा,कोई दिलासा इन आंसुओं की कीमत चुका सकता है। क्या इस परिवार को मिले ज़ख्म शोक जताने भर से भरे जा सकते हैं। निश्चय ही नहीं। मनोज के बेटे प्रतीक ने प्रदेश सरकार की मुआवजा राशि लौटाकर उसके शर्मसार चेहरे पर एक और करारा तमाचा मारा है। साफ है कि इस परिवार को न्याय चाहिए। आरोपी विधायक की मात्र गिरफ्तारी करा लेने से काम नहीं चलने वाला है। मायावती को ये बताना होगा कि उनके जन्म दिन के नाम पर धन उगाही क्यों की जाती है। क्यों मासूमों की जान से खिलवाड़ किया जाता है। मायावती ने मुलायम के जिस गुण्डाराज से निजात दिलाने के नाम पर जनता से वोट मांगा था वही ताकतें अब उनकी पार्टी की शान बनी हुई हैं। दो सप्ताह पहले बसपा ने लखनऊ के दबंग अरुण शंकर उर्फ अन्ना को पार्टी में शामिल किया है। इससे पहले सपा के सांसद और बाहुबली अतीक अहमद और अफजाल अंसारी को हरी झंडी दी गई। कांग्रेस के टिकट पर जीते बाहुबली अजय प्रताप सिंह उर्फ भैया कांग्रेस छोड़कर विधानसभा से इस्तीफा दे बसपा के साथ हो लिए। इसके अलावा उत्तर प्रदेश लोकतांत्रिक कांग्रेस के नेता और बाहुबली हरिशंकर तिवारी के बेटे भीष्म शंकर तिवारी उपचुनाव में बसपा के सांसद चुने गए हैं। हरिशंकर के दूसरे बेटे विनय शंकर को बलिया उपचुनाव में उम्मीदवार बनाया गया था। बाहुबली विधायक डीपी यादव ने अपनी लोक परिवर्तन पार्टी का बसपा में विलय कर दिया। लोकजनशक्ति पार्टी के एकमात्र बाहुबली विधायक धनंजय सिंह भी बसपा में शामिल हो गए। ये वही लोग हैं जो जाने अनजाने यूपी की जनता के लिए सिरदर्द बने हुए हैं। इन्हें शह देकर मायावती किस उत्तर प्रदेश का निर्माण करना चाहती हैं। ये कम से कम हमारी समझ से तो परे है।
अनिल कुमार वर्मा
शनिवार, 27 दिसंबर 2008
सोमवार, 3 नवंबर 2008
कैफ़ी आज़मी की दो नज़्में
शोर यूं ही
शोर यूं ही परिन्दों ने न मचाया होगा
कोई जंगल की तरफ शहर से आया होगा
पेड़ काटने वालों को ये मालूम तो था
जिस्म जल जायेंगे जब सर पर ना साया होगा
वानिए जश्ने बहारा ने ये सोचा भी नहीं
किसने कांटों को लहू अपना पिलाया होगा
अपने जंगल से जो घबरा के उड़े थे प्यासे
हर शराब उनको समन्दर नज़र आया होगा
बिजली के तार पर बैठा हुआ तन्हा पंछी
सोचता है कि वो जंगल तो पराया होगा।
मेरा माजी मेरे कांधे पर
अब तवद्दुद की हो ये जीत के हार
मेरा माजी है अभी तक मेरे कांधे पे सवार
आज भी दौड़ के मैं गले जो मिल जाता हूं
जाग उठता है मेरे सीने में जंगल कोई
सींग माथे पर उभर आते हैं
पड़ता रहता है मेरे माजी का साया मुझ पर
दौर-ए-खूंखारी से गुजरा हूं छुपाऊं क्यूं कर
दांत सब खून में डूबे नजर आते हैं
जिससे मेरा ना कई बैर ना प्यार
उन पर करता हूं मैं वार, उनका करता हूं शिकार
और भरता हूं जहन्नुम अपना
पेट ही पेट मेरा जिस्म है, दिल है ना दिमाग
कितने अवतार बढ़े ले के हथेली पे चिराग
देखते रह गए धो पाए ना माजी के ये दाग
मल लिया माथे पर तहजीब का गाज़ा लेकिन
मरमरीयत का है जो दाग वो छूटा ही नहीं
गांव आबाद किए शहर बसाए हमने
रिश्ता जंगल से जो अपना है वो टूटा ही नहीं
जब किसी मोड़ पर पर खोलकर उड़ता है गुबार
और नजर आता है उसमें कोई मासूम शिकार
जाने हो जाता है क्यूं सर पे एक जुनूं सवार
किसी झाड़ी से उलझ के जो कभी टूटी थी
वहीं दुम फिर से निकल आती है, लहराती है
जिसका टांगों में दबाकर कभी भरता हूं जकन
उतना गिर जाता हूं, सदियों में हुआ जितना वलन
अब तवद्दुद की हो ये जीत के हार
मेरा माजी है अभी तक मेरे कांधे पे सवार
शोर यूं ही परिन्दों ने न मचाया होगा
कोई जंगल की तरफ शहर से आया होगा
पेड़ काटने वालों को ये मालूम तो था
जिस्म जल जायेंगे जब सर पर ना साया होगा
वानिए जश्ने बहारा ने ये सोचा भी नहीं
किसने कांटों को लहू अपना पिलाया होगा
अपने जंगल से जो घबरा के उड़े थे प्यासे
हर शराब उनको समन्दर नज़र आया होगा
बिजली के तार पर बैठा हुआ तन्हा पंछी
सोचता है कि वो जंगल तो पराया होगा।
मेरा माजी मेरे कांधे पर
अब तवद्दुद की हो ये जीत के हार
मेरा माजी है अभी तक मेरे कांधे पे सवार
आज भी दौड़ के मैं गले जो मिल जाता हूं
जाग उठता है मेरे सीने में जंगल कोई
सींग माथे पर उभर आते हैं
पड़ता रहता है मेरे माजी का साया मुझ पर
दौर-ए-खूंखारी से गुजरा हूं छुपाऊं क्यूं कर
दांत सब खून में डूबे नजर आते हैं
जिससे मेरा ना कई बैर ना प्यार
उन पर करता हूं मैं वार, उनका करता हूं शिकार
और भरता हूं जहन्नुम अपना
पेट ही पेट मेरा जिस्म है, दिल है ना दिमाग
कितने अवतार बढ़े ले के हथेली पे चिराग
देखते रह गए धो पाए ना माजी के ये दाग
मल लिया माथे पर तहजीब का गाज़ा लेकिन
मरमरीयत का है जो दाग वो छूटा ही नहीं
गांव आबाद किए शहर बसाए हमने
रिश्ता जंगल से जो अपना है वो टूटा ही नहीं
जब किसी मोड़ पर पर खोलकर उड़ता है गुबार
और नजर आता है उसमें कोई मासूम शिकार
जाने हो जाता है क्यूं सर पे एक जुनूं सवार
किसी झाड़ी से उलझ के जो कभी टूटी थी
वहीं दुम फिर से निकल आती है, लहराती है
जिसका टांगों में दबाकर कभी भरता हूं जकन
उतना गिर जाता हूं, सदियों में हुआ जितना वलन
अब तवद्दुद की हो ये जीत के हार
मेरा माजी है अभी तक मेरे कांधे पे सवार
शुक्रवार, 31 अक्टूबर 2008
बाज आओ राज
31 अक्टूबर 2008
पुलिस की इजाज़त मिलने के बाद एमएनएस के मुखिया राज ठाकरे एक बार फिर मीडिया के सामने हाज़िर हुए। बीते दिनों सपनों के शहर मुंबई में जो कुछ भी हुआ वो चाहे पटना निवासी राहुल राज का एनकाउंटर हो या फिर लोकल ट्रेन में हुई धर्मदेव की ह्त्या, राज ठाकरे की राजनीति को ही इसका जिम्मेदार ठहराया गया। एक हद तक ये सही भी था। लोग उम्मीद कर रहे थे कि इन घटनाओं के बाद राज का लहजे में नर्मी आएगी लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ और एक बार फिर राज ठाकरे आग उगलते नजर आए। उन्होंने राजद के मुखिया और रेल मंत्री लालू प्रसाद यादल के साथ साथ दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित को कठघरे में खड़ा किया। उनका कहना था कि वो किसी पर्व या त्योहार के विरोधी नहीं हैं। वे सिर्फ इन त्योहारों के बहाने की जाने वाली राजनीति की खिलाफ़त करते हैं। ठाकरे ने कहा कुछ लोग बाहर से आकर महाराष्ट्र में चुनावी राजनीति कर रहे हैं और उनकी महाराष्ट्र सरकार और बीएमसी से गुजारिश है कि ऐसे लोगों को महाराष्ट्र में आने से रोके, जो यहां आकर चुनावी राजनीति कर रहे हैं और धार्मिक उत्सवों पर अपने सियासी दांव-पेंच खेल रहे हैं लेकिन मैं राज ठाकरे से पूछना चाहता हूं कि राहुल राज और धर्मदेव कौन सी राजनीति करने महाराष्ट्र आए थे या फिर जितने भी उत्तर भारतीय उनके समर्थकों की गुंडागर्दी का शिकार हो रहे हैं वो कौन सी राजनीति कर रहे हैं। दिन भर रिक्शा चलाते हुए पसीना बहाकर अपने परिवार के लिए दो वक्त की रोटी का जुगाड़ करने वाला एक साधारण उत्तर भारतीय भला क्या राजनीति करेगा। अपना घर बार छोड़, परिवार वालों की छोटी छोटी खुशियों को पूरा करने के लिए मुंबई आने वाले धर्मदेव जैसे शख्स भला किस ताकत का मुजाहिरा करते हैं जो राज को गुस्सा आ जाता है। मुंबई ने आज तक बाहर से आने वाले हर शख्स का स्वागत बांहे फैलाकर किया है। अपने सपनों में रंग भरने की कोशिश करने वालों को मुंबई ने कभी निराश नहीं किया। जो सक्षम है, वो भला अपना सब कुछ छोड़कर मुंबई क्यो जाएगा और अगर वहां जाने वाला कमज़ोर है तो भला वो मराठी अस्मिता को नुकसान कैसे पहुंचा सकता है। अगर वो ऐसा करने में सक्षम नहीं है तो फिर क्यों एमएनएस के लोग उनके साथ जानवरों जैसा सलूक करते हैं। उत्तर भारतीयों पर लगातार हो रहे हमले के बाद आज राज ठाकरे ने अपने कार्यकर्ताओं से शांति बनाए रखने की अपील की। उन्होंने कहा कि अगर इस आंदोलने के दौरान अगर किसी की मौत हुई है तो मैं दुख व्यक्त करता हूं। मैं पूछना चाहता हूं राज ठाकरे से कि क्या उनके दुख व्यक्त करने से उन परिवारों की खुशियां लौट आएंगी जिनके अपने उनकी राजनीति का शिकार हो गए हैं। क्या उनके दुख व्यक्त करने से धर्मदेव की बेवा की वीरान जिन्दगी में दोबारा खुशियों के फूल खिल सकेंगे। ऐसा कुछ नहीं होगा। मुझे समझ नहीं आता कि आखिर इंसानी जिंदगियों की कीमत पर ये खद्दरधारी अपना राजनीतिक स्वार्थ क्यों साधते हैं। भाषा और क्षेत्र के नाम पर लोगों की भावनाओं से खेलने के अलावा क्या राज को ऐसा कोई रास्ता नहीं सूझा जो उन्हें उनके चाचा बाला साहब ठाकरे से आगे ले जाकर खड़ा कर सके। नफरत की राजनीति के अलावा क्या उन्हें कोई ऐसा रास्ता नहीं मिला जो उनकी राजनीति की दुकान चला दे। इंसानी लाशों पर खड़े होकर सियासत का खेल खेल रहे ये नेता अगर अपनी हरकतों से बाज नहीं आए तो इसके परिणाम की भयावहता की कल्पना करना कोई मुश्किल काम नहीं है।
गुरुवार, 30 अक्टूबर 2008
आंसू मेरे दिल की ज़ुबान हैं
31 अक्टूबर 2008
आज यूं ही बैठे बैठे कुछ पुरानी यादें मन के दरवाजे पर दस्तक दे गईं। कुछ खट्टी, कुछ मीठीं यादें। दिल भर आया और साथ ही आंखें भी। आंख से टपका आंसू सामने रखी किताब को गीला कर गया तो मन हुआ इन आंसुओं पर कुछ, लिखा जाए। दरअसल आंसू अभिव्यक्ति का सबसे सहज माध्यम हैं। गम है तो आंसू बहते हैं, खुशी है तो आंसू साथ रहते हैं, हार पर तो रोना आता ही है, जीत पर भी आंखें गीली हो जाती हैं। अपनों की जुदाई में भी अंखियां बरसती हैं और मिलन में भी छलके बिना नहीं रह पातीं। जीवन के हर रंग में, हर मोड़ पर, किसी न किसी रूप में साथ निभाते हैं ये आंसू। कभी अतीत की किसी खिड़की से भूली बिसरी यादें झांकने लगती हैं तो आंखें बरबस ही बरस पड़ती हैं। यादें, अपनी यादें, अपनों की यादें, देर तक सालती रहती हैं मन को। मन भीगने लगता है यादों की रिझिम से और आंखें भीगने लगती हैं आंसुओं से। दिल सोचता है कि जो छूट गया वो अनमोल था, जो पाया वो व्यर्थ है, जो खो दिया वही शाश्वत था, जो मिला वो निरर्थक ही है। अतीत का तो आंसुओं से पुराना नाता है। हम कभी पुराने दुखों को याद करके रोते हैं तो कभी सुखों को। पुरानी यादें सिर्फ दर्द देती हैं और दर्द आंसू। सोचा था क्या और क्या हो गया। कभी अपनी ही कोई बात रुला जाती है तो कभी हालात रोने को विवश कर देते हैं। हम अपने जीवन के लिए क्या क्या मंसूबे बांधते हैं, कितने ख्वाब सहेजते हैं और हालात हमें वहां ला खड़ा करते है, जहां सांस लेना भी दुश्वार हो जाता है और दिल कराह उठता है।
सांस लेना भी दुश्वार हो जिस जगह
हम जिएं उस जगह पर तो कैसे जिएं
आंसुओं की भी कीमत हो ज्यादा जहां
पिएं भी आंसुओं को तो कैसे पिएं
ये तो हो गया आंसुओं का एक स्वरूप लेकिन मेरा मानना है कि रोने से नसीब नहीं बदलते। आंसू अगर हमारी निराशा और दुखों के द्योतक हैं तो पोंछ देना चाहिए ऐसे आंसुओं को। क्योंकि सिर्फ रोने से कुछ नहीं मिलता बल्कि कुछ खोता ही है, हमारा आत्मविश्वास, हमारा चैन और हमारा आत्म सम्मान। अगर हमें कुछ चाहिए तो आगे बढ़कर हमें, हमारी तकदीर खुद बदलनी होगी। ले लेंगे तो सारा संसार हमारा है, मांगेंगे तो एक ज़र्रा भी नहीं मिलेगा। जीवन में आंसू कितने ही रंगों में ढलते हैं। कभी किरदार बन जातें हैं तो कभी कहानी। कभी परिणाम बनकर सामने आते हैं तो कभी सीने में तूफान बनकर छुप जाते हैं ये आंसू। वक्त वक्त पर एक साथी बनकर आ जाएं आंसू तो ठीक है, सुख में दुख में हमारी अभिव्यक्ति का माध्यम बने, हमारा साथ निभायें तो ठीक है, आंसू हमारे दिल की जुबान जो हैं लेकिन आंसुओं को अपना तकदीर हरगिज न बनने दें। या तो आगे बढ़कर बदल दें ज़माने को या फिर हर हाल में खुश रहना सीखें। किसी ने खूब कहा है ...
