सोमवार, 22 सितंबर 2008

मज़हब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना...

24 सितम्बर 2008
कर्नाटक और उड़ीसा के बाद दिल्ली में चर्च को निशाना बनाया गया। एक बार फिर धर्म के नाम पर इंसानियत का खून बहाने का दौर सा चल पड़ा है। 1949 से शुरू हुई अयोध्या के विवादित परिसर की लड़ाई आज भी अदालतों में जारी है। लोगों की भावनाओं पर चोट कर सियासत करना जैसे सियासतदां का शगल होता जा रहा है। मन्दिर-मस्जिद-गुरूद्वारे और चर्च की लड़ाई लड़कर जाने कौन सा भारत बनाना चाहते हैं हमारे रहनुमा। जाति धर्म और मजहब की दीवार खड़ी कर भाई से भाई को लड़ाने का इतिहास लगातार दोहराया जा रहा है। नफरत की इस सियासत को खत्म करने के लिए कई बार कोशिशें हुई हैं लेकिन हालात बदलते नजर नहीं आते। हम और आप नहीं चाहते कि धर्म के नाम पर इंसानी जिंदगियां कुर्बान की जाएं लेकिन सियासत की गाड़ी नफरत के पेट्रोल से ही चलती है। आज समाज में लाखों ऐसी समस्यायें हैं जिन्हें मुद्दा बनाकर एक साफ सुथरी राजनीति की जा सकती है लेकिन उनसे सरोकार रखना मानो जनप्रतिनिधियों ने सीखा ही नहीं हैं। महाराष्ट्र में तो हद ही हो गई है। भाषा के नाम पर लोगों को ज़लील किया जा रहा है, उनके साथ मारपीट की जा रही है। भारत की लोकतांत्रिक व्यवस्था को सीधे सीधे कुछ लोग चुनौती देने की कोशिश कर रहे हैं और हम भी किसी न किसी रूप में उस चुनौती का एक हिस्सा बने हुए हैं। आखिर क्यों हम भूल जाते हैं कि धर्म, मजहब और भाषा से पहले इंसान आता है। मानवता आती है। क्यों हम उन मौकापरस्त लोगों की उन बातों को सिर माथे ले लेते हैं जो भाई को भाई से बांटने का काम करती हैं। क्यों हम उनकी नफरत की सियासत का हिस्सा बन जाते हैं। हमें आज सीख लेने की ज़रूरत है, मुजफ्फरनगर के कांधला इलाके के उन लोगों से जो धर्म और मजहब की इस लड़ाई से परे हैं।

लेख का नीचे का हिस्सा जागरण अखबार के इंटरनेट संस्करण से लिया गया है।
जहां दीवार बांटती है पर दीवार जोड़ती भी है। यहां प्रेम की एक साझी दीवार मंदिर-मस्जिद को जोड़ती है। इस दीवार से जुड़ी खुदा की इबादतगाह में मोमिन सजदा करते हैं, तो लक्ष्मी नारायण मंदिर में लोग शीश नवाते हैं। लाखों हिंदू और मुसलमानों की भक्ति और अकीदत इस एक दीवार के सहारे खड़ी है। एक तरफ पूजा के दौर चलते हैं तो दूसरी तरफ पांच वक्त की नमाज। अपने वक्त पर मोअज्जन अजान देते हैं और घंटे-घडि़याल के साथ आरती भी अपने समय पर होती है। किसी को किसी से शिकवा नहीं। मंदिर-मस्जिद के भक्तों, अकीदतमंदों को देखकर लगता है कि शायर की ये पंक्तियां फिजां में तैर रही हैं...

जो उनका काम है, वो अहले सियासत जानें
मेरा पैगाम मोहब्बत है जहां तक पहुंचे


कहते हैं कि मोहम्मद तुगलक 1392 में शिकार खेलने के लिए कांधला आए थे। उनके लिए जुमे की नमाज के वास्ते नगर के सबसे ऊंचे स्थान पर मस्जिद बनवा दी गई। कस्बे के पुराने लोग बताते हैं कि सन 1900 के आसपास मस्जिद के बराबर में खाली पड़ी जमीन पर मंदिर के लिए निर्माण कार्य शुरू कराया गया तो दोनों वर्गो में वैचारिक मतभेद हो गए। कहते हैं यह जमीन मंदिर के लिए ही छोड़ी गई थी। बाद में दोनों समुदाय के लोग एकत्र हुए और फैसला हुआ कि जमीन मंदिर की ही है। 1950 के दशक में यहां पर लक्ष्मी नारायण मंदिर का निर्माण हुआ पर मंदिर और मस्जिद की एक ही दीवार रखी गई। यह सांप्रदायिक कलह का कारण बन सकता था, अगर सियासत की हवा बह जाती लेकिन मजहब आपस में बैर करना नहीं सिखाता। शायद यही वजह है कि कई दशक बीत जाने के बावजूद यहां दोनों समुदाय के लोगों में आज तक किसी भी प्रकार की कड़वाहट नहीं उभरी है। यहां तब भी सौहार्द की खुशनुमा बयार बहती रही, जब पूरे देश में सांप्रदायिकता की स्याह आंधी चल रही थी। हर समुदाय के लोगों के लिए यह सौहार्द एक नजीर है। किसी शायर ने ठीक ही कहा है।
सियासत को लहू पीने की लत है, वर्ना मुल्क में सब खैरियत है ...

क्या हम सांप्रदायिक सौहार्द की इस मिसाल से कुछ सीख सकते हैं। शायद हां...और हमें सीख लेनी ही होगी। वरना वो दिन दूर नहीं जब दुनिया को मानवता और भाईचारे की सीख देने वाले हमारे देश से ही इनका नामोनिशान मिट जाएगा।

2 टिप्‍पणियां:

फ़िरदौस ख़ान ने कहा…

अच्छा आलेख है...मुबारकबाद...
हमारे ब्लॉग का लिंक देने के लिए शुक्रिया...

Udan Tashtari ने कहा…

अच्छा आलेख..

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