एक लम्हा ही मसर्रत का बहुत होता है
लोग जीने का सलीका कहां रखते हैं।
मंगलवार, 28 अक्टूबर 2008
नज़्में जो दिल को छू गईं
एक लम्हा
जिन्दगी नाम है कुछ लम्हों का
और उनमें भी वही एक लम्हा
जिसमें दो बोलती आंखें
चाय की प्याली से जब उठें
तो दिल में डूबें
डूब के दिल में कहें
आज तुम कुछ ना कहो
आज हम कुछ ना कहें
बस यूं ही बैठे रहें
हाथों में हाथ लिए
ग़म की सौगात लिए
गर्मी-ए-जज्बात लिए
कौन जाने कि इसी लम्हे में
दूर पर्वत पर कहीं बर्फ पिघलने ही लगे
आखिरी रात
चांद टूटा पिघल गए तारे
कतरा कतरा टपक रही है रात
पलकें आंखों पर झुकती आती हैं
अंखडियों में खटक रही है रात
आज छेड़ो न कोई अफसाना
आज की रात हमको सोने दो
खुलते जाते हैं सिमटे सुकड़े जाल
घुलते जाते हैं खून में बादल
अपने गुलनार पंख फैलाए
आ रहे हैं इसी तरफ जंगल
गुल करो शमा रख दो पैमाना
आज की रात हमको सोने दो
शाम से पहले मर चुका था शहर
कौन दरवाजा खटखटाता है
और ऊंची करो ये दीवारें
चोर आंगन में आता जाता है
कह दो आज है बंद मैखाना
आज की रात हमको सोने दो
जिस्म ही जिस्म कफन ही कफन
बात सुनते न सर झुकाते हैं
अम्न की खैर कोतवाल की खैर
मुर्दे कब्रों से निकले आते हैं
कोई अपना ना कोई बेगाना
आज की रात हमको सोने दो
कोई कहता था ठीक कहता था
सरकशी बन गई है सबकैशार
क़त्ल पर जिनको ऐतराज था
दफन होने पर क्यों नहीं तैयार
होशबंदी है आज सो जाना
आज की रात हमको सोने दो
सोमनाथ
बुतशिकन कोई कहीं से भी ना आने पाए
हमने कुछ बुत अभी सीने में सजा रखे हैं,
अपनी यादों में बसा रखे हैं।
दिल पे ये सोचकर पथराव करो दीवानों
कि जहां हमने सनम अपने छिपा रखे हैं,
वही गजनी के भी खुदा रखे हैं।
बुत जो टूटे तो किसी तरह बना लेंगे उन्हें
टुकड़े टुकड़े ही सही दामन में उठा लेंगे उन्हें
फिर से उजड़े हुए सीने में सजा लेंगे उन्हें
गर खुदा टूटेगा हम तो ना बना पायेंगे
उसके बिखरे हुए टुकड़े ना उठा पायेंगे।
तुम उठा लो तो उठा लो शायद
तुम बना लो तो बना लो शायद
तुम बनाओ तो खुदा जाने बनाओ कैसा
अपने जैसा ही बनाया तो कयामत होगी
प्यार होगा ना ज़माने में मोहब्बत होगी
दुश्मनी होगी अदावत होगी
हमसे उसकी ना इबादत होगी
वहशत-ए-बुतशिकनी देखकर हैरान हूं मैं
बुतपरस्ती मेरा सेवा है कि इंसान हूं मैं
एक ना एक बुत तो हर एक दिल में छुपा होता है
उसके सौ नामों में एक खुदा होता है।
नोट :
ये नज्में मैनें i tune store पर सुनी, अच्छी लगीं, किसकी हैं, नहीं जानता लेकिन आप लोगों की खिदमत में पेश कर रहा हूं।
जिन्दगी नाम है कुछ लम्हों का
और उनमें भी वही एक लम्हा
जिसमें दो बोलती आंखें
चाय की प्याली से जब उठें
तो दिल में डूबें
डूब के दिल में कहें
आज तुम कुछ ना कहो
आज हम कुछ ना कहें
बस यूं ही बैठे रहें
हाथों में हाथ लिए
ग़म की सौगात लिए
गर्मी-ए-जज्बात लिए
कौन जाने कि इसी लम्हे में
दूर पर्वत पर कहीं बर्फ पिघलने ही लगे
आखिरी रात
चांद टूटा पिघल गए तारे
कतरा कतरा टपक रही है रात
पलकें आंखों पर झुकती आती हैं
अंखडियों में खटक रही है रात
आज छेड़ो न कोई अफसाना
आज की रात हमको सोने दो
खुलते जाते हैं सिमटे सुकड़े जाल
घुलते जाते हैं खून में बादल
अपने गुलनार पंख फैलाए
आ रहे हैं इसी तरफ जंगल
गुल करो शमा रख दो पैमाना
आज की रात हमको सोने दो
शाम से पहले मर चुका था शहर
कौन दरवाजा खटखटाता है
और ऊंची करो ये दीवारें
चोर आंगन में आता जाता है
कह दो आज है बंद मैखाना
आज की रात हमको सोने दो
जिस्म ही जिस्म कफन ही कफन
बात सुनते न सर झुकाते हैं
अम्न की खैर कोतवाल की खैर
मुर्दे कब्रों से निकले आते हैं
कोई अपना ना कोई बेगाना
आज की रात हमको सोने दो
कोई कहता था ठीक कहता था
सरकशी बन गई है सबकैशार
क़त्ल पर जिनको ऐतराज था
दफन होने पर क्यों नहीं तैयार
होशबंदी है आज सो जाना
आज की रात हमको सोने दो
सोमनाथ
बुतशिकन कोई कहीं से भी ना आने पाए
हमने कुछ बुत अभी सीने में सजा रखे हैं,
अपनी यादों में बसा रखे हैं।
दिल पे ये सोचकर पथराव करो दीवानों
कि जहां हमने सनम अपने छिपा रखे हैं,
वही गजनी के भी खुदा रखे हैं।
बुत जो टूटे तो किसी तरह बना लेंगे उन्हें
टुकड़े टुकड़े ही सही दामन में उठा लेंगे उन्हें
फिर से उजड़े हुए सीने में सजा लेंगे उन्हें
गर खुदा टूटेगा हम तो ना बना पायेंगे
उसके बिखरे हुए टुकड़े ना उठा पायेंगे।
तुम उठा लो तो उठा लो शायद
तुम बना लो तो बना लो शायद
तुम बनाओ तो खुदा जाने बनाओ कैसा
अपने जैसा ही बनाया तो कयामत होगी
प्यार होगा ना ज़माने में मोहब्बत होगी
दुश्मनी होगी अदावत होगी
हमसे उसकी ना इबादत होगी
वहशत-ए-बुतशिकनी देखकर हैरान हूं मैं
बुतपरस्ती मेरा सेवा है कि इंसान हूं मैं
एक ना एक बुत तो हर एक दिल में छुपा होता है
उसके सौ नामों में एक खुदा होता है।
नोट :
ये नज्में मैनें i tune store पर सुनी, अच्छी लगीं, किसकी हैं, नहीं जानता लेकिन आप लोगों की खिदमत में पेश कर रहा हूं।
सोमवार, 27 अक्टूबर 2008
राहुल को क्यों मारा ?
28 अक्टूबर 2008
सोमवार की सुबह मुंबई में पुलिस ने बिहार के एक युवक को गोलियों से उड़ा दिया। वजह थी राहुल राज नाम के इस युवक द्वारा बेस्ट की एक बस को हाईजैक करना और एमएनएस के मुखिया राज ठाकरे को अपशब्द कहते हुए उन्हें जान से मारने की धमकी देना। पटना निवासी ये युवक बेरोजगार था और पिता के कहने पर मुंबई रोजगार की तलाश में गया था। मन में परिवार के सपनों को पूरा करने का अरमान था, पिता की ख्वाहिशों को परवान चढ़ाने का जुनून था लेकिन ऐसा कुछ भी न हो सका। मुंबई में उत्तर भारतीयो पर हो रहे अत्याचार ने राहुल को उद्वेलित कर दिया। मन की पीड़ा बरदाश्त नहीं हुई और ना चाहते हुए भी राहुल से गलती हो गई। दिल का गुबार जब फूटा तो राहुल के हाथ में पिस्तौल आ गई। उसका इरादा किसी को नुकसान पहुंचाने का नहीं था और ना ही वो कानून अपने हाथ में लेना चाहता था। बावजूद इसके राहुल से गलती हो गई लेकिन उसे इस गलती के लिए उकसाने वाला कौन था। ये जानना बेहद ज़रूरी है। क्योंकि कानून की नजर में ऐसा करने वाला भी बराबर को दोषी है और ऐसा करने वाला कोई और नहीं बल्कि एमएनएस के मुखिया राज ठाकरे हैं। अगर उन्होंने क्षेत्र और भाषा के नाम पर लोगों के दिलों में दरार न डाली होती तो आज राहुल अपने परिजनों के बीच होता। इस घटना के बाद महाराष्ट्र के गृहमंत्री आर.आर.पाटील ने पुलिस की कार्रवाई को सही ठहराते हुए कहा है कि राज्य में अगर कोई इस तरह से गोलीबारी करेगा तो पुलिस उसे उसी की शैली में जवाब देगी लेकिन मैं पूछना चाहता हूं पाटील साहब से कि जब राज ठाकरे के गुंडे मुंबई में उत्तर भारतीयों के साथ मारपीट करते हैं, उनकी दुकानें तोड़ते हैं तो पुलिस क्या करती रहती है। क्यों उन्हें उनकी शैली में जवाब नहीं दिया जाता है। मैं पूछना चाहता हूं पाटिल साहब से कि जब राज ठाकरे खुले आम महाराष्ट्र में कानून को चुनौती देते हैं तो सरकार क्या करती है। क्यों केवल कड़ी कार्रवाई का दम भरा जाता है। बेस्ट बस कांड के बाद महाराष्ट्र सरकार ने राज ठाकरे को फिर जेड श्रेणी की सुरक्षा उपलब्ध कराने का फैसला किया है। मुंबई में 19 अक्टूबर को एमएनएस कार्यकर्ताओं के हुड़दंग के बाद राज्य सरकार ने राज की सुरक्षा घटाकर वाय श्रेणी की कर दी थी। मैं पूछना चाहता हूं पाटील साहब से कि राज ठाकरे को तो वो जेड श्रेणी की सुरक्षा दे रहे हैं लेकिन उन हजारों बेकसूरों की सुरक्षा का क्या, जो अपने ही देश में पराएपन की पीड़ा झेल रहे हैं। भारतीय लोकतांत्रिक व्यवस्था को चुनौती देकर एक शख्स हीरो बन रहा है और हमारे नीति नियंता बैठे बैठे तमाशा देख रहे हैं। महाराष्ट्र के विकास के नाम पर अपनी राजनीति चमकाने वाले इस शख्स का हमारे कानून के पास कोई इलाज है या नहीं। ये कहते हैं कि महाराष्ट्र में नौकरियों पर स्थानीय लोगों का हक़ है। चलिए मान लिया लेकिन इस हक को हासिल करने के जो रास्ते हैं उन पर चलिए और कम से कम वो रास्ता हिंसा का तो नहीं ही है। आपने प्रतिभा है काबिलियत है तो देश के किसी भी कोने में जाकर आप नौकरी हासिल कर सकते हैं। ऐसा नहीं है कि मराठी भाई बंधु केवल महाराष्ट्र में रहते हैं वो भी देश के दूसरे कोनों में बसे हैं लेकिन उन जगहों पर तो ऐसा कुछ भी नहीं है। फिर क्यों महाराष्ट्र को एक ऐसा राह पर धकेलने की कोशिश हो रही है जहां उसका विना। तय है। मुंबई केवल मराठियों ने नहीं बसाई है। उसे देश के हर कोने से आए हर धर्म हर मजहब के एक एक व्यक्ति ने बनाय़ा है और उनके बिना मुंबई के अस्तित्ल की कल्पना करना ही बेकार है। ये राज ठाकरे की विद्रूप मानसिकता का ही नतीजा है कि आज बिहार हिंसा की आग में जल रहा है। मैं अपने ब्लॉग के माध्यम से महाराष्ट्र सरकार से ये पूछना चाहता हूं कि राज ठाकरे पर लगाम लगाने के लिए वो क्या कदम उठा रही है क्योंकि उनकी सुरक्षा के नाम पर राहुल जैसे नौजवानों की कुर्बानी नहीं दी जा सकती है। दूसरा सवाल मुंबई पुलिस से है मेरा कि आखिर उन्होंने राहुल को जिन्दा पकड़ने की कोशिश क्यों नहीं की। राहुल की गोलियां खत्म होने के बाद उसे घेरकर गिरफ्तार किया जा सकता था और उसकी हरकत का कानूनन जो भी दण्ड होता उसे दिया जाता लेकिन एक आतंकवादी की तरह उसे घेरकर गोलियों से छलनी कर देना कहां का न्याय है।
अनदेखे अनजानों लेकिन अपनों को दीपावली की बधाई
यूं तो ब्लॉग के बहुत सारे फायदे हैं लेकिन आज इसका सबसे बड़ा फायदा मुझे साक्षात दिखा और वो ये कि एक ही जगह बैठे बैठे मैं दुनिया के किसी भी कोने में बैठे किसी भी व्यक्ति को दीपावली की बधाई दे सकता हूं। जो मुझे जानते हैं उन्हें भी औरक जो नहीं जानते उन्हें भी। दरअसल व्लॉग की इस दुनिया में आकर बुहत से लोगों से एक रिश्ता बना। प्यार का रिश्ता। अनदेखे, अनजाने लेकिन अपने बल्कि अपनों से भी बढ़कर अपने, ऐसे लोगों को जानने, उन्हें समझने का मौका मिला। उनके विचारों को जानने और अपने विचारों से उन्हें अवगत कराने का मौका मिला। ब्लॉग के ज़रिए बने इस रिश्ते को परिभाषित करना नामुमकिन है। मेरे ब्लॉग पर आकर टिप्पणी करने वाले और आकर बिना टिप्पणी किए लौट जाने वाले मेरे सभी प्रियजनों को दीपावली की हार्दिक शुभकामनाएं। मैं जिनसे मिला उन्हें भी औऱ जिनसे नहीं मिला उन्हें भी रोशनी के इस त्योहार पर हार्दिक बधाइयां। दीपों का ये पर्व आपके जीवन में खुशियां लाए, तरक्की के नए रास्ते खुलें और जीवनपथ पर आप सभी सफलता पूर्वक आगे बढ़े यही मेरी चाहत है और ईश्वर से यही मेरी दुआ।
शुक्रवार, 24 अक्टूबर 2008
कब बिकेंगे दिए
24 अक्ट्बूर 2008
कल शाम बाज़ार से गुजरते समय नजर सड़क किनारे बने घास फूस के एक छप्पर पर जा टिकी। जिसकी दीवारों में कच्ची मिट्टी की गंध बसी थी। इसी तरह के कुछ और छप्पर पूरे माहौल को एक छोटी सी बस्ती का रूप दे रहे थे। शाम का धुंधलका अपने पंख पसारने लगा था। वातावरण में हल्की सी ठंड घुल गई थी। उन छप्परों में से एक के सामने जाकर मैं ठिठक गया। दरअसल ये कुम्हारों की बस्ती थी। दीपावली नजदीक है इसलिए यहां थोड़ी चहल पहल थी। किसी छप्पर के आगे मिट्टी के लोंदे बन रहे थे तो कहीं आंवे में बर्तन पक रहे थे। कहीं चाक अपनी पूरी रफ्तार से घूम रहा था तो कहीं सांचे में ढले कच्चे बर्तन सांझ के सूरज की लालिमा को अपने भीतर समाहित कर रहे थे। कुछ बच्चे मैले कुचैले कपड़ों में पकड़म पकड़ाई खेल रहे थे। इन्हीं में से किसी एक छप्पर के भीतर से मसाले की सोंधी खुश्बू आ रही थी। शायद किसी कुम्हार का कोई बर्तन कुछ अच्छे दामों में बिक गया था, जिसकी खुशी कुछ अच्छा खाकर मनाने की तैयारी हो रही थी। बहरहाल तेजी से घूमते एक चाक के पास जाकर मैं ठिठक गया। कुम्हार के हाथ चाक पर रखे मिट्टी के लोंदे को आकार दे रहे थे। दिए का आकार। पास में बने हुए कई कच्चे दीपक रखे थे। कुम्हार के हाथ अपना काम कर रहे थे लेकिन दिमाग किन्ही ख्यालों में गुम लग रहा था। मैं वहीं बैठ गया। यूं ही...बेमकसद...कुम्हार के साथ बातचीत का सिलसिला शुरू करने के लिए मैनें उसके चेहरे की तरफ देखा लेकिन कोई हलचल न देख मैं सकपका गया। उसके चेहरे पर अब भी वीरानी छाई हुई थी। वो खुद से ही सवाल करता दिखाई पड़ रहा था। मैं ये जानने के लिए और उत्सुक हो गया कि आखिर ऐसा क्या हुआ है या हो रहा है जो उसे अंदर ही अंदर खाए जा रहा है। मैनें उसे धीमे से आवाज़ दी। उसने मेरी तरफ पलटकर तो देखा लेकिन बोला कुछ नहीं। मैनें उससे दियों के भाव पूछे तो उसकी नजरें मेरे चेहरे पर आकर ठहर गईं। उसने मुझे बड़े गौर से देखा। मानों मेरा चेहरा पढ़ने की कोशिश कर रहा हो। पहली बार मैनें उसके चेहरे पर हल्की सी और कमजोर मुस्कुराहट देखी। आशा भरी निगाहों से मेरे चेहरे पर टकटकी लगाए वो बोला बाबूजी कितने चाहिए। मैं सकपका गया। फिर भी खुद को संभालते हुए बोला पहले रेट तो बता दो भाई। वो जल्दी से बोला बाबूजी रेट की चिन्ता मत कीजिए थोड़ा कम दे देना, अब बताइए कितने दे दूं। दिए बेचने की उसकी व्यग्रता भांपते हुए मैनें उसका दिल रखने के लिए दो दर्जन दियों के आर्डर दे दिए। कुम्हार अब थोड़ा सहज दिख रहा था। लिहाजा मैनें बात आगे बढ़ाने का उपक्रम किया। बात व्यवसाय से शुरू हुई। बाजार के हालचाल के बाद घर परिवार की बातें भी हुईं। उससे बात करने के बाद मेरे सवालों के जवाब कुछ हद तक मिल चुके थे और मेरी समझ में ये आ चुका था कि आखिर कुम्हार की परेशानी क्या थी। बदलते वक्त के साथ हमारी तहजीब और संस्कृति पर आधुनिकता का मुलम्मा चढ़ गया है। जिस मिट्टी की सोंधी खुश्बू के बीच हम पल बढ़ कर बड़े हुए हैं उसी मिट्टी से हमारा मोह कम होता जा रहा है। मिट्टी के बर्तनों की जगह या तो चमकदार स्टील ने ले ली है या फिर फाइबर के बर्तनों ने। एक समय था जब घरों में रोशनी के लिए लोग मिट्टी के दिए लाते थे। दीपावली पर तो लोग सैकड़ों की संख्या में दिए खरीद कर लाते थे और ये ऐसा वक्त होता था जब कुम्हार सबसे ज्यादा व्यस्त होते थे लेकिन आज लोगों को मिट्टी के दियों की बजाए बिजली की झालरें और मोमबत्तियां लुभाने लगी हैं। कह सकते हैं कि जगमग बिजली की रोशनी में दीयों की टिमटिमाहट के लिए अब जगह नहीं बची है। दीपावली शब्द ही जिस दीप से बना है, उसका अस्तित्व आज ख़तरे में है। जैसे-जैसे ज़माने का चलन बदल रहा है, मिट्टी के दीए की कहानी ख़त्म होती जा रही है। पुश्तों से यही काम करने वाले कुम्हार आज दीपावाली के पहले उदास और मायूस हैं। लोगों के पास महंगाई का तर्क हैं कि तेल औऱ घी के दाम आसमान छूने लगे हैं, ऐसे में दिए कौन खरीदे लेकिन सच्चाई यही है कि मशीनों के आगे कुम्हार के हाथ हार मानने लगे हैं। यही वो वजह है जो कुम्हार के चाक की रफ्तार कमजोर पड़ गई है। यही वो कारण है जो कुम्हार के चेहरे पर पीड़ा बनकर उभरने लगा है। ऐसे में जब परिवार का पेट पालना मुश्किल हो रहा हो तो आने वाली पीढ़ियों का भविष्य संवारने के ख्वाब वो भला कैसे देखे। यही वो वजह है जिसने कुम्हार को परेशान कर रखा है। फिर दीपावली आई है, लोग खुश हैं, खरीददारी कर रहे हैं लेकिन दिए नहीं बिक रहे हैं। कभी दूसरों के घरों को रोशन करने का सामान बनाने वालों के घर ही आज अंधेरे में डूबे हैं। क्या फिर कोई ऐसा दौर आएगा जब मिट्टी के बनाए दिए बिकेंगे और कुम्हार के घर में भी खुशहाली आएगी ?
सोमवार, 13 अक्टूबर 2008
बीमार हुए महानायक
13 अक्टूबर 2008
शनिवार का दिन ज़रा खास था। हर उस हिन्दुस्तानी के लिए जिसे कला से और कलाकारों से लगाव है। दरअसल इस दिन एक कलाकार का जन्म दिन था। बल्कि यूं कहें कि कलाकार नहीं बल्कि कला के एक संस्थान का जन्म दिन था। जी हां, शनिवार को अमिताभ बच्चन छियासठ साल के हो रहे थे और अमित जी खुद में अभिनय के किसी संस्थान से कम नहीं। अमिताभ बच्चन, एक ऐसा कलाकार जहां आकर तुलनाएं समाप्त हो जाती है। एक ऐसा शख्स जिसके बारे में कहने के लिए शब्दकोष में शब्द खत्म हो जाते हैं और नए शब्द गढ़ने पड़ते हैं। ऐसी शख्सियत का जन्म दिन हो और हलचल ना हो ऐसा कैसे हो सकता है। बिग बी को उनके जन्म दिन की बधाई देने के लिए उनके प्रशंसक प्रतीक्षा के आगे प्रतीक्षारत थे। उनकी एक झलक के लिए लोगों का हुजूम उमड़ पड़ा था। लोग अमिताभ की उस मुस्कुराती छवि को देखना चाहते थे जो पिछले चालीस सालों से उनके दिल पर राज कर रही है लेकिन लोगों की उम्मीदें पूरी नहीं हुई। अमिताभ बच्चन के छियासठवें जन्म दिन पर उनका छब्बीस साल पुराना दुश्मन एक बार फिर उनके सामने आ खड़ा हुआ। जी हां उनका वो दर्द एक बार फिर उनकी जिन्दगी के आडे़ आता महसूस हुआ जो उन्हें फिल्म 1983 में कुली फिल्म के दौरान लगी चोट के कारण उभरा था। नीले रंग के गाउन में जब अमिताभ स्ट्रेचर पर घर से बाहर अस्पताल के लिए निकले तो वक्त मानों थम गया। लोग सांस लेना भूल गए। पलकें थी कि झपकने का नाम नहीं ले रही थीं। एक एक पल लोगों के लिए भारी साबित हो रहा था। उनकी आंखों के सामने उनका चहेता अस्पताल जा रहा था। बस फिर क्या था, अमिताभ की बीमारी की खबर जंगल में आग की तरह फैली। मीडिया में चल रही दूसरी खबरों पर विराम लग गया। कैमरों का रुख नानावती अस्पताल की ओर मुड़ गया। दुनिया भर में फैले अमिताभ के चाहने वाले सर्वशक्तिमान से उनकी सलामती की दुआ करने लगे। जिसे जैसे बन पड़ा, मन्दिर में मस्जिद में गुरुद्वारे में, चर्च में हर जगह प्रार्थनाएं होने लगीं। पूरी फिल्म इंडस्ट्री मानों ठहर गई। सदी का महानायक बीमार जो हो गया था। पहले नानावती अस्पताल में कुछ टेस्ट और जांच, उसके बाद लीलावती अस्पताल रेफर, प्रशंसकों की सांसें काबू में नहीं आ रही थीं। उनके कान तो अमिताभ बच्चन के खतरे से बाहर होने की खबर सुनने के लिए तरस रहे थे। जब तक ये थहर नहीं आई लोग अस्पताल के बाहर डटे रहे। बाद में लीलावती अस्पताल की ओर से जारी मेडिकल बुलेटिन में जब अमित जी की बेहतर हालत के बारे में बताया गया तो लोगों की जान में जान आई। इस दौरान राष्ट्रपति से लेकर प्रधानमंत्री तक अमिताभ की सेहत को लेकर फिक्रमंद दिखाई दिए। ये अमिताभ के व्यक्तित्व और उनकी शख्सियत का ही कमाल है कि लोग आज भी उन्हें इतना पसंद करते हैं। अमिताभ बच्चन के बारे में इतना लिखा गया है और इतना कुछ सुना गया है कि ऐसा लगता है वो हम में से एक हैं। मगर सच तो ये है कि अमिताभ हमारे जैसे होकर भी हम सबसे अलग हैं।
वरिष्ठ फिल्मकार कोमल नाहटा लिखते हैं कि बच्चन जैसी किस्मत भगवान कम ही लोगों को देते हैं.अस्थमा के मरीज़, एक जानलेवा दुर्घटना (कुली के सेटी पर), एक गंभीर बीमारी (माइसथिनिया ग्रेविस) फिर एक और गंभीर बीमारी (कोलाइटिस) फिर भी अमिताभ बच्चन रुकने का नाम नहीं ले रहे। लोग तो यही दुआ करेंगे कि वो कभी न रुके क्योंकि बहुत कम नायक हैं जिनके नाम पर दर्शक सिनेमाघरों में आते हैं। लोग अमिताभ बच्चन की फ़िल्में उन्हें देखने के लिए जाते थे, इसलिए कई बार उनकी कमज़ोर फ़िल्में भी औसत धंधा कर लेती थी।
अमिताभ बच्चन की जो फिल्म नहीं चल पाई उनमें भी अमिताभ के काम को सराहा गया। बड़े पर्दे से लेकर छोटे पर्दे तक अमिताभ ने अपनी द्रढ़ इच्छाशक्ति के बूते सफलता के नए कीर्तिमान गढ़े। जब जब मुसीबतों और परेशानियों ने उनकी जिन्दगी का रुख किया अमिताभ और मज़बूत बनकर उभरे हैं। वो चाहे उनकी राजनीतिक पारी की विफलता हो या फिर एबीसीएल कंपनी की नाकामयाबी, बाराबंकी का ज़मीन विवाद हो या फिर राज ठाकरे के साथ चल रहा शीत युद्ध, हर चुनौती का इस शख्स ने डटकर मुकाबला किया और उन पर फतह हासिल की। यहां बीबीसी हिन्दी डॉट कॉम की संपादक सलमा जैदी जी द्वारा लिए गए अमित जी के साक्षात्कार के कुछ अंश आपको पढ़वाना चाहूंगा।
प्रश्न - आपकी उम्र के साठ साल पूरे होने पर कई आयोजन हुए थे और ऐसा लगने लगा था कि आप अपने जीवन का सर्वोत्तम काम कर चुके हैं. लेकिन वह उम्र जब लोग रिटायर होने की सोचते हैं आपके लिए एक नई ऊर्जा ले कर आई और आप फिर से पूरे जोशोख़रोश से काम में जुट गए।
उत्तर - मैंने तय किया है जब तक शरीर साथ देगा काम करता रहूँगा. मैं अभी थका नहीं हूँ।
प्रश्न - लेकिन देखा जाए तो साठ से पैंसठ साल का यह अरसा काफ़ी अहम रहा है। चाहे वह ब्लैक हो या एकलव्य, चीनी कम या निशब्द, सब इसी अवधि की देन हैं।
उत्तर - इसमें कोई विशेष बात नहीं है. मुझे फ़िल्मों के प्रस्ताव मिले और मैंने स्वीकार कर लिए. लोग ऐसा क्यों समझते हैं कि इसके लिए शक्ति की ज़रूरत होती है. जब तक शरीर देख सकता है, सुन सकता है और सह सकता है तब तक काम जारी रहना चाहिए और वही मैं कर रहा हूँ।
प्रश्न - कहते हैं शारीरिक शक्ति भी तभी संभव है जब मानसिक ताक़त हो. क्या वह आपको पिता से विरासत में मिली है?
उत्तर - नहीं, मैं यह तो नहीं कहूँगा कि उनकी जो मानसिक शक्ति थी मैं उसका मुक़ाबला कर सकता हूँ. लेकिन हाँ, कोशिश पूरी करता हूँ. जो काम मिलता है उसे पूरी ईमानदारी और जोश से निभाने का प्रयास करता हूँ और ईश्वर का आभारी हूँ कि उसने यह सब करने की शक्ति मुझे प्रदान की है।
साक्षात्कार के इस सारांश से महानायक की शख्सियत, उनकी विनम्रता, सरलता और साफ़गोई का अंदाजा लगाना मुश्किल नहीं है। काम की उनकी जिजीविषा, काम को करने की उनकी लगन और काम के प्रति उनका समर्पण निश्चित ही लोगों के लिए एक मिसाल है। अन्त में सिर्फ यही कहना चाहूंगा कि ईश्वर सदी के इस महानायक को ग़म की हर परछांई से दूर रखे और उन्हें इतनी ताकत दे कि वो हर चुनौती का डटकर मुकाबला कर सकें और अपनी कला से दुनिया को रोशन करते रहें हमेशा हमेशा।
शनिवार, 11 अक्टूबर 2008
कलयुग में भी अग्निपरीक्षा
11 अक्टूबर 2008
राजस्थान के सिरोही जिले से बीते दिनों एक दिल दहला देने वाली घटना सामने आई। यहां पंचायत ने एक महिला की अग्निपरीक्षा करवाई। गांव में हो रही मौतों के लिए इस महिला को जिम्मेदार बताते हुए पहले उसे डायन करार दिया गया और फिर उसके हाथ खौलते हुए तेल में डालकर उसे चांदी के सिक्के निकालने को कहा गया। कहा गया कि अगर उसके हाथ नहीं जले तो वो निर्दोष मान ली जाएगी। महिला ने पहले सिक्के निकाल भी लिए लेकिन इस कुकृत्य को कराने वाली पंचायत के लोगों को ये बात गले नहीं उतरी और उन्होंने जबरदस्ती उस महिला के हाथ कई बार दोबारा खौलते तेल में झोंक दिए। इतना ही नहीं उसके सिर को भी गरम सरियों से दागा गया। एक ऐसी संस्था जिसे गांव के छोटे मोटे झगड़े निपटाने का हक दिया गया हो उसका इस तरह से हैवानियत पर उतर आना कोई नई बात नहीं थी लेकिन जिस देश में कानून से बड़ा कुछ नहीं, वहां उसी कानून को ठेंगे पर रखकर खेला गया हैवानियत का ये खेल कई सवाल खड़े करता है। पंचायतों के इस तालिबानी रवैए को लेकर खड़े हो रहे सवालों के जवाब अभी मिले भी नहीं कि राजस्थान से ही एक और कड़वी हकीकत निकलकर सामने आ गई। जयपुर से कोई 450 किलोमीटर दूर बड़ी सादरी क़स्बे में हिंगलाज माता के मंदिर में बागरिया समाज के लोगों ने महिलाओं के सतीत्व की परीक्षा के लिए एक दिल दहला देने वाला आयोजन कर डाला। परंपराओं की आड़ में चौदह बागरिया महिलाओं को गर्म तेल से भरे कड़ाह में पक रहे पकवान को हाथ डुबो कर निकालने और अपने पवित्र होने का प्रमाण देने के लिए मजबूर किया गया। चश्मदीदों के मुताबिक़ हर महिला ने बारी बारी से खौलते गर्म तेल से भरे मर्तबान मे हाथ डाला और पकवान निकाला. मगर किसी भी महिला का हाथ गर्म तेल से नही जला। इसका ये नतीजा निकाला गया कि इनमें किसी भी महिला के विवाहत्तोर संबध नहीं है। सतीत्व के इम्तिहान मे विफल होने पर महिला को दंडित किया जाता है। इस क़स्बे मे बागरिया जाति के सैकड़ों परिवार रहते हैं और हर साल विजयादशमी की पूर्व संध्या पर इसका आयोजन किया जाता है। महिलाओं के साथ हुए ये दो कृत्य बताने के लिए काफी हैं कि देश में महिलाओं की सुरक्षा और संरक्षा के लिए बनाए गए कानूनों की क्या हालत है। कहीं पंचायतों का तुगलकी फरमान के ज़रिए तो कहीं परंपराओं की दुहाई देकर आज भी महिलाओं के मान सम्मान पर चोट की जा रही है और महिलाओं की आवाज़ बुलंद करने वाली संस्थाओं की मुखिया वातानुकूलित कमरों में बैठकर ऐसी ही घटनाओं पर चर्चा करती रहती हैं। बहुत होगा तो घटनास्थल का दौरा कर लिया जाएगा और एक रिपोर्ट तैयार कर दी जाएगी। थोड़ी बहुत चिल्ला चिल्ली मचाई जाएगी और फिर सन्नाटा फैल जाएगा। क्या इतने भर से हम देश की इस आधी आबादी के मान सम्मान की रक्षा कर पायेंगे। दरअसल औरत के प्रति हमें अपने वर्षों पुराने दृष्टिकोण में तब्दीली करने की ज़रूरत है और यह तब्दीली बिना शिक्षा के फैलाव के संभव नहीं है। शिक्षा को मदरसों और शिशु मंदिरों से आज़ाद करा के सरकार को अपने हाथ में लेना होगा। जब तक ऐसा नहीं होगा औरत यूं ही संसार में अपमानित होती रहेंगी, शोषण का पात्र बनती रहेंगी, कभी पैदा होने से पूर्व तालाब में बहाई जाती रहेंगी तो कभी पैदा होने के बाद पति की अर्थी पर जलाई जाती रहेगी.। इमराना की तरह सताई जाती रहेगी, मुल्लाओं के फ़तवों और पंडितों के आदेशों के चलते रोती चिल्लाती रहेंगी। स्त्री के प्रति नाइन्साफ़ी की इस आंधी के विरोध में स्वयं स्त्री को भी इंदिरा गाँधी, सरोजनी नायडू, इस्मत चुग़ताई, ज़ीनत महल आदि बनकर खड़ा होना होगा। मजाज़ लखनवी ने स्त्री की दुर्दशा को देखते हुए लिखा था,
तेरे माथे पे यह आँचल बहुत ही ख़ूब है लेकिन
तू इस आँचल से इक परचम बना लेती तो अच्छा था
तो महिलाओं को भी इस तरह के अन्याय के खिलाफ उठ खड़े होना होगा तभी उनके खिलाफ समाज में फैली बुराइयों का अन्त हो सकेगा।
मंगलवार, 7 अक्टूबर 2008
संत का कमाल
07 अक्टूबर 2008
संतों को आपने प्रवचन देते और ज्ञान बांटते तो काफी देखा और सुना होगा लेकिन क्या किसी ऐसे संत से आपका साबका हुआ है जिसने लोक कल्याण के लिए अपना जीवन झोंक दिया हो और बदले में किसी से कुछ भी न लिया हो। जिसे न नाम की इच्छा हो और न शोहरत की। जो अपने काम का बखान नहीं चाहता। जो नेता या सांसद भी नहीं बनना चाहता लेकिन बावजूद इसके आज दुनिया उसके काम की तारीफ करते नहीं थक रही है। वो आज पूरी दुनिया के लिए एक मिसाल बनकर उभरा है। जिसे दुनिया की सबसे मशहूर पत्रिका टाइम्स ने सराहते हुए पर्यावरण की सुरक्षा के लिए प्रयासरत विश्व की तीस शख्सियतों में शुमार किया है। संत सींचेवाल ने अपनी जीवटता के बल पर प्रदूषण के चलते अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रही पंजाब की काली बेई नदी को संकट से उबार लिया। इस नदी में चार शहरों और चालीस गांवों का गंदा पानी गिरता था। ऐसे में जब इस नदी को साफ करने की सारी सरकारी कोशिशें विफल हो चुकी थीं तब संत सींचेवाल ने सात साल पहले इसका बीड़ा उठाया और आज उनकी कोशिश रंग ला चुकी है। बेई नदी का लगभग 160 किलोमीटर लंबा क्षेत्र साफ सुथरा और हरा भरा हो चुका है। नदियों को जीवनदायिनी संबोधन देने वाले प्रख्यात साहित्यकार काका कालेलकर ने अपने लेखन में देश की नदियों को लोकमाता के रूप में रेखांकित कर भारतवर्ष की पौराणिक संस्कृति को उजागर किया है। इतिहास गवाह है कि हजारों साल पहले यहां आवासीय व्यवस्था का श्रीगणेश नदियों के किनारे से ही हुआ लेकिन भारतीय मूल्यों और परंपराओं की वाहक ये नदियां खतरे में हैं। ऐसा एक दो दिन में नहीं हुआ है। इसके लिए जहां सतत विकास जिम्मेदार है वहीं बड़ा श्रेय हमारी और आपकी लारपरवाही को भी जाता है। देश की कई छोटी-छोटी नदियां सूख गई हैं या सूखने की कगार पर हैं। बड़ी-बड़ी नदियों में पानी का प्रवाह धीमा होता जा रहा है। पवित्रतता और निश्छलता की प्रतीक हमारी नदियां अब मैली और दूषित हो चली हैं। इन्हें बचाने की जिम्मेदारी हमारी आपकी सबकी है लेकिन ऐसा हो नहीं पा रहा है। प्रयास चल रहे हैं लेकिन उनमें ईमानदारी का सर्वथा अभाव है। इसी बीच नदियों को बचाने की मुहिम में संत सींचेवाला ने चमत्कार कर दिखाया। उन्होंने इस दिशा में ऐसा कारनामा कर दिखाया है जो सरकारी और गैर सरकारी संस्थाओं के साथ साथ हमारे, आपके, हम सबके लिए एक सबक हो सकता है। उपर बताया जा चुकी है कि संत सींचेवाला ने पंजाब की बेई नदी के लिए क्या किया है। ये वही नदी है, जिसमें गुरुदेव श्री नानक जी ने चौदह वर्ष तक स्नान किया था और जिसके किनारे श्री गुरुनानक देव जी को आध्यात्म बोध प्राप्त हुआ था। आपको ये बताने के लिए कि संत सींचेवाला ने बेई नदी को किस तरह से जीवनदान दिया है, मैं hindi.indiawaterportal.org में लिखे एक लेख के कुछ अंश पढवाना चाहूंगा। पंजाब के होशियारपुर जिले की मुकेरियां तहसील के ग्राम घनोआ के पास से ब्यास नदी से निकल कर काली बेई दुबारा 'हरि के छम्ब' में जाकर ब्यास में ही मिल जाती है। मुकेरियां तहसील में जहां से काली बेई निकलती है। वो लगभग 350 एकड़ का दलदली क्षेत्र था। अपने 160 किलोमीटर लंबे रास्ते में काली बेई होशियारपुर, जालंधार व कपूरथला जिलों को पार करती है। लेकिन इधर काली बेई में इतनी मिट्टी जमा हो गई थी कि उसने नदी के प्रवाह को अवरूध्द कर दिया था। नदी में किनारे के कस्बों-नगरों और सैकड़ों गांवों का गंदा पानी गिरता था। नदी में और किनारों पर गंदगी के ढेर भी थे। जल कुंभी ने पानी को ढक लिया था। कई जगह पर तो किनारे के लोगों ने नदी के पाट पर कब्जा कर खेती शुरू कर दी थी। 'पंच आब' यानि पांच नदियों वाले प्रदेश में काली बेई खत्म हो गई थी। बुध्दिजीवी चर्चाओं में व्यस्त थे। जालंधर में 15 जुलाई 2000 को हुई एक बैठक में लोगों ने काली बेई की दुर्दशा पर चिंता जताई। इस बैठक में उपस्थित सड़क वाले बाबा के नाम से क्षेत्र में मशहूर संत बलबीर सींचेवाल ने नदी को वापिस लाने का बीड़ा उठाया। अगले दिन बाबाजी अपनी शिष्य मंडली के साथ नदी साफ करने उतर गए। उन्होंने नदी की सतह पर पड़ी जल कुंभी की परत को अपने हाथों से साफ करना शुरू किया तो फिर उनके शिष्य भी जुटे। सुल्तानपुर लोधी में काली बेई के किनारे जब टेंट डालकर ये जीवट कर्मी जुटे तो वहां के कुछ राजनैतिक दल के लोगों ने एतराज किया, बल भी दिखाया पर ये डिगे नहीं, बल्कि शांति और लगन से काम में जुटे रहे। पहले आदमी उतरने का रास्ता बनाया गया, फिर वहां से ट्रक भी उतरे और जेसीबी मशीन भी। नदी को ठीक करने बाबा जहां भी गए, वहां नई तरह की दिक्कतें थी। नदी का रास्ता भी ढूंढना था। कई जगह लोग खेती कर रहे थे, कईयों ने तो मुकदमे भी किए लेकिन संत सींचेवाले का हौसला नहीं डिगा। सिक्खों की कार सेवा वाली पध्दति ही यहां चली। हजारों आदमियों ने साथ में काम किया। नदी साफ होती गई। बाबा स्वयं लगातार काम में लगे रहे। उनके बदन पर फफोले पड़ गए। पर कभी उनकी महानता के वे आड़े नहीं आए। इस समय सुल्तानपुर लोधी व अन्य घाटों पर सफाई का कार्य बहुत व्यवस्थित है। रोज रात को बाबा के सींचेवाल स्थित डेरे से बस चलती है और नदी किनारे ग्रामवासी गांव के बाहर खड़े हो जाते हैं। बस लोगों को इकट्ठा करके घाटों पर छोड़ देती है और लोग रात को सफाई करके सुबह पांच बजे तक वापस भी लौट जाते हैं। सब काम सेवा भावना से होता है। कोई दबाव नहीं, कोई शिकायत नहीं। अपनी जिम्मेदारी और अपनेपन के एहसास के साथ। निकट के ग्रामवासी इस पूरी प्रक्रिया से इतने जुड़ गए हैं कि यह सब अब उनके जीवन का एक हिस्सा बन गया है। बाबा ने यहीं बस नहीं किया उन्होंने नदी का रास्ता निकालकर उस पर घाटों का निर्माण किया। नदी के किनारे नीम-पीपल जैसे बड़े पेड़ लगाए। हरसिंगार, रात की रानी व दूसरे खूशबू वाले पौधो भी लगाए। जामुन जैसे फलदार वृक्ष भी लगाए। जिससे सुंदरता के साथ नदी किनारे फल व छाया का इंतजाम भी हो गया। साथ ही नदी के किनारे भी मजबूत बने रहने का इंतजाम कर दिया। नदी को साफ करने बल्कि सही मायने में कहें तो उसे दोबारा जीवित करने का काम इस छोटे से गांव में किसी निश्चित रूप से आती रकम के साथ नहीं शुरू हुआ था। बाबा जी के सहयोगी बताते हैं कि इसमें जनता का सहयोग रहा। विदेशों में रहने वाले सिखों ने भारी मदद दी। इंग्लैण्ड में बसे शमीन्द्र सिंह धालीवाल ने मदद में एक जे.सी.बी. मशीन दे दी, जो मिट्टी उठाने के काम आई। निर्मल कुटिया में बाबा का अपना वर्कशाप है, जिसमें खराद मशीने हैं। वहां काम करने वाले कोई प्रशिक्षण प्राप्त इंजीनियर नहीं बल्कि बाबा के पास श्रध्दा भाव से जुड़े करीब 25 युवा सेवादारों की टुकड़ी है। ये युवा आसपास के गांवों के हैं। वर्षों से सेवा भाव से वे बाबा से जुड़े हैं। एक ने जो जाना वह औरों को बताया। फिर ऐसे ही प्लम्बरों, बिजली के फिटर और खराद वालों की टुकड़ियां बनती गईं। आज बेई नदी अपने अस्तित्तव को लेकर आश्वस्त है और इसका पूरा श्रेय संत सींचेवाल को जाता है। कुदरती स्रोतों में गंदगी डालना कानूनन जुर्म है लेकिन देश भर में इस कानून से खेलने वालों की कोई कमी नहीं है। आज भी देश की तमाम नदियां हमारे इस ढीढपने का दंश झेल रही हैं। इन्हें साफ करने के लिए करोड़ो-अरबों का प्रोजेक्ट चलाया जा रहा है लेकिन फिर भी नदियां मैली हैं। क्या हम संत सींचेवाला से कुछ सबक ले सकते हैं।
रविवार, 5 अक्टूबर 2008
दूर होती गौरैया
05 अक्टूबर 2008
खिड़की पै जो गौरैया चहचहाती है
जीवन के गान अपने वह सुनाती है।
जाने कहाँ-कहाँ दिन में जा-जा कर
प्राणों की लहर पंखों में भर लाती है।
त्रिलोचन जी की इस कविता के मुताबिक नन्हीं गौरैया भीषणतम जीवन संघर्षों में भी गुनगुनाते हुए गतिमान रहने की सीख देती है लेकिन इसी गौरैया का खुद का जीवन अब संकट में है। काम वासना के बाज़ार में इस नन्हीं चिड़िया की उंची बोली लग रही है। जिससे अब ये बेज़ुबान और निरीह पक्षी शिकारियों का शिकार हो रही है। मैनें पूर्व केंद्रीय मंत्री मेनका गांधी के एक लेख में पढ़ा कि -
गिद्ध की तरह गौरैया भी अब लुप्त होने की कगार पर है। इसका एक कारण कीटनाशक हो सकता है और दूसरा उनका शहरी पक्षी होना, जिन्हें अब संवेदनशील शहर के नागिरिकों द्वारा भोजन नहीं दिया जाता है लेकिन एक कारण यह भी है कि अब गौरैयों को पकड़कर कामोत्तेजक के रूप में बेचा जाता है। जी हां गौरैया अब मुंबई के मशहूर लेकिन अवैध क्राफर्ड बाजार में बिकने वाले पशु पक्षियों में शामिल हो गई है। ये बाजार पशु पक्षियों के अवैध कारोबार का सबसे बड़ा केंद्र है। मेनका जी के लेख के मुताबिक इस बाजार में हर दिन औसतन करीब 50000 पक्षी आते हैं और प्लांट एंड ऐनीमल वेलफेयर सोसायटी के स्वयंसेवकों ने पिछले सप्ताह बाज़ार के एक रूटीन दौरे के दौरान गौरैया के व्यापार को देखा और पाया कि हज़ारों की संख्या में उन्हें बेचा और खरीदा जा रहा है। पशु कल्याण समूहों के मुताबिक इस पक्षी की मांग में हाल ही में काफी वृद्धि हुई है। इसका कारण है उन नीम हकीमों का वो दावा, जिसके मुताबिक इसके मांस से उन्होने एक ऐसी दवा तैयार की है जो कामोत्तेजक का काम करती है। जबकि हकीकत में ऐसा कुछ भी नहीं है। इसके सेवन से कुछ मात्रा में कैल्शियम और प्रोटीन मिलता है जिसे आप पौष्टिक भोजन के ज़रिए कहीं ज्यादा मात्रा में पा सकते हैं।
इस लेख ने अंतर्मन को झकझोर दिया। आंखों के सामने घर के आंगन में फुदकती, दाना चुगती वो मासूम गौरैया घूम गई जिसे देखकर बरबस ही चेहरे पर मुस्कान आ जाती है। कभी पानी में इठला इठला कर नहाती गौरैया, कभी अपनी छोटी सी चोंच से अपने पंखों को खुजलाती गौरैया तो कभी अपने बच्चों के मुंह में दाना डालती गौरैया, ऐसी ही न जाने कितनी छवियां जो बचपन से देखता आ रहा था मानस पटल पर तैर गईं। हालांकि ये छवियां अब गुजरे ज़माने की बात हो चली हैं। अब ना तो गौरैया दिखती है और ना ही उसके घोंसले। क्या हम इस गौरैया को अकेले नहीं छोड़ सकते। क्या हम इसे बचाने के लिए कुछ नहीं कर सकते। आखिर कब तक हम निरीह और बेजुबान प्राणियों को अपने निजी स्वार्थों की बलि चढ़ाते रहेंगे।
गुरुवार, 2 अक्टूबर 2008
जापान की मोहिनी
03 अक्टूबर 2008
हिन्दुस्तान यानि विभिन्न धर्मों , संस्कृतियों और कलाओं का संगम। एक ऐसा देश जो हमेशा से दूसरे देश के लोगों के लिए आकर्षण का केन्द्र रहा है। इस देश ने लोगों को काफी कुछ दिया है और ये काफी कुछ हासिल करने वालों में से ही एक हैं जापान की हिरोमा मारूहाशी। पारंपरिक नृत्य की शौकीन हिरोमा को ऐसे नृत्य पसंद थे, जो भावों को ज्यादा अभिव्यक्त करते हों। उन्होंने समकालीन जापानी नृत्यों से शुरुआत की लेकिन उनकी तड़प उन्हें शास्त्रीय नृत्यों की ओर ले गई। नृत्य में भावों की तलाश उन्हें भारत खींच लाई। बारह साल पहले उन्होंने नृत्य सीखने के लिए केरल के विख्यात कलामंडलम में दाखिला लिया था। 1930 में स्थापित कलामंडलम देश ही नहीं, दुनिया भर में कला के प्रमुख केंद्र के रूप में जाना जाता है। वो दिन था और आज का दिन है हिरोमी जापान की अकेली मोहिनीअट्टम नर्तकी बन चुकी है। यह नृत्य उनमें इतना रच-बस गया है कि उनका नाम ही मोहिनी हो गया है। हिरोमी 40 साल की हैं। हिरोमी 1989 से 1992 के दौरान इंडोनेशियाई बाली डांस कंपनी की कलाकार थीं। फिर 1992 से 95 तक वह जापान की बुटो मॉडर्न डांस कंपनी-बिवाकी में शामिल हो गई। उन्होंने 1994 से भरतनाट्यम सीखना शुरू किया। साथ ही साथ वह योग और जापानी मार्शल आर्ट केंपो भी सीखती रहीं। 1996 में वह भारत आई और कलामंडलम लीलम्मा से मोहिनीअंट्टम और मार्गी सथी से नंगियारकुत्थू सीखने लगीं। कलामंडलम से उन्होंने मोहिनीअंट्टम की विधिवत शिक्षा ली। सीखने की लालसा यहीं कम नहीं हुई और वह तिरुवनंतपुरम के सीवीएन कलारी संगम से कलारीप्पयाटू [केरल की पारंपरिक मार्शल आर्ट- युद्ध कला] सीखने लगीं। कुडीयट्टम व कत्थकली भी उन्होंने सीख रखा है। उसके बाद भी उनका भारत आना-जाना लगातार बना रहा। अब वह टोक्यो में एक कल्चरल सेंटर के सौजन्य से मोहिनीअंट्टम सिखा रही हैं। अब तक वह चालीस जापानी छात्राओं को यह दक्षिण भारतीय नृत्य सिखा चुकी हैं। हिरोमी भारत व जापान में मोहिनीअंट्टम के कई प्रदर्शन कर चुकी हैं। भारतीय नृत्य के बारे में उनका विशद ज्ञान अब उन्हें नई चीजों की तरफ खींच रहा है। वह चित्ररेखा नाम से एक ऐसी नृत्य नाटिका पर काम कर रही हैं जिसमें मोहिनीअंट्टम के अलावा भरतनाट्यम, कलारीप्पयाटू और योग भी शामिल होगा। खास बात यह है कि जापान में भारतीयता की बढ़ती धूम में ही नृत्यों के प्रति यह रुचि भी शामिल है। कई जापानी भरतनाट्यम, ओडिसी, कत्थक के अलावा पारंपरिक भारतीय वाद्यों को सीखने में भी रुचि दिखा रहे हैं।
साभार जागरण
सोमवार, 29 सितंबर 2008
मन्दिर में मातम
30 सितम्बर 2008
मन्दिर में मातम...शायद ये कहना गलत न होगा...क्योंकि रेत के धारों में बसे जोधपुर शहर की शान मेहरानगढ़ किले के भीतर बना ऐतिहासिक चामुंडा देवी मन्दिर मंगलवार को सौ से ज्यादा लोगों की मौत का गवाह बन गया। बड़ी तादाद में लोग घायल भी हो गए। नवरात्र का पहला दिन...हजारों की संख्या में इकठ्ठा हुए श्रद्धालुओं के बीच माता के दर्शन करने की होड़ लगी थी.. माता का पहले दर्शन करने की चाह ने मन्दिर परिसर में भगदड़ को जन्म दिया और फिर देखते ही देखते माता के जयकारे की जगह चारों तरफ चीख पुकार और मातम फैल गया। ठाठें मारता आस्था का जवार पल भर में काफूर हो गया। लोगों को अपने परिजनों की चिन्ता सताने लगी। लोग जहां ज्यादा भीड़ को भगदड़ की वजह बता रहे हैं वहीं राजस्थान के गृह सचिव का कहना है कि मंदिर जाने के रास्ते में एक दीवार के टूटने के कारण भगदड़ मची। शुरु में बम की अफवाह को भी भगदड़ का एक कारण बताया जा रहा था। बहरहाल कारण कुछ भी हो लेकिन अपने परिजनों की खुशी मांगने के लिए मंदिर पहुंचे श्रद्धालुओं की मन्नतों को ग्रहण लग गया। मन्दिर के बाहर रोते बिलखते बदहवास श्रद्धालु भगदड़ का शिकार हुए अपने परिजनों को खोजते नजर आए। मंदिर के आस-पास व्यवस्था बनाए रखने के लिए पुलिसकर्मियों की तैनाती तो गई थी लेकिन ये पर्याप्त नहीं थी। इस भगदड़ में घायल हुए लोगों को महात्मा गांधी अस्पताल और मथुरा दास अस्पताल में भर्ती कराया गया है। जहां उनका इलाज चल रहा है। अस्पताल के बाहर उनके परिजनों को रोते बिलखते देखा जा सकता है। हालत ऐसी मानो खुद से सवाल कर रहे हों कि आखिर माता ने उन्हें किस गलती की सज़ा दी है। आपको बता दें कि चामुंडा देवी मंदिर मेहरानगढ़ क़िले में स्थित है। पाँच किलोमीटर के दायरे में स्थित इस क़िले के आख़िर में ये मंदिर बना हुआ है। 400 फुट की ऊँचाई पर बने इस मंदिर में आने-जाने का रास्ता काफी संकरा है। पश्चिम राजस्थान में ये मंदिर काफी लोकप्रिय है और नवरात्र की शुरुआत लोग यहीं से करना पसंद करते हैं। इस मंदिर का निर्माण वर्ष 1459 में जोधपुर के संस्थापक राजा राव जोधा ने किया था। मंदिर की प्रतिमा ख़ुद राव जोधा ने स्थापित की थी और इसे परिहार राजवंश की कुलदेवी के रुप में स्थापित किया गया था। इस मन्दिर की महिमा ही बड़ी संख्या में भक्तों को यहां खींच कर लाती है और मौका जब नवरात्र का होता है तो भीड़ जन सैलाब में बदल जाती है। यही जन सैलाब जब अनियंत्रित होता है तो होते हैं, चामुंडा देवी मंदिर जैसे हादसे।
इससे पहले भी कई धार्मिक स्थलों पर ऐसी घटनाएं हो चुकी हैं। आईए नज़र डालते हैं पिछले कुछ वर्षों में मंदिरों में भगदड़ की घटनाओं पर।
अगस्त,2008 - हिमाचल प्रदेश के नैना देवी मंदिर में भूस्खलन की अफ़वाह के बाद भगदड़ मच गई. इसमें 145 लोगों की मौत हो गई।
नवंबर,2006 - उड़ीसा के पुरी में जगन्नाथ मंदिर में चार लोगों की मौत हो गई और 18 घायल हो गए। प्रत्यक्षदर्शियों का कहना था कि अधिकारियों ने मंदिर का दरवाज़ा खोलने में देर कर दी जिसके कारण भगदड़ मच गई।
जनवरी,2005 - महाराष्ट्र के दूरवर्ती मंढारा देवी मंदिर में भगदड़ मचने से 265 लोग मारे गए। सँकडॉरा रास्ता होने के कारण
हताहतों की संख्या बढ़ गई। मृतकों में बड़ी संख्या महिलाओं और बच्चों की थी।
अगस्त,2003 - नासिक में कुंभ मेले के दौरान मची भगदड़ में 30 से ज़्यादा लोगों की मौत हो गई।
1986 - हरिद्वार में एक धार्मिक आयोजन के दौरान भगदड़ में 50 लोगों की मौत हो गई।
1954 - इलाहाबाद में कुंभ मेले के दौरान भगदड़ का भयान मंजर देखने को मिला। इसमें लगभग 800 लोगों की जानें गईं।
चामुंडा मन्दिर में हुई भगदड़ के दौरान कुछ ऐसा हाल रहा।
मंगलवार, 23 सितंबर 2008
उड़ीसा में भी बिहार की कहानी...
23 सितम्बर 2008
बिहार के बाद उड़ीसा, कहानी जुदा नहीं है, हालात ठीक वैसे ही हैं, बस विकरालता थोड़ी कम है, वरना सब कुछ वैसा ही है। चारों तरफ ठाठें मारता जल, सब कुछ निगल लेने को आतुर, सब कुछ मिटा देने को तत्पर, जिंदगियों को मौत के अंधेरों में गुम करता जीवनदायी जल एकाएक खलनायक की भूमिका में आ गया है। बिहार में इसने कोसी की शक्ल ली तो उड़ीसा में महानदी और उसकी सहायक नदियों का चोला पहनकर आ गया। नदियों के तट पर बसे लोगों की तो हर साल शामत आती है लेकिन इस बार तो शहरों में बसे खुद को सुरक्षित महसूस करने वालों को भी पसीने आ गए। गांवों में तबाही मचाने वाला बाढ़ का पानी लपलपाता हुआ उनके घरों में भी घुस गया। सालों की मेहनत से बनाए गए तमाम आशियाने लहरों की भेंट चढ़ गए। गाढ़े पसीने की कमाई नदियां अपने साथ बहा ले गईं। बेटियों की शादी के लिए जमा दहेज बह गया तो बच्चों की फीस के लिए रखे रुपए भी पानी में मिल गए। बेजुबान मवेशी खामोशी के साथ नदियों की अठखेलियों का शिकार हो गए। लोगों के सिर से छत छिन चुकी है, खाने को लाले पड़े हैं, बच्चे भूख से बिलबिला रहे हैं, बुजुर्गों की सहनशीलता भी जवाब दे रही है। मां की छाती से चिपके बच्चे दूध के लिए जब उसका चेहरा ताकते हैं तो उसका दिल चाक चाक हो जाता है। क्या करें, कहां जाएं, किससे करें मदद की गुहार। अब तो उसी परमपिता का सहारा है जिसने इस दुनिया को बनाया है। वहीं पार करेगा नैया क्योंकि इस जल प्रलय से पार पाना धऱती के रहनुमाओं के बस की बात तो रही नहीं। हर साल बाढ़ आती है और अपने साथ लाती है तबाही लेकिन फिर भी इस तबाही से निपटने में नाकाम रहती हैं सरकारें। एक बार फिर नाकाम हैं। सवाल ये है कि आखिर क्यों पूरे साल में कोई एसी कारगर नीति क्यों नहीं बन पाती जिससे कहर बरपाती इन चंचल लहरों पर लगाम लगाई जा सके। करोड़ों अरबों रुपए खर्च करने के बावजूद आखिर क्यों हो जाते हैं हम हर साल बाढ़ का शिकार ।
सोमवार, 22 सितंबर 2008
मज़हब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना...
24 सितम्बर 2008
कर्नाटक और उड़ीसा के बाद दिल्ली में चर्च को निशाना बनाया गया। एक बार फिर धर्म के नाम पर इंसानियत का खून बहाने का दौर सा चल पड़ा है। 1949 से शुरू हुई अयोध्या के विवादित परिसर की लड़ाई आज भी अदालतों में जारी है। लोगों की भावनाओं पर चोट कर सियासत करना जैसे सियासतदां का शगल होता जा रहा है। मन्दिर-मस्जिद-गुरूद्वारे और चर्च की लड़ाई लड़कर जाने कौन सा भारत बनाना चाहते हैं हमारे रहनुमा। जाति धर्म और मजहब की दीवार खड़ी कर भाई से भाई को लड़ाने का इतिहास लगातार दोहराया जा रहा है। नफरत की इस सियासत को खत्म करने के लिए कई बार कोशिशें हुई हैं लेकिन हालात बदलते नजर नहीं आते। हम और आप नहीं चाहते कि धर्म के नाम पर इंसानी जिंदगियां कुर्बान की जाएं लेकिन सियासत की गाड़ी नफरत के पेट्रोल से ही चलती है। आज समाज में लाखों ऐसी समस्यायें हैं जिन्हें मुद्दा बनाकर एक साफ सुथरी राजनीति की जा सकती है लेकिन उनसे सरोकार रखना मानो जनप्रतिनिधियों ने सीखा ही नहीं हैं। महाराष्ट्र में तो हद ही हो गई है। भाषा के नाम पर लोगों को ज़लील किया जा रहा है, उनके साथ मारपीट की जा रही है। भारत की लोकतांत्रिक व्यवस्था को सीधे सीधे कुछ लोग चुनौती देने की कोशिश कर रहे हैं और हम भी किसी न किसी रूप में उस चुनौती का एक हिस्सा बने हुए हैं। आखिर क्यों हम भूल जाते हैं कि धर्म, मजहब और भाषा से पहले इंसान आता है। मानवता आती है। क्यों हम उन मौकापरस्त लोगों की उन बातों को सिर माथे ले लेते हैं जो भाई को भाई से बांटने का काम करती हैं। क्यों हम उनकी नफरत की सियासत का हिस्सा बन जाते हैं। हमें आज सीख लेने की ज़रूरत है, मुजफ्फरनगर के कांधला इलाके के उन लोगों से जो धर्म और मजहब की इस लड़ाई से परे हैं।
लेख का नीचे का हिस्सा जागरण अखबार के इंटरनेट संस्करण से लिया गया है।
जहां दीवार बांटती है पर दीवार जोड़ती भी है। यहां प्रेम की एक साझी दीवार मंदिर-मस्जिद को जोड़ती है। इस दीवार से जुड़ी खुदा की इबादतगाह में मोमिन सजदा करते हैं, तो लक्ष्मी नारायण मंदिर में लोग शीश नवाते हैं। लाखों हिंदू और मुसलमानों की भक्ति और अकीदत इस एक दीवार के सहारे खड़ी है। एक तरफ पूजा के दौर चलते हैं तो दूसरी तरफ पांच वक्त की नमाज। अपने वक्त पर मोअज्जन अजान देते हैं और घंटे-घडि़याल के साथ आरती भी अपने समय पर होती है। किसी को किसी से शिकवा नहीं। मंदिर-मस्जिद के भक्तों, अकीदतमंदों को देखकर लगता है कि शायर की ये पंक्तियां फिजां में तैर रही हैं...
जो उनका काम है, वो अहले सियासत जानें
मेरा पैगाम मोहब्बत है जहां तक पहुंचे
कहते हैं कि मोहम्मद तुगलक 1392 में शिकार खेलने के लिए कांधला आए थे। उनके लिए जुमे की नमाज के वास्ते नगर के सबसे ऊंचे स्थान पर मस्जिद बनवा दी गई। कस्बे के पुराने लोग बताते हैं कि सन 1900 के आसपास मस्जिद के बराबर में खाली पड़ी जमीन पर मंदिर के लिए निर्माण कार्य शुरू कराया गया तो दोनों वर्गो में वैचारिक मतभेद हो गए। कहते हैं यह जमीन मंदिर के लिए ही छोड़ी गई थी। बाद में दोनों समुदाय के लोग एकत्र हुए और फैसला हुआ कि जमीन मंदिर की ही है। 1950 के दशक में यहां पर लक्ष्मी नारायण मंदिर का निर्माण हुआ पर मंदिर और मस्जिद की एक ही दीवार रखी गई। यह सांप्रदायिक कलह का कारण बन सकता था, अगर सियासत की हवा बह जाती लेकिन मजहब आपस में बैर करना नहीं सिखाता। शायद यही वजह है कि कई दशक बीत जाने के बावजूद यहां दोनों समुदाय के लोगों में आज तक किसी भी प्रकार की कड़वाहट नहीं उभरी है। यहां तब भी सौहार्द की खुशनुमा बयार बहती रही, जब पूरे देश में सांप्रदायिकता की स्याह आंधी चल रही थी। हर समुदाय के लोगों के लिए यह सौहार्द एक नजीर है। किसी शायर ने ठीक ही कहा है।
सियासत को लहू पीने की लत है, वर्ना मुल्क में सब खैरियत है ...
क्या हम सांप्रदायिक सौहार्द की इस मिसाल से कुछ सीख सकते हैं। शायद हां...और हमें सीख लेनी ही होगी। वरना वो दिन दूर नहीं जब दुनिया को मानवता और भाईचारे की सीख देने वाले हमारे देश से ही इनका नामोनिशान मिट जाएगा।
कर्नाटक और उड़ीसा के बाद दिल्ली में चर्च को निशाना बनाया गया। एक बार फिर धर्म के नाम पर इंसानियत का खून बहाने का दौर सा चल पड़ा है। 1949 से शुरू हुई अयोध्या के विवादित परिसर की लड़ाई आज भी अदालतों में जारी है। लोगों की भावनाओं पर चोट कर सियासत करना जैसे सियासतदां का शगल होता जा रहा है। मन्दिर-मस्जिद-गुरूद्वारे और चर्च की लड़ाई लड़कर जाने कौन सा भारत बनाना चाहते हैं हमारे रहनुमा। जाति धर्म और मजहब की दीवार खड़ी कर भाई से भाई को लड़ाने का इतिहास लगातार दोहराया जा रहा है। नफरत की इस सियासत को खत्म करने के लिए कई बार कोशिशें हुई हैं लेकिन हालात बदलते नजर नहीं आते। हम और आप नहीं चाहते कि धर्म के नाम पर इंसानी जिंदगियां कुर्बान की जाएं लेकिन सियासत की गाड़ी नफरत के पेट्रोल से ही चलती है। आज समाज में लाखों ऐसी समस्यायें हैं जिन्हें मुद्दा बनाकर एक साफ सुथरी राजनीति की जा सकती है लेकिन उनसे सरोकार रखना मानो जनप्रतिनिधियों ने सीखा ही नहीं हैं। महाराष्ट्र में तो हद ही हो गई है। भाषा के नाम पर लोगों को ज़लील किया जा रहा है, उनके साथ मारपीट की जा रही है। भारत की लोकतांत्रिक व्यवस्था को सीधे सीधे कुछ लोग चुनौती देने की कोशिश कर रहे हैं और हम भी किसी न किसी रूप में उस चुनौती का एक हिस्सा बने हुए हैं। आखिर क्यों हम भूल जाते हैं कि धर्म, मजहब और भाषा से पहले इंसान आता है। मानवता आती है। क्यों हम उन मौकापरस्त लोगों की उन बातों को सिर माथे ले लेते हैं जो भाई को भाई से बांटने का काम करती हैं। क्यों हम उनकी नफरत की सियासत का हिस्सा बन जाते हैं। हमें आज सीख लेने की ज़रूरत है, मुजफ्फरनगर के कांधला इलाके के उन लोगों से जो धर्म और मजहब की इस लड़ाई से परे हैं।
लेख का नीचे का हिस्सा जागरण अखबार के इंटरनेट संस्करण से लिया गया है।
जहां दीवार बांटती है पर दीवार जोड़ती भी है। यहां प्रेम की एक साझी दीवार मंदिर-मस्जिद को जोड़ती है। इस दीवार से जुड़ी खुदा की इबादतगाह में मोमिन सजदा करते हैं, तो लक्ष्मी नारायण मंदिर में लोग शीश नवाते हैं। लाखों हिंदू और मुसलमानों की भक्ति और अकीदत इस एक दीवार के सहारे खड़ी है। एक तरफ पूजा के दौर चलते हैं तो दूसरी तरफ पांच वक्त की नमाज। अपने वक्त पर मोअज्जन अजान देते हैं और घंटे-घडि़याल के साथ आरती भी अपने समय पर होती है। किसी को किसी से शिकवा नहीं। मंदिर-मस्जिद के भक्तों, अकीदतमंदों को देखकर लगता है कि शायर की ये पंक्तियां फिजां में तैर रही हैं...
जो उनका काम है, वो अहले सियासत जानें
मेरा पैगाम मोहब्बत है जहां तक पहुंचे
कहते हैं कि मोहम्मद तुगलक 1392 में शिकार खेलने के लिए कांधला आए थे। उनके लिए जुमे की नमाज के वास्ते नगर के सबसे ऊंचे स्थान पर मस्जिद बनवा दी गई। कस्बे के पुराने लोग बताते हैं कि सन 1900 के आसपास मस्जिद के बराबर में खाली पड़ी जमीन पर मंदिर के लिए निर्माण कार्य शुरू कराया गया तो दोनों वर्गो में वैचारिक मतभेद हो गए। कहते हैं यह जमीन मंदिर के लिए ही छोड़ी गई थी। बाद में दोनों समुदाय के लोग एकत्र हुए और फैसला हुआ कि जमीन मंदिर की ही है। 1950 के दशक में यहां पर लक्ष्मी नारायण मंदिर का निर्माण हुआ पर मंदिर और मस्जिद की एक ही दीवार रखी गई। यह सांप्रदायिक कलह का कारण बन सकता था, अगर सियासत की हवा बह जाती लेकिन मजहब आपस में बैर करना नहीं सिखाता। शायद यही वजह है कि कई दशक बीत जाने के बावजूद यहां दोनों समुदाय के लोगों में आज तक किसी भी प्रकार की कड़वाहट नहीं उभरी है। यहां तब भी सौहार्द की खुशनुमा बयार बहती रही, जब पूरे देश में सांप्रदायिकता की स्याह आंधी चल रही थी। हर समुदाय के लोगों के लिए यह सौहार्द एक नजीर है। किसी शायर ने ठीक ही कहा है।
सियासत को लहू पीने की लत है, वर्ना मुल्क में सब खैरियत है ...
क्या हम सांप्रदायिक सौहार्द की इस मिसाल से कुछ सीख सकते हैं। शायद हां...और हमें सीख लेनी ही होगी। वरना वो दिन दूर नहीं जब दुनिया को मानवता और भाईचारे की सीख देने वाले हमारे देश से ही इनका नामोनिशान मिट जाएगा।
बुधवार, 17 सितंबर 2008
कलाकार को फ़तवा
18 सितम्बर 2008
पिछले दिनों मशहूर फिल्म अभिनेत्री जया बच्चन के एक बयान को लेकर इस कदर हंगामा हुआ कि सदी के महानायक को खुद जया के बचाव के लिए आगे आना पड़ा और माफी मांगते हुए सफाई पेश करनी पड़ी। भाषा को लेकर की गई जया की टिप्पणी को राजनीतिक रंग देकर जिस तरह से कुछ लोगों ने अपनी राजनीति चमकाने की कोशिश की उसकी चारों तरफ निन्दा हुई। आज इंटरनेट पर एक और खबर पढ़ी जिसके मुताबिक एक बार फिर धर्म के ठेकेदारों ने एक कलाकार को निशाना बनाया है। मामला जुड़ा है अवध के नवाब अमजद अली शाह के वंशज नवाब सैय्यद बदरुल हसन उर्फ पप्पू पोलिस्टर से, जिन्होंने कई धार्मिक धारावाहिकों में भगवान नंदी का किरदार निभाया है। एक मुस्लिम द्वारा नंदी का किरदार निभाए जाने से नाराज होकर कट्टरपंथी मौलानाओं ने सैय्यद बदरुल हसन उर्फ पप्पू पोलिस्टर के खिलाफ मोर्चा खोल लिया हैं। इन मौलानाओं ने हसन के खिलाफ कलमा पढ़कर दोबारा मुसलमान बनाने का फरमान तक जारी कर दिया है। नवाब बदरुल हसन उर्फ पप्पू पोलिस्टर ने कई धार्मिक धारावाहिकों ' ओम नमः शिवाय ' संतोषी माता ' ' जय हनुमान ' और ' सत्यनारायण की कथा ' में नंदी जैसे धार्मिक चरित्र से अपनी एक अलग पहचान बना ली है और उनको इसी तरह के धारावाहिकों के प्रस्ताव भी लगातार मिल रहे हैं। उनके बेटे अमन पोलिस्टर ने भी एक धारावाहिक में भगवान गणेश की भूमिका की है। इससे भी नाराजगी जाहिर करते हुए कुछ कट्टरपंथियों ने उन्हें धमकी दी कि जैसे गणेश के रूप में तुम्हारे बेटे का सिर कटा था, हम घर आकर ऐसे ही उसका सिर भी काट देंगे तब इसकी रिपोर्ट मुंबई के अंधेरी ईस्ट स्थित मेगवाड़ी थाने में भी दर्ज कराई गई थी। यहाँ तक कि पप्पू पोलिस्टर के सगे चाचा विलायत हुसैन ने उन्हें यह कहकर पुश्तैनी सम्पति देने से मना कर दिया है कि खुद तो भगवान बन गए, लड़के को भी भगवान बना दिया। इसलिए तुम मुसलमान ही नहीं रहे और हमारे परिवार से अब तुम्हारा कोई नाता भी नहीं रहा। नवाब हसन कहते हैं कि हिन्दू देवताओं के अभिनय करने पर उन्हें हिन्दू समाज के लोगों ने उनके प्रति जो सम्मान और श्रध्दा व्यक्त की उसकी मैं कभी कल्पना भी नहीं कर सकता लेकिन इसके ठीक उलट मुस्लिम समाज के कट्ट्रपंथियों की ओर से मुझे लगातार तिरस्कार और धमकियाँ मिलती है। नवाब बदरुल हसन उर्फ पप्पू पोलिस्टर की ये परेशानी कई सवाल खड़े करती है। क्या अब कलाकारों को भी धर्म और मजहब के तराजू में तौला जाएगा। क्या अब धर्म के आधार पर कलाकारों को अपनी भूमिका चुनने के लिए बाध्य किया जाएगा। क्या कलाकारों को अब एक सीमा में रहकर काम करने के लिए मजबूर किया जाएगा। क्या इस तरह की हरकतें कर इस देश का अमन चैन बिगाड़ने की कोशिश नहीं हो रही है। सलमान खान अपने घर में गणपति लाते हैं तो इन कट्टरपंथियों के पेट में दर्द होने लगता है लेकिन उन्हें अजमेर में विश्व प्रसिद्ध बाबा बादामी शाह की दरगाह पर एक हिन्दू परिवार द्वारा सालों से की जा रही खिदमत दिखाई नहीं देती। ऐसे ही न जाने कितने उदाहरण है हिन्दू-मुस्लिम एकता के और शायद यही एकता कुछ मौका परस्त लोगों को रास नहीं आ रही है। इसीलिए वो इस देश के लोगों में अपने पराए का भेद पैदा कर रहे हैं। नवाब बदरुल हसन उर्फ पप्पू पोलिस्टर के खिलाफ जारी फतवा तो इसी बात को दर्शाता है।
पिछले दिनों मशहूर फिल्म अभिनेत्री जया बच्चन के एक बयान को लेकर इस कदर हंगामा हुआ कि सदी के महानायक को खुद जया के बचाव के लिए आगे आना पड़ा और माफी मांगते हुए सफाई पेश करनी पड़ी। भाषा को लेकर की गई जया की टिप्पणी को राजनीतिक रंग देकर जिस तरह से कुछ लोगों ने अपनी राजनीति चमकाने की कोशिश की उसकी चारों तरफ निन्दा हुई। आज इंटरनेट पर एक और खबर पढ़ी जिसके मुताबिक एक बार फिर धर्म के ठेकेदारों ने एक कलाकार को निशाना बनाया है। मामला जुड़ा है अवध के नवाब अमजद अली शाह के वंशज नवाब सैय्यद बदरुल हसन उर्फ पप्पू पोलिस्टर से, जिन्होंने कई धार्मिक धारावाहिकों में भगवान नंदी का किरदार निभाया है। एक मुस्लिम द्वारा नंदी का किरदार निभाए जाने से नाराज होकर कट्टरपंथी मौलानाओं ने सैय्यद बदरुल हसन उर्फ पप्पू पोलिस्टर के खिलाफ मोर्चा खोल लिया हैं। इन मौलानाओं ने हसन के खिलाफ कलमा पढ़कर दोबारा मुसलमान बनाने का फरमान तक जारी कर दिया है। नवाब बदरुल हसन उर्फ पप्पू पोलिस्टर ने कई धार्मिक धारावाहिकों ' ओम नमः शिवाय ' संतोषी माता ' ' जय हनुमान ' और ' सत्यनारायण की कथा ' में नंदी जैसे धार्मिक चरित्र से अपनी एक अलग पहचान बना ली है और उनको इसी तरह के धारावाहिकों के प्रस्ताव भी लगातार मिल रहे हैं। उनके बेटे अमन पोलिस्टर ने भी एक धारावाहिक में भगवान गणेश की भूमिका की है। इससे भी नाराजगी जाहिर करते हुए कुछ कट्टरपंथियों ने उन्हें धमकी दी कि जैसे गणेश के रूप में तुम्हारे बेटे का सिर कटा था, हम घर आकर ऐसे ही उसका सिर भी काट देंगे तब इसकी रिपोर्ट मुंबई के अंधेरी ईस्ट स्थित मेगवाड़ी थाने में भी दर्ज कराई गई थी। यहाँ तक कि पप्पू पोलिस्टर के सगे चाचा विलायत हुसैन ने उन्हें यह कहकर पुश्तैनी सम्पति देने से मना कर दिया है कि खुद तो भगवान बन गए, लड़के को भी भगवान बना दिया। इसलिए तुम मुसलमान ही नहीं रहे और हमारे परिवार से अब तुम्हारा कोई नाता भी नहीं रहा। नवाब हसन कहते हैं कि हिन्दू देवताओं के अभिनय करने पर उन्हें हिन्दू समाज के लोगों ने उनके प्रति जो सम्मान और श्रध्दा व्यक्त की उसकी मैं कभी कल्पना भी नहीं कर सकता लेकिन इसके ठीक उलट मुस्लिम समाज के कट्ट्रपंथियों की ओर से मुझे लगातार तिरस्कार और धमकियाँ मिलती है। नवाब बदरुल हसन उर्फ पप्पू पोलिस्टर की ये परेशानी कई सवाल खड़े करती है। क्या अब कलाकारों को भी धर्म और मजहब के तराजू में तौला जाएगा। क्या अब धर्म के आधार पर कलाकारों को अपनी भूमिका चुनने के लिए बाध्य किया जाएगा। क्या कलाकारों को अब एक सीमा में रहकर काम करने के लिए मजबूर किया जाएगा। क्या इस तरह की हरकतें कर इस देश का अमन चैन बिगाड़ने की कोशिश नहीं हो रही है। सलमान खान अपने घर में गणपति लाते हैं तो इन कट्टरपंथियों के पेट में दर्द होने लगता है लेकिन उन्हें अजमेर में विश्व प्रसिद्ध बाबा बादामी शाह की दरगाह पर एक हिन्दू परिवार द्वारा सालों से की जा रही खिदमत दिखाई नहीं देती। ऐसे ही न जाने कितने उदाहरण है हिन्दू-मुस्लिम एकता के और शायद यही एकता कुछ मौका परस्त लोगों को रास नहीं आ रही है। इसीलिए वो इस देश के लोगों में अपने पराए का भेद पैदा कर रहे हैं। नवाब बदरुल हसन उर्फ पप्पू पोलिस्टर के खिलाफ जारी फतवा तो इसी बात को दर्शाता है।
मंगलवार, 16 सितंबर 2008
THIRD WORLD WAR
रविवार, 14 सितंबर 2008
एक बार फिर
15 सितम्बर 2008
एक बार फिर दहशतगर्द अपने नापाक मंसूबों को अंजाम देने में कामयाब रहे। एक बार फिर तमाम निर्दोष लोग अपनी जान से हाथ धो बैंठे। एक बार फिर कुछ बच्चे अनाथ हो गए, कुछ सुहागिनें विधाव हो गईं, कुछ माओं की गोद उजड़ गई। एक बार फिर फिजा में आतंक का साया पसरा नजर आया । एक बार फिर अफरा तफरी और चीख पुकार मची, एक बार फिर लोग बदहवास से इधर उधर भागते नजर आए, एक बार फिर सारी सुरक्षा व्यवस्था के दावे खोखले साबित हुए। एक बार फिर लोगों की सुरक्षा कर पाने में पुलिस महकमा नाकाम रहा। एक बार फिर आतंकियों ने ई मेल भेजा है। जी हां एक बार फिर धमाके हए हैं। धमाके भी ऐसे वैसे नहीं सिलसिलेवार हुए हैं। वो भी देश की राजधानी बल्कि यू कहें कि राजधानी के दिल कनाट प्लेस में हुए हैं। एक बार फिर रेड अलर्ट, हाई अलर्ट का शोर गूंजा है, एक बार फिर सुरक्षा व्यवस्था को चाक चौबन्द करने की कवायद की जा रही है., एक बार फिर दबिश दी जा रही है, छापेमारी हो रही है। एक बार फिर स्केच जारी हो रहे हैं, एक बार फिर कुछ गिरफ्तारियां हो रही हैं। एक बार फिर जांच हो रही है, कमेटी बन रही है। एक बार फिर प्रधानमंत्री सहित तमाम नेताओं ने धमाकों की निन्दा की है, एक बार फिर आतंक को कोसा है, एक बार फिर आतंकियों को मुंह तोड़ जवाब देने की हुंकार भरी जा रही है, एक बार फिर सभी को धैर्य से काम लेने की अपील की जा रही है। जी हां एक बार फिर धमाके हुए हैं। धमाके भी ऐसे वैसे नहीं सिलसिलेवार हुए हैं लेकिन एक बार फिर लोग सब कुछ भूल गए हैं, एक बार फिर जिन्दगी मुस्कुरा रही है, एक बार फिर नई सुबह आई है, एक बार फिर लोग अपने अपने काम पर लौट आए हैं, जी हां एक बार फिर सब कुछ शान्त हो गया है। एक बार फिर सरकार ने राहत की सांस ली है कि पहले की तरह जनता भड़की नहीं बल्कि पहले की तरह एक बार फिर धमाकों को भूलकर अपने काम में जुट गई है लेकिन सवाल ये है कि कब तक एक बार फिर हम इस तरह की घटनाओं को भूलते रहेंगे और कब तक एक बार फिर इंसानियत को ये धमाके लहुलुहान करते रहेंगे। कब तक एक बार फिर जैसी ये घटनाएं हमारे देश में दोहराई जाती रहेंगी।
शनिवार, 13 सितंबर 2008
हर तस्वीर कुछ कहती है
13 सितम्बर 2008
कौन कहता है बिल्ली और चूहे की दोस्ती नहीं हो सकती। अंगोला में इन चूहों को बारुदी सुरंग ढूंढने का प्रशिक्षण दिया जा रहा है।
स्कॉटलैंड के एडिनबर्ग चिड़ियाघर में यह नवजात जेबरा क़ुदरत की रंगीनियाँ देख मस्त हो गया और अठखेलियां करने लगा।
ब्रिटेन के स्टॉकपोर्ट में इस गोरैये ने पानी की ज़रुरत इस तरह पूरी की।
सभी फोटो साभार बीबीसी
कौन कहता है बिल्ली और चूहे की दोस्ती नहीं हो सकती। अंगोला में इन चूहों को बारुदी सुरंग ढूंढने का प्रशिक्षण दिया जा रहा है।
स्कॉटलैंड के एडिनबर्ग चिड़ियाघर में यह नवजात जेबरा क़ुदरत की रंगीनियाँ देख मस्त हो गया और अठखेलियां करने लगा।
ब्रिटेन के स्टॉकपोर्ट में इस गोरैये ने पानी की ज़रुरत इस तरह पूरी की।
सभी फोटो साभार बीबीसी
भारत के गौरव की नीलामी
13 सितम्बर 2008
पंजाब के पूर्व महाराजा रणजीत सिंह की संगमरमर से बनी दुर्लभ दुधिया प्रतिमा नौ अक्तूबर को लंदन के बोनहैम्स में नीलाम की जाएगी। महाराजा रणजीत सिंह की यह प्रतिमा 1900 सदी में भारत में बनी है। इस प्रतिमा के 45 से 63 लाख रुपये के बीच बिकने की संभावना है। 1793 में स्थापित बोनहैम्स पुरानी और ऐतिहासिक वस्तुओं की नीलामी करने वाली बहुत पुरानी संस्था है। इसके पहले इस नीलाम घर द्वारा रणजीत सिंह के बेटे दिलीप सिंह की प्रतिमा 17 लाख पाउंड में नीलाम की जा चुकी है। शेर-ए-पंजाब के नाम से विख्यात रणजीत सिंह का जन्म 13 नवंबर 1780 को गुजरांवाला में हुआ था जो अब पाकिस्तान में है। महाराजा रणजीत सिंह के बारे में पंजाब रियासत के प्रधानमंत्री रहे दीवान जरमनी दास ने कई रोचक किस्से लिखे हैं। एक किस्सा यूँ है कि महाराजा रणजीत सिंह कोलकोता में रोल्स रॉयस गाड़ी के शो रुम के सामने से गुजर रहे थे, अचानक उनका ध्यान वहाँ रखी रोल्स रायस कारों पर गया तो वे सहज ही उन कारों का भाव पूछने चले गए। उनका पंजाबी और सरदार की विचित्र वेशभूषा देखकर वहाँ मौजूद अंग्रेज कर्मचारी ने उनको डाँट कर कहा कि ये बहुत महंगी कारें हैं इनको खरीदना तुम्हारे बस की बात नहीं और उनको कार के शो रुम से बाहर कर दिया। थोड़ी ही देर में महाराजा रणजीत सिंह ने अपने मंत्री को भेजकर शो रुम में रखी सभी रोल्य रॉयस कारें खरीद ली। लेकिन किस्सा यहीं खत्म नहीं हुआ, असली किस्सा तो इन कारों को खरीदने के बाद शुरु होता है। महाराजा रणजीत सिंह अपने अपमान से इतने आहत थे कि उन्होंने इऩ कारों को पंजाब लाकर इनको शहर का कचरा ढोने में लगा दिया और कोलकोता के शो रूम मालिक अंग्रेज को इसकी खबर भी भिजवा दी। इधर लंदन के अखबारों में रोल्स रॉयस के कचरा ढोते हुए फोटो भी प्रकाशित हो गए तो पूरे इंग्लैंड में हंगामा मच गया। रोल्य रॉयस कंपनी ने काफी मिन्नतों और मनुहारों के बाद महाराजा रणजीत सिंह को इस बात के लिए मनाया कि वे इन कारों को कचरा ढोने के काम में न लें। उन्हीं महाराजा रणजीत सिंह की प्रतिमा की एक विदेशी नीलाम घर में बोली लगेगी और सौ करोड़ की आबादी वाला हमारा देश इस कार्रवाई को मूक दर्शक बनकर देखेगा। वैसे तो हम अपने इतिहास और गौरव की दुहाई देते नहीं थकते लेकिन जहां बात उसी इतिहास को संभालने, सहेजने और संवारने की बात आती है तो हमारे रहनुमाओं को लकवा मार जाता है। उनके सोचने समझने की क्षमता मानों जैसे समाप्त हो जाती है। देश के धुरंधर नेताओं की सुरक्षा पर करोड़ो खर्च करने वाली सरकार क्या हमारे गौरव की इस नीलामी को रोक नहीं सकती। जो महाराजा रणजीत सिंह भारतीय आन-बान और शान के प्रतीक थे, उनकी प्रतिमा एक विदेशी नीलाम घर द्वारा नीलाम किया जाना इस बात का सबूत है कि हमारे देश में हम दो दो कौड़ी के नेताओं और फिल्मी कलाकारों को तो सम्मान देते हैं मगर अपने देश के असली नायकों को भूल जाते हैं।
ये जानकारी साभार hindi media.in से ली गई है।
रविवार, 7 सितंबर 2008
देहदान - महादान
07 सितम्बर 2008
मोक्ष प्राप्ति के लिए शरीर को मृत्यु के बाद जलाने या दफनाने की परंपरा है लेकिन अगर ये कहा जाए कि मोक्ष प्राप्ति से भी महत्वपूर्ण कुछ है जिसे आप करके पूरी दुनिया की भलाई कर सकते हैं तो आप क्या कहेंगे। जी हां, बात देह दान की हो रही है। जिसके लिए लोग धीरे धीरे ही सही लेकिन आगे आने लगे हैं। कुछ ऐसा ही हुआ है गुलाबी नगरी जयपुर में। यहां के सवाई मानसिंह मेडिकल कॉलेज में शनिवार को एक रिटायर्ड आईएएस अधिकारी श्री पुखराज सालेचा की मां श्रीमती प्यारी देवी ने जब 91 साल की उम्र में अंतिम सांस ली तो उनकी मौत हमेशा के लिए अमर हो गई। वजह बनी उनकी वो अंतिम इच्छा जिसके मुताबिक उन्होंने अपनी देह को दान करने की बात कही थी। उनकी इस इच्छा का सम्मान करते हुए उनके परिजनों ने उनका शरीर मेडिकल कॉलेज को सौंप दिया। साथ ही पूरे परिवार ने ये फैसला भी किया कि परिवार के किसी भी सदस्य की कहीं भी मृत्यु होने पर पास के मेडिकल कॉलेज में उसकी देह दान कर दी जाएगी। आपको बता दें कि एक साल पहले प्यारी देवी के पुत्र रिटायर्ड आईएएस अधिकारी पुखराज सालेचा की पत्नी ने भी अपनी मौत के बाद देह दान किया था। एक साल के अंतराल पर सास-बहू के देह दान का यह अनूठा उदाहरण है। एसएमएस मेडिकल कॉलेज का एनाटमी विभाग इस बात को लेकर खासा उत्साहित है कि लोगों की सोच में देह दान करने को लेकर मौजूद भ्रांतियां धीरे धीरे ही सही टूट रही हैं और देहदान करने वालों की संख्या धीरे-धीरे बढ़ रही है। 1988 में जहां देह दान करने वाले की संख्या एक थी, वहीं 2007 में बढ़कर छह हो गई। मेडिकल कॉलेज में अब तक देहदान के लिए 139 संकल्प पत्र भरे जा चुके हैं। डॉक्टरों को उम्मीद है कि मृत्यु के बाद देहदान करने वालों की बढ़ती संख्या के बाद चिकित्सा जगत में शोध और अध्ययन में काफी मदद मिलेगी। आपको बता दें कि साधारणत: एक कैडवार (मृत शरीर का मेडिकल नाम) के अध्ययन के लिए पांच से अधिक छात्र नहीं होने चाहिए लेकिन अपने यहां इस कमी का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि एक मृत शरीर के अध्ययन में लगभग ३० छात्र तक लगे होते हैं। अगर हम तुलना करें तो पाएंगे कि अंग्रेज देह दान जैसे विचार को काफी खुलेपन से ग्रहण करते हैं और इसका समर्थन करते हैं। इंग्लैंड में हर वर्ष ८०० से अधिक अंग्रेज मेडिकल शोध के लिए देह दान करते हैं। मृत शरीर दान करने के पीछे कारण अलग-अलग हो सकते हैं लेकिन इतना विश्वास तो उनको होता ही है कि उनका शरीर संसार में किसी काम आ सकता है। १९३२ में पृथ्वी पर मानव कल्याण और चिकित्सा विज्ञान की उन्नति के लिए मरणोपरांत देह दान करने वाले प्रथम व्यक्ति थे चिन्तक जेरेम बेन्हॉम। भारत में मरणो परांत देह दान करने वाले पहले व्यक्ति थे महाराष्ट्र के पूना में शिक्षक पाण्डुरंग आप्टे। पश्चिम बंगाल मे संगठित रूप से इस पर कार्य शुरू हुआ वर्ष १९८५ में और पहला देहदान हुआ १८ जनवरी १९९० आर.जी. कर मेडिकल कॉलेज में जब सुकुमार होम चौधरी की मौत के बाद दान किया गया उनका शरीर मेडिकल कॉलेज ने ग्रहण किया। इससे पहले ६ जून १९८८ को भारतीय शल्य चिकित्सा जगत में एक चमत्कारी घटना घट चुकी थी। मृत देह से किडनी निकाल कर एक रोगणी को प्रत्यारोपित किया गया। कृष्णानगर के दीनेन्द्र चन्द्र मोदक हठात मस्तिष्क रक्त क्षरण के कारण मारे गए। उस समय उनकी पुत्री वन्दना किडनी खराब होने के कारण अस्वस्थ थीं। डॉ. एम.सी. शील एवं उनके सहयोगी डॉक्टरों ने तत्काल मृतक की किडनी का प्रत्यारोपण करने का निर्णय लिया मृतक की पत्नी लक्ष्मी देवी ने अनुमति दी। मृत पिता की किडनी पाकर वन्दना ने नया जीवन पाया। नवम्बर १९८९ में भारत की लोकसभा में अंग प्रत्यारोपण विषयक एक कानून की घोषणा हुई। वह कानून पारित हुआ जून १९९४ में दि ट्रान्सप्लाण्टेशन ऑफ ह्यूमन आरगन (एक्ट ४२)। देह दान जिसमे अंगदान भी शामिल है, भारत में अभी शैशवस्था में है। इस बारे में सामान्यतया अनिच्छा देखी जाती है। यहां तक कि कुछ मामलों में लोगों में विमुखता भी पायी जाती है। किसी भी डाक्टर द्वारा चाहे वह मृत्यु के बाद ही क्यों न हो, अपने शरीर का चीरफाड़ कराने का विचार लोगों को देहदान के प्रति अनिच्छुक बना देता है। अपने शरीर के किसी भी अंग के दान की मान्यता अभी भी है लेकिन मेडिकल शोध के लिए अपनी सम्पूर्ण देह का दान करने के लिए कम ही लोग सामने आते हैं। हालांकि हिन्दू, मुस्लिम सिख ईसाई धर्म कोई भी हो इस प्रकार के दान को न तो प्रतिबंधित करता है और न ही इसकी भर्त्सना करता है। दरअसल धर्म का मूल आधार ही त्याग है। जैसे हजारों साल पहले महर्षि दधीचि ने लोक कल्याण के लिए अपनी अस्थियों का दान कर दिया था। ठीक उसी तरह आपकी मौत के बाद आपका शरीर भी इस दुनिया के किसी काम आ सकता है, ये विचार काफी नहीं है देहदान को एक परंपरा का रूप देने के लिए। दुनिया में रोज मौतें होती है लेकिन उनकी याद किसी को नहीं रहती। मौत प्यारी देवी जैसी लोगों की भी होती है लेकिन उनकी चर्चा होती है। लोग श्रद्धा से उनका नाम लेते हैं। असम की राजधानी गुवाहाटी में तो देहदान करने वाली असम की पहली महिला एलोरा रॉय चौधारी की पुण्यतिथि पर खास कार्यक्रम आयोजित किए जाते हैं। उनसे लोग प्रेरणा लेते हैं। कुछ महीनों पहले ऐसे ही एक कार्यक्रम में 51 लोगों ने, जिनमें 25 महिलाएं शामिल थीं, अपनी ''अन्तिम इच्छा'' पर दस्तखत किए कि उनकी मृत्यु के बाद उनके शरीरों को चिकित्सकीय अनुसन्धान के लिए सौंप दिया जाए। कह सकते हैं कि मृत्यु के बाद अपना देहदान या नेत्रदान करने के लिए लोगों को प्रेरित करने में पिछले चार साल से लगे गुवाहाटी के इस 'एलोरा विज्ञान मंच' की मुहिम के लिए यह एक बड़ी कामयाबी थी। इस घोषणा के बाद उपरोक्त मंच के जरिये देहदान की घोषणा करने वालों की संख्या 219 तक जा पहुंची है। ये संख्या लगातार बढ़े इसकी मैं उम्मीद करता हूं क्योकि लोक कल्याण के लिए ये ज़रूरी है।
यह प्रक्रिया है देहदान की
देहदान का शपथ पत्र मेडिकल कॉलेज में निशुल्क उपलब्ध है। कानूनी उत्तराधिकारी का अनापत्ति प्रमाण पत्र दस रुपए के नॉन ज्यूडिशियल स्टॉम्प पर संभागीय दंडनायक से सत्यापित कराकर देहदान का शपथ पत्र फॉर्म के साथ संलग्न करके एक प्रति मेडिकल कॉलेज दूसरी संबंधित थाने और तीसरी स्वंय के पास रखनी होगी।
महानगर ऑनलाइन और हम समवेत नाम के ब्लाग से जानकारी लेकर ये लेख लिखा गया है।
शुक्रवार, 5 सितंबर 2008
कौन समझेगा इनका दर्द
05 सितम्बर 2008
इस तस्वीर को ज़रा गौर से देखिएगा। ये तस्वीर है उस बेबस और लाचार पत्नी की है जिसके पति ने बुधवार को खुदकुशी कर ली। अब आप कारण भी जानना चाहेंगे। दरअसल कालिका संतरा नाम की इस महिला के दो बेटे टाटा के सिंगूर स्थित उसी प्लांट में काम करते हैं जहां दुनिया की सबसे सस्ती कार बनाने का काम चल रहा था लेकिन इस परियोजना के विरोध में छेड़े गए आंदोलन के चलते जिस पर संकट के बादल मंडराने लगे। इस आंदोलन के बाद इस प्लांट में काम काज ठप हो गया और टाटा समूह के चैयरमैन रतन टाटा ने सिंगूर से इस प्लांट को कहीं औऱ स्थानांतरित करने का फैसला कर लिया। उनके इस फैसले के बाद कालिका के दोनों बेटों के बेरोजगार होने का खतरा पैदा हो गया और खतरे की इस आहट ने कालिका के पति सुशेन को वो कदम उठाने के लिए मजबूर कर दिया जो उसकी पत्नी ने सपने में भी नहीं सोचा था। सुशेन ने कीटनाशक पीकर अपनी जीवनलीला समाप्त कर ली। कालिका के बेटे की मानें तो उसके पिता किसी पर बोझ नहीं बनना चाहते थे और दोनों भाइयों की बेरोजोगारी के डर ने ही उनके पिता की जान ले ली। हालांकि सभी जानते हैं फिर भी बता दूं कि सिंगूर भूमि अधिग्रहण के ख़िलाफ़ तृणमूल कांग्रेस की प्रमुख ममता बनर्ज़ी 25 दिनों के अनशन पर बैठी थीं और प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के आश्वासन के बाद ही उन्होंने अनशन समाप्त किया था। ममता बनर्जी परियोजना के लिए उपजाऊ ज़मीन के अधिग्रहण का विरोध कर रही थीं। इस कारखाने के लिए साढ़े तीन हज़ार से भी अधिक किसानों की ज़मीन ली जा रही है और विरोध करने वालों का कहना है कि किसानों के विस्थापन की क़ीमत पर कारखाना नहीं लगने दिया जाएगा। इनका ये भी कहना है कि वे नहीं चाहते कि टाटा सिंगूर से जाएं। उनका कहना है कि जिस ज़मीन पर कारखाना बना है उसके लिए ज़मीन ज़बरदस्ती अधिग्रहीत की गई है। ये ज़मीन उनके मालिकों को वापस कर दी जाए। टाटा और तृणमूल कांग्रेस के बीच चल रहे इस अघोषित युद्ध ने ही जॉमाला गाँव के किसान सुशेन संतारा की जान ले ली। टाटा अपनी परियोजना लेकर कहीं और चले जायेंगे, जिसके बाद तृणमूल कांग्रेस इसे अपने संघर्ष की जीत बताकर चुनावी मौसम में वोटों की फसल काटेगा। नुकसान न टाटा को है और न ही तृणमूल कांग्रेस को। नुकसान तो है उन लोगों का जो इस प्लांट में मजदूरी करते हैं। जिनके घर का चूल्हा इस परियोजना के चलते ही जल रहा था। अगर इन्हें काम से निकाल दिया गया तो इनके भूखों मरने की नौबत आ जाएगी और अगर इन्हे निकाला नहीं भी गया तो किसी औऱ राज्य में परियोजना के लगने पर वहां जाकर काम करना भी इनके लिए आसान नहीं होगा। मेरा मानना है कि इस समस्या के समाधान को लेकर जो भी कदम उठाया जाए वो इस परियोजना से जुड़े हर शख्स के हित को ध्यान में रखकर उठाया जाए। वरना रहीं ऐसा न हो कि बेरोजगारी का डर दूसरे मजदूरों को भी सुशेन संतारा की राह चलने के लिए मजबूर कर दे।
इस तस्वीर को ज़रा गौर से देखिएगा। ये तस्वीर है उस बेबस और लाचार पत्नी की है जिसके पति ने बुधवार को खुदकुशी कर ली। अब आप कारण भी जानना चाहेंगे। दरअसल कालिका संतरा नाम की इस महिला के दो बेटे टाटा के सिंगूर स्थित उसी प्लांट में काम करते हैं जहां दुनिया की सबसे सस्ती कार बनाने का काम चल रहा था लेकिन इस परियोजना के विरोध में छेड़े गए आंदोलन के चलते जिस पर संकट के बादल मंडराने लगे। इस आंदोलन के बाद इस प्लांट में काम काज ठप हो गया और टाटा समूह के चैयरमैन रतन टाटा ने सिंगूर से इस प्लांट को कहीं औऱ स्थानांतरित करने का फैसला कर लिया। उनके इस फैसले के बाद कालिका के दोनों बेटों के बेरोजगार होने का खतरा पैदा हो गया और खतरे की इस आहट ने कालिका के पति सुशेन को वो कदम उठाने के लिए मजबूर कर दिया जो उसकी पत्नी ने सपने में भी नहीं सोचा था। सुशेन ने कीटनाशक पीकर अपनी जीवनलीला समाप्त कर ली। कालिका के बेटे की मानें तो उसके पिता किसी पर बोझ नहीं बनना चाहते थे और दोनों भाइयों की बेरोजोगारी के डर ने ही उनके पिता की जान ले ली। हालांकि सभी जानते हैं फिर भी बता दूं कि सिंगूर भूमि अधिग्रहण के ख़िलाफ़ तृणमूल कांग्रेस की प्रमुख ममता बनर्ज़ी 25 दिनों के अनशन पर बैठी थीं और प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के आश्वासन के बाद ही उन्होंने अनशन समाप्त किया था। ममता बनर्जी परियोजना के लिए उपजाऊ ज़मीन के अधिग्रहण का विरोध कर रही थीं। इस कारखाने के लिए साढ़े तीन हज़ार से भी अधिक किसानों की ज़मीन ली जा रही है और विरोध करने वालों का कहना है कि किसानों के विस्थापन की क़ीमत पर कारखाना नहीं लगने दिया जाएगा। इनका ये भी कहना है कि वे नहीं चाहते कि टाटा सिंगूर से जाएं। उनका कहना है कि जिस ज़मीन पर कारखाना बना है उसके लिए ज़मीन ज़बरदस्ती अधिग्रहीत की गई है। ये ज़मीन उनके मालिकों को वापस कर दी जाए। टाटा और तृणमूल कांग्रेस के बीच चल रहे इस अघोषित युद्ध ने ही जॉमाला गाँव के किसान सुशेन संतारा की जान ले ली। टाटा अपनी परियोजना लेकर कहीं और चले जायेंगे, जिसके बाद तृणमूल कांग्रेस इसे अपने संघर्ष की जीत बताकर चुनावी मौसम में वोटों की फसल काटेगा। नुकसान न टाटा को है और न ही तृणमूल कांग्रेस को। नुकसान तो है उन लोगों का जो इस प्लांट में मजदूरी करते हैं। जिनके घर का चूल्हा इस परियोजना के चलते ही जल रहा था। अगर इन्हें काम से निकाल दिया गया तो इनके भूखों मरने की नौबत आ जाएगी और अगर इन्हे निकाला नहीं भी गया तो किसी औऱ राज्य में परियोजना के लगने पर वहां जाकर काम करना भी इनके लिए आसान नहीं होगा। मेरा मानना है कि इस समस्या के समाधान को लेकर जो भी कदम उठाया जाए वो इस परियोजना से जुड़े हर शख्स के हित को ध्यान में रखकर उठाया जाए। वरना रहीं ऐसा न हो कि बेरोजगारी का डर दूसरे मजदूरों को भी सुशेन संतारा की राह चलने के लिए मजबूर कर दे।
गुरुवार, 4 सितंबर 2008
अब आगे क्या होगा...
04 सितम्बर 2008
कोसी का जल स्तर तेजी से घट रहा है। बाढ़ का पानी गांवों, सड़कों पुलों और रेल ट्रैकों से खिसकने लगा है। जो लोग अब तक अपना सब कुछ छोड़ छाड़कर जान बचाने की फिराक में भाग रहे थे उनके कदम ठिठकने लगे हैं। घर की याद सता रही है। लिहाजा अब लोग वापस लौटना चाहते हैं। अपने उजड़े खेत, जर्जर हो चुके मकान दोबारा देखना चाहते हैं। वो देखना चाहते हैं, बाढ़ का पानी खिसकने के बाद की वीरानी। उनकी आंखों में दर्द है, सीने में हलचल। वो दोबारा जिन्दगी को किस सिरे से शुरू करें और कैसे शुरू करें, ऐसे ही तमाम सवाल हैं जो उनके जेहन में कांटे की तरह चुभ रहे हैं। तमाम लोग अपनों से बिछड़ गए हैं और उन्हें खोजने की जद्दोजहद में लगे हैं। उधर बाढ़ में फंसे लोगों को बचाने वाली टीमें भी अब राहत की सांस ले रही हैं लेकिन हालात दूसरे खतरे का संकेत देने लगे हैं। जैसे जैसे बाढ़ का पानी खिसकेगा तरह तरह की बीमारियां अपने पैर पसारेंगी। दूर दराज और ग्रामीण इलाकों में स्वास्थ्य सेवाओं का हाल किसी से छिपा नहीं है। राहत शिविरों में तो लोगों का शरीर जवाब दे रहा है। कई दिनों तक लगातार भीगे रहने और खाने को कुछ न मिलने से बीमारियों को हमले का रास्ता मिल गया है। तन पर कपड़े के नाम पर चंद चीथड़े, सिर पर अंगौछा, सामान के नाम पर छोटी सी गठरी। ये है एक बाढ़ पीड़ित की तस्वीर जिसका कोसी नदी सब कुछ छीन चुकी है। ऐसी ही गठरियों के सहारे बिहार की एक बड़ी आबादी को मुश्किलों से जूझते हुए अपनी जिन्दगी की जंग लड़नी है। अब लोग बचाव नहीं राहत चाहते हैं। कोसी ने कई माओं की गोद सूनी कर दी है, तमाम बच्चों को अनाथ कर दिया है, सुहागिनों की मांग उजड़ गई है। राहत शिविरों में हालात बहुच अच्छे नहीं है। पुरुषों को अगर छोड़ दें तो शिविरों में हज़ारों महिलाएँ और दुधमुँहे बच्चे हैं जिनमें से कई ऐसे हैं जो बीमार हैं। कुछ बच्चे तो चंद दिन पहले ही पैदा हुए हैं। जीवन के लिए संघर्ष उनकी किस्मत बन चुका है। न खाने की अच्छी व्यवस्था है और न ही पहनने ओढ़ने की। खाने के नाम पर एक वक्त खिचड़ी मिल रही है वो भी ऐसी कि खाने के बाद बीमार होना तय है। बीबीसी के मुताबिक शरणार्थी तो ये तक कह रहे हैं कि जब ऐसा ही खाना देना था तो उन्हें पानी से ही क्यों निकाला। मर ही जाने देते। कम से कम अपने घर में तो मरते लेकिन सरकारी शिविरों में ये सब सुनने वाला कौन है।
बथनाहा शिविर में खाने के लिए लंबी लाइनें लगती हैं और लोगों को बस एक बार खाना मिल पा रहा है।
खाने की गुणवत्ता ठीक न होने से बाढ़ पीड़ितों में नाराजगी
इतना दर्द समेटकर जिन्दगी जीना बड़ा मुश्किल होता है लेकिन बावजूद इसके ये जंग लड़ी जाएगी। लोग फिर से उठ खड़े होंगे और जिन्दगी फिर पटरी पर लौटेगी लेकिन सवाल यही है कि ऐसा कब तक होता रहेगा। नेपाल सरकार ने भारत और भारत सरकार ने नेपाल को इस तबाही की जिम्मेदार बताना शुरू कर दिया है। इस भीषण त्रासदी के बीच भी राजनीति के मौके तलाशे जा रहे हैं। वक्त बीतने के साथ इसमें तेजी आएगी और पीड़ितों के दर्द भुला दिए जायेंगे। फिर ये दर्द याद तब आयेंगे जब चुनाव आयेंगे। फिर इसी दर्द को राजनीति का अखाड़ा बनया जाएगा और अपना सब कुछ गंवा चुके बिहार के इन बाढ़ पीड़ितों को उनका दर्द फिर सताएगा...उन्हें फिर याद आएगा कि कैसे लहरों के कहर ने उनसे उनका सब कुछ छीन लिया था। उनके ज़ख्म एक बार फिर हरे हो जायेंगे। जिसकी टीस केवल वही महसूस करेंगे उनके रहनुमाई की दावा करने वाले नहीं।
सभी फोटो साभार बीबीसी
कोसी का जल स्तर तेजी से घट रहा है। बाढ़ का पानी गांवों, सड़कों पुलों और रेल ट्रैकों से खिसकने लगा है। जो लोग अब तक अपना सब कुछ छोड़ छाड़कर जान बचाने की फिराक में भाग रहे थे उनके कदम ठिठकने लगे हैं। घर की याद सता रही है। लिहाजा अब लोग वापस लौटना चाहते हैं। अपने उजड़े खेत, जर्जर हो चुके मकान दोबारा देखना चाहते हैं। वो देखना चाहते हैं, बाढ़ का पानी खिसकने के बाद की वीरानी। उनकी आंखों में दर्द है, सीने में हलचल। वो दोबारा जिन्दगी को किस सिरे से शुरू करें और कैसे शुरू करें, ऐसे ही तमाम सवाल हैं जो उनके जेहन में कांटे की तरह चुभ रहे हैं। तमाम लोग अपनों से बिछड़ गए हैं और उन्हें खोजने की जद्दोजहद में लगे हैं। उधर बाढ़ में फंसे लोगों को बचाने वाली टीमें भी अब राहत की सांस ले रही हैं लेकिन हालात दूसरे खतरे का संकेत देने लगे हैं। जैसे जैसे बाढ़ का पानी खिसकेगा तरह तरह की बीमारियां अपने पैर पसारेंगी। दूर दराज और ग्रामीण इलाकों में स्वास्थ्य सेवाओं का हाल किसी से छिपा नहीं है। राहत शिविरों में तो लोगों का शरीर जवाब दे रहा है। कई दिनों तक लगातार भीगे रहने और खाने को कुछ न मिलने से बीमारियों को हमले का रास्ता मिल गया है। तन पर कपड़े के नाम पर चंद चीथड़े, सिर पर अंगौछा, सामान के नाम पर छोटी सी गठरी। ये है एक बाढ़ पीड़ित की तस्वीर जिसका कोसी नदी सब कुछ छीन चुकी है। ऐसी ही गठरियों के सहारे बिहार की एक बड़ी आबादी को मुश्किलों से जूझते हुए अपनी जिन्दगी की जंग लड़नी है। अब लोग बचाव नहीं राहत चाहते हैं। कोसी ने कई माओं की गोद सूनी कर दी है, तमाम बच्चों को अनाथ कर दिया है, सुहागिनों की मांग उजड़ गई है। राहत शिविरों में हालात बहुच अच्छे नहीं है। पुरुषों को अगर छोड़ दें तो शिविरों में हज़ारों महिलाएँ और दुधमुँहे बच्चे हैं जिनमें से कई ऐसे हैं जो बीमार हैं। कुछ बच्चे तो चंद दिन पहले ही पैदा हुए हैं। जीवन के लिए संघर्ष उनकी किस्मत बन चुका है। न खाने की अच्छी व्यवस्था है और न ही पहनने ओढ़ने की। खाने के नाम पर एक वक्त खिचड़ी मिल रही है वो भी ऐसी कि खाने के बाद बीमार होना तय है। बीबीसी के मुताबिक शरणार्थी तो ये तक कह रहे हैं कि जब ऐसा ही खाना देना था तो उन्हें पानी से ही क्यों निकाला। मर ही जाने देते। कम से कम अपने घर में तो मरते लेकिन सरकारी शिविरों में ये सब सुनने वाला कौन है।
बथनाहा शिविर में खाने के लिए लंबी लाइनें लगती हैं और लोगों को बस एक बार खाना मिल पा रहा है।
खाने की गुणवत्ता ठीक न होने से बाढ़ पीड़ितों में नाराजगी
इतना दर्द समेटकर जिन्दगी जीना बड़ा मुश्किल होता है लेकिन बावजूद इसके ये जंग लड़ी जाएगी। लोग फिर से उठ खड़े होंगे और जिन्दगी फिर पटरी पर लौटेगी लेकिन सवाल यही है कि ऐसा कब तक होता रहेगा। नेपाल सरकार ने भारत और भारत सरकार ने नेपाल को इस तबाही की जिम्मेदार बताना शुरू कर दिया है। इस भीषण त्रासदी के बीच भी राजनीति के मौके तलाशे जा रहे हैं। वक्त बीतने के साथ इसमें तेजी आएगी और पीड़ितों के दर्द भुला दिए जायेंगे। फिर ये दर्द याद तब आयेंगे जब चुनाव आयेंगे। फिर इसी दर्द को राजनीति का अखाड़ा बनया जाएगा और अपना सब कुछ गंवा चुके बिहार के इन बाढ़ पीड़ितों को उनका दर्द फिर सताएगा...उन्हें फिर याद आएगा कि कैसे लहरों के कहर ने उनसे उनका सब कुछ छीन लिया था। उनके ज़ख्म एक बार फिर हरे हो जायेंगे। जिसकी टीस केवल वही महसूस करेंगे उनके रहनुमाई की दावा करने वाले नहीं।
सभी फोटो साभार बीबीसी
बुधवार, 3 सितंबर 2008
बिलखता बिहार...जिम्मेदार कौन
03 सितम्बर 2008
कल शाम घऱ पर बैठा बिहार में आई बाढ़ के चलते पैदा हुए हालातों के बारे में सोच रहा था। ताजा स्थिति जानने के लिए टेलीविजन का रिमोट हाथ में लिया और चैनल सर्च करने लगा। आईबीएन-7 पर जाकर हाथ ठिठक गया। जिंदगी की रेल नाम से एक प्रोग्राम चल रहा था। सार ये था कि किस तरह से कोसी के प्रलय से बचने के लिए लोग भेड़ बकरियों की तरह ट्रेन में ठुंसे भाग रहे हैं। क्या ट्रेन की छत और क्या डिब्बे,क्या इंजन और क्या दरवाजे सभी जगह जान हथेली पर लिए लोग भाग निकलना चाहते हैं। कोसी के आगोश से दूर...किसी सुरक्षित जगह...जहां जिन्दगी के बारे में सोच सकें। सोच सकें कि अब आगे क्या...प्रोग्राम देखकर आंखे भर आईं। दिल में हाहाकार मच गया। लगातार विकास की नई गाथा लिखने को तैयार हिन्दुस्तान के गांवों की...गरीबों की...लाचारों की असल तस्वीर देख मन विचलित हो गया। भ्रष्ट सरकारी तंत्र, सुस्त कार्यशैली और अदूरदर्शिता ने आज बिहार को शोक संतप्त होने के लिए मजबूर कर दिया है। अधिकारियों का कहना है कि सेना की 20 कंपनियाँ, 11 हेलिकॉप्टरों और 1300 नौकाओं के माध्यम से बाढ़ प्रभावितों को बचाने और राहत शिविरों तक पहुँचाने के अभियान में जुटी हुई हैं लेकिन सरकारी दावे से अलग प्रभावित इलाक़ों से ख़बरें आ रही हैं कि लाखों बाढ़ पीड़ित अब भी राहत का इंतज़ार कर रहे हैं और राहत कार्य में व्यवस्था की बेहद कमी है। इस बीच बिहार में बाढ़ राहत के कार्य में जुटी संस्थाओं में से एक – ऐक्शन एड – का कहना है कि बाढ़ में मारे गए लोगों की संख्या 2000 के आस-पास हो सकती है, सरकारी आंकड़ों के मुताबिक़ मरने वालों की संख्या अब भी 100 से कम है। पंद्रह दिनों से एक ही कपड़ा पहनकर बिलख रहे लोग अपने रिश्तेदारों की मौत का मातम मना रहे हैं लेकिन उनकी मौत किसी सरकारी आंकड़े में दर्ज नहीं है। बात करें कारण की कि आखिर ये हालात पैदा क्यों हुए तो भारत सरकार की अदूरदर्शिता भी उजागर होती है।
यहां बीबीसी हिन्दी पर आए एक लेख का जिक्र करना चाहूंगा...
कहा जा रहा है कि कि कोसी नदी ने धारा बदल ली इसलिए बिहार में प्रलयंकारी बाढ़ कि स्थिति पैदा हुई है। ये बात बिल्कुल बेबुनियाद है। हमे याद रखना चाहिए कि नदी ने ख़ुद धारा नहीं बदली बल्कि प्राकृतिक धारा को रोक कर बनाए गए बराज या तटबंध के टूटने के कारण ये स्थिति पैदा हुई है। ब्रिटिश हुकूमत सौ वर्षों तक इस बात पर विचार करती रही कि बिहार का शोक कही जाने वाली इस नदी की धारा को नियंत्रित करने के लिए बराज बनाया जाए या नहीं। ब्रितानी सरकार ने तटबंध नहीं बनाने का फ़ैसला इस बिना पर किया कि तटबंध टूटने से जो क्षति होगी उसकी भरपाई करना ज़्यादा मुश्किल साबित होगा लेकिन आज़ादी के बाद भारत सरकार ने नेपाल के साथ समझौता कर 1954 में बराज बनाने का फ़ैसला कर लिया। उस समय पचास के दशक के शुरुआती वर्षों में इस तटबंध के ख़िलाफ़ स्थानीय लोगों ने विरोध प्रदर्शन तक किए थे। आज भी विशेषज्ञों का एक तबका ये मानता है कि कोसी की धारा के साथ कृत्रिम छेड़छाड़ इस तरह की भयानक स्थिति के लिए ज़िम्मेदार है। तटबंध बनाकर नदी की धारा को नियंत्रित दिशा दी गई। अब जब अतिरिक्त पानी के दबाव में तटबंध का जो हिस्सा टूटेगा उसी से होकर नदी बहेगी जो बिल्कुल स्वाभाविक है। इसलिए ये कहना बिल्कुल ग़लत है कि नदी ने ख़ुद धारा बदली। जब बांध बनाया गया तो पिछले सौ वर्षों के इतिहास को ध्यान में रखा गया और पानी का औसत बहाव मापने की कोशिश की गई। इस हिसाब से ये कहा गया कि तटबंध साढ़े नौ लाख घन फुट प्रति सेकेंड (क्यूसेक) पानी के बहाव को बर्दाश्त कर सकता है। ये भी बताया गया कि बांध की आयु 25 वर्ष है जो बिल्कुल अवैज्ञानिक तथ्यों पर आधारित है। हम पिछले इतिहास के आधार पर भविष्य की गणना नहीं कर सकते। कौन जानता है कि बांध बनने के अगले ही साल सबसे ज़्यादा पानी का दबाव उसे झेलना पड़े। ख़ैर इस वर्ष तो हद हो गई क्योंकि जब 18 अगस्त को बांध टूटा तो पानी का बहाव महज एक लाख 44 हज़ार क्यूसेक था। कोसी पर बना तटबंध सात बार टूट चुका है और बाढ़ से तबाही पहले भी हुई है। वर्ष 1968 में तटबंध पाँच जगहों से टूटा था और उस समय पानी का बहाव नौ लाख 13 हज़ार क्यूसेक मापा गया था। हालाँकि पहली बार 1963 में ही तटबंध टूट गया था। वर्ष 1968 में कोसी तटबंध बिहार के जमालपुर में टूटा था और सहरसा, खगड़िया और समस्तीपुर में भारी नुकसान हुआ था। नेपाल में यह तटबंध 1963 में डलबा, 1991 में जोगनिया और इस वर्ष कुसहा में टूट चुका है। बांध टूटने का एक बड़ा कारण कोसी नदी की तलहटी में तेज़ी से गाद का जमना भी है। इसके कारण जलस्तर बढ़ता है और तटबंध पर दबाव पड़ता है। इस बार कोसी ने जो कहर बरपाया है उससे बिहार का नक्शा बदलने का खतरा पैदा हो गया है। बिहार में बाढ़ का क़हर बरपा रही कोसी नदी का जलस्तर कहीं-कहीं कुछ कम हुआ है लेकिन उसका नए-नए इलाक़ों में प्रवेश जारी है। जहाँ दो दिनों पहले पानी नहीं था वहाँ अब पानी भर आया है और लोग वहाँ से सुरक्षित स्थानों की तलाश में विस्थापित हो रहे हैं। 18 अगस्त को कोसी नदी के तटबंध टूटने से आई इस बाढ़ से बिहार के 16 ज़िले प्रभावित हैं लेकिन कोसी इलाक़े के चार ज़िलों सुपौल, सहरसा, अररिया और मधेपुरा में इसकी स्थिति ख़ासी गंभीर है। बाढ़ पीड़ित 33 लाख लोगों में से 22 लाख तो कोसी इलाक़ों के चार ज़िलों से ही हैं। भूख से बिलबिलाते लोगों को अब बीमारियों का डर भी सता रहा है। जैसे जैसे बाढ़ का पानी उतरेगा बीमारियों का कहर शुरू होगा, जो न सिर्फ बाढ़ पीड़ितों के लिए बल्कि प्रशासन के लिए भी किसी चुनौती से कम नहीं होगा।
नेपाल में कुसहा बांध की यही वो जगह है जहां से कोसी ने बांध को तोड़ा है और यहीं से बिहार में पानी घुसा है।
सभी फोटो साभार बीबीसी
कल शाम घऱ पर बैठा बिहार में आई बाढ़ के चलते पैदा हुए हालातों के बारे में सोच रहा था। ताजा स्थिति जानने के लिए टेलीविजन का रिमोट हाथ में लिया और चैनल सर्च करने लगा। आईबीएन-7 पर जाकर हाथ ठिठक गया। जिंदगी की रेल नाम से एक प्रोग्राम चल रहा था। सार ये था कि किस तरह से कोसी के प्रलय से बचने के लिए लोग भेड़ बकरियों की तरह ट्रेन में ठुंसे भाग रहे हैं। क्या ट्रेन की छत और क्या डिब्बे,क्या इंजन और क्या दरवाजे सभी जगह जान हथेली पर लिए लोग भाग निकलना चाहते हैं। कोसी के आगोश से दूर...किसी सुरक्षित जगह...जहां जिन्दगी के बारे में सोच सकें। सोच सकें कि अब आगे क्या...प्रोग्राम देखकर आंखे भर आईं। दिल में हाहाकार मच गया। लगातार विकास की नई गाथा लिखने को तैयार हिन्दुस्तान के गांवों की...गरीबों की...लाचारों की असल तस्वीर देख मन विचलित हो गया। भ्रष्ट सरकारी तंत्र, सुस्त कार्यशैली और अदूरदर्शिता ने आज बिहार को शोक संतप्त होने के लिए मजबूर कर दिया है। अधिकारियों का कहना है कि सेना की 20 कंपनियाँ, 11 हेलिकॉप्टरों और 1300 नौकाओं के माध्यम से बाढ़ प्रभावितों को बचाने और राहत शिविरों तक पहुँचाने के अभियान में जुटी हुई हैं लेकिन सरकारी दावे से अलग प्रभावित इलाक़ों से ख़बरें आ रही हैं कि लाखों बाढ़ पीड़ित अब भी राहत का इंतज़ार कर रहे हैं और राहत कार्य में व्यवस्था की बेहद कमी है। इस बीच बिहार में बाढ़ राहत के कार्य में जुटी संस्थाओं में से एक – ऐक्शन एड – का कहना है कि बाढ़ में मारे गए लोगों की संख्या 2000 के आस-पास हो सकती है, सरकारी आंकड़ों के मुताबिक़ मरने वालों की संख्या अब भी 100 से कम है। पंद्रह दिनों से एक ही कपड़ा पहनकर बिलख रहे लोग अपने रिश्तेदारों की मौत का मातम मना रहे हैं लेकिन उनकी मौत किसी सरकारी आंकड़े में दर्ज नहीं है। बात करें कारण की कि आखिर ये हालात पैदा क्यों हुए तो भारत सरकार की अदूरदर्शिता भी उजागर होती है।
यहां बीबीसी हिन्दी पर आए एक लेख का जिक्र करना चाहूंगा...
कहा जा रहा है कि कि कोसी नदी ने धारा बदल ली इसलिए बिहार में प्रलयंकारी बाढ़ कि स्थिति पैदा हुई है। ये बात बिल्कुल बेबुनियाद है। हमे याद रखना चाहिए कि नदी ने ख़ुद धारा नहीं बदली बल्कि प्राकृतिक धारा को रोक कर बनाए गए बराज या तटबंध के टूटने के कारण ये स्थिति पैदा हुई है। ब्रिटिश हुकूमत सौ वर्षों तक इस बात पर विचार करती रही कि बिहार का शोक कही जाने वाली इस नदी की धारा को नियंत्रित करने के लिए बराज बनाया जाए या नहीं। ब्रितानी सरकार ने तटबंध नहीं बनाने का फ़ैसला इस बिना पर किया कि तटबंध टूटने से जो क्षति होगी उसकी भरपाई करना ज़्यादा मुश्किल साबित होगा लेकिन आज़ादी के बाद भारत सरकार ने नेपाल के साथ समझौता कर 1954 में बराज बनाने का फ़ैसला कर लिया। उस समय पचास के दशक के शुरुआती वर्षों में इस तटबंध के ख़िलाफ़ स्थानीय लोगों ने विरोध प्रदर्शन तक किए थे। आज भी विशेषज्ञों का एक तबका ये मानता है कि कोसी की धारा के साथ कृत्रिम छेड़छाड़ इस तरह की भयानक स्थिति के लिए ज़िम्मेदार है। तटबंध बनाकर नदी की धारा को नियंत्रित दिशा दी गई। अब जब अतिरिक्त पानी के दबाव में तटबंध का जो हिस्सा टूटेगा उसी से होकर नदी बहेगी जो बिल्कुल स्वाभाविक है। इसलिए ये कहना बिल्कुल ग़लत है कि नदी ने ख़ुद धारा बदली। जब बांध बनाया गया तो पिछले सौ वर्षों के इतिहास को ध्यान में रखा गया और पानी का औसत बहाव मापने की कोशिश की गई। इस हिसाब से ये कहा गया कि तटबंध साढ़े नौ लाख घन फुट प्रति सेकेंड (क्यूसेक) पानी के बहाव को बर्दाश्त कर सकता है। ये भी बताया गया कि बांध की आयु 25 वर्ष है जो बिल्कुल अवैज्ञानिक तथ्यों पर आधारित है। हम पिछले इतिहास के आधार पर भविष्य की गणना नहीं कर सकते। कौन जानता है कि बांध बनने के अगले ही साल सबसे ज़्यादा पानी का दबाव उसे झेलना पड़े। ख़ैर इस वर्ष तो हद हो गई क्योंकि जब 18 अगस्त को बांध टूटा तो पानी का बहाव महज एक लाख 44 हज़ार क्यूसेक था। कोसी पर बना तटबंध सात बार टूट चुका है और बाढ़ से तबाही पहले भी हुई है। वर्ष 1968 में तटबंध पाँच जगहों से टूटा था और उस समय पानी का बहाव नौ लाख 13 हज़ार क्यूसेक मापा गया था। हालाँकि पहली बार 1963 में ही तटबंध टूट गया था। वर्ष 1968 में कोसी तटबंध बिहार के जमालपुर में टूटा था और सहरसा, खगड़िया और समस्तीपुर में भारी नुकसान हुआ था। नेपाल में यह तटबंध 1963 में डलबा, 1991 में जोगनिया और इस वर्ष कुसहा में टूट चुका है। बांध टूटने का एक बड़ा कारण कोसी नदी की तलहटी में तेज़ी से गाद का जमना भी है। इसके कारण जलस्तर बढ़ता है और तटबंध पर दबाव पड़ता है। इस बार कोसी ने जो कहर बरपाया है उससे बिहार का नक्शा बदलने का खतरा पैदा हो गया है। बिहार में बाढ़ का क़हर बरपा रही कोसी नदी का जलस्तर कहीं-कहीं कुछ कम हुआ है लेकिन उसका नए-नए इलाक़ों में प्रवेश जारी है। जहाँ दो दिनों पहले पानी नहीं था वहाँ अब पानी भर आया है और लोग वहाँ से सुरक्षित स्थानों की तलाश में विस्थापित हो रहे हैं। 18 अगस्त को कोसी नदी के तटबंध टूटने से आई इस बाढ़ से बिहार के 16 ज़िले प्रभावित हैं लेकिन कोसी इलाक़े के चार ज़िलों सुपौल, सहरसा, अररिया और मधेपुरा में इसकी स्थिति ख़ासी गंभीर है। बाढ़ पीड़ित 33 लाख लोगों में से 22 लाख तो कोसी इलाक़ों के चार ज़िलों से ही हैं। भूख से बिलबिलाते लोगों को अब बीमारियों का डर भी सता रहा है। जैसे जैसे बाढ़ का पानी उतरेगा बीमारियों का कहर शुरू होगा, जो न सिर्फ बाढ़ पीड़ितों के लिए बल्कि प्रशासन के लिए भी किसी चुनौती से कम नहीं होगा।
नेपाल में कुसहा बांध की यही वो जगह है जहां से कोसी ने बांध को तोड़ा है और यहीं से बिहार में पानी घुसा है।
सभी फोटो साभार बीबीसी
शुक्रवार, 29 अगस्त 2008
कोसी की विनाशलीला
30 अगस्त 2008
बिहार राज्य के पंद्रह जिले कोसी के कहर से कराह रहे हैं। 25 लाख से अधिक की आबादी के सामने जिंदगी बचाने, रहने और खाने-पीने का संकट मुंह बाए खड़ा है। खेत, गांव, घर सब कुछ बह गया है और साथ ही बह गए हैं बाढ़ के कहर से जूझती इस आबादी के सारे सपने। कोसी नदी ने अपनी धारा क्या बदली लोगों की जिंदगी ही बदल गई। चारों तरफ जल ही जल, पानी में डूबी सड़कें, रेल की पटरियां घऱ और फसलें सब कुछ कोसी की लहरों के हवाले। सुरक्षित जगह की तलाश में इधर से उधर दौड़ते भागते लोग। कोई अपने जानवरों को हाँक कर ले जा रहा है तो कोई अपने बच्चों को साइकिल पर बैठाए हुए भाग रहा है तो कोई अपने जीवन भर की बची हुई कमाई बैलगाड़ी पर लादे भाग रहा है। ऐसे लोगों की संख्या एक-दो या सौ-पचास नहीं बल्कि हज़ारों में है। ये लोग भाग तो रहे हैं पर उन्हें यह नहीं पता था कि जाना कहाँ है। न खाने का ठिकाना है और न सिर पर छत....बाढ़ सब कुछ लील चुकी है। लोगों की आँखों में पानी के ख़ौफ़ को साफ़ देखा जा सकता है लेकिन उनके सामने यह सवाल अब भी खड़ा है कि पानी से भागकर जाएँ तो जाएँ कहाँ। तबाही का ये मंजर इसलिए भयावह है क्योंकि करीब 54 साल बाद कोसी नदी ने इस साल अपने प्रवाह का रास्ता बदला है। वो भी कोई सौ किलोमीटर। नदियों के बहाव का रास्ता बदलना किसी कयामत से कम नहीं होता। इसका सीधा मतलब यह है कि 100 किलोमीटर के पूरे इलाके का जलमग्न हो जाना। उपर से कोसी 13 किलोमीटर की चौड़ाई में अपने पूरे प्रवाह के साथ बह रही है। यानी करीब 69,300 वर्ग किलोमीटर का वो इलाका जहां 12 दिन पहले जिंदगी का कोलाहल था, पानी की तेज रफ्तार वाली कल-कल से वहां मातमी सन्नाटा चीखने लगा है। बिहार में इस वक्त दहशत की दहलीज पर खड़े लोगों द्वारा जिंदगी बचाने की जद्दोजहद का नजारा किसी की भी आंखों में पानी ला सकता है। पिछले साल भी कोसी में सामान्य बाढ़ की स्थिति में राज्य के 500 लोगों की जानें गईं थीं और करीब 1500 करोड़ रुपये की संपत्ति का नुकसान हुआ था लेकिन इस बार नुकसान के कई गुणा ज्यादा होने की आशंका है। विडंबना यह है हर साल कोसी अपने साथ करोड़ों की संपत्ति का बहा ले जाती रही है लेकिन राज्य और केंद्र दोनों की सरकारें इसे प्राकृतिक आपदा मानकर हाथ पर हाथ धरे बैठी रहती हैं। जानकारों का मानना है कि अगर नेपाल की सीमा पर कोसी नदी के तट पर सही ढंग से बांध बना लिया जाए तो कोसी के कहर पर काबू पाया जा सकता है लेकिन भारत- नेपाल के साथ 58 साल के शांतिपूर्ण रिश्ते में इसके लिए किसी तरह की पहल देखने को नहीं मिली।
आइए तस्वीरों के माध्यम से देखते हैं...कैसे कोसी का कहर लोगों की जिंदगी पर भारी पड़ रहा है....
सभी फोटो साभार अमर उजाला
बिहार राज्य के पंद्रह जिले कोसी के कहर से कराह रहे हैं। 25 लाख से अधिक की आबादी के सामने जिंदगी बचाने, रहने और खाने-पीने का संकट मुंह बाए खड़ा है। खेत, गांव, घर सब कुछ बह गया है और साथ ही बह गए हैं बाढ़ के कहर से जूझती इस आबादी के सारे सपने। कोसी नदी ने अपनी धारा क्या बदली लोगों की जिंदगी ही बदल गई। चारों तरफ जल ही जल, पानी में डूबी सड़कें, रेल की पटरियां घऱ और फसलें सब कुछ कोसी की लहरों के हवाले। सुरक्षित जगह की तलाश में इधर से उधर दौड़ते भागते लोग। कोई अपने जानवरों को हाँक कर ले जा रहा है तो कोई अपने बच्चों को साइकिल पर बैठाए हुए भाग रहा है तो कोई अपने जीवन भर की बची हुई कमाई बैलगाड़ी पर लादे भाग रहा है। ऐसे लोगों की संख्या एक-दो या सौ-पचास नहीं बल्कि हज़ारों में है। ये लोग भाग तो रहे हैं पर उन्हें यह नहीं पता था कि जाना कहाँ है। न खाने का ठिकाना है और न सिर पर छत....बाढ़ सब कुछ लील चुकी है। लोगों की आँखों में पानी के ख़ौफ़ को साफ़ देखा जा सकता है लेकिन उनके सामने यह सवाल अब भी खड़ा है कि पानी से भागकर जाएँ तो जाएँ कहाँ। तबाही का ये मंजर इसलिए भयावह है क्योंकि करीब 54 साल बाद कोसी नदी ने इस साल अपने प्रवाह का रास्ता बदला है। वो भी कोई सौ किलोमीटर। नदियों के बहाव का रास्ता बदलना किसी कयामत से कम नहीं होता। इसका सीधा मतलब यह है कि 100 किलोमीटर के पूरे इलाके का जलमग्न हो जाना। उपर से कोसी 13 किलोमीटर की चौड़ाई में अपने पूरे प्रवाह के साथ बह रही है। यानी करीब 69,300 वर्ग किलोमीटर का वो इलाका जहां 12 दिन पहले जिंदगी का कोलाहल था, पानी की तेज रफ्तार वाली कल-कल से वहां मातमी सन्नाटा चीखने लगा है। बिहार में इस वक्त दहशत की दहलीज पर खड़े लोगों द्वारा जिंदगी बचाने की जद्दोजहद का नजारा किसी की भी आंखों में पानी ला सकता है। पिछले साल भी कोसी में सामान्य बाढ़ की स्थिति में राज्य के 500 लोगों की जानें गईं थीं और करीब 1500 करोड़ रुपये की संपत्ति का नुकसान हुआ था लेकिन इस बार नुकसान के कई गुणा ज्यादा होने की आशंका है। विडंबना यह है हर साल कोसी अपने साथ करोड़ों की संपत्ति का बहा ले जाती रही है लेकिन राज्य और केंद्र दोनों की सरकारें इसे प्राकृतिक आपदा मानकर हाथ पर हाथ धरे बैठी रहती हैं। जानकारों का मानना है कि अगर नेपाल की सीमा पर कोसी नदी के तट पर सही ढंग से बांध बना लिया जाए तो कोसी के कहर पर काबू पाया जा सकता है लेकिन भारत- नेपाल के साथ 58 साल के शांतिपूर्ण रिश्ते में इसके लिए किसी तरह की पहल देखने को नहीं मिली।
आइए तस्वीरों के माध्यम से देखते हैं...कैसे कोसी का कहर लोगों की जिंदगी पर भारी पड़ रहा है....
सभी फोटो साभार अमर उजाला
